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यथार्थ धर्म क्या है ?
धर्म और अध्यात्म पर्यायवाची हैं । अध्यात्म का अर्थ है - आत्मां की आन्तरिक चेतना की पवित्र धारा । धर्म का अर्थ है
स्वभाव, अर्थात् आत्मा का
निज शुद्ध स्वभाव |
उक्त पंक्तियों में स्पष्ट है, जिन्हें आज विभिन्न नामों से धर्म कहते हैं, वे धर्म नहीं, कुछ और हैं । धर्म एवं अध्यात्म में कहीं घृणा, द्वेष, वैर, विग्रह आदि हो सकते हैं ? नहीं हो सकते । इसलिए कि इनका सम्बन्ध अन्तरात्मा से कहाँ है? इनका सम्बन्ध तो बाह्य वेष भूषा और बाह्य क्रिया- काण्डों से है । आज धर्म के नाम पर जो विग्रह हो रहे हैं, दंगे और हत्याएँ हो रही हैं, वे इन्हीं बाह्य नारों को लेकर ही हैं न? धर्मों की विभाजक रेखाएँ इन्हीं के आधार पर तो खींची गई हैं । और, ये ऐसी लक्ष्मण रेखाएँ बना दी गई हैं कि उन्हें लांघना हिमालय के दुर्गम शिखरों के लांघने से भी अधिक दुर्गम है । यदि कोई लांघने का प्रयत्न करता भी है, तो वह तथाकथित धर्मान्ध गुरुओं के द्वारा अधार्मिक, नास्तिक, मिथ्यादृष्टि और काफिर आदि न जाने कितने अभद्र विशेषणों से सम्बोधित कर दिया जाता है ।
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यदि कोई वस्तुतः धर्म है, तो उसका सौरभ अन्तर् से विकीर्ण होगा, बाहर से नहीं । गुलाब के पुष्प को सुगन्ध के लिए बाहर के किसी सुगन्धित इत्र की अपेक्षा नहीं है । बाहर के इत्र की अपेक्षा कागज या कपड़े के बने गुलाब के पुष्प को होगी, प्राकृतिक गुलाब के पुष्प को नहीं ।
सम्प्रदाय और धर्म के पार्थक्य को समझना आवश्यक है । आज के
जाति खण्ड
खण्ड हो
दूसरे को समाप्त करने के
तथाकथित धर्मों का जो रूप है, जिसके कारण मानव रही है, जंगली जानवरों की तरह एक लिए संघर्षरत है, वह सम्प्रदाय है, पन्थ है, मत है
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