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में एक सागर जैसी ही थीं, जिसमें हजारों ही अन्य नदियाँ मिलती हैं । उसे पार करने में कितनी भीषण हिंसा हुई होगी । इतनी हिंसा के साथ इन विशाल धाराओं को पार करने का कोई अर्थ तो रहा होगा ? क्या बिना किसी कारण से ही पार की होगी ?
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बात यह है कि इन जल के एवं जलाश्रित अन्य जीवों की हिंसा से भी अधिक भयंकर हिंसा हो रही थी, यज्ञ वेदी पर मूक पशुओं के खून की धाराएँ बह रही थीं, उसके निराकरण के लिए, शूद्र एवं नारी को भी सम्मान के साथ जीने की अन्तर्-चेतना को जागृत करने के लिए, उस ज्योति - पुरुष ने हिंसा को देखते हुए भी नौका-यान से नदियों को पार किया । यह तो स्पष्ट है कि उन्हें कोई पंथसम्प्रदाय तो चलाना नहीं था । न शिष्य - शिष्याओं को बटोरने का कोई सवाल ही था । प्रश्न व्याकरण सूत्र के शब्दों में सव्व जगजीव रक्खणदयठाए भगवया पावयणं कहियं जगत् के समस्त जीवों की रक्षा रूप दया के लिए दिव्य प्रवचन दिया ।” उनके नौका-यात्रा आदि के पीछे एक मात्र उद्देश्य था - जीवों की रक्षा करना, दया करना, उन्हें सम्यक् - साधना का मार्ग दिखाना । ज्योतिर्धर गणधर सुधर्मा के शब्दों में भगवान् महावीर 'चक्खुदयाणं, मग्गदयाणं' थे । वे ज्ञान चक्षु के प्रदाता थे, सम्यक् मार्ग के प्रदर्शक थे । उनकी दिव्य-देशना में सर्वत्र यही ध्वनि अनुगुंजित हुई है- जट्ठे च पावकम्मुणा" धर्म के नाम पर किया जानेवाला पशु वध पाप कर्म ही है, पुण्य नहीं ।
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हिंसा को रोकने की इस दिव्य-ध्वनि में जिनेन्द्र महावीर ने आत्मैक्य के सिद्धांत के रूप में एक और दिव्य ध्वनि की । उन्होंने कहा - विश्व की समस्त आत्माएँ स्वरूप से एक हैं । भूतल पर के सब मानव एक समान हैं । एगा मणुस्सजाई।' किसी कुल विशेष एवं जाति विशेष में जन्म लेने मात्र से न कोई ऊँच है, न कोई नीच है, न कोई स्पृश्य है, न कोई अस्पृश्य है । न तो ब्राह्मण के घर में सिर्फ जन्म लेने से कोई ब्राह्मण है । न क्षत्रिय के घर में जन्म लेने से कोई क्षत्रिय है । न वैश्य के घर में जन्म ग्रहण करने से कोई वैश्य है । न शूद्र के घर में जन्म लेने से कोई शूद्र है । फिर ब्राह्मण कौन है, क्षत्रिय आदि कौन है ? इसके समाधान के लिए उत्तराध्ययन में महत्त्वपूर्ण बात कही है
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