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देवों से भी उच्च श्रेष्ठता का जयघोष करने वाले हम मानव तो क्या, पशु की भूमिका पर भी ठीक तरह स्थिर नहीं हो पाते | अन्दर में छिपा हुआ घृणा एवं वैर-विद्वेष का पिशाच, पता नहीं कब, धर्म तथा जाति वाद आदि की रक्षा का हुंकार करता हुआ बाहर निकल पड़े और अबोध जनता में हाहाकार का भयावह नारकीय दृश्य खड़ा कर दे ।
दूर क्यों, मैं अपनी ही धर्म-परम्परा की बात कर लेता हूँ | जैन-धर्म मानव के प्रति ही नहीं, प्राणिमात्र के प्रति मैत्री भावना का धर्म है, अहिंसा-करुणा का बहुत बड़ा प्रशंसा प्राप्त पक्षधर है | अनेकता में भी एकता स्थापित करने वाला अभेदवादी अनेकान्त दर्शन है उसका । इधर-उधर बिखड़े हुए सत्य के पुष्पों को वह एक अखण्ड माला का रूप देता है । कभी यह सब-कुछ उसके शब्दों में ही नहीं, जीवन में भी था । कभी उसके मानवतावादी लोक-मंगल आदर्शों की धर्म-दुन्दुभि दिग्-दिगन्त में ध्वनित थी| परस्पर संघर्षरत धार्मिक तथा सामाजिक विचार सूत्रों को एक सूत्र में आबद्ध करने वाले उसके धर्म-प्रचार का उदात्त इतिहास है । परन्तु, आज क्या है ? उसका विश्व-समन्वयवादी अनेकांत तथा स्याद्वाद आज क्या कर रहा है ? हमारी वैचारिक कूपमण्डूकता ने हमें और हमारे अनेकान्त को कहीं का नहीं छोड़ा । मंच पर अनेकान्तवाद की जय-घोषणाएँ करके हम अपने ही हाथों अपनी पीठ थपथपा लेते हैं, अपने मुँह अपनी ही वाह-वाह कर लेते हैं । आज दिगम्बर, श्वेताम्बर, स्थानकवासी और तेरापंथ आदि में कितने व्यक्त और अव्यक्त मत-भेद हैं और इनमें भी कितने ही मत-मतान्तर हैं, भेद-उपभेद हैं | सब अपने को ही शुद्ध जैन धर्मी, सम्यक् - दृष्टि मानते हैं, अपने ही भिन्न विचारधारा के पक्ष को जैनाभास एवं मिथ्यादृष्टि के रूप में सम्बोधित करते हैं । आज युग बदला है, युगके अनुरूप भाषा भी बदली है, मंच पर एकता एवं समन्वय के गीत भी जोर - शोर से चिल्ला-चिल्ला कर गाए जाते हैं, परन्तु अन्दर में क्या है? मन वही पुराना पापी है, मेल - मिलाप में नहीं, तोड़-फोड़ में ही विश्वास करता है । विश्वास ही नहीं, वाणी से प्रचार भी करता है, इसलिए कि चित भी मेरी, पट भी मेरी । अन्दर में पन्य की दीवारें भी सुरक्षित रहें और बाहर में सार्वजनिक प्रशंसा भी मिल जाए । 'हल्दी लगे न फिटकरी, रंग चोखा आ जाए ।' हार्दिक सद्भावना संवेदनशीलता नहीं बढ़ी है, बढी है बौद्धिक चतुरता और इस चतुरता ने बढते . बढते धोखे का, छल-कपट का, आम लोगों की आँखों में धूल-झोंकने का रूप ले लिया है । विचित्र स्थिति है, आज के धार्मिक कूप - मण्डूकों की ।
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