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राष्ट्रीय अखण्डता - एकता
अखण्डता एवं एकता, मानव अस्तित्व का मूलाधार है । मानव चाहे, व्यक्ति के रूप में हो, चाहे परिवार, समाज एवं राष्ट्र के रूप में हो, सर्वत्र अखण्डता एवं एकता अपेक्षित है । हमारा शरीर विभिन्न अंग-प्रत्यंगों से मिलकर एक अखण्ड इकाई के रूप में उपस्थित है । हाथ, पैर, वक्ष, मस्तक आदि आकृति एवं कार्य कर्तृत्व आदि के रूप में भले ही विभिन्न प्रतीत होते हों, किन्तु सबका परस्पर में संयुक्त रूप ही एक शरीर है । यदि ये सब अंग छिन्न-भिन्न होकर इधर-उधर बिखर जाएँ, तो फिर न तो इन निष्प्राण अंगों का कोई अर्थ रहता है और न शरीर का ही ।
पुष्प-माला के सैकड़ों ही पुष्प आकृति, रंग एवं गंध आदि के रूप में विभिन्न होकर भी माला के रूप में यदि परस्पर संयुक्त हैं, तो कितनी अद्भुत शोभा है उनकी और वे माला के रूप में किसी आराध्य देवता तथा किसी मान्य महापुरुष के सुकण्ठ में कितने अधिक शोभायमान एवं आदरास्पद होते हैं । यदि ये सब पुष्प माला से बिखर कर इधर-उधर भूमि पर गिर जाएँ, तो धूल में मिल जाने के सिवा इनका और क्या भविष्य रहता है ? और, उधर माला भी माला के रूप में अपना क्या मूल्य रख पाती ?
उपर्युक्त उदाहरणों के रूप में हम परिवार, समाज एवं राष्ट्र के रूप में संयुक्त मानवीय इकाइयों के अस्तित्व को भी देख सकते हैं |
मैं यहाँ प्रसंगत: राष्ट्र की इकाई की चर्चा कर रहा हूँ | राष्ट्र मानव की विभिन्न इकाइयों का एक विराट एवं विशाल रूप है । यह मानवीय चेतना का भूमा रूप है | वस्तुत: भूमा में ही अमृत तत्त्व रहता है | भूमा से ज्यों ही मानवीय चेतना हटकर क्षुद्र इकाइयों के रूप में बिखरती है, वह अमृत-तत्त्व से मृत्यु के भीषण गर्त की ओर लुढ़कती चली जाती है | क्षुद्रता एक प्रकार से मृत्यु का ही रूप है ।
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