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भावना से नहीं चलता और न उन्हें गिन-गिनकर मारता ही है | वैसे ही यतना एवं विवेक पूर्वक तटस्थ भाव से नौका आदि वाहन द्वारा नदी पार करते हैं | अत: पशुओं का वध करने के विचार से वध करना और योग्य प्रवृत्ति करते हुए हिंसा का हो जाना कथमपि एक नहीं है । यदि ऐसा मानेंगे, तो कोई भी साधु-साध्वी शक्य-अशक्य कैसी भी प्रवृत्ति कर नहीं सकेगा।
श्रावक भी त्यागी बन सकता है :
राग-द्वेष एवं कषाय-वृत्ति का त्याग किसी परम्परा, किसी वर्ग विशेष या किसी वेष विशेष से संबद्ध नहीं है । अध्यात्म साधना हर व्यक्ति कर सकता है । वीतराग-भाव आत्मा का शुद्ध स्वभाव है और यह ज्योति हर जगह, हर व्यक्ति में जग सकती है । जैनेतर परंपरा के क्रियाकाण्ड में संलग्न साधक के अन्दर भी वीतराग भाव जागृत हो सकता है और वह उसी वेश में अर्हन्त ही नहीं, सिद्ध-बुद्ध हो सकता है । अन्यथा 'अतीर्थसिद्धा' का क्या अर्थ रहेगा ?
माता मरुदेवी गृहस्थ जीवन में ही थी । अन्तिम क्षण तक वह गृहस्थ के वेश में ही रही और अर्हन्त एवं सिद्ध स्वरूप को प्राप्त करते समय हाथी पर सवार थी । वह तो श्राविका भी नहीं थी । न उसने श्रावक-व्रतों को स्वीकार किया और न साधु-व्रतों और न व्रतरूप में किसी धार्मिक क्रिया-काण्ड का पालन किया । भगवान् ऋषभदेव के समवसरण में भगवान् की छवि को देखते ही अनन्त काल से सोयी चेतना जगी और स्वल्पतम समय में ही मिथ्यात्व की ग्रन्थि का भेदन कर इतनी तीव्र गति से परिणामों की धारा का ऊर्ध्व गमन हुआ कि सर्वज्ञ-सर्वदर्शी हो गई और आयु-कर्म भी क्षय होने को था, अत: वही सिद्ध बुद्ध-मुक्त भी हो गई । वीतराग-भाव की साधना अन्दर की साधना है और वह सर्वत्र हो सकती है | अत: यह प्रश्न उठाना "परिवार-हित एवं व्यक्ति-हित के लिए हिंसा और परिग्रह का उपयोग करने वाला एक अनासक्त साधक एवं आदर्श श्रावक घर में रहते हुए त्रिकरण-त्रियोग से त्यागी क्यों नहीं बन सकता?" जैन-दर्शन के सिद्धान्त को नहीं जानना है। वीतराग-वाणी से अनभिज्ञ या सर्वज्ञ की वाणी पर श्रद्धा नहीं रखने वाला व्यक्ति ही ऐसा प्रश्न उठा सकता है। अनासक्त साधक गृहस्थ में रहते हुए भी स्वरूप में तल्लीन होते ही त्रिकरण-त्रियोग का त्यागी श्रमण ही नहीं, अर्हन्त भी हो जाता है। चक्रवर्ती सम्राट भरत भाव धारा के परिवर्तित होते ही आरिसा-भवन में ही अर्हन्त भी
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