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मंगलमय मानवीय इतिहास का वह क्षण हो गया, जब मानव सुख-दुःख की अनुभूति के रूप में आस-पास में इधर-उधर दूसरों को भी देखने लगा होगा ? पिण्ड की क्षुद्र परिधि से निकल कर प्रेम और स्नेह से द्रवित मन जब दूसरों से जुड़ा, तब उसने परिवार के रूप में एक विराट अंगड़ाई ली । और जब परिवार की सीमाओं से भी आगे फैलने लगा, तो परिवार से परिवार जुड़े और मानव ने समाज एवं राष्ट्र के रूप में एक और नया विराट रूप धारण किया । कुछ दिव्य आत्माएँ समाज एवं राष्ट्र से भी आगे फैलने लगी और फैलते-फैलते समग्र विश्व की चेतना के साथ एकाकार हो गई। इस प्रकार वे विश्वात्मा एवं परमात्मा के रूप में विराट-चेतना के सर्वोच्च शिखर पर पहुँच गई । फलतः समग्र विश्व के लिए अभिनन्दनीय-अभिवन्दनीय बन गईं ।
यों तो अहिंसा तीन अक्षरों का एक छोटा-सा शब्द है । किन्तु, भावात्मक दृष्टि से देखें, तो उसमें असंख्य एवं अनन्त पवित्र भावनाएँ समाहित हैं। यह मानव-हृदय की वह अन्तरंग गंगा है, जिसकी धाराओं की कोई गणना नहीं है । मैत्री, करुणा, दया, क्षमा, उदारता आदि एक-से-एक बढ़कर अनेक पवित्र एवं दिव्य नामों से अहिंसा को अभिहित किया है, हमारे तत्त्वदर्शी प्रबुद्ध पूर्वजों ने | इसी विराट भावना को लक्ष्य में रख कर महाश्रमण भगवान महावीर ने प्रश्नव्याकरण सूत्र में अहिंसा को 'भगवती' कहा है । और, उत्तरकालीन महान् दार्शनिक आचार्य समन्तभद्र ने इसे 'पर-ब्रह्म' के रूप में स्मरण किया है । स्वयंभूस्तोत्र में अहिंसा के श्रीचरणों में श्रद्धा-सुमन अर्पण करते हुए आचार्य श्री समन्तभद्र कहते हैं
"अहिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म परमम् "
भारतीय-संस्कृति में, जो धर्म-परम्पराएँ हैं, उनमें साधना के अनेक रुप वर्णित किए गए हैं । बाहर में देखते हैं, तो वे रूप परस्पर एक-दूसरे से मिलते नहीं दिखाई देते हैं । और, कुछ ऐसे अज्ञान-ग्रस्त लोग भी हैं, जो इन्हीं बाह्य रूपों में अटक कर रह गए हैं और परस्पर पाशविक द्वन्द्वों में लड़ते-झगड़ते धर्म को अधर्म का भी रूप दे रहे हैं । उन्हें धर्म के मूल स्वरूप का पता ही नहीं, कि वस्तुत: धर्म है क्या? धर्म, अहिंसा के अतिरिक्त कुछ नहीं है । अत: महर्षि व्यास ने कहा है- “धर्म का लक्षण अहिंसा है और अधर्म का लक्षण हिंसा ।"
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