________________
विद्वानों की दृष्टि में 'भगवती आराधना' जो कि यापनीय संघ के महान आचार्य शिवार्य की रचना है । काल-गणना में विक्रम की प्रारम्भिक शताब्दी के आस-पास की रचना स्वीकार की गई है | इतने प्राचीन ग्रन्थ में भी आचार्यश्री ने मंगलाचरण के रूप में जो प्रथम गाथा उपस्थित की है, उसमें 'अरहन्त' शब्द ही प्रयुक्त है तथाहेि
"वंदिता अरहंते वोच्छं आराहणं कमसो "
भगवती आराधना के सुप्रसिद्ध प्राचीन टीकाकार अरहन्त शब्द का अर्थ पूजातिशय करते हैं | जैसा कि उन्होंने लिखा है
" अतिशयितपूजाभाज इत्ययमर्थोऽनेन अरहंते इत्यनेनोक्तः "
नमोत्थुणं ( शक्रस्तव) पर महान श्रुतधर आचार्यश्री हरिभद्र सूरीश्वर की ललित-विस्तरा एक महत्ती टीका है | उसमें भी ' अरहंताणं' ही उपन्यस्त किया गया है, 'अरिहंताणं' नहीं
"अरहंताणं १ अरूहन्त एते चार्हन्तो नामाद्यनेकभेदाः"
श्री कल्पसूत्र, चतुर्दश पूर्वविद् श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु की महन्त्वपूर्ण रचना है । कल्पसूत्र के प्रारम्भ में मंगलाचरण रूप पूर्ण नमस्कार मन्त्र सूत्र उल्लिखित है । उसमें भी 'नमो अरहंताणं' पाठ ही निर्दिष्ट है । आगे चलकर जहाँ देवेन्द्र गर्भ संहरण के प्रसंग पर भगवान महावीर को देवेन्द्र शक्रस्तव-नमोत्थुणं से वन्दन करता है, वहाँ भी “नमोत्थुणं अरहंताणं भगवंताणं" पाठ है । अन्यत्र भी अन्य तीर्थंकरों के जहाँ नामोल्लेख किए हैं, वहाँ सर्वत्र 'अरहन्त एवं अरहा' पाठ ही अंकित हैं ।
प्राकृत व्याकरण के रचयिता कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य मूल अर्हद् शब्द से ही अन्य अरूहन्त, अरिहन्त शब्दों का उच्चारण भेद से निर्देश करते
"उच्चाहति"-२,१११
१ (क) लोकोत्तर मानवतां, (ख) अद्यालापकद्वयेन स्तोतव्यसम्पदुक्ता, यतोऽर्हतामेव भगवतां स्तोतव्ये समग्रं निबन्धनम्
-ललित विस्तरा
(३८७)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org