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के समय-शौच आदि जाने-आने आदि प्रवृत्तियों में, क्या त्रिकरण - त्रियोग के त्याग का पालन होता है ? क्या श्रमण भगवान महावीर के श्रमण-संघ के श्रमण - श्रमणी, जो धर्म प्रचार हेतु नौका द्वारा गंगा आदि विशाल नदियों को पार करते हैं और आज भी साधु नदियों को पार करते हैं, तथा वे पुस्तकें, पत्र-पत्रिकाएँ छपवाते हैं, मँगवाते हैं, पत्र लिखते या लिखाते हैं, वाहन से सामान भेजते - मँगाते हैं, तो उनका त्रिकरण - त्रियोग का त्याग रहता है या नहीं रहता ?
त्रिकरण - त्रियोग की प्रतिज्ञा :
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तीन करण और तीन योग से साधक दीक्षा के समय जो सामायिक एवं छेदोपस्थानीय चरित्र स्वीकार करता है, सावद्य योगों का त्याग करता है, वह एकान्त रूप से पूर्णत: निवृत्ति नहीं है । मूल में लक्ष्य निवृत्ति का है, अयोग गुणस्थान को स्पर्श कर गुणस्थानातीत शुद्ध अवस्था को अनावृत्त करना है निश्चयदृष्टि से गुणस्थान का विकास-क्रम भी अशुद्धता से शुद्धता की ओर क्रमिक गतिशीलता है । जब तक आत्मा के साथ योगों का सम्बन्ध है, तब तक संसार अवस्था है । अतः शुद्ध निश्चय नय की अपेक्षा से योग स्वरूप प्रवृत्ति के कारण तेरहवे गुणस्थान में स्थित अर्हन्त भी पूर्ण रूप से शुद्ध स्वरूप में नहीं, अभी संसार में हैं । क्योंकि उन्हें भी अधातिरूप वेदनीय, नाम गोत्र एवं आयु कर्मों का भोग अभी भोगना शेष है और इस भोग में अमुक रूप में योग प्रवृत्ति भी कथंचित् होती है । अस्तु, चौदहवे गुणस्थान में योगों का निरोध होकर जब उसके पार गुणस्थानातीत पूर्ण शुद्ध सिद्ध अवस्था में स्थिर होता है, तब अजर, अमर पूर्ण निर्विकार अबन्ध एवं अबद्ध परमात्म-भूमिका पर साधक पहुंचता है ।
दीक्षा के समय जीवन पर्यन्त के लिए ग्रहण की गई सामायिक एक प्रतिज्ञा पाठ है । साधक प्रतिज्ञा करता है कि मैं विवेक के आलोक में अप्रमत्त भाव से अपने शुद्ध स्वरूप को अनावृत्त करूँगा । वह आवश्यक क्रियाओं का त्याग नहीं करता, अपितु राग-द्वेषात्मक भाव से कषाय-भाव से की जाने वाली हिंसा आदि प्रवृत्ति के त्याग का उपक्रम प्रारंभ करता है । विवेक पूर्वक प्रवृत्ति करते समय किसी प्राणी की हिंसा हो जाना और बात है और हिंसा जन्य भावों से हिंसा करना और बात है । भले ही वह प्रवृत्ति नौका आदि के वाहन से की गई हो या पद-यात्रा से, यदि विवेक पूर्वक की गई है, तो उससे पाप कर्म का बन्ध नहीं होता । उक्त प्रवृत्ति से एकमात्र सातावेदनीय रूप कार्मण वर्गणा के पुद्गल
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