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फल में अधिकार नहीं है, इसका यह अर्थ नहीं है कि कर्म का फल होता नहीं है या वह मिलता नहीं है । कर्म का तदनुरूप फल है, और वह मिलता भी है | कोई भी कर्म हो, फल के रूप में उसकी निष्पत्ति का ध्येय तो रखा ही जाएगा । विना ध्येय एवं लक्ष्य के कर्म होगा ही कैसे ? साधारण-से-साधारण प्राणी की प्रवृत्ति में भी कोई-न-कोई बाह्य या आन्तरिक प्रयोजन होता ही है । “ प्रयोजनमनुद्दिश्य मूर्योऽपि न प्रवर्तते ।" मूर्ख-से-मूर्ख व्यक्ति भी विना किसी प्रयोजन को लक्ष्य में लिए प्रवृत्ति नहीं करता है । अत: यहाँ फल के अधिकार से इन्कार करने का एक ही अर्थ है कि कार्यारंभ से पूर्व कार्य के सम्बन्ध में खूब अच्छी तरह लेखा-जोखा कर लो । अपने तन को मन को और बुद्धि को ठीक तरह जाँच लो, परख लो | अपनी क्षमता को ठीक तरह जाँचे विना यों ही आँख मूंदकर कर्म-सागर में छलाँग लगा देना, उचित नहीं है । परन्तु अच्छी तरह सोच-विचारकर जब एकबार छलांग लगा ली, तो लगा ली। बस, अब बीच में क्या सोचना विचारना ? बाधाओं से घबड़ाकर वापस लौटना कायरता है । " आरब्धस्यान्तगमनम्” प्रारब्ध कार्य को अन्त तक पहुँचाना ही कर्म-योग है ।
महाजनक कर्मयोग का सर्वोत्तम उदाहरण है । भुजाओं के बल पर अगाध सागर को तैर कर पार करने का उसका समुद्यम मानवीय साहस का ज्वलन्त आदर्श है | खबरदार, कुछ भी हो रहा हो, होने वाला हो, कितनी ही प्रतिकूलताएँ हों, साहस को तोड़ देने वाले दो-चार क्या, हजारों हों, तुम्हारा साहस बरकरार रहना चाहिए | साहस ही उद्योग का-पुरुषार्थ का प्राण है । और, उद्योग ही अन्तत: सफलता का द्वार है । साहसी, उद्योगी पुरुष नहीं, पुरुषसिंह है । इसी पुरुषसिंह के श्री-चरणों में सफलता की लक्ष्मी एक-न-एक दिन स्वयं आकर उपस्थित हो जाती है । अत: पुरुषार्थी मानव के लिए यही एक जीवन सूत्र है
" उद्योगिनं पुरुषसिंहमुपैति लक्ष्मी: । "
जनवरी १९८४
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