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१३६, वर्ष ३१, किरण ३-४
अनेकांत
न्याय-दर्शन
चाहता है कि इस प्रन्य की पाण्डुलिपियां जिन ग्रन्थालयों नयायिकों के मोलह पदार्थों का विवेचन विस्तारपूर्वक में हों उनके व्यबस्थापक महानुभाव हमें उमकी सूचना किया गया है। प्रमाण का लक्षण करते हुये प्रतिपादन करने की अवश्य कृपा करें। प्राप्त पाण्डुलिपि कुछ स्खलित किया गया है कि
और प्रशुद्ध जान पड़ती है। प्रतएव हमाग प्रयास है कि "तत्रार्थोपलब्धिहेतुः प्रमाणम् । तच्चतुर्धा । तद्यथा।
इस ग्रन्थ का सुन्दर सम्पादन, संशोधन और हिन्दी रूपान्तर प्रत्यक्षानुमानोपमानशब्दा: प्रमाणानि ।"
अन्य अनेक प्रतियों को सामने रख कर किया जाय । पाशा इसी तरह अन्य पदार्थों का इसमें प्रतिपादन है।
है कि उत्तर तथा दक्षिण के सरस्वती-भवनो के अध्यक्ष सांख्य दर्शन
महोदय हमारे इस प्रयास में अवश्य ही सहयोग करेगे। इस दर्शन के पच्चीस तत्वों का उल्लेख करते हुये
स्याद्वाद महाविद्यालय, फिर प्रमाणों का परिचय कराया गया है। अन्त में उसके
भदैनी, वाराणसी प्रमेयों का निरूपण किया गया है। मीमांसा वर्शन
(पृष्ठ १३४ का शेषाश) मीमांसा दर्शन के प्रमाण-प्रमेयों का परिचय कराते
उपर्युक्त प्रशस्ति व पुरिएका से स्पष्ट है कि शिलहुये लिखा है कि-"मीमासकवादे प्रमाणानि प्रत्यक्षानु
कीति वाचनाचार्य पद से विभूपित थे । वे खरतरगाछ मानोपमानशब्दार्थापत्यभावाः ।" इसके बाद छहों प्रमाणों
की मागरचंद्रमूरि शाखा की परपरा के विद्वान् मुनि शानके स्वरूप का विवेचन मीमांसाश्लोकवार्तिक तथा शावरभाष्य
प्रमोद के शिष्य थे। खरतरगच्छ साहित्यसूची के अनुसार को प्राधार बना कर लिया गया है। पश्चात् मीमांसक
प्रक्रियासारको मुदी की एक प्रति म्व श्री जिन चाग्विरि दर्शन में स्वीकृत प्रयोगों का भी दिग्दर्शन कराया गया है।
संग्रह में भी है। इनकी दुसरी रचना सारम्वतप्रकाश की बौद्ध दर्शन
२८ पत्रों की प्रति सरदारशहर के गधैयाजी के संग्रह महे। इस दर्शन के चारों दार्शनिक सम्प्रदायो के सिद्धान्तों का सुन्दर विवेचन है। मोक्ष मे वमत्य होने के कारण
विशालकीति के शिष्य क्षेमहंसरचित चदनमलयागिरि लिखा है कि ---"वैभाषिक, सौलान्तिक योगाचारमाध्य
चौ० स० १७०४ मे माचौर में रचित प्राप्त है । विशालमिका: चत्वारो बौद्धाः। तेषु त्रयाणा मोक्षकल्पना । माध्य
कीर्ति के गुरुभ्राता गुणनदन की कई रचनाएँ सं० १६६५ मिकस्यनेतदस्ति, सर्वशून्यत्वात् ।"
से १६६७ तक की प्राप्त हुई है। विगालकीति के गुरुज्ञानचार्वाक दर्शन
प्रमोद की वाग्मयालकार वृत्ति एक महत्वपूर्ण प्रसिद्ध रचना स दर्शन के प्रमाण-प्रमे का पूरा विवेचन करते हुए है। विशालकीति का समय सत्रहवी शती का उत्तरार्द्ध कहा है कि -- "चार्वाकराद्वान्ते प्रत्यक्षमेव प्रमाणम् । तदपि निश्चित है। भूतविकारविशेषमनाधिगतार्धाधिगमलक्षणम् । पृथिव्या- उनकी जिस विशाल शब्दानुशासन नामक महत्वपूर्ण प्तेजोवायुरिति प्रमेयम्।"
रचना का उल्लेख तुलसीगणि ने किया है उसकी हस्त__ ग्रन्थकार की विशेषता यह है कि वह टीम-टाम के लिखित प्रति की खोज अावश्यक है । प्रक्रियासारकौमुदी की बिना ही उस दर्शन के मान्य प्रमाण और प्रमेय का संक्षेप
हमारे संग्रह की ३ प्रतियों की पत्र संख्या क्रमशः ६०.५८में ही कथन करता है, ताकि तत् तत् दर्शन का प्राथमिक
५६ कुल ११७ है । प्रति पृष्ठ १५ पंक्तियां व प्रति पक्ति जिज्ञासु उस दर्शन के प्रमाणों और प्रमेयों से परिचित हो
में ४८ प्रक्षर हैं। इससे रचना का परिमाण ५२०० श्लोक जाये। उक्त ग्रन्थ के अन्तः परीक्षण से ज्ञात होता है कि ग्रन्थ
के लगभग होता है । विशालशब्दानुशासन का परिमाण यद्यपि लघकाय है फिर भी भारतीय दर्शन में विद्वानों की प्रति मिलने से ही ज्ञात हो सकता है। दृष्टि में जो स्थान हरिभद्र सूरिकृत षड्दर्शन समुच्चय का विशालशब्दानुशासन की प्रति कहाँ और किसके पास है, वही स्थान न्याय के छात्रों में इस प्रमाणप्रमेयानुप्रवेश है, इस पर प्राचार्य तुलसीजी प्रकाश डालें एवं इसका का होना चाहिये। इस लेख के माध्यम से यह जानकारी महत्व प्रकट करें तो अच्छा हो। 00