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१००, वर्ष ३१, कि० ३-४
अनेकान्त
किया। संभवतया इन दोनों ही गुरु-शिष्यों की यह प्राचीन प्रति पर से उद्धार करके उसका अन्तिम संस्करण, माकांक्षा थी कि यह संस्थान एक विशाल ज्ञानकेन्द्र बने तो है ही. अन्य कोई रचना हो उसका अभी पता नहीं और इसमें खटखंडागम मादि प्रागम ग्रन्थों पर विशेष रूप चला। इसमें सन्देह नही कि उन्होने अपने संस्थान में से कार्य किया जाय । संयोग से आर्यनन्दि को वीरसेन के एक अत्यन्त समृद्ध ग्रन्थ-भंडार संग्रह किया होगा। लेखन रूप मे ऐसे प्रति भासम्पन्न सुयोग्य शिष्य की प्राप्ति हुई के लिए टनो ताड़पत्र तथा अन्य लेखन सामग्री की जिसके द्वारा उन्हे अपनी चिराभिलाषा फलवती होती आवश्यकता पूर्ति के लिए भी वहां इन वस्तुप्रो का एक दीख पड़ी। वीरसेन, जो सम्भवतया स्वय गजकुलोत्पन्न अच्छा बड़ा कारखाना होगा । अपने कार्य मे तथा सस्थान थे और यह संभावना है कि राजस्थान के सुप्रसिद्ध __की अन्य गतिविधियो मे योग देने वाले उनके दर्जनो चित्तौड़गढ़ के मोगे (मौर्य) राजा धवलप्पदेव के कनिष्ठ सहायक और सहयोगी भी होगे। उनके सधर्मा के रूप पुत्र थे, गुरू की अभिलाषा को पूर्ण करने के लिए मन्नद्ध मे जयसेन का और प्रमुख शिष्यों के रूप मे दशरथ गुरू, हो गये । गुरू की प्रेरणा से वह प्रागमों के विशिष्ट ज्ञानी श्रीपाल, विनयसेन, पद्मसेन, देवसेन और जिनसेन के नाम एलाचार्य की सेवा मे पहुंचे, जो उस समय चित्रकटपुर तो प्राप्त होते ही है। अन्य समकालीन विद्वानो मे उनके (उपरोक्त चित्तौड़) मे ही निवाम करते थे, और उनके दीक्षागुरू प्रार्यनन्दि और विद्यागुरू एलाचार्य के अतिरिक्त समीप उन्होने कम्मपय डिपाहुड मादि प्रागमो का गभीर दक्षिणापथ मे गंगनरेश श्रीपुरुप मत्तरग शत्रुभयकर अध्ययन किया। तदनन्तर वह अपने वाटनगर के संस्थान (७२६-७७६ ई०) द्वारा समादत तथा निर्ग डराज के मे वापस पाये और ८वीं शती ई० के मध्य के लगभग राजनीति विद्या गुरू विमलचन्द्र, राष्ट्रकट कृष्ण प्रथम की गुरु के निधनोपरान्त उक्त सस्थान के अध्यक्ष या कुलपनि सभा मे वाद-विजय करने वाले परवादिमल्ल, अकलदेव बने और प्रागमो की अपनी विशाल टीकापो के निर्माण के प्रथम टीकाकार अनन्तवीर्य प्रथम, तत्त्वार्थश्लोकवातिक, कार्य मे एकनिष्ठ होकर जुट गये ।
अष्टसहस्री प्रादि के कर्ता विद्यानन्द, हरिवशपुराणकार स्वामी वीरसेन को प्राकृत प्रौर सस्कृन उभय भाषाम्रो जिनमेनमूरि, रामायण आदि के रचयिता अपभ्रंश के पर पूर्ण अधिकार था, सिद्धान्त, छाद, व्याकरण, ज्योतिष महाकवि स्वयंभु प्रादि उल्लेखनीय है। चित्तौड़ निवासी और प्रमाण शास्त्रो में वह परम निष्णात थे। उनके शिष्य महान् श्वेताम्बराचार्य याकिनीसन हरिभद्रसरि भी इनके जिनसेन ने उनके लिए कवि चक्रवर्ती विशेषण भी प्रयुक्त समकालीन थे। भट्टाकलंकदेव को अपनी बाल्यावस्था में किया है। वीरसेन अपने समय के सर्वोपरि 'पूस्तक-शिष्य' स्वामी वीरसेन ने देखा सुना हो सकता है-उनका समझे जाते थे, जिसका अर्थ है कि उन्होने उस समय
स्मरण वीरसेन 'पूज्यपाद' नाम से करते थे। स्वामी उपलब्ध प्रायः समस्त साहित्य पढ डाला था। यह तथ्य
वीरसेन ने अपनी धवला टीका की समाप्ति सन् ७८१ ई० उनकी कृतियों में उपलब्ध अनगिनत संदर्भ मंकेतो व (विक्रम स० ८३८) मे की थी और ७६३ ई. के लगभग उद्धरणो से भी स्पष्ट है। इन ग्राचार्य पुगव ने जो विद्याल
उनका स्वर्गवास हो गया प्रतीत होता है। इसमें सदेह साहित्य सृजन किया उसमे षट्खण्डागम के प्रथम पाच नहीं है कि वाटनगर मे ज्ञान केन्द्र को स्वामी वीरसेन ने खण्डों पर निर्मित 'घवल' नाम की ७२००० श्लोक परि- उन्नति के चरम शिखर पर पहुंचा दिया था। माण महती टीका, छठे खण्ड 'महाबन्ध' का ३०००० उनके पश्चात् संस्थान का कार्यभार उनके प्रिय श्लोक परिमाण सटिप्पण मम्पादन 'महाधवल' के रूप मे, शिष्य जिनसेन स्वामी ने संभाला। यह प्रविद्धकर्ण बालकसाय प्राभूत की 'जयधवल' नाम्नी टीका का लगभग तपस्वी भी अद्भुत प्रतिभा सम्पन्न थे । पाश्र्वाभ्युदय तृतीयाश जो लगभग २५५०० इनोक परिमाण है, मिद्ध- काव्य उनके काव्य कौशल का उत्तम परिचायक है। सन् भूपद्धति नाम का गणित शास्त्र तथा २री शती ई० क ८३७ ई. (शक • ७५६) में उन्होने गुरु द्वारा अधुरे यतिवृषभाचार्य कृत निलीयपणत्ति का किसी जीर्ण शीर्ण छोड़े कार्य- जयधवल के शेषाप को लगभग ४००००