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"भारत की कुल शिशु आबादी (०-१४) लगभग २६ करोड़ है । इस
शिशु आबादी का ४५ प्रतिशत शहरी और ५५ प्रतिशत ग्रामवासी भाग भुखमरी जिन्दगी बिताता है | २६ करोड़ शिशु आबादी में लगभग पौने दो करोड़ खेतों, खलिहानों, कुटीर उद्योगों, छोटे कारखानों, घरों, दुकानों आदि में काम करते हैं । संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार ५ से १४ आयु वर्ग के श्रमिकों की सबसे बड़ी संख्या भारत में है ।
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इसी सन्दर्भ में विद्वान लेखक ने कुछ उदाहरण भी प्रस्तुत किए हैं
" तामिलनाडु के आतिशबाजी नगर शिवकाशी में लगभग ४५,००० बच्चे काम करतें हैं । इन में ५ साल तक के बच्चे पाए जाते हैं । ये बच्चे रोज १२ घंटे काम करते हैं । लगभग ५० वर्षों से शिवकाशी में माचिस और पटाखा उद्योग, इसी प्रकार से बच्चों का शोषण कर रहे हैं। मुरादाबाद के पीतल उद्योग और वाराणसी के ज़र्दा तथा दूसरे उद्योगों में बच्चों को बड़े पैमाने पर काम में लगाया जाता है। "
एक-दो शिवकाशी, मुरादाबाद और वाराणसी क्या, न मालूम कितने हैं इधर-उधर प्रत्यक्ष या परोक्ष बाल शोषण के ये अत्याचारी केन्द्र । हजारों लाखों विकासोन्मुख नाजुक कलियाँ साधनों के अभाव में, साथ ही इस भीषण शोषण के झंझावात में पुष्पित नहीं हो पाती, फलतः ये न खिलती हैं और न महकती हैं । इनके जीवन के विकास की प्रक्रिया अवरुद्ध हो जाती है । अत: ठीक तरह न इनका बौद्धिक विकास हो पाता है और न शारीरिक, मानसिक एवं सामाजिक विकास ही । बच्चों की यह बौनी अपसंस्कृति राष्ट्र का ही नहीं, मानवता का भी अभिशाप है ।
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शिवकाशी जैसे अनेक उद्योग ऐसे हैं, जहाँ विस्फोटक एवं ज्वलनशील वस्तुओं का निर्माण होता है । जरा-सी भूल के होते ही इन नन्हें-मुन्नों का सदा के लिए अंग-भंग हो जाता है । कुछ अन्धे हो जाते हैं और कुछ लँगड़े, टूटे के रूप में हस्त पादविहीन | यह विकलांगता इतनी भयंकर है कि जीवनभर के
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लिए इन उगते अंकुरों को सहज सामाजिक संस्कृति और सम्मान से वंचित कर देती है । भुक्त भोगी ही जानते हैं, यह स्थिति कितनी त्रासदायक है । यह एक मात्र यंत्रणा ही नहीं, अपितु एक क्रूर सामाजिक विसंगति भी है, जिसका कोई सम्मानजनक समाधान नहीं है ।
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