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चन्द्रावती को जन प्रतिमाएं : एक परिचयात्मक सर्वेक्षण
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४. पंजीयन क्रमांक सी-११९, जन प्रतिमा का सिंहा- १० इंच ४२४ इंच है। निगेवि नम्बर वी ६०० सन-इसके निचले भाग में गज-सिंह अंकित हैं। मध्य मे (पी १०)। शतदल कमल व वृषभ अकित हैं। यह सफेद संगमरमर ६. पंजीयन क्रमांक सी-१४५, प्रासनस्थ जैन तीर्थकी है। इसका साइज १० इंच ४२४ इंच है। निगेटिव ङ्कर-चतुर्भजी यह प्रतिमा खंडित अवस्था में है। यह नम्बर बी ५६६ (पी १०)।
सलेटी पत्थर की है। इसका साईज ३० इच-१६ इच ५. पंजीयन क्रमांक सी-१२०, जैन प्रतिमा का सिंहा- है। निगेटिव नम्बर ए बी बी ६१६ (पी १२) । सन--इस पर भी गज-सिंह अङ्कित है। इसके मध्य में ७. पंजीयन क्रमांक सी-१७६, जन प्रतिमा का परिपासनस्थ देवी प्रतिमा है जिसके नीचे शतदल कमल कर-यह सलेटी पत्थर की है। इसका साइज २१ इंचx अङ्कित है। यह सफेद संगमरमर को है और इसका साइज २५ इंच है। निगेटिव नम्बर बी ६३६ (पो १४)।
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(पृष्ठ १२५ का शेषांष) संस्कारो से युक्त विषयानुरक्त प्राणी निष्प्रयोजन अध्ययन विकास होना चाहिए । सम्यग्ज्ञान होने पर सामग्री के मे निरत रहता है। प्रात्मानुरागी यथार्थ दिशा मे गति- सान्निध्य में ज्ञानी उन्मत्त नहीं होता एवं भनेक सांसारिक शील होता है तो वही ज्ञान सम्यग्ज्ञान बन व्यक्ति को प्रभावो के होते हुए भी वह परम शाति का अनुभव करता अवलबन दे भव पार करा देता है। ज्ञान दुख से निवृत्ति है। इसका एक ही कारण है वस्तुस्वरूप का यथार्थ ज्ञान । करा सुख सागर में अवगाहन कराता है।
जिमने स्वद्रव्य, अपनी प्रात्मा व अन्य चेतन-प्रचेतन रूप रुढिवाद, अधविश्वासों के घेरे से निकल, विज्ञान के पर द्रव्य के स्वरूप को ज्ञान के द्वारा प्रत्यक्ष कर लिया चमत्कारो पर मुग्ध न हो, सम्यग्ज्ञान के द्वारा स्व पर
है वह शाश्वन को छोड प्रशाश्वत को ग्रहण करने की कल्याण की मद्भावना जन-जन के मन में जग जाये तो
अभिलाषा क्यो करेगा? और जब इच्छा ही नही होगी युद्ध की गति अवरुद्ध की जा सकती है।
तो व्याकुलता का फिर कौन-सा कारण है ? व्यग्रता का
प्रभाव हो तो पानद है । जहाँ मानद है वहां शांति है। कृपया ध्यान दें:
__ मन को झिंझोडने वाला प्रज्ञान चैन नहीं लेने देता। जैन समाज अपनी आने वाली नई पीढ़ी पर ध्यान दे, अज्ञान दूर हो एव घट-घट मे ज्ञान ज्योति प्रदीप्त होकर जो उसकी उत्तराधिकारिणी है, उत्तरोत्तर प्राचार-विचार जगमगाये । सद्ज्ञान के प्रभाव में व्यक्ति ढूंठ के सदृश हीन होती जा रही है। समाज मन्दिरो के नव-निर्माण है जो फल-फल-पत्रादि के प्रभाव में कोरा ही रह जाता को रोक, ज्ञान की उपासना हेतु ज्ञान मन्दिरों का निर्माण है। यदि हम नई पीढ़ी को ज्ञान की हरियाली न दे सके करे। वहां ज्ञान-दान की सुन्दर व्यवस्था हो। अल्प- तो समाज मे जनदर्शन के विद्वान् शून्यवत् रह जायेंगे। वयस्क वालकों से लेकर समाज का प्रत्येक व्यक्ति उनमें व्यक्ति को अध्यात्मिक ज्ञान की नितात मावश्यकता है, अध्ययन कर सके। ज्ञान कल्याणकारक है । प्रतः ज्ञान का प्रतः स्वाध्याय अनिवार्य है। 000
मोक्ष का मागे रयणतयं ण वट्टा अप्पाणं मयत अण्णदवियम्मि । सम्हा तत्तियमइयो होवि मोक्खास्स कारणं मावा ।।
-नेमिचन्द सिवान्त चक्रवर्ती रत्नत्रय पास्मा को छोड़कर अन्य द्रव्य में नहीं होता है, इसलिए उस रत्नत्रय सहित प्रात्मा ही निश्चय से मोक्षका मागहै।