________________
एक बात और है, जिसकी चर्चा किए बिना रहा नहीं जाता है । भारत से अनेक अहिंसा के देवदूत संन्यासी, योगी और धर्मप्रचारक कब से अमेरिका जा रहे हैं । अनेक गो-भक्त वैष्णव सन्त हैं और साथ ही अहिंसा के महान् पक्षधर जैन सन्त भी । अहिंसा प्रचार के बड़े-बड़े विज्ञापन भी तथाकथित संस्थानों की ओर से प्रचारित किए जा रहे हैं । मेरी समझ में नहीं आता कि वे यथार्थ में क्या कर रहे हैं ? वे और कुछ नहीं तो कम-से-कम इस प्रकार के सामूहिक गो-वध के हिंसा - काण्डों के विरोध में तो कुछ कर ही सकते हैं । केवल कर सकने की बात नहीं, उन्हें करना ही चाहिए । यह अनिवार्य दायित्व है, इन यशस्वी धर्मयात्रियों पर ।
इधर भारत की स्थिति
भी नाजुक है उक्त प्रसंग में । भारत धर्म-प्रधान देश कहा जाता है । यहाँ चिर- काल से अहिंसा की धर्म दुन्दुभि बजती आ रही है और वह अब भी बज रही है या बजाई जा रही है, किन्तु खेद है, यहाँ भी गो-वध बन्दी के हेतु अभी कोई उल्लेखनीय प्रयत्न हो नहीं पाए हैं । कुछ अपवादों को छोड़कर एक तरह से नागार्जुन का शून्यवाद ही है । अन्य वैष्णव आदि परम्परा की बात एक ओर छोड़ देता हूँ । मैं अपनी ही परम्परा
बात कर रहा हूँ, जो एकमात्र पाद - विहार के द्वारा धर्म प्रचार का दावा करते आ रहे हैं । मैं पूछना चाहता हूँ इन अभिवन्दनीय अहिंसा के देवदूतों ने क्या किया है ? अहिंसा की सूक्ष्म चर्चा अपनी ही मान्यता के परम्परागत क्षेत्रों में एवं जनता में की जाती है, जो मूलत: ही अहिंसा का पक्षधर है । यह प्रचार कार्य तो हिंसा के क्षेत्र में होना चाहिए था । दीपक वहाँ जलाना चाहिए, जहाँ सघन अंधकार हो । सूर्य के दिव्य प्रकाश में, पूर्णिमा की स्वच्छ चन्द्रिका में दीपक जलाने का कुछ अर्थ है ? बड़ी लज्जा की बात है, भारत जैसे आर्य देश में और अहिंसावादी धर्म - धुरन्धर सन्तों की विद्यमानता में भी गो-रक्षा जैसा पुण्य कार्य सामूहिक अभियान के रूप में यथोचित पद्धति से नहीं हो पा रहा है । भारत के अहिंसावादी धर्म सभी प्राणियों की रक्षा के उपदेष्टा एवं अनुमन्ता हैं । मैं पंथों की नहीं, धर्म की बात कह रहा हूँ । पथ भ्रष्ट पंथ क्या करते हैं ? वह तो एक प्रकार का ग्लानि मूलक अधर्म ही है । उन्हें धर्म कहना ही पाप है । धर्म तो वह है, जो 'सव्व जगजीवरक्खण दयट्ठयाए' के प्रकाश में होता है । अतएव शुद्ध धर्म के उपासक प्रातः सायं अपने आराध्य देव से प्रार्थना करते हैं- " भूतदया विस्तारय, तारय संसार सागरतः
।"
Jain Education International
(३८१)
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org