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भगवान महावीर का दिव्य स्वर महत्त्वपूर्ण था | वे देव से अधिक श्रेष्ठ मानते थे मानव को | जिसकी मानवता जागृत है, जिस मानव का जीवन धर्ममय है और धर्म की ज्योति से जिसका अन्तरंग ज्योतिर्मय है, वह देवों का ही नहीं, देवेन्द्रों का भी पूज्य है । इसलिए भगवान महावीर ने कहा था- मानव का शरीर है तो हाड़-मांस से बना हुआ, मल-मूत्र से परिपूरित, परन्तु वह इस मिट्टी के पिण्ड में धर्म का दीप प्रज्वलित कर ले, तो ब्रह्माण्ड में उसके तुल्य अन्य कोई भी प्राणी श्रेष्ठ नहीं है । अरे, मानव तू अपने स्वरूप को समझ और अन्तर्-ज्योति जगा ले, फिर देवता तुम्हारे पीछे-पीछे दौड़ते फिरेंगे, देवेन्द्रों के मस्तक तुम्हारे चरणों में
झुकेंगे | याद रखो, जब तुम जाग जाओगे, तो आध्यात्मिक विकास के उच्च शिखर का स्पर्श कर लोगे, जिसके आगे और कोई ऊँचाई नहीं है । स्वर्ग तो तेरे चरणों में झुकने के लिए है । तुम देवों के चरणों में झुकने के लिए नहीं हो, देव तुम्हारे चरणों में नत-मस्तक होने के लिए है ।
मूल आगमों में दशवैकालिक महत्त्वपूर्ण रचना है । आचार्य शय्यंभव राजगृह का राजपुरोहित रहा है । उस समय शय्यंभव भट्ट कहते थे । उसने जैन श्रमण की दीक्षा. ले ली । और आचार्य बन गया । उसने द्वादशांगी में से भगवान की वाणी का संकलन करके दशवैकालिक की रचना की | उसने उसके प्रारम्भ में श्रमण भगवान महावीर के एक दिव्य संदेश को उद्धृत किया है ।
“धम्मो मंगलमुक्किठें, अहिंसा संजमो तवो । देवा वि तं नमसंति, जस्स धम्मे सया मणो ।।"
धर्म ही मंगल रूप है, कल्याण रूप है और वह उत्कृष्ट मंगल रूप है। वह सर्वोपरि सर्व श्रेष्ठ मंगल है, जो कभी भी अमंगल रूप नहीं होता | वह धर्म क्या है ? इसकी व्याख्या भी इस गाथा में कर दी है कि अहिंसा, संयम और तप धर्म है । जिस साधक का मन धर्म में लगा रहता है, उसे देवता भी नमस्कार करते हैं ।
तुम्हारे मन में अहिंसा का, करुणा का भाव जागृत होता है, दूसरे की पीड़ा को देखकर मन अनुकम्पित हो उठता है और उस पीड़ा को दूर करने का प्रयास करते हो, यही अहिंसा है । अहिंसा का अर्थ केवल किसी प्राणी को नहीं मारना, इतना ही नहीं है, प्रत्युत विश्व की प्रत्येक आत्मा को अपनी आत्मा के
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