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-“अर्हत्-शब्दे संयुक्तस्यान्त्यव्यजनात्पूर्वो उत् अदितौच भवतः। अरूहो, अरहो, अरिहो । अरूहन्तो, अरहन्तो, अरिहन्तो ।"
प्राकृत में इस प्रकार के प्रयोग बहुलता से मिलते हैं, जहाँ अर्हति धातु का प्राकृत रूप 'अरिहई' बन गया है | किन्तु अर्थ अर्हति का ही है-योग्यता आदि । इसके लिए आचारांग, उत्तराध्ययन सूत्र आदि अंग एवं अंग-बाह्य सूत्र दृष्टव्य है । यह सब उच्चारण भेद का खेल है । प्राचीन ग्रन्थों के अन्य भी सहस्राधिक प्रमाण उपस्थित किए जा सकते हैं, किन्तु पाठों के विस्तार में पाठकों का समय लेना अपेक्षित नहीं है । प्रबुद्ध पाठकों के लिए इतना ही पर्याप्त है, वस्तु-स्थिति समझने के लिए | अन्त में एक प्राचीन ऐतिहासिक प्रस्तर लेख को उद्धृत करके मैं लेख का उपसंहार कर रहा हूँ ।
लगभग २२०० वर्ष पूर्व का एक प्राचीनतम शिलालेख भुवनेश्वर के • पास एक पर्वत पर महान जैन सम्राट खारवेल का 'हाथी गुम्फामें अंकित है ।
उसमें नमस्कार महामन्त्र के प्रथम दो पद ही अंकित हैं-"नमो अरहंतान नमो सवसिधानं।" उसी लेख में एक और प्रसंग पर पाठ है, उसमें भी अरहंत शब्द अंकित है
"कायनिसीदिया......................अरहतनिसीदिया..................
-प्राचीन भारतीय अभिलेखों का अध्ययन
द्वितीय खण्ड, पृष्ठ २७-२८.
श्वेताम्बर परंपरा में आचार्य सिद्धसेनकृत महामंत्र नवकार का एक संस्कृत रूपान्तर सुप्रचलित है । उसमें भी अर्हद् शब्द का ही प्रयोग किया गया
"नमोऽर्हसिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यः"
अजैन परंपरा में भी अनेकत्र अर्हद् शब्द ही प्रयुक्त है । “यं शैवा: समुपास्यते शिव इति..." यह अजैन परम्परा का सुप्रसिद्ध एवं सर्वमान्य मंगलाचरण रूप श्लोक है । इसमें भी जैनों के उपास्य देव के लिए अर्हद् शब्द ही उल्लिखित है
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