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युग-द्रष्टाओं की सम्यक् - युग-दृष्टि
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हमारे जाने हुए छोटे से संसार में ही करोड़ों-अरबों मनुष्य हैं । मनुष्येतर प्राणियों की चर्चा मैं अभी नहीं करता । क्योंकि उनकी श्रेष्ठता से इन्कार कर दिया गया है । परन्तु, चिर अतीत से जिस मानव जीवन की श्रेष्ठता के गुण गाये गये हैं और कहा गया है - " दुल्लहे खलु माणुसे भवे मनुष्य भव की प्राप्ति दुर्लभ है । और देवता भी जिसे प्राप्त करने की अभिलाषा रखते हैं । उन देवानुप्रिय या देवनांप्रिय मनुष्यों की चर्चा ही मैं कर रहा हूँ । आज इस धरती पर सागरों के इस पार और उस पार जहाँ-तहाँ मनुष्य फैला हुआ है । सागरों के मध्य में द्वीप समूहों में भी मनुष्य भरे पड़े हैं । यह सर्व श्रेष्ठता का अहंकार रखने वाला मनुष्य अपने आस-पास में कितने असहय पीडाओं से गुजरते और अभावों में मर्मान्तक वेदना पाते व्यक्तियों को देख रहा है । शरीर तो मनुष्य का है, पर वृत्ति मनुष्य की तो क्या, पशु से भी निम्नतर हो गई है । क्या उसके अन्तर्विवेक की आँख खुली है, दु:खों से तड़पते प्राणियों को देखने के लिए? क्या वह ज्ञाताद्रष्टा है ? क्या आज के धर्म-गुरुओं ने संसार की स्थिति को ठीक तरह देखा-पहचाना है ? संसार की तो क्या भारत की स्थिति का भी सही परिज्ञान किया है ?
भारत बहुत लम्बे काल तक पराधीन रहा है । वैसे तो भगवान महावीर के बाद कितनी ही बार विदेशी ताकतों ने आक्रमण किए हैं । परन्तु, मुगलों के बाद अंग्रेजों का गुलाम रहा । कितना लम्बा समय गुजरा है । हजार वर्ष से भी अधिक परतन्त्र रहे हैं भारतीय जन । उस काल में वरिष्ठ सन्त एवं महान् आचार्य हुए हैं हर परम्परा में । परन्तु, क्या वे ज्ञाता द्रष्टा रहे हैं ? क्या उन्होंने भारतीय संस्कृति की एवं जन-जीवन की बिगड़ती स्थिति को देखा है ? हमारे धर्म एवं संस्कृति की जड़ें कटती रहीं। देखते-ही-देखते हजारों-लाखों व्यक्ति विधर्मी बना लिए गए । गोरक्षक गोभक्षक बन गए । हजारों-लाखों बहनों की इज्जतें लुटती रहीं । सबकुछ सामने होता रहा ? क्या किया उस युग के आचार्यों ने । वे सिर्फ परलोक के टिकट काटते रहे । उनका प्रायः यही
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