________________
"
उपदेश रहा -“यहाँ जो कुछ हो रहा है, उसे भोग लो । यह तो कर्मों का भोग है, जो भोगना ही है । अब ऐसा प्रयत्न करो कि मरने के बाद स्वर्ग मिल जाए । और, बस स्वर्ग में यह दु:ख दैन्य नहीं रहेगा । मरने के बाद तुम्हारी सब समस्याएँ हल हो जाएँगी । वे इस तरह के डाक्टर या वैद्य बने रहे, तो रोगी से कहता है कि भई निरन्तर दवा तो लेते ही रहो। इससे तुम्हारा बुखार, सिर-दर्द या अन्य रोग अभी तो ठीक नहीं होंगे, परन्तु जब तुम मर जाओगे तब मृत्यु के बाद तुम्हारे सभी रोग, जो भी हैं शान्त हो जायेंगे । दुःख है, हमारे मध्यकाल के महान आचार्यों ने जनता को मरणोत्तर परलोक सुधारने के सिवा वर्तमान के सुधार का कोई सही मार्ग नहीं बताया । जीवन जीने की सही दृष्टि नहीं दी । वर्तमान के दुःखों से मुक्त होने का कोई मार्ग नहीं बताया । इस लोक के जीवन की सामने नंगी नाचती समस्याओं का समाधान किसी ने नहीं किया ।
अध्यात्म - योगी भी आये और भक्ति मार्ग के सन्त भी आये । सिर्फ किसी एक ही परम्परा में नहीं, प्रायः सभी परम्पराओं में अध्यात्म एवं भक्ति का स्रोत बहता रहा । परन्तु उनका मुख्यत: यही स्वर अनुगुंजित होता रहा, कि अपनी आत्मा की सुध लो, भगवन्नाम का स्मरण करो, तुम्हारा परलोक सुधर जायेगा | परन्तु वर्तमान में जो विकट स्थिति सामने है, उसको सही रूप में हल करने की दृष्टि जिनके पास नहीं है, वे मरणोत्तर जीवन का भी क्या समाधान कर सकेंगे ? जो स्वयं द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के सम्यक् रूप से ज्ञाता-द्रष्टा नहीं हैं, वे जन-जीवन को क्या दृष्टि दे सकते हैं ?
स्पष्ट है, हमारे आचार्यों ने जन हित की दृष्टि से सही दिशा में सोचा
नहीं देखा नहीं । जन हित को देखने वाली दिव्य दृष्टि और होती है । वह
1
यथार्थ को देखती है । सिर्फ आदर्शों की छाया में यथार्थ को भुला देना, यथार्थ की ओर से आँख मूंद लेना, सबसे बड़ी अज्ञानता है । परलोक में स्वर्गों के सुनहरे स्वप्नों के आदर्श पर, मणि मुक्ता एवं रत्नों से जड़ित स्वर्णिम देव विमानों के एवं अप्सराओं के आदर्श पर, जो वर्तमान स्थिति को अनदेखा करके चलते हैं, इससे बढ़कर और अज्ञान क्या होगा ? वस्तुतः हमने यथार्थ दृष्टि से देखा ही नहीं । और खेद है, कि उन प्राचीन यथार्थ द्रष्टाओं को भी भूल गये, अपने मोह-माया के स्वप्नों में ।
Jain Education International
(२७८)
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org