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अभी कुछ दिन पहले मैंने एक समाचार पत्र में पढ़ा था-एक पागल पिता एक देवी की मूर्ति के सामने अपने २२ वर्ष के नौजवान पुत्र को ले गया । पुत्र को कुछ भी पता नहीं था कि पिता किस भावना से उसे वहाँ लाया है | सहज भाव से वह देवी को नमस्कार करने झुका कि पिता ने उसकी बलि चढ़ाने हेतु झटपट उसकी गर्दन पर कुल्हाड़ी से प्रहार कर दिया । उसको बताया गया था कि अपने पुत्र की बलि देगा, तो देवी तुझ पर प्रसन्न हो जाएगी और तेरी सारी इच्छाएँ पूरी कर देगी और लड़के को भी जिन्दा कर देगी ।
परन्तु, गर्दन पर प्रहार होते ही लडका चीखा-चिल्लाया । हल्ला मच गया | आस-पास से लोग दौड़े आए, भीड़ जमा हो गई । पुलिस भी आ गई । पिता को गिरफ्तार कर लिया और घायल लड़के को अस्पताल पहुंचाया । जहाँ कुछ देर बाद वह मर गया । ऐसी एक-दो नहीं, अनेक घटनाएँ घट चुकी हैं । अज्ञान वश ऐसे दुष्कर्म करते हुए व्यक्ति हिचकते नहीं हैं । उन्हें मनुष्य कहना सही नहीं है ।
आपके पास एक पत्तल है । सुन्दर-सुगन्धित मिष्टान्न उस पर रखा है। उस पत्तल को आप कब तक सुरक्षित रखेंगे? जब तक उसमें मिठाई है । उस पकवान को खाने के बाद तो उस खाली पत्तल को कोई नहीं रखता । फिर तो उसका स्थान कूड़ादान है । इसी प्रकार विभिन्न सम्प्रदायों में जो विभिन्न प्रकार के साम्प्रदायिक क्रिया-काण्ड हैं, जब तक उनमें समत्व धर्म का माधुर्य है, तब तक तो उस सम्प्रदाय का, उन क्रिया-काण्डों की पत्तल का कुछ अर्थ है । परन्तु उनमें से धर्म का माधुर्य निकल गया है, तो उनका कोई अर्थ नहीं है । वे झूठी पत्तल के समान फेंक देने योग्य है ।
रमेश का अन्तिम प्रश्न है - धर्म महान है । और, धर्मगुरु धर्म का, समता का उपदेश देते हैं । और, हर साधु-साध्वी, स्वयं महावीर का अनुयायी है, ऐसा दावा करता है । फिर ये परस्पर लड़ते-झगड़ते क्यों हैं? एक ही पिता के पुत्र होकर परस्पर एक-दूसरे के साथ अछूत जैसा व्यवहार क्यों करते हैं?
वस्तुत: यह सब धर्म नहीं है । यह तो साम्प्रदायिक बाडा-बन्दी है । धर्म और सम्प्रदाय एक नहीं है । धर्म सम्प्रदायातीत होता है । वह न तो किसी से संघर्ष करना सिखाता है, न किसी के साथ छूत-अछूत-सा व्यवहार करना सिखाता
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