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बंधन से मुक्त तो हो नहीं सकते, पर देव बन जाओगे | आत्म-सधिना से तुमको स्वर्ग मिलेगा । स्वर्ग में अपार वैभव एवं भोगविलास के साधन मिलेंगे | साधना के फल के रूप में देव बनने का प्रलोभन दिया गया | यथार्थ में देखा जाए, तो वे जैन-दर्शन का गणित ही भूल गए| तप करो, त्याग करो, साधना करो, पर उसका फल क्या मिलेगा? तो त्याग का फल भोग बताया गया । यहाँ भोग का त्याग करो, खाना छोड़ो, सुख-साधन छोड़ो, घर से भागो, मरने के बाद तुमको स्वर्ग मिलेगा | वहाँ तुम सब-कुछ पा लोगे । एक पत्नी का त्याग करोगे, तो हजार अप्सराएँ मिल जाएँगी । कुछ सम्पत्ति का यहाँ दान कर दोगे, तो देवलोक में तुम्हें रत्नों के महल मिल जाएँगे । यह विचित्र विरोधाभास है । ऐसा विरोधाभास है कि जिसका कोई समाधान नहीं ।
अभी कुछ दिन पूर्व बेंगलोर से डी. रमेश जैन का एक पत्र आया है । इस नवयुवक को मैं जानता नहीं हूँ | उक्त पत्र में उसके वेदना से भरे कई प्रश्न हैं । उसमें से एक प्रश्न है। एक तरफ तो धर्मगुरु कहते हैं कि कलिकाल है । इसमें धर्म क्षीण होता जाएगा, पापाचार बढ़ेगा । तब वह पूछता है कि आप उपदेश क्यों देते हैं । जब आपने स्वीकार कर लिया कि धर्म का दिवाला निकलने वाला है । फिर धर्म का उपदेश देने का क्या अर्थ है ?
क्या समाधान है इसका? यह एक विरोधाभास है । धर्म कभी क्षीण नहीं होता । उसका तात्त्विक अन्तरंग स्वरूप, जो भगवान महावीर के समय में था, उनके पूर्व में हुए २३ तीर्थंकरों के समय में था, २३ ही क्यों, अनन्त तीर्थंकरों के समय में था, वही आज है और भविष्य में भी रहेगा | हास एवं विकास अथवा परिवर्तन-परिवर्द्धन उसमें ही होता है, जो देश-काल अर्थात् युग के अनुरूप, क्रिया-काण्ड संबंधी व्यावहारिक धर्म के रूप में स्वीकार किया जाता है । धर्म की साधना आत्मा की अन्तर्-ज्योति है । अत: धर्म अन्तर्-जागरण में है, आत्म-ज्योति पर आए हुए विकारों के आवरण को हटाने में है । धर्म के उस ज्योतिर्मय स्वरूप की अवगणना करके देवों को उच्चतम आसन पर बैठा दिया गया । उसी का परिणाम है कि धर्म की ज्योति धूमिल होती गई, क्रिया-काण्ड का बाह्य आडम्बर एवं राग-द्वेषात्मक तमस् इतना गहरा छा गया कि धर्म को पहचानना सामान्य व्यक्ति के लिए कठिन हो गया ।
क्या श्रमण भगवान महावीर भी ऐसा ही मानते थे? भगवान महावीर के नाम से कहने को तो हम बहुत-कुछ कह देते हैं । परन्तु वास्तव में देखें, तो
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