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दिङ्मूढ बने बैठे रहेंगे और अन्ततः निराश होकर आचार्य को उपहासास्पद स्थिति में छोड़कर चले जाएँगे ।
आचार्य के लिए प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश आदि प्राचीन भाषाओं का सम्यक् परिज्ञान भी आवश्यक है । हमारे प्राचीन संस्कृति, धर्म, दर्शन, इतिहास आदि की उदात्त गाथाएँ इन्हीं प्राचीन भाषाओं में उपलब्ध हैं । यदि आचार्य को तथाकथित प्राचीन भाषाओं का परिज्ञान नहीं है, तो वह अपने पूर्वजों के जन-कल्याणकारी महान संदेशों को सर्वसाधारण जनता तक कैसे पहुँचा सकेगा ?
सुविज्ञ पाठकों को आचार्य कालक का इतिहास परिज्ञात होगा । उज्जैन के नरेश द्वारा साध्वी सरस्वती का जब अपहरण किया गया, तब आचार्य देव कालक ने कितना महान कार्य किया था, इस पर हमें आज भी गौरव है । आचार्यश्री भारत विभिन्न देशों के राजाओं और जनता के पास गए थे और उन्हें इस अन्याय एवं अत्याचार के विरोध में संगठित होकर संघर्ष करने का आहवान किया था । अन्तत: आचार्य तत्कालीन पारस देश ( ईरान आदि ) में भी गए थे और वहाँ उन्होंने अनेक राजकुमारों को धनुर्विद्या में शिक्षित कर द्रोणाचार्य की भाँति गुरु ऋण की अदायगी के रूप में साध्वी सरस्वती को मुक्त कराने का प्रभावशाली संदेश दिया । इतिहास साक्षी है - इन सबके सहयोग से अन्तत: उज्जैन नरेश का पतन हुआ और साध्वी सरस्वती मुक्त करा ली गई । यदि आचार्य कालक बहु भाषा - विज्ञ न होते, तो ऐसा हो सकता था क्या ? भारत का विशेषत: जैन इतिहास का यह अध्याय तो कलंकित ही रह जाता । यह कलंक धुल सका आचार्यश्री की बहु-भाषाविज्ञता के आधार पर, साथ ही उनके प्रचण्ड साहस और धर्म-रक्षा के महत्त्वपूर्ण सदाग्रह पर |
पढमं
२०. ज्ञानाचार-युत : साधना का मूल ज्ञान है । इस संबंध में दशवैकालिक सूत्र चतुर्थ अध्ययन का ज्ञान सूत्र ध्यान में रखने योग्य हैनाणं तओ दया ज्ञानाभ्यास प्रथम है, तदनन्तर चारित्र की आराधना । "अन्नाणी किं काही, किं वा नाही सेयपावगं - ४.१० " अज्ञानी क्या धर्म-साधना करेगा ? ज्ञान के अभाव में वह श्रेय एवं अश्रेय, पुण्य एवं पाप आदि का बोध कैसे प्राप्त कर सकेगा ? अत: देवेन्द्रसूरि ने नमो नमो नाण दिवायरस्स” ज्ञान को नमस्कार करते हुए ज्ञान को दिवाकर कहा है । अत: आचार्य को ज्ञानाचार का पूर्ण अभ्यासी होना चाहिए । यदि वह स्वयं ज्ञानी नहीं है, तो अपने साधकों
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