Book Title: Bhagwati Sutra Part 02
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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भगवती सूत्र
श. १२ : उ. १ : सू. २१-२६ २१. भंते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है जागरिका तीन प्रकार की प्रज्ञप्त है,
जैसे-बुद्ध-जागरिका, अबुद्ध-जागरिका और सुदृढ़-जागरिका। गौतम ! जो अर्हत् भगवान उत्पन्न-ज्ञान-दर्शन के धारक, अर्हत्, जिन, केवली, अतीत, वर्तमान और भविष्य के विज्ञाता सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हैं, वे बुद्ध बुद्ध-जागरिका करते हैं। जो अणगार भगवान विवेक-पूर्वक चलते हैं, विवेक-पूर्वक बोलते हैं, विवेक-पूर्वक आहार की एषणा करते हैं, विवेक-पूर्वक वस्त्र पात्र आदि को लेते और रखते हैं, विवेक-पूर्वक मल, मूत्र, श्लेष्म, नाक के मैल, शरीर के गाढ़े मैल का, परिष्ठापन करते हैं, मन, वचन और काया की संगत प्रवृत्ति करते हैं, मन, वचन और काया का निरोध करते हैं, अपने आपको सुरक्षित रखते हैं, इन्द्रियों को सुरक्षित रखते हैं, ब्रह्मचर्य को सुरक्षित रखते हैं, वे अबुद्ध अबुद्ध-जागरिका करते हैं। जो ये श्रमणोपासक जीव-अजीव को जानने वाले यावत् यथा-परिगृहीत तपः-कर्म के द्वारा आत्मा को भावित करते हुए रह रहे हैं, वे सुदृढ़-जागरिका करते हैं। गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-तीन प्रकार की जागरिका प्रज्ञप्त है-जैसे–बुद्ध-जागरिका, अबुद्ध-जागरिका, सुदृढ़-जागरिका। २२. श्रमणोपासक शंख ने श्रमण भगवान महावीर को वंदन-नमस्कार किया, वंदन-नमस्कार कर, इस प्रकार कहा-भंते ! क्रोध के वश आर्त बना हुआ जीव क्या बंध करता है ? क्या प्रकर्ष करता है ? किसका चय करता है ? किसका उपचय करता है ? शंख ! क्रोध के वश आर्त बना हुआ जीव आयुष्य-कर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों की शिथिल-बन्धन-बद्ध प्रकृतियों को गाढ़-बन्धन-बद्ध करता है, अल्पकालिक स्थितिवाली प्रकृतियों को दीर्घकालिक स्थिति वाली करता है, मन्द-अनुभव वाली प्रकृत्तियों को तीव्र-अनुभव वाली करता है, अल्पप्रदेश-परिणाम वाली प्रकृत्तियों को बहुप्रदेश-परिणाम वाली करता है, आयुष्य-कर्म का बंध कदाचित् करता है और कदाचित् नहीं करता, वह असातवेदनीय-कर्म का बहुत-बहुत उपचय करता है और आदि-अन्त-हीन दीर्घपथ वाले चतुर्गत्यात्मक संसार-कान्तार में अनुपर्यटन करता है। २३. भंते ! मान के वश आर्त बना हुआ जीव क्या बंध करता है ? क्या प्रकर्ष करता है ? किसका चय करता है ? किसका उपचय करता है ? इस प्रकार पूर्ववत् यावत् चतुर्गत्यात्मक
संसार-कान्तार में अनुपर्यटन करता है। २४. भंते ! माया के वश आर्त बना हुआ जीव क्या बंध करता है ? क्या प्रकर्ष करता है ? किसका चय करता है ? किसका उपचय करता है ? इस प्रकार पूर्ववत् यावत् चतुर्गत्यात्मक संसार-कान्तार में अनुपर्यटन करता है। २५. भंते ! लोभ के वश आर्त बना हुआ जीव क्या बंध करता है ? क्या प्रकर्ष करता है ? किसका चय करता है ? किसका उपचय करता है ? इस प्रकार पूर्ववत यावत् चतुर्गत्यात्मक
संसार-कान्तार में अनुपर्यटन करता है। २६. वे श्रमणोपासक भगवान महावीर के पास इस अर्थ को सुनकर, अवधारण कर भीत, त्रस,
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