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दिगम्बर जैन ग्रन्थ प्रशस्तियों का महाजान मोज्ञान
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होगा। केवल परम्परा के अनुसार मांडव के सुलतान का नाम तो दे दिया जो गयासशाह और उसका युवराज नसीरशाह था, चन्देरी के राज्यपाल के नाम की चिन्ता नही की केवल उसकी उपाधि जो उस समय प्रचलित
और उपयोग में पा रही थी, पर्थात् "खानेपा वाने मुजम", उसी का संस्कृत रूप महाजान मोजदान' अंकित करते चले गये हैं। फिर भी सवाल उठता है कि सन् १४९५-९६ ई० में चंदेरी का हाकिम कौन था । अभी तक इसकी जानकारी शिलालेख या अन्य साधनो द्वारा सन्-सवत के साथ प्राप्त नहीं है । सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
१. हीरालाल : दमोह दीपक ।
२. हीरालाल : इन्सक्रिप्शन्स ग्राफ सी. पी. ऐन्ड बरार | ३. हरिहरनिवास द्विवेदी ग्वालियर राज्य के प्रभिलेख | ४. पन्नालाल जैन शास्त्री जैन पुस्तक प्रशस्ति संग्रह,
भाग २ । ५. एपिफिया इन्डिका विक पशियन सप्लीमेण्ट
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मानस के प्रादर्शों के अनुकरण मे बाधा स्वरूप उत्पन्न हुमा है, क्योंकि समाज के महानुभाव जब सवनारकोटि मे चित्रित किये जाते है तो वे भक्ति और श्रद्धा के योग्य तो हो जाते है, किन्तु उनके जीवनचरितो से हम प्रदर्श पोर स्फति ग्रहण नहीं कर पात उनकी धनोकि
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भूत शक्तियों के धनुकरण मे हम धममर्थ हो जाते है। प्रतः रामचरितमानस के प्रादर्शों का मान बीप स्तर पर ग्रहण किया जाना अधिक अपेक्षित है । इस दृष्टि से 'पउम afta' का कथानक अधिक व्यावहारिक है । उनके प्रादर्श अधिक दूर नहीं लगते। वे व्यक्तिको स्वयं पुरुषार्थ के लिए प्रेरित करते हैं ।
उक्त पर्यवेक्षण के फलस्वरूप महाकवि स्वयम्भू पौर तुलसीदास के व्यक्तित्व एवं कृतित्व का प्रत्येक पक्ष संक्षेप रूप से हमारे समक्ष स्पष्ट हुया है। दोनों के वैयक्तिक जीवन में भिन्नता होते हुए भी व्यक्तित्व में प्रायः समा नता है. साहित्य सृजन में यदि एक का उद्देश्य धार्मिक प्रचार तथा कीर्तिकर का है तो दूसरा मामात्रिक उत्थान और आध्यात्मिक भावना के प्रसार से प्रेरित है।
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इन्डियन एविकी ऐन्युधन
एपिफिया इन्डिका रिपोर्टस
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रिसर्चर ( जयपुर - राजस्थान ) ।
धनेकान्त (दिल्ली) ।
जैन सिद्धान्त भास्कर (आरा)।
जैन साहित्य का इतिहास (बारागनी ) ।
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१२ नाथूराम प्रेमी दि० जैन ग्रंथकर्ता प्रौर उनके प्रथ १३. डा० नेमीचन्द शास्त्री तीर्थङ्कर महावीर मौर उनकी प्राचार्य परम्परा भाग ३, ४३०३२ । १४. भूबनी शास्त्रीप्रशस्ति स
१५ भट्टारक श्रुतकीर्ति हरिवशपुराण ( द्वारा तथा श्रामेर प्रतियाँ)
परमेष्ठी प्रकार (प्रति
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योगगार (जयपुर प्रति) |
कोयर रीवा (म०प्र० )
000 का शेषाण ]
काव्यौष्ठव मे दोनो बेजोड़ है एक कानि चिन्तन यदि ममार की प्रमारता पर मनन करता हुप्रा निर्वाण की है तो दूसरे नेत् को हो परमात्मामय बना देने की कोशिश की है। एक के मानवता से पूर्णता की ओर उन्मुख है तो दूसरे के
राम पूर्णता से अवतरित हो मानवता की सृष्टि करते हैं । भारतीय संस्कृति को पति एवं समृद्ध बनाने में दोनो का योगदान इतना है कि आने वाली पीढो हमेशा ऋणी रहेगी ।
प्रौर
स्वयम्भू और तुलसीदास का यह तुलनाध्य इस बात का एक उदाहरण है कि प्राकृत, अपभ्रंश भाषाम्रो के साहित्य ने धाधुनिक क्षेत्रीय भाषाओं के साहित्य को कितना प्रभावित किया है; कितना स्वरूप एवं उपयोगिता की दृष्टि से दोनो मे साम्यम्य है ? भारतीय भाषायों की रचनाओ के तुलनात्मक अध्ययन का यह क्रम जितना बढ़ेगा उतनी ही सांस्कृतिक एकता की दिशाएं उद्घटित होगी। DOU