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कम्मुणा बम्मणो होइ, कम्मुणा होइ खत्तियो ।
इसो कम्मुणा होइ, सुद्दो हवइ कम्मुणा ||"
कर्म से व्यक्ति ब्राह्मण होता है, कर्म से ही क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र होता है । जाति का कोई अर्थ नहीं है, महत्त्व है कर्म का ।
ये ज्योतिर्मय महापुरुष सही अर्थ में ज्ञाता और द्रष्टा थे, जिन्होंने सिर्फ परलोक की ही बात नहीं की, इस लोक की भी बात की । जब भी परलोक की चर्चा की है, तो पहले इस लोक को सुधारने की दृष्टि दी है । जो प्रत्यक्ष में प्राप्त इस लोक के जीवन को नहीं सुधार पायेगा, वह परलोक को क्या सुधारेगा ? अत: उस दिव्य पुरुष ने समाज कल्याण की दृष्टि से इस लोक को भी देखा । इसलिए उन्होंने अच्छे परिवार, समाज एवं राष्ट्र के निर्माण का मार्ग भी प्रशस्त किया । स्थानांगसूत्र में दस धर्मों का वर्णन है । उसमें लोकोत्तर श्रुत-धर्म और चारित्र - धर्म का भी उल्लेख है परन्तु उक्त आध्यात्मिक दृष्टि के पूर्व उन्होंने ग्राम- धर्म, नगरधर्म, राष्ट्रधर्म आदि आठ धर्मों को भी कम महत्त्व नहीं दिया है । यह दिव्य देशना इस बात की परिसूचक है कि उनकी दृष्टि कितनी विशाल एवं व्यापक थी । उन्होंने दूसरे प्राणियों के हृदय को समझने की, दूसरों के दुःख और पीडाओं की अनुभूति करने की दृष्टि दी । इस प्रकार वे हजारों साधु-साध्वियों के साथ तीस वर्ष तक निरन्तर कर्म क्षेत्र में संलग्न रहे । वस्तुतः ज्ञाता-द्रष्टा वह है, जो लोकोत्तर जीवन के साथ लोक-जीवन की समस्याओं को भी समय पर हल करता है, उच्चतर एवं श्रेष्ठतर मानवीय जीवन जीने की सम्यक्-दृष्टि देता है ।
आज हम प्रसंगत: एक और द्रष्टा की बात कर रहे हैं । भारत मुगलकाल से ही परतन्त्र रहा है । उस गुलामी के लंबे युग में लाखों व्यक्ति हताहत हुए और लाखों ही मुसलमान बन गए । हमारे परम्परागत राज-सिंहासनों तथा धर्मासनों के अनेक दावेदार सिंहासनों पर एक के बाद एक बैठते रहे । परन्तु चन्द अपवादों को छोड़कर उन्होंने किया क्या ? समाज एवं राष्ट्र के प्रति क्या दायित्व निभाया । राष्ट्र को क्या दृष्टि दी उन्होंने ? सब मूक भाव से गुलामी के कष्टों को सहते रहे ? प्रजा अत्याचारों से हाहाकार करती रही । स्वतन्त्रता के लिए कोई आवाज नहीं निकली उनके श्रीमुख से । परन्तु, बीसवी सदी में एक विराट व्यक्ति आगे आया, जिसे हम महात्मा गाँधी के नाम
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