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तीर्थंकर तीर्थ की स्थापना अवश्य करते हैं, किन्तु उसका संचालन स्वयं नहीं करते । तीर्थ अर्थात् संघ का संचालन तीर्थंकरों के गणधर अर्थात् आचार्य करते हैं । इतना बड़ा दायित्व दुर्बल व्यक्तित्व के आचार्य वहन नहीं कर सकते । इसीलिए प्राचीन आचार्यों ने आचार्य पद की व्याख्या करते हुए उसके मूल छत्तीस गुणों का उल्लेख किया है । पाठक देखेंगे कि परम्परा से उल्लिखित होते आए ये छत्तीस गुण कितने महत्त्वपूर्ण हैं । एकएक गुण इतना ज्योतिर्मय है कि उसके दिव्य प्रकाश में आज के ये संघों पर छाये अन्धेरे एक क्षण भी नहीं रह सकते हैं।
१. देशयुत : आचार्य आर्य देशों में जन्म लेने वाला होना चाहिए । आर्य देश का अर्थ है - पवित्र आचार-विचार वाला देश । जिस देश में प्रारंभ से ही स्व-पर जीवन के कल्याणकारी आचार-विचार सहज ही प्राप्त होते हैं, उस देश में जन्म लेने वाला व्यक्ति प्रायः जन्म-जात सदाचारी एवं पवित्र जीवन वाला होता है । अतः आर्य देशोत्पन्न आचार्य के मन-मस्तिष्क में सद्गुणों का सौरभ संस्कारगत हो जाता है । अत: उसके शासन में शिष्य परंपरा सहज ही सदाचार-पथ पर अग्रसर होती रहती है ।
२. कुलयुत : कुल का अर्थ पितृ पक्ष है । पितृ-परम्परा के सदाचारी उत्तम कुल में कुलीन व्यक्ति स्वयं साधना पथ पर निर्बाध गति से चलता है और दूसरों को भी निर्धारित सदाचार पथ पर अपने जीवन-पथ से सहज प्रेरणा देता है। नेता का अपना स्वयं का जीवन ही अपने अनुयायियों के लिए आदर्श रूप होता है ।
३. जातियुत : जाति का अर्थ मातृ पक्ष है । जिस व्यक्ति का मातृ पक्ष विनम्रता, उदारता एवं सहनशीलता आदि गुणों से उज्ज्वल होता है, वह व्यक्ति बिना किसी हठात आरोपण के प्राय: सहज ही उक्त गुणों से समन्वित होता है । बालक पर सर्व प्रथम माता के ही गुण या अवगुण अवतरित होते हैं । इतिहास के अनेक उदाहरण हैं, उच्च जाति सम्पन्न माताओं ने अपनी सन्तानों को प्रारम्भ से ही उच्चतर संस्कार दिये हैं, जिनके फल - स्वरूप वे इतिहास में स्वर्णाक्षरों से अंकित किये जा रहे हैं ।
४. रूपयुत: प्रभावशाली व्यक्तित्व के लिए रूप का अपना एक विशिष्ट महत्त्व है । यह प्राचीन लोकोक्ति प्रायः सत्य की कसौटी पर खरी
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