Book Title: Anekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 214
________________ कलचुरिकालीन जैन शिल्प-संपदा १२६ के मध्य में छत्र-दगड है। छव-दन्ड के ऊपर वर्तुंलाकार प्रतिमा धुबेला सग्रहालय में है। ध्यान मुद्रा मे अवस्थित विछत्र है जो लगभग २ फुट ८ इंच ऊंचा है। इसके इस प्रतिमा के मस्तक के ऊपर एक छत्र है। छत्र के दोनों ऊध्र्व भाग में वैभव के प्रतीक दो हस्ती अभिषेक करते और एक-एक हस्ति तथा उनके ऊपर तीर्थकरों की प्रतिहुए दिखागे गये है। हस्तियो के शूर्पकर्ण के रठे हुए भाग, माए हे। ये लघु तीर्थकर प्रतिमाएँ संख्या मे २२ हैं, इनमें उनके गाल की विची हुई रेखाये एव चक्षु के ऊपर का पार्श्वनाथ एव महावीर का अंकन नहीं है। पादपीठ पर खिचाव कला की उच्चता के द्योतक है। परिकर पर हस्ति उनका लांछन शंख है। यक्ष-पती (गोमेष एवं अंबिका) पदम पर प्राधत है। छत्र के नीचे दोनो पावों में यक्ष का यथास्थान प्रकन है। एवं चार अप्सराएँ गगन-विहार करती हुई अकित है। त्रिपुरी में नेमिनाथ की एक खंडित प्रतिमा प्राप्त हुई पुष्पधारी गधर्व का अंकन भी सुन्दर है। परिचारक के है। किन्तु अवशिष्ट भाग इसकी पहचान के लिए पर्याप्त नीचे दोनो पावों में नारियो की खड़ी मूर्तियाँ है जिनके है। इसमे बायी ओर पुरुष (यक्ष) और दायी और स्त्री प्रग-प्रत्यंग ग्राभूषणो से अलंकृत है। (यक्षी) तथा मध्य में एक वृक्ष की डाल पर धर्मचक्र के कालचरिकालीन सपरिकर पद्मासनस्थ जिन प्रतिमाना समान गोलाकार प्राकृति उत्कीर्ण है। यक्ष-यक्षी के विभिन्न में यह रहे। गिल्प की दृष्टि में इतना सुन्दर और अंगो पर सुरुचिपूर्ण प्राभूषण हैं। ग्राम के दो पत्तों के बीच उत्कृष्ट परिकर अन्यत्र दुर्लभ है। अष्टप्रतिहार्य, यक्ष- चौकीनमा ग्रासन पर भगवान नेमिनाथ ध्यानस्थ: यक्षिणी, उपागव दम्पनि एव नवग्रहो जैगे जैनकला में प्रोर खड्गामनस्थ एवं ध्यानस्थ जिन मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। गाधारणत गाये जाने वाले तत्वों के माथ-साथ मूर्तिकार कलात्मक दृष्टि से यह प्रतिमा उस समय की उत्कृष्ट जैन ने इममे कुछ अजैन तत्त्वों का भी गमावेश किया है। प्रतिमानो मे है । मुख-मुद्रा मुग्धता, नैसर्गिक सौन्दर्य एवं द्वितीय तीर्थकर अजितनाथ की प्रतिमाएं गवां एवं सजीवता में प्रोत-प्रोत है और शिल्पी के परिनिष्ठित मिहपुर (शहडोल) स उपलब्ध हुई है। इनमे तीर्थकर कोठाल की टोत को ध्यान मुद्रा में दिखलाया गया है। मस्तक के पीछे प्रभा भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमाएँ अन्य तीर्थकरों की भण्डल एव वियक्ति का प्रतीक (इच्छा, ज्ञान एवं क्रिया) तुलना में सर्वाधिक है। ये प्रतिमाएँ प्रडमार, मल्लार त्रिछत्र है। प्रारान के नीचे पादपीठ पर उनका लाछन (विलामपुर), कारीतलाई (जबलपुर), सिहपुर (शहडोल) हस्ति तथा यज्ञ-यक्षी (महायक्ष व रोहिणी) अंकित है। एवं शहपुरा (मण्डला) आदि स्थलों से प्राप्त हुई है। ग्राटवे नीर्थकर चन्द्रप्रभ की प्रतिमा रतनपुर से उपलब्ध प्रतिमानो मे कारीतलाई से प्राप्त तथा महन्त उपलब्ध हुई है । यह भी ध्यानमुद्रा में है । मस्तक के पीछे घासीगम संग्रहालय, रायपुर में मंगहीत एक प्रतिमा ३ फुट प्राभामण्डल एवं विछत्र है। त्रिछत्र के ऊपर दुदुभिक ६ इंच ऊँची है। पार्श्वनाथ प्रतिमा का यह चतुर्विंशति अंकित है। छत्र के दोनों पावों में एरावत हस्ति तथा पट है : इसमें मूलनायक पार्श्वनाथ को ध्यानस्थ अवस्था हस्ति के नीचे पुष्पमालाएँ लिये विद्याधर अंकित हैं। मे दिखाया गया है। उनके नेत्र अनिमीलित हैं तथा तीर्थकर के दक्षिण पार्श्व में सौधर्मेन्द्र एवं वाम पाश्व में उनकी दष्टि नासाग्र पर स्थित है। उनकी ठही नुकीली, ईशानेन्द्र हैं। कीर्तिमुख युक्त पादपीठ पर उनका लांछन कान लम्बे एव केश घंघराले एवं उष्णीषबद्ध है । हृदय पर चन्द्र तथा श्रावक-श्राविका हैं। चन्द्रप्रभ के यक्ष-यक्षी श्रीवत्म चिह्नाकित है। (श्याम एव ज्वालामालिनी) का यथास्थान अंकन है। पार्श्वनाथ को सर्प पर विराजमान दिखाया गया है । __ शातिनाथ की १२वी सदी ई० को एक प्रतिमा सर्प की पंछ नीचे लटक रही है तथा उसका सप्तकण छत्र जबलपुर संग्रहालय में सुरक्षित हे । पादपीठ पर दो सिंहों तीर्थंकर के मस्तक के ऊपर छाया किये हुए है। सप्तफण के मध्य में उनका लांछन हिरण अंकित है। यक्ष गरुड़ छत्र के ऊपर कल्पद्रुम के लटकते हुए पत्ते और उनके और यक्षी महामानसी भी अंकित किये गए हैं। ऊपर दंदभिक हैं। फण के दोनों ओर महावतयुक्त गज बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ की १०वीं सदी की एक उत्कीर्ण है। महावतों के शीर्ष भाग खंडित हैं। गजकों

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