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अनेकान्त 67/1, जनवरी-मार्च 2014
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ध्यान है। इसी बात को योगशास्त्र में कहा गया है। एक अक्षर आदि को लेकर अनेक प्रकार के पञ्च परमेष्ठी वाचक मन्त्र पदों का उच्चारण जिस ध्यान में किया जाता है, वह पदस्थ ध्यान कहलाता है।" अर्थात् ॐ ह्रीं नमः, णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं या अ सि आ उ सा, ॐ ह्रीं अर्ह असि आ उ सा नमः अथवा ३५ अक्षरात्मक पूर्ण णमोकार मंत्र का चिंतन इस ध्यान के माध्यम से किया जाता है। मंत्रराज और अनाहत दोनों मंत्रों के ध्यान के पश्चात् 'प्रणव' नामक ध्यान को ध्याने के लिए कहा गया है। प्रणव ध्यान में 'ॐ' को विशिष्ट स्थान है। "ह्रीं" माया वर्ण है २४ तीर्थंकर वाचक है। इस पद का ध्यान सभी करते हैं। “ॐ अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्याय साधुभ्यो नमः” मंत्र का ध्यान करने का भी विधान है।
इस प्रकार पदस्थ ध्यान चित्त को एकाग्र करने के लिए पदों अर्थात् मंत्रों एवं बीजाक्षरों का सहारा लिया जाता है, जो मुक्ति की कल्पना करने वाले हैं, उनके लिए मंत्र रूपी पदों का अभ्यास करने के लिए कहा गया है। इन मंत्रों के अभ्यास से साधक के समस्त कर्मों का क्षय होता है और लौकिक प्रयोजनों की सिद्धि के साथ मोक्ष पद की प्राप्ति हो जाती है। ४६ रूपस्थ ध्यान इसमें तीर्थकरों के नाम एवं उनके उज्जवल धवल प्रतिबिम्ब का ध्यान किया जाता है। आकाश और स्फटिक मणि के समान स्वच्छ अपने शरीर की प्रभारुपी जल निधि में लीन तथा जिनके चरण देवों तथा मनुष्यों के मुकुट में लगी मणियों से अनुरंजित है एवं जो आठ प्रातिहार्यो से घिरे हुए हैं। ऐसे अरिहन्त भगवान् का ध्यान करना ही रूपस्थ ध्यान है। ४७ इस ध्यान में वीतरागी का ही ध्यान करना चाहिए क्योंकि जब साधक वीतरागी का ध्यान करता है तो वीतरागी बन जाता है।" क्योंकि जिन भावों से जीव जुड़ता है, वह उन्हीं भावों से तन्मयता को प्राप्त हो जाता है। इस ध्यान से साधक को मोक्ष की प्राप्ति होती है। इसका ध्याता साक्षात् परमेष्ठी के दर्शन लाभ को प्राप्त है।
रूपातीत ध्यान रूप और अतीत दो शब्दों के योग से रूपातीत बना है। "रूप" का अर्थ है- मूर्तिमान् पदार्थ सहित पुद्गल दृश्यमान पदार्थ और अतीत का अर्थ 'रहित' है अर्थात् शुद्ध चैतन्य ज्ञानानन्द धन स्वरूप आत्मा शुद्धात्मा इस प्रकार ही आत्मा जो द्रव्यकर्म, भावकर्म और नो कर्म से रहित
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