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धर्म की दृष्टि अन्तर् में झांकती है, सम्प्रदाय की दृष्टि बाहर में । धर्म देखता है अपने को मैत्री, करुणा, प्रमोद, अवैर, क्षमा, समता आदि स्व-पुर मंगलकारी दिव्य गुणों के रूप में और सम्प्रदाय देखता है अपने को दाढ़ी · - चोटी में, छापा तिलक में, मन्दिर मस्जिदों, गुरुद्वारों, और चर्चों में विभिन्न भाषाओं के विभिन्न स्तुति - पाठों में, प्रार्थना काल की विभिन्न मुद्राओं में, धर्म गुरुओं के विभिन्न क्रिया-काण्डों में और अतीत की विभिन्न भाषाओं में बद्ध तत्कालीन देश, काल की छाप लिए हुए शास्त्रों में ।
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आत्मा की ओर अन्तर्मुख होने में कोई भेद नहीं । भेद नहीं, तो कोई दुराव भी नहीं, घृणा द्वेष भी नहीं । और आत्मा से बहिर्मुख होने में निश्चित भेद है । जहाँ भेद है, वहाँ दुराव होता ही है । और इसके फल स्वरूप घृणा और द्वेष भी होते ही हैं । और आप जानते हैं, जहाँ घृणा और द्वेष होते हैं, वहाँ ऐसी कौन-सी अमानवीय एवं आसुरीय प्रवृत्ति है, जो न होती हो । आये दिन हिन्दू मुस्लिम दंगे, हिन्दू-सिक्ख झगड़े आदि जो होते हैं, वे आखिर किस आधार पर होते हैं ? क्या धर्म के आधार पर होते हैं ? बिल्कुल नहीं । धर्म तो विश्व मैत्री की भाषा जानता है, वहाँ तो पराया जैसा कुछ भी नहीं है । वहाँ तो 'एगे आया' का ऐक्य आत्मवाद है और है 'वसुधैव कुटुम्बकम्' का विश्व परिवार का महान आदर्शवाद ।
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धर्म प्रकाश है, वहाँ अन्धकार कैसा ? धर्म अमृत है, वहाँ विष कैसा ? धर्म तो गंगा की निर्मल धारा है, वहाँ गाँव के गन्दे नाले की गंदगी कैसी ? ये जो भी अन्धकार है, विष है, गन्दगी है, वह सब सम्प्रदायवाद की उपज है । क्योंकि संप्रदायवाद खड़ा ही है, भेद के दुराव के और घृणा के आधार पर । और भेद, दुराव तथा पारस्परिक घृणा से बढ़कर मानव जाति के लिए अन्धकार, विष और गन्दगी अन्य क्या हो सकती है ?
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धर्म जीवन को व्यापकता एवं विस्तार देता है । और सम्प्रदाय संकीर्णता एवं क्षुद्रता देता है और यह संकीर्णता बढ़ते बढ़ते इतनी बढ़ जाती है कि धर्म का चोला पहने हुए तथाकथित दो भिन्न सम्प्रदायों में ही संघर्ष, विग्रह एवं झगड़े होते हैं, यह बात नहीं है, प्रत्युत एक सम्प्रदाय में भी कई उपसंप्रदाय खड़े हो जाते हैं । और वे बाहर में एक होते हुए भी आपस में बुरी तरह संघर्षरत हो जाते हैं, झगड़ने लगते हैं और फिर निर्दोष - निरपराध मानवों का
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