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२६. आहरण निपुण : आहरण का अर्थ उदाहरण अर्थात् दृष्टान्त है । आचार्य जिनदास ने दशवैकालिक चूर्णि में आहरण की व्युत्पत्ति की है- 'आहरति तमत्थे विण्णाणमिति आहरणं' अर्थात् जो प्रतिपाद्य विषय का अर्थ में आहरण करता है, वह आहरण है । आचार्य श्री हरिभद्र ने दशवैकालिक टीका के प्रथम अध्ययन में आहरण के लिए उपहरण शब्द का प्रयोग करते हुए व्युत्पत्ति की है'उदाहृयते प्राबल्येन गृहयतेऽनेन दान्तिकोऽर्थ इत्युदाहरणम्' जिसके द्वारा प्राबल्य रूप से दृष्टान्तिक अर्थ ग्रहण किया जाता है, वह उदाहरण है ।
उदाहरण के दो रूप हैं- साधर्म्य और वैधर्म्य | साधना अर्थात् हेतु की जहाँ साध्य के साथ व्याप्ति निश्चित की जाती है, वह साधर्म्य दृष्टान्त है । जैसे कि जहाँ धूम होता है, वहाँ अग्नि होती है । यथा - रसोई घर । वैधर्म्य दृष्टान्त का उदाहरण है साध्याभाव पूर्वक साधनाभाव अर्थात् हेतु का अभाव प्रदर्शित करना । जैसे कि जहाँ अग्नि नहीं होती, वहाँ धूम भी नहीं होता ? यथा जलहृद ।
न्याय - शास्त्र-विद् आचार्य उदाहरण के प्रयोग में निपुण होता है । उदाहरण के द्वारा प्रतिपाद्य विषय का जिज्ञासु को ठीक तरह बोध कराया जा सकता है | आगम एवं आगमोत्तर साहित्य में इसीलिए उदाहरणों की एक महत्ती शृंखला निबद्ध है ।
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२७. हेतु निपुण: हेतु की व्युत्पत्ति, आचार्य जिनदास की चूर्णि को लक्ष्य में रखते हुए आचार्य हरिभद्रसूरि ने दशवैकालिक टीका प्रथम अध्ययन में इस प्रकार की है हिनोति - गमयति जिज्ञासित धर्म विशिष्टानर्थानिति हेतु: " अर्थात् जो जिज्ञासित धर्म से विशिष्ट अर्थों का परिबोध कराता है, वह हेतु है । हेतु साध्य की सिद्धि के लिए महत्त्वपूर्ण है । आचार्य श्री सिद्धसेन दिवाकर ने विधि एवं निषेध रूप में हेतु के दो रूप बतलाए हैं
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तत्थोप्पत्ति एवं अन्यथोप्पत्ति हेतु का रूप इस प्रकार है पर्वत अग्निवाला होना चाहिए क्योंकि जहाँ अग्नि होती है, वहीं धूम का अस्तित्व होता है । इसके विपरीत निषेध रूप अन्यथोप्पपत्ति हेतु इस प्रकार है- पर्वत अग्निवाला होना चाहिए क्योंकि अग्नि न हो तो धूम का अस्तित्व भी नहीं हो सकता । दोनों की रूपों से साध्य की सिद्धि होती है
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