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वस्तुत: राग-द्वेष एवं कषाय-वृत्ति ही संसार परिभ्रमण का मूल हेतु है। कषाय, राग-द्वेष जन्य है । कष् का अर्थ है- संसार और आय का अर्थ है-लाभ। जिस वैभाविक परिणति से संसार की वृद्धि होती है, उसे कषाय कहते हैं । वह चार प्रकार का है-क्रोध, मान, माया और लोभ | इस कषाय-भाव से निवृत्त होकर शुद्ध स्वभाव में परिणत होना अध्यात्म-साधना है । अभिप्राय यह है कि साध्य है-आत्मा का शुद्ध स्वभाव, वीतराग-भाव और विवेक पूर्वक निवृत्ति-प्रवृत्ति के सम्यक् समन्वित रूप साधना से साध्य को सिद्ध करना, साधना है । अत: अध्यात्म-साधना विधि-निषेध-परक बाह्य क्रिया-काण्ड मात्र नहीं है, वह है अकषाय-वृत्ति, वीतराग-भाव ।
- कषाय-वृत्ति सावद्य है और अकषाय अर्थात् वीतराग-भाव निर्वद्य । क्योंकि कर्म-बन्ध का कारण कषाय है, सरागता है | जब तक आत्मा में कषाय एवं राग-द्वेष की विभाव परिणति है, तब तक कर्म-बन्ध की परम्परा अनवरत चालू रहती है, भले ही बाहर में कितनी ही उत्कृष्ट एवं उत्कृष्टतम कठोर चर्चा भी क्यों न हो | उग्र ध्यान-योगी प्रसन्नचन्द्र राजर्षि का जीवन हमारे सामने हैं । भयंकर सर्दी में निर्वस्त्र राजर्षि खुले आकाश के नीचे ध्यान-साधना में खड़े हैं । मगध सम्राट श्रेणिक भगवान के दर्शनार्थ जाते हुए मार्ग में राजर्षि की उत्कृष्टतम ध्यान-चर्या में आकृष्ट होकर उनके चरणों में सभक्ति वन्दन करता है और समवसरण में पहुँच कर सर्वप्रथम श्रमण भगवान महावीर से पूछता है-"यदि राजर्षि प्रसन्नचन्द्र का इस समय आयु-कर्म पूर्ण हो जाए तो वे कहाँ जाएँ ? "
श्रमण भगवान महावीर का उत्तर है-“राजन् यदि इस समय वे मृत्यु को प्राप्त होते हैं, तो सातवें नरक में जाएँगे ।"
आश्यर्चजनक बात है । बाहर में ध्यान की उत्कृष्ट साधना, काय-योग से पूर्ण निश्चल, वचन-योग भी मुखरित नहीं है, पूरी तरह मौन हैं | बाहर में न स्थावर काय के जीवों की हिंसा और न छोटे-मोटे अन्य विकलेन्द्रिय जीवों की जरा-सी भी विराधना । आज कल की भाषा में हिंसा से पूर्णतया विरति है, बाहर में कोई योग सावध परिलक्षित नहीं होता । फिर क्या बात है कि सातवें नरक में जाने योग्य कार्मण वर्गणा के पुद्गलों का संग्रह कर लिया उस महासाधक ने । वहाँ एक मात्र मन-योग सावध है । भले ही बाहर में कुछ नहीं हो रहा है, परन्तु अन्तर्मन में रौद्र परिणाम हैं। मन, मन: परिकल्पित
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