Book Title: Anekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 218
________________ विशालकीतिरचित प्रक्रियासार कौमुदी 0 श्री अगरचन्द नाहटा, बीकानेर जैन साहित्य प्रपनी विशालता और विविधता की दृष्टि संस्कृत-प्राकृत जैन व्याकरण और कोश की परम्परा नामक से भारतीय साहित्य में बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान रखता महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ प्रकाशित हुआ है। उसमे जैन संस्कृत है क्योंकि जैन धर्मानुयाइयों की संख्या वैदिक सनातनी व्याकरण ग्रथों पर कई विद्वानों के निबन्ध छपे हैं। इस हिन्दुनों की अपेक्षा बहुत कम है। इतनी अल्प संख्या वाले ग्रन्थ के पृष्ठ १२७ मे सारस्वत व्याकरण की टीकात्रों में जैन समाज का इतना विशाल साहित्य निर्माण और संर- प्रक्रिया वृनि का परिचय देते हुए डा. जानकी प्रसाद क्षण बहुत ही उल्लेखनीय रहा है । जैनों का प्राथमिक द्विवेदी ने लिखा है : "खरतरगच्छी मुनि विशालकीति ने साहित्य प्राकृत भाषा मे है । विक्रम की पहली-दुसरी सत्रहवी शती मे प्रक्रियावृत्ति की रचना की, बीकानेर मे शताब्दी में जैन विद्वानो ने संस्कृत मे भी लिखना प्रारम्भ श्री अगरचद नाहटा के संग्रह में इसकी हस्तलिखित किया, पर यह बहुत ही उल्लेखनीय है कि जैनों का प्राथ- प्रति है।" मिक संस्कृत साहित्य भी बहत प्रौह है। महामना उमा- डा० जानकीप्रमाद द्विवेदी को इस रचना की कोई स्वाति, सिद्धगेन, समन्तभद्रादि रचित संस्कृत साहित्य प्रति नहीं मिली, इसीलिये केवल इतना-सा उल्लेख किसी इमका प्रबल प्रमाण है। इसके दो प्रधान कारण है। पहला अन्य प्राधार से कर दिया। जब कालगणी शताब्दी का तो यह है कि बहुत से जैनाचार्य और विद्वान् ब्राह्मण प्रायोजन हो रहा था, तब सरदारशहर के डा० छगनलालजी परम्परा से पाये, अत. संस्कृत भाषा पर उनका अच्छा शास्त्री ने मुझसे पूछा कि सारकौमुदी नामक जैन व्याकरण अधिकार रहा। दुमरा कारण है समकालीन विद्वानो से ग्रन्थ की क्या आपको जानकारी है ? तो मैने उन्हे अपने टक्कर लेना । कारण, इस समय का वातावरण दार्शनिक संग्रह की विशालकीतिरचित प्रक्रियासारकौमुदी की प्रतियों विषयों पर गंभीर चर्चा व राजसभात्रों में प्रतिष्ठा प्राप्त्यर्थ का विवरण भेज दिया। सस्कृत भापा व जैनेतर साहित्य पर भी अच्छा अधिकार प्राचार्य तुलसी ने कालगणि के जीवनवृत्त के पृष्ठ होना आवश्यक था। ४१ पर लिखा है कि पार्यवर (कालूगणि) ने यह अनुभव विश्व मे संस्कृत के समान व्याकरणादि की दष्टि से किया कि सिद्धान्तचन्द्रिका का पूर्वार्द्ध अपर्याप्त है। सार. कोई भी भाषा इतनी प्रौढ और समृद्ध नही है। पाणिनी स्वत का उत्तरार्द्ध भी अपर्याप्त है। अत: वे अपने शिष्यों को व्याकरण के बाद तो सस्कृत बहुत चुस्त व कडे नियमो मे सारस्वत का पूर्वार्ध और सिद्धान्तचंद्रिका का उत्तरार्ध प्राबद्ध हो गई, वदिक सम्कृत से कुछ अलग-सी पड़ गई। पढाते थे। कुछ वर्षों बाद उनके मन में इसका विकल्प सस्कृत भाषा में साहित्य रचना करने के साथ-साथ जैन खोजने की प्रेरणा जागी । प्रयत्न शुरू हुआ। मुनि मगनमल विद्वानो को व्याकरण, कोग आदि विषयक ग्रन्थ बनाना जी बहुत दूरदर्शी, मूक्ष्मवुद्धि के धनी थे । वे यतियो के भी प्रावश्यक हो गया, अतः सर्वप्रथम जैनेन्द्र व्याकरण, उपाश्रय मे जाते, उनके पुस्तक भडार देखते और जो हस्तफिर शाकटायन व्याकरण की रचना पूज्यवाद और शाकटा- लिखित ग्रन्थ प्राप्त होते, उन्हें ले पाते। उन्होंने हस्तयन द्वारा हुई । जैन व्याकरण ग्रन्थ की पूर्णता कलिकाल- लिखित ग्रंथों का महत्त्वपूर्ण संग्रह किया। उनमें अनेक सर्वज्ञ प्राचार्य हेमचन्द्र द्वारा हई । वैसे छोटे-बड़े सैकड़ो दुर्लभ ग्रन्थ हैं । लिपि-सौंदर्य की दृष्टि से भी वे बहत ग्रन्थ जैन विद्वानो ने व्याकरण विषयक लिखे है। उनमें कुछ महत्त्वपूर्ण हैं । कुछ श्रावको ने भी यतियों के पुस्तक भंडारो तो जैनेतर व्याकरण ग्रन्थो की टीकाग्री के रूप मे है और से अनेक ग्रन्थ खरीदे। इस प्रकार जैन साधुमो और श्रावको कुछ मौलिक है। इस विषय मे कतिपय जैन विद्वानो के के पास हस्तलिखित ग्रन्थों का एक अच्छा संग्रह हो गया। निबन्ध पहले भी प्रकाशित हुए है पर गत वर्ष मे श्री कालगणि को सारकौमुदी की एक प्रति प्राप्त हुई। कालगणी जन्म शताब्दी महोत्सव समिति, छापर द्वारा उसे पाकर प्राचार्यवर को संतोष हमा।

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