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होता है, जो जनता को अपने पीछे चलाता है, न कि स्वयं पीछ लग्गू बन कर जनता के पीछे चलता है । आज के नेताओं को वे चाहे किसी भी क्षेत्र के हों, कोई भी हों, उन्हें उक्त गुण की महत्ती आवश्यकता है । अनाशंसि नेता ही निर्भय एवं निष्कपट होता है । वह सत्य के प्रति समर्पित होता है । मुँह देखकर तिलक लगाने की बुरी आदत उसमें नहीं होती |
८. अविकथन : अविकथन का अर्थ है - विकथन रहित होना । विकथन के अनेक अर्थ किए जाते हैं । विकथन का एक अर्थ है- बात-बात पर अपनी बड़ाई हांकना, अपने को श्रेष्ठ तथा दूसरों को निकृष्ट बताना । आचार्य को उक्त दोष से मुक्त रहना चाहिए । अपने मुँह मियामिठु बनने से कोई लाभ नहीं यदि पुष्प में सुगन्ध है, तो वह अपने आप आस-पास के वातावरण को महका देता है | लाख रुपये मूल्य के हीरे को स्वयं अपना मूल्य नहीं बताना पड़ता है । परखने वाली आँखें स्वयं परख लेती हैं कि वह क्या है, और कैसा है ?
विकथन का दूसरा अर्थ है - बहुभाषी होना । प्रसंग एवं अप्रसंग का ख्याल न कर, यों ही बातों के घोड़े दौड़ाते जाना क्षुद्र व्यक्तित्त्व का द्योतक है । अत: आचार्य को उक्त दोष से भी बचना चाहिए ।
विकथन का तीसरा अर्थ है-किसी के द्वारा थोड़ा-सा भी क्षुद्र अपराध हो जाए, तो नेता बेलगाम हो जाता है और निन्दा के रूप में इधर-उधर बेतुकेपन में लोगों से बार-बार कहता फिरता है । वह 'सागरवरगंभीरा नेता नहीं होता । एक क्षुद्र तलैया की तरह यह उसका तुच्छ व्यवहार संघ में विच्छेद की भावना ही पैदा करता है ।
अतः स्पष्ट है कि उक्त विकथन दोष से जागृति पूर्वक दूर रहना ही अविकथन है । पाठक स्वयं विचार कर सकते हैं-उक्त अविकथन सद्गुण की कितनी अधिक गरिमा एवं महत्ता है ।
९. अमाइ : आचार्य का आचार-व्यवहार मूलतः माया रहित होना चाहिए । अन्दर में कुछ और बाहर में कुछ और ही यह माया- शल्य है । उक्त शल्य का व्यक्ति आचार्य तो क्या, एक अच्छा व्रती भी नहीं हो पाता । इसी सन्दर्भ में आचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थ सूत्र में कहा है- “निः शल्योव्रती”
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