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किया और जिस बाह्य आचार-व्यवहार एवं वर्तन में धर्म नहीं है उसे धर्म के रूप में स्वीकृति दे दी और स्वीकार कर लिया । यही से धर्म के संबंध में अज्ञान का प्रारम्भ होता है ।
धर्म, पंथ और परम्परा :
धर्म और पंथ दोनों एक नहीं हैं । धर्म का स्वरूप पंथ के रूप से भिन्न है । पंथ बाहर के नियमों के आधार पर बनते-बिगड़ते रहे हैं । देश-काल के अनुसार पुरानी परम्पराएँ टूटती हैं, नई परम्पराएँ स्थापित होती हैं और नए पंथों का जन्म भी होता रहता है । हजारों परम्पराएँ अस्तित्व में आईं, पनपीं और आगे बढ़ीं । उनमें से कुछ समाप्त हो गईं, मिट गईं और कुछ मौजूद भी हैं । हजारों नई परम्पराएँ अंकुरित हो रही हैं, वे भी पल्लवित, पुष्पित, फलित होंगी, मिटेंगी और फिर नई परम्पराओं का जन्म होगा । पंथ एवं परम्पराओं का यह प्रवाह है, जिसका रूप निरन्तर बदलता रहता है, परन्तु प्रवाह गतिशील रहता है, परन्तु धर्म इनसे बहुत ऊपर है । धर्म, पंथ, सम्प्रदाय और परम्पराओं के घेरे में सीमित नहीं है । वह पंथों की चार दीवारों में बन्द नहीं है । सम्प्रदायें जब-जब चलीं, आगे बढ़ी, वे धर्म के नाम पर ही चली, फली फूली । साम्प्रदायिक परम्पराओं में धर्म रह सकता है । परम्पराएँ धर्म के साधन बन सकती हैं, इससे इन्कार नहीं किया जा सकता। परन्तु यह सत्य है कि परम्परा ही धर्म है, यह कथन गलत है । धर्म परम्पराओं से ऊपर है । परम्पराएँ सड़-गलकर नष्ट हो गईं, समाप्त हो गईं, तब भी धर्म स्थायी रूप से बना रहा ।
इस तरह धर्म के दो रूप हमारे सामने हैं- एक धर्म और दूसरा सम्प्रदाय, पंथ, मान्यता या परम्परा । सम्प्रदाय, पंथ या परम्परा में जब तक धर्म-विवेक दृष्टि, वीतराग-भाव, निर्भय एवं निर्द्वन्द्व वृत्ति बनी रहती है, तब तक उस परम्परा से स्व-पर कल्याण होता है, जीवन में जागृति बनी रहती है । इस रूप में यदि कोई परम्परा चल रही है भले ही वह पुरानी हो या नई, तो वह जीवन विकास के लिए महत्त्वपूर्ण है । किन्तु, जब उसमें से धर्म दूर हो जाता है, वह रूढ़ परम्परा मात्र क्रियाकाण्ड रह जाती है, तब वह धर्म नहीं रहती । उस निष्प्राण परम्परा को समाप्त कर देना हमारा आदर्श है । हम हजारों-लाखों वर्षों से ऐसा ही करते आए हैं । धर्महीन वीतरागभाव में बाधक जड़ परम्पराओं को खत्म करते आये हैं और नवीन परम्पराओं को जन्म देते आए हैं ।
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