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मासखमण जैसे लम्बे-लम्बे तप करने पर उतारू हो जाते हैं । खेद है, कुछ धर्म-गुरु और अन्य साथी भी इसके लिए उन्हें उकसाते हैं । अनेक बार ऐसा होता है कि स्वास्थ्य क्षीण हो जाता है, शरीर जवाब दे देता है और तप के निर्धारित दिन काटने मुश्किल हो जाते हैं । धर्म की प्रभावना का तो सिर्फ नाम होता है, किन्तु होता है अपनी प्रभावना का अहं | समाचार-पत्रों में पढ़ा होगाअनेक बार ये दीर्घ तपस्वी अन्तत: अपने प्राण भी गँवा देते हैं, जिससे प्रभावना के बदले सर्व साधारण में अप्रभावना ही हो जाती है ।
समाज में विद्या और बुद्धि का अहंकार भी कम नहीं है | आजकल यह रोग साधु-समाज में अधिक तीव्र गति से फैला हुआ है, जिन्होंने धर्म एवं दर्शन के वाङ्मय का ठीक तरह स्पर्श भी नहीं किया है, वे अपने को मनीषि-पुंगव एवं पण्डितराज समझते हैं । आए दिन अपने नाम के आगे-पीछे बड़े-बड़े पदों की लम्बी सूची लटकाए फिरते हैं । इधर-उधर से अखबारों की कतरनें समेट कर यों ही कुछ लिख लेते हैं और एक ही वह क्षुद्र लेख अनेक अखबारों में प्रकाशित करते रहते हैं । सिद्धान्त का तो क्या, साधारण भाषा का भी उन्हें परिज्ञान नहीं होता है । बड़बोले बन जाते हैं । उन्हें वह प्राचीन मनीषियों की वाणी ध्यान में नहीं रहती है - " अ?घटा घोषमुपैतीनूनं" आधा घड़ा अधिक छलकता है । इसी अर्थ में लोकोक्ति है- “ अधजल गगरी छलकत
जाय । "
प्राचीन संस्कृत - साहित्य में एक बोध कथा है, कि एक शेरनी ने मृत सियारनी के नवजात शिशु को सहज दया भाव से उठा कर अपनी गुफा में लाकर पालना शुरू कर दिया । कुछ समय बाद शेरनी के भी एक बच्चा हो गया । दोनों बन्धु के रूप में परस्पर प्रेम से रहने लगे । कालान्तर में कुछ बड़े भी हो गए । एक दिन सामने से एक हाथी गुजर रहा था, तो सिंह शिशु ने उसपर झपटा मारा और कुछ ही क्षणों में उसे धराशायी कर डाला | शेरनी ने इस पर अपने पुत्र को पुचकारा और शाबाशी दी । इस पर शृगाल शिशु को ईर्ष्या हुई और वह बड़े भाई के स्वर में अहं ग्रस्त होकर बोला- कौन सा बड़ा कद्रू में तीर मारा है, जिसपर यह भी फूला नहीं समा रहा है और साथ ही मम्मी भी । मैं इससे भी बड़े भयंकर एवं भीमकाय हाथी को कुछ ही क्षणों में मार कर खण्ड-खण्ड कर सकता हूँ। शेरनी हँसी और बड़े प्यार से बोली - वत्स, तू अपने को नहीं पहचानता है कि तू यथार्थ में क्या है ? तू कितना ही बलवान
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