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अतीव आवश्यक है । विज्ञान कोरे परंपरागत विश्वासों पर आधारित नहीं है । वह विशुद्ध तर्क के आधार पर खड़ा है । तर्क-सिद्ध, प्रत्यक्षत: प्रमाणित लोक हितकर सत्य ही विज्ञान का सत्य है । विवेक सिद्ध आचार ही धर्म है, और वह विवेक वैज्ञानिक चिन्तन एवं तर्क से अनुप्राणित होना चाहिए । हमारे पूर्वज तर्क के विरोधी नहीं थे, जैसे कि हम आज हैं। उनका तो सार्वजनिक उद्घोष ही था कि तर्क से ही धर्म के यथार्थ स्वरूप का परिज्ञान होता है - “यस्तāणानुसन्धत्ते, स धर्म वेदनेतर:।"
और, अनेकान्त! वह तो सर्वोपरि है । अनेकान्त का अमृत स्पर्श तो विषाक्त क्षुद्रता की, कूप-मण्डूकता की विनिवृत्ति के लिए कदम-कदम पर आवश्यक है । जीवन का कोई भी अंग हो, उसे व्यापक आयाम देने के लिए अनेकान्त ही एकमात्र अमोघ साधन है ।
सितम्बर १९८४
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