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घातिक कर्मों का क्षय करके आधत्मिक आत्म-स्वरूप की पूर्णता को पा लिया। अब उनके लिए कुछ भी पाना शेष नहीं रहा । साधना सिद्ध हो गई । फिर भी वह ज्योति - पुरुष तीस वर्ष तक गाँव-गाँव एवं नगर - नगर में विचरण करते रहे और जन-जीवन में आत्म-स्वरूप की, सम्यक् - ज्ञान की, सत्कर्म की ज्योति जगाते रहे । गलत परम्पराओं का पुरजोर खण्डन कर उन्हें ध्वस्त करते रहे । अब उनके विहार का, उक्त उपदेश एवं कर्म का क्या प्रयोजन था ? उनके विहार का एकमात्र उद्देश्य था - धर्म के नाम पर यज्ञों में पशुबलि दी जा रही थी, धर्म के नाम पर पाखण्ड फैला हुआ था, मनुष्य मनुष्य से घृणा-नफरतं कर रहा था, शूद्र को और नारी को तो मनुष्य ही नहीं समझा जा रहा था । उन्हें वेद पढने का तो क्या, सुनने तक का भी अधिकार नहीं था । ब्राह्मण अपने को इतना ऊँचा मान बैठा था कि हरिजन के शरीर की छाया का भी उसके शरीर को तो क्या, उसकी परछाई को भी स्पर्श न हो जाय । न तो शूद्र गाँव में सबके मध्य रह सकता था, न सम्मान के साथ जी सकता था । शूद्र और नारी दोनों अपमानित एवं प्रताड़ित थे उस युग में । अतः महाश्रमण महावीर की दिव्य ध्वनि यज्ञों के विरोध में, मनुष्य - मनुष्य के बीच फैल रही घृणा के विरोध में और धार्मिक क्रिया - काण्डों के नाम पर चल रहे पाखण्ड के विरोध में अनुगुंजित हुई । तीस वर्ष तक वे जन-चेतना को जागृत करते रहे । और, इसके लिए अनेक बार भिक्षु - भिक्षुणी संघ के साथ महाप्रभु मार्ग में पड़ने वाली गंगा, सरयू, कोशी, गंडकी आदि नदियों को नौकाओं से पार करते रहे । जैसे दिग्विजय करने को जाते समय सम्राटों की सेनायें पदतों वनों एवं नदियों को पार करती हैं । वैसे ही भगवान् महावीर के धर्म-सैनिक भी धर्म प्रचार हेतु भीषण पर्वतों, जंगलों में से गुजरते रहे कहीं छोटी नदियों को पैरों से, महानदियों को नौकाओं से पार करते रहे हैं । आगमों के पृष्ठ साक्षी हैं इस बात के । मैं पूछूं आप से, क्या आवश्यकता थी इसकी ? नदी संतरण में जल के असंख्यात जीवों की हिंसा हो रही है । जल की एक बूँद में ही असंख्यात जीव हैं । और, उसमें निगोद के तो अनन्त जीव हैं । द्विइन्द्रिय, त्रिइन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय ( जलचर ) जीव भी हैं । नौकाएँ जब धाराओं को चीरती चलती थी, तो कितनी बड़ी हिंसा होती थी। नदियों को नौकाओं से ही पार किया है, आकाश में उड़कर तो नहीं गये । हमें तो जल की बूँद में जीव दिखाई नहीं देते, परन्तु भगवान तो द्रष्टा थे । हमको तो बताया गया है कि जल में जीव हैं, अतः जल को न छुओ, उन्हें बचाने का प्रयत्न करो । किन्तु महाप्रभु महावीर तो केवलज्ञान में प्रत्यक्ष देखरहे हैं कि असंख्य - असंख्य प्राणी मर रहे हैं । गंगा जैसी महानदियाँ, जो उस युग
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