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उसे तोड़ नहीं सके | तत्पश्चात् अन्तर्योति जगी, आत्म-स्वरूप का बोध हुआ, सम्यक्-दृष्टि प्राप्त हो गई । परन्तु, पूर्व में बद्ध कर्म के कारण उन्हें नरक में जाना पड़ा । ऐसे प्राणियों में मगध सम्राट श्रेणिक भी हैं, जो नरक में वेदना पीड़ा भोग रहे हैं । बाहर में ऐसा प्रतीत होता है कि वे अत्यधिक दुःख-क्लेश पा रहे
दूसरी ओर अनेक मिथ्या-दृष्टि अज्ञान तप आदि की साधना से इक्कीसवें देवलोक तक चले आते हैं । भौतिक सुख की दृष्टि से वे मिथ्या-दृष्टि इक्कीसवें स्वर्ग में कितने वैभव में खेल रहे हैं, कितने आराम में हैं और नरक तल से कितनी ऊँचाई पर हैं।
एक ओर नरक में स्थित सम्यक्-दृष्टि दु:ख का वेदन करता है और दूसरी ओर मिथ्या-दृष्टि स्वर्ग के भोगों का वेदन करता है । बाहर में मिथ्या-दृष्टि अच्छी स्थिति में परिलक्षित होता है । परन्तु प्रश्न है - दोनों में श्रेष्ठ कौन है?
महाश्रमण भगवान महावीर कहते हैं- सम्यक्-दृष्टि ही श्रेष्ठ है, भले वह नरक में भी क्यों न हो । क्योंकि उसे अपने स्वरूप का बोध है । वह नरक की उस वेदना को आर्त्त-ध्यान से हाय-त्राय करते हुए नहीं भोगता, प्रत्युत अपने कृत-कर्म का फल समझ कर समभाव से वेदन करता है । जबकि मिथ्या-दृष्टि, जिसे निज स्वरूप का बोध नहीं है, भोगों में आसक्त होकर उन्हीं में उलझा रहता है । और, परिणाम स्वरूप वह अनन्त संसार में भटकता फिरता है । इसलिए अन्तर्-दृष्टि से देखा जाए, तो सम्यक्-दृष्टि ऊँचाई पर है, बहुत अधिक ऊँचाई पर है । इसका तात्पर्य है कि व्यक्ति के बाह्य आकार-प्रकार का, रूप-रंग का महत्त्व नहीं है, महत्त्व है धर्म का, समत्व भाव का, राग-द्वेषातीत वीतराग-भावना का ।
भोग-वासनाओं में लिप्त मानव पागल बन गया । कुछ साम्प्रदायिक धर्म-गुरुओं ने भी उसके पागलपन को बढ़ावा दिया है । एक तरफ तो उन्होंने मानव की गरिमा के गीत भी गाए हैं, तो दूसरी ओर उसके दिमाग में यह भ्रान्त धारणा भी जमा दी कि मानव, तू कुछ नहीं है | तेरी शक्ति एवं क्षमता नगण्य है। तू देवता की आराधना कर, भक्ति कर | वह सर्व शक्ति सम्पन्न है | तेरी समस्त इच्छाओं को पूरा कर देगा ।
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