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श्रमण भगवान महावीर के युग में इस सम्बन्ध में शिष्य द्वारा पूछा गया है
"कहं चरे कहं चिट्ठे, कहमासे कहं से ? कहं भुंजतो-भासतो, पावकम्मं न बन्धई ?” दशवै.४,७
प्रस्तुत प्रश्न के समाधान में ज्योति-पुरुष श्रमण भगवान महावीर ने त्रिकरण-त्रियोग के त्याग के बाद प्रवृत्ति से सम्बन्धित बाह्य हिंसा से होने वाले धर्म-अधर्म के सम्बन्ध में तथा पुण्य-पाप के बन्ध के और कर्म में अकर्म के सम्बन्ध में एक ज्योतिर्मयी दृष्टि दी है -
"जयं चरे जयं चिठे, जयमासे जयं सये । जयं भुंजतो-भासन्तो, पावकम्मं न बन्धई ।।" दशवै. ४,८
-यदि साधक यतना से, विवेक से चलता है, विवेक से खड़ा रहता है, विवेक से बैठता है, विवेक से सोता है, विवेक से आहार करता है, विवेक से बोलता है, तो उसे पाप-कर्म का बन्ध नहीं होता ।
महान आचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थ सूत्र में हिंसा की परिभाषा की है-"प्रमत्त योगात् प्राणव्यपरोणं हिंसा" अर्थात् प्रमत्त-योग से किसी भी प्राणी के प्राणों का नाश करना हिंसा है ।
श्रमण भगवान महावीर ने आचारांग सूत्र में स्पष्ट शब्दों में कहा है जो प्रमत्त है विषयासक्त है, वह निश्चय ही जीवों को दण्ड (पीड़ा) देनेवाला है अर्थात् हिंसा करने वाला है
"जे पमत्ते गुणट्ठिए, से हु दंडे त्ति पवुच्चत"-१.१.४,
अभिप्राय यह है कि हिंसा-अहिंसा, धर्म-अधर्म, पुण्य-पाप सिर्फ बाहर की प्रवृत्ति में नहीं है । योग प्रवृत्ति मूलक हैं । जब तक योग है, तब तक प्रवृत्ति होगी ही । योग के रहते कोई भी साधक निष्क्रिय नहीं हो सकता और जहाँ प्रवृत्ति है, वहाँ बाय हिंसा भी है | योगों की प्रवृत्ति से किसी भी जीव की विराधना न हो, यह असंभव है । आहार, विहार, गौचरी, प्रस्रवण आदि के हेतु जाने-आने में, अपने ठहरने के स्थान को झाड़कर साफ करने में, धर्म-प्रचार हेतु एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में जाते समय बीच में नदी-नाला आ जाने पर पानी में से चलकर या अधिक पानी होने पर नौका के वाहन से नदी को पार करने में, वर्षा
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