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" आयारं आयारमाणा तहा पभासंता । आयारं दंसंता आयरिया तेण वुर्चति ।।"- ९९४
केवल जैन-परम्परा में ही नहीं, वैदिक परम्परा में भी आचार्य की महत्ता सर्वोपरि विराजित है । महर्षि मनु ने अपने महान स्मृति ग्रन्थ मनुस्मृति में आचार्य को ब्रह्मलोक का महाप्रभु बताया है- “ आचार्यो ब्रह्मलोकेश: ।" ४-१८२ इस पर से स्पष्ट है कि आचार्य की सर्वविदित गरिमा है । वैदिक-परम्परा में सर्व-श्रेष्ठ ब्रह्मलोक माना गया है । ब्रह्म का अर्थ-निर्मल आत्मा एवं निर्मल ज्ञान ही होता है | आचार्य इसी लोक का ईश है ।
आचार्य पद की अर्थवत्ता गुणवत्ता पर निर्भर है । जो अपने महान् गुणों से अन्तरंग और बहिरंग-दोनों रूपों में एक समान अलंकृत है, वही आचार्य संघ द्वारा पूज्यता को प्राप्त करता है । जो आचार्यत्व के सद्गुणों से हीन है उसके लिए एक प्राचीन सदुक्ति है- वह सोने के गुणों से विकल खोटे सोने के समान है- " सुवर्णगुणविकलं सुवर्णमिव " पाठक जानते हैं कि पारखी की नजरों में खोटे सोने का क्या अर्थ एवं महत्त्व रह जाता है ।
आचार्य के गुणों का वर्णन अनेक प्राचीन ग्रन्थों में वर्णित है | संक्षेप दृष्टि से आचार्य के छत्तीस गुण माने गए हैं | छत्तीस गुणों का संकलन अनेक दृष्टियों से हुआ है । मैंने प्रस्तुत लेख के पूर्वांश में प्रवचन सारोद्धार के आधार पर ही आचार्य के गुणों का निर्देश करते हुए अठारह गुणों का वर्णन किया है । प्रस्तुत में शेष अठारह गुणों का वर्णन किया जा रहा है । मेरे विचार में दशाश्रुत स्कन्ध में वर्णित आचार्य की आठ सम्पदा तथा अन्य अनेक ग्रन्थों में वर्णित आचार्य के महत्त्वपूर्ण गुण, उक्त छत्तीस गुणों में प्रायः समाहित हो जाते
१९. नानाविध देश-भाषज्ञ : आचार्य को नानाविध देशों की भाषा का भली-भाँति ज्ञाता होना चाहिए । भाषा जन-सम्पर्क का सबसे बड़ा माध्यम है । आचार्य को किसी एक देश में सीमित न रह कर जिन शासन के प्रचार हेतु नाना देशों में भ्रमण करना होता है । यदि आचार्य बहुभाषा विज्ञ नहीं है, तो तत्-तत्देशीय जनों को कैसे जैन-दर्शन एवं धर्म का बोध कराएगा ? आचार्य कुछ और कहेगा और लोग कुछ और ही समझेंगे । समझेंगे क्या खाक ? यूं ही
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