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" हेतोस्तथोपपत्या च स्यात् प्रयोगोऽन्यथापि वा । द्विविधोऽन्यतरेणापि साध्यसिद्धिर्भवेदिति ।। १७ ।। "
आचार्य को हेतु का परिज्ञान पूर्णरीति से होना चाहिए । हेतु के परिज्ञान के अभाव में अपने द्वारा प्रतिपाद्य साध्य की सिद्धि कथमपि संभव नहीं है। इसलिए न्याय शास्त्र में हेतु का महत्त्वपूर्ण स्थान है । शास्त्रार्थों में तो हेतु के बिना एक कदम भी आगे नहीं बढ़ा जा सकता ।
२८. कारण-निपुण : जिसके बिना कार्य की उत्पत्ति न हो सके और जो निश्चित रूप से कार्य का पूर्ववर्ती हो, उसे 'कारण' कहा जाता है - 'कार्यनियतपूर्व वृत्ति कारणम् ।'
घट की निष्पत्ति से पूर्व मृतिका, कुंभकार, दण्ड, चक्र आदि अपेक्षित कारण हैं । इनके अभाव में घट रूप कार्य की निष्पत्ति नहीं हो सकती । अत: प्रत्येक मनीषी को कारण-कार्य का परिज्ञान होना अतीव आवश्यक है । लौकिक और लोकोत्तर- दोनों ही क्षेत्रों में कार्य-कारण की मीमांसा का महत्त्वपूर्ण स्थान
२९. नय-निपुण: नय का एक अर्थ उपनय किया जाता है, जिसका अर्थ है- प्रतिपाद्य विषय का उपसंहार करना । कहीं ऐसा न हो कि प्रतिपाद्य विषय का समर्थन किसी और रूप में किया जाए और उपसंहार में कोई अन्यरूप ही उपस्थित हो जाए | यह तो ऐसा ही होगा कि अश्व का वर्णन करते-करते अन्त में गधे का वर्णन करने लगना । अश्व सिद्धि के बदले गर्दभ सिद्धि का हो जाना विमूढ़ता का परिचायक है ।
नय का अर्थ विचार-दृष्टि भी है । नैगमादि सात नयों का वर्णन आगम एवं आगमोत्तर साहित्य में उपलब्ध है | कहाँ किस नय का प्रयोग करना चाहिए, यह तत्वोपदेशक आचार्य के लिए आवश्यक है | निश्चय और व्यवहार नयों के विपर्यय से अर्थ का अनर्थ ही होता है । अनेक मत-मतान्तरों का जन्म एकान्तवादी दृष्टिकोण से होता है । जो आचार्य नयों का मर्मज्ञ होता है, वह ऊपर से विसंगत दिखने वाली दृष्टियों में भी तर्क-संगत संगति उपस्थित कर विवाद को संवाद में बदल देता है ।
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