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देवताओं के विरोध में कुछ भी कहा जाए, तो उसे देवता की आसातना माने जाने लगा और उसके विरोध में प्रायश्चित्त के रूप में मिच्छामि दुक्कडम् का उद्घोष भी होने लगा ।
प्रबुद्ध पाठक साम्प्रदायिक एवं पुरातन परम्परा की दृष्टि से नहीं, सत्य शोधक की तटस्थ दृष्टि से विचार करें, कि स्वर्गीय देवों के अनेक अभद्र कल्पित वर्णनों से मानव-जाति का अहित अधिक हुआ है या हित ? स्पष्ट है, हित नहीं, अहित ही अधिक हुआ है । आज समय आ गया है, हम उक्त अहित के विरोध में अपनी आवाज बुलन्द करें । फिर भले ही कोई हमारी निन्दा करे या स्तुति । सत्य को मात्र सत्य की ही अपेक्षा है और उसके लिए स्पष्ट चिंतन की अपेक्षा है । स्पष्ट चिंतन के लिए निन्दा या स्तुति कोई अर्थ नहीं रखती ।
धर्म-ग्रन्थों में देवों की जो भोग-प्रधान रजोगुणी स्थिति का वर्णन है, उसका निराकरण होना चाहिए । और, जो नैतिक, पवित्र, जन-कल्याणी सात्विक स्थिति है, मात्र उसी का धर्म ग्रंथों में स्थान रहना चाहिए । शुद्ध धर्म एवं शुद्ध समाज की दृष्टि से देवों की यह सात्त्विक स्थिति
जन साधारण
तक पहुंचनी चाहिए । इसी में और साथ ही देवों का भी गौरव
धर्म-ग्रन्थों का, धर्म-ग्रन्थों के निर्माताओं का सुरक्षित रह सकता है ।
मार्च १९८६
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