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यहाँ मैं विस्तार में न जा कर संक्षेप में यही चर्चा कर लेना चाहता हूँ, कि मूल शब्द क्या है ? प्राचीन आगम-साहित्य एवं तदुत्तर साहित्य में अधिकतर प्रयोग किस शब्द का है ?
आजकल नमो अरिहंताणं अधिक प्रचलित है | मैंने भी पहले अपने लेखों में एवं ग्रन्थों में इसी अरिहन्त शब्द का प्रयोग किया है, किन्तु मेरे अन्तर्-मन में यह बात खटकती रही कि महामन्त्र में यह अधूरे अर्थ का वाचक शब्द क्यों है ? विशेष शब्द के स्थान में सामान्य शब्द का प्रयोग चिन्तनीय है । दूसरी बात यह है कि नमस्कार सूत्र मंगल सूत्र है । उसमें पहले ही अरि-हनन अर्थात् शत्रुओं की हत्या जैसा अमंगल शब्द क्यों प्रयुक्त हुआ ? नमस्कार सूत्र पद्य नहीं, गद्य है और गद्य में अक्षरों की, मात्राओं की गणना की व्यवस्था नहीं है । अत: टीकाकारों ने प्रारंभ में कर्म शब्द का प्रयोग कर, जो कर्मरूपी अरि अर्थात् शत्रुओं को हनन करनेवाले अर्थ की उपपत्ति दी है, उसकी अपेक्षा मूल में ही यदि 'नमो कम्मारिहंताणं स्पष्ट पाठ रहता, तो क्या हानि थी ? जब कि 'नमो लोए सव्व साहूणं' जैसा पंचम दीर्घ सूत्र है ही। फिर यहाँ ' अरिहंताणं' में भी कम्मारिहंताणं, न करके संक्षेप में 'अरिहंताणं' कहना विचारणीय बन जाता है । संक्षेप का तो कुछ अर्थ ही नहीं है, जबकि पंचम पद काफी दीर्घ सूत्र है ।
काफी दिनों से विचार-मंथन होता रहा और प्राचीन आगम आदि शास्त्रों एवं ग्रन्थों का अध्ययन भी चलता रहा । मैं यहाँ संक्षेप में कुछ उद्धरण देकर यह बताना चाहूँगा कि प्राचीन काल में मूल शब्द ' अरहंत' था और वही उच्चारण-भेद से त्रिरूप हो गया ।
सर्व प्रथम अंग-साहित्य का प्रथम अंग सूत्र आचारांग है, जो भाषा आदि की दृष्टि से विद्वत् जगत् में सर्वाधिक प्राचीन माना जाता है । देखिए आचारांग का मूल पाठ
"अरहंता भगवंता ते सव्वे एवमाइक्खंति।"
-आचारांग, १, ४, १, १३२ " से भगवं अरहं जिण केवली " - आचारांग, २, १५.
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