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अहिंसा के देवदूत क्या कर रहे हैं ?
विश्व-जगत् में चैतन्य-जगत् महत्त्वपूर्ण जगत् है । मानव ही नहीं, पशु-पक्षी जगत् की भी अपनी एक महत्त्वपूर्ण विशिष्टता है । इसे यों ही मानव अपनी महत्ता के आवेश में नकार नहीं सकता । मानवीय जीवन की स्थिति का बहुत-कुछ मूलाधार पशुपक्षी आदि का तुच्छ एवं साधारण कहा जाने वाला जगत् ही है ।
परन्तु, खेद है, उक्त जगत् की कितनी बड़ी दयनीय अवहेलना है कि उसके जीवन को जीवन ही नहीं समझा जाता | उसके सुख:दुःख का ठीक तरह मूल्यांकन नहीं किया जा रहा है । उसके अमोल जीवन को आहार के रूप में मानव-जाति ने कितना उदरस्थ कर लिया है, यह सब गणना से बाहर की बात हो गई है । सौन्दर्य प्रसाधनों के रूप में वन्य-प्राणियों का एवं अन्य जन्तु जगत् का कितना संहार हो रहा है, यह हम आये दिन समाचार पत्रों में पढ़ते हैं, फिर भी हम जड़वत् होकर इस दुःखद स्थिति पर कुछ भी विचार नहीं करते । यथावसर मैं इस पर फिर कभी चर्चा करने का विचार रख रहा हूँ ।
प्रस्तुत में एक बड़ी दु:खद बात है गो-वंश के संहार की । मनुष्य प्रारम्भ से दुग्ध-जीवी रहा है । जन्म लेते ही सर्व प्रथम आहार के रूप में माता का दूध ही ग्रहण करता है । इसलिए तत्कालीन शिशु-जीवन को संस्कृत कोषों में स्तनंधयी कहा जाता है । इसका अर्थ है-मानव के संपोषण के लिए दुग्ध-पान अति आवश्यक है।
मातृ-दुग्ध के समान गाय का दूध भी अमृत तुल्य है । गाय का दुग्ध जितना हल्का, पाचक, पौष्टिक एवं साथ ही सात्त्विक है, उतना और कोई नहीं है। भारत के प्राचीन आयुर्वेदाचार्य इसके साक्षी हैं । साक्षी की बात छोड़िए, यह तो प्रत्यक्ष में भी अनुभव सिद्ध है- “ प्रत्यक्षे सति अन्यत् किं प्रमाणम् ? "
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