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दोषमय कार्यों का त्याग करता है । वह मन योग से भी करने, कराने और अनुमोदन का त्याग करता है । इसी तरह वचन एवं काय-योग से भी करने, कराने और अनुमोदन का त्याग करता है । इसे शास्त्रीय भाषा में नव-कोटि से किया गया प्रत्याख्यान कहते हैं | समझना यह है कि जीवन व्यवहार में श्रमण इस नव-कोटि का पालन कैसे कर सकता है ?
श्रमणोपासक के अणुव्रतों में अणुत्व की एक सीमा-रेखा है- अतः अपना गृहस्थ का जीवन व्यवहार चलाते समय उससे प्राणियों की हिंसा हो सकती है और सत्यादि अन्य व्रतों में भी सामान्यत: असत्यादि का व्यवहार हो सकता है परन्तु, श्रमण का त्याग तो अणुरूप में देश त्याग नहीं, सर्व त्याग है और वह भी तीन करण, तीन योग से । त्रिकरण और त्रियोग के त्याग का सिर्फ शाब्दिक प्रदर्शन करने वाले एवं अपने तथाकथित त्याग के अहम् में वरिष्ठ श्रमण-श्रमणियों के प्रति विषाक्त एवं दूषित वातावरण बनाने वाले आज के तथाकथित वरिष्ठ श्रमण एवं आदरणीय आचार्य, उपाध्याय आदि पदवीधर मुनि अपनी आत्म-साक्षी से गंभीरता पूर्वक सोच-समझ कर कृपया बताएँ कि त्रिकरण
और त्रियोग से वे क्या सचमुच में ही हिंसा, परिग्रह आदि से सर्वतो भावेन विरत हैं ? तीर्थंकर श्रमण भगवान महावीर एवं उनके द्वारा संस्थापित तत्कालीन धर्म-तीर्थ, श्रमण-संघ द्वारा भी चलते-फिरते, आहार, निहार, विहार आदि की क्रियाओं में, एवं धर्म-प्रचार हेतु गंगा, गंडकी आदि विशाल नदियों को नौका-यान के द्वारा पार करते समय क्या यथार्थ में त्रिकरण और त्रियोग का पालन होता था ? जंधाचरण, विद्याचरण एवं अन्य लब्धिधारी मुनि तीव्र गति से आकाश-मार्ग से हजारों योजन सुदूर पर्वतों के उत्तुंग शिखरों की यात्रा करने जाते थे और आकाश-मार्ग से ही वापस लौट कर आते थे, तो क्या उनके योगों से जीवों की विराधना नहीं होती थी ? और क्या वे श्रमण-मुनि नहीं थे, आपकी दृष्टि में ?
आज शास्त्र आज्ञा के विरूद्ध विहार-यात्रा में श्रमणोपासक साथ रहते हैं, वेतन-भोगी नौकर साथ-साथ चलते हैं, कार, टैक्सी, जीप, ट्रक आदि भी कुछ आचार्यों एवं वरिष्ठ साधुओं के साथ चलते हैं, उनसे आहार-पानी आदि की सुविधा एवं अन्य सेवाएँ भी कभी प्रत्यक्ष, तो कभी परोक्ष में ली जाती हैं, क्या इसमें त्रिकरण, त्रियोग का पालन होता है ? आगमों में श्रमण-श्रमणी के लिए लेखन-क्रिया का निषेध है, यहाँ तक कि आगमों को लिपि-बद्ध करने का भी निषेध रहा है । आज तो लिखने-लिखाने की वह निषिद्ध क्रिया तो विधि रूप में
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