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सुख की सांस ले सके । इनके बोलने की अपेक्षा न बोलने में ही धरती माता का कल्याण है, जनता का मंगल है और इस जन-मंगल में ही प्राणी मात्र का योग-क्षेम है, कुशल-मंगल है |
नेता कहे जाने वाले महानुभावों से ही मात्र यह निवेदन नहीं है । यह निवेदन धर्म-परम्पराओं के गुरु कहे जाने वाले पूज्य चरणों से भी है । धर्म. गुरुओं की वाणी कभी अमृतवर्षी थी, पर अब तो दुर्भाग्य से वह भी विषवर्षी ही हो गई है । अपने मत, पंथ, सम्प्रदाय आदि के लिए जिसे वे जगतारणहार धर्म कहते हैं, इतना विष वर्षण करते हैं अपने पड़ोसी धर्म बन्धुओं पर कि कुछ पूछो नहीं । अपने को ही एक मात्र धर्मी और दूसरों को अधर्मी - पाखण्डी होने की सार्वजनिक घोषणाएँ कर रहे हैं। और इससे फैल रहा है मानव समाज में कलह और विग्रह । यही नहीं, हत्याएँ लूटमार, बलात्कार आदि बुरा कहे जाने वाला सब कुछ अच्छा और भला हो गया है । धर्म और धर्मरक्षा के नाम पर हत्यारे अमरशहीद के रूप में श्रद्धांजलियाँ पा रहे हैं, किनसे ? देवतात्मा कहे जाने वाले गुरुओं से, सन्तों से । आज के इन सन्तों के अखबारों में यदि कभी वक्तव्य पढ़ें, कभी क्यों, रोज ही पढ़ते हैं, तो लगता है ये कौन बोल रहे हैं, गुरुजी, सन्तजी या कोई और ? सन्त कहाँ हैं ? कोई और ही हैं, जिनके लिए महान सन्त भर्तृहरिजी ने कभी कहा था- ' ते के न जानीमहे । उनका नाम भी क्या लें, नाम लेने से भी आत्मा को पाप लगता है । ' कथा हि खलु पापानामलमश्रेयतेपापियों की तो कथा ही अश्रेयस - अमंगलकारी है ।
अत: मैं धर्मगुरु के अमृतवर्षी महत्तर पद पर प्रतिष्ठित संतों से भी विनम्र निवेदन करूँगा कि कृपया आप भी मौनव्रत धारण कर लें । आप तो मौन साधना के जाने-माने साधक हैं, उपदेशक हैं । आपको तो मौन के लिए कुछ भी कठिनाई नहीं होगी । यह मौन आपको धर्म के नाम पर असत्य, दंभ, अन्ध विश्वास, अनर्गल किंवदन्तियों एवं भ्रांतियों से बचाएगा। और बचाएगा धर्मरक्षा के नाम पर होने वाले विग्रहों से, एक-दूसरे के अपमानों से तथा अमानवीय असभ्य आचरणों से । कृपया आप भी दो-चार वर्षों के लिए ही मौन हो जाइए, ताकि मानव जाति में परस्पर सौहार्द एवं स्नेहिल बन्धुता का मंगलमय वातावरण स्थापित हो सके ।
मार्च-अप्रैल १९८४
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