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फूट पड़ा, तो रामायण के रूप में एक महाकाव्य ही फूट पड़ा | उनके इस अप्रतिम कवित्व ने सारे समाज को चमत्कृत कर दिया ।
इस सारे ऐतिहासिक सन्दर्भो के बाद, यह अच्छी तरह प्रमाणित हो जाता है कि जाति और वर्ण की मान्यताएँ नितान्त अव्यावहारिक, अपंग और अवैज्ञानिक हैं | आज तो प्रत्येक मानव को अत्यन्त उदार बनने की आवश्यकता है । यदि हृदय में उदारता, विशालता न हो, तो सारा जीवन सूखा मरुस्थल ही बन जाएगा |
अभिप्राय यही है कि जहाँ ईर्ष्या है, द्वेष है, घृणा है और मनुष्य के प्रति थोड़ी-सी भी हीन भावना है, तो वह हिंसा है । अहिंसा की साधना के लिए पहले हिंसा के समस्त उपकरणों से मुक्त हो जाना चाहिए । जब हमारा मन, विचार और मस्तिष्क इस बात के लिए तैयार हो जाएगा कि हमें अनावश्यक संग्रह, लोभ और वासना में नहीं पड़ना चाहिए, तब सहज ही ये बातें प्रकट हो जाएँगी। हिंसा यानी समाज को खंडित करने का विचार और अहिंसा यानी समाज को एक सूत्र में पिरोने का विचार । अगर हम मानव मात्र की एकता में विश्वास करते हैं, तो हमें अहिंसक समाज-पद्धति को चरितार्थ करना चाहिए और उसके लिए मानवता के इस कलंक को यानी जातिवाद, पंथवाद एवं सम्प्रदायवाद के पाप को शीघ्र ही धो डालना चाहिए ।
फरवरी १९८५
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