Book Title: Anekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust
Catalog link: https://jainqq.org/explore/538031/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थापित : १९२६ प्राचीन जैन साहित्य की वीर सेवा मन्दिर २१, दरियागंज, नई दिल्ली-२ समृद्ध परम्परा वीर सेवा मदिर उत्तर भारत का अग्रणी जैन | संस्कृति, साहित्य, इतिहास, पुरातत्त्व एवं दर्शन शोध । प्राचीन जैन साहित्य का क्षेत्र प्रति विस्तृत है। प्राकृत, | संस्थान है जो १९२६ से अनवरत अपने पुनीत उद्देश्यों की | संस्कृत, अपभ्रंश कन्नड़, तमिल, गुजराती, मराठी हिन्दी सम्पूर्ति में संलग्न रहा है। इसके पावन उद्देश्य इस प्रादि विभिन्न भाषामों में निवद्ध इस साहित्य की भजन प्रकार हैं : धारा प्रति प्राचीन काल से अद्यावधि प्रविछिन्न रूप से 0 जन-जनेतर पुरातत्व सामग्री का संग्रह, संकलन | वहित चली पा रही है । श्वेताम्बर तथा दिगम्गर दोनों मोर प्रकाशन । सम्प्रदायों का साहित्य प्रायः भिन्न है। 0 प्राचीन जैन-जनेतर ग्रन्थों का उद्धार । लोक हितार्थ नव साहित्य का सृजन, प्रकटीकरण और महावीर से पूर्व का साहित्य प्रचार । चौदह 'पूर्व', उत्पादपूर्व मादि । महावीर से पश्चात 'अनेकान्त' पत्रादि द्वारा जनता के प्राचार-विचार को ऊँचा उठाने का प्रयत्न । का साहित्य प्राचाराङ्ग आदि बाहर प्रग। 'दृष्टिवाद' नाम के बारहवें अंग मे चौदह पूर्वो का समावेश था किन्तु 0 जैन साहित्य, इतिहास और तत्त्वज्ञान विषयक अनु सधानादि कार्यों का प्रसाधन और उनके प्रोत्तेजनार्थ। उसका परम्परा समाप्त हो गया। वृत्तियों का विधान तथा पुरस्कारादि का प्रायोजन । - अर्धमागधी जनागम विविध उपयोगी संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रश, हिन्दी एव । इनकी संख्या ४५ है-११ अंग, १२ उपांग, ६ छेदअंग्रेजी प्रकाशनों; जैन साहित्य, इतिहास मोर तत्त्वज्ञान विषयक शोध-मनुसंधान; सूविशाल एवं निरन्तर प्रवर्ष-1 सूत्र, ४ मूल सूत्र, १० प्रवीणक एवं २लिका सत्र। मान ग्रन्थागार; जैन, संस्कृति, साहित्य, इतिहास एवं पुरा इन सब पर जब जो रचनायें लिखी गई वे है-नियुक्ति, तत्व के समर्थ अग्रदूत 'अनेकान्त' के निरन्तर प्रकाशन एवं माष्य, बुणि पोर टीका। अन्य अनेकानेक विविध साहित्यिक मोर सांस्कृतिक गतिविषियोंरावीर सेवा मदिर गत ४८ वर्ष से निरन्तर शौरसेनी जैनागम सेवारत रहा है एवं उत्तरोत्तर विकासमान है। उपर्युक्त जैनागम श्वेताम्बर संप्रदाय मे प्रचलित है। यह सस्था अपने विविध क्रिया-कलापों में हर प्रकार से दिगम्बर परम्परा का मूलागम 'षट्खण्डागम' के नाम से मापका महत्वपूर्ण सहयोग एक पूर्ण प्रोत्साहन पाने की प्रसिद्ध है। इसकी रचना प्राचार्य धरसेन के शिष्य प्राचार्य अधिकारिणी है। प्रतः पापसे सामुरोध निवेदन है कि : पुष्पदन्त और भूत बलि ने की। दिगम्बर माम्नाय के मन१. वीर सेवा मंदिर के सदस्य बनकर धर्म प्रभावनात्मक कार्यक्रमों में सक्रिय योगदान करें। सार समस्त जैनागम चार भागों में विभक्त है-प्रथमान२. बीर सेवा मन्दिर के प्रकाशनों को स्वयं अपने उपयोग योग (पुराण-कथा), करणानुयोग (ज्योतिष-गणित), के लिए तथा विविष मांगलिक अवसरों पर अपने चरणानुयोग (माचारशास्त्र) तथा द्रव्यानुयोग । इन चारों प्रियजनों को भेंट में देने के लिए खरीदें। अनुयोगों का अपार साहित्य उपलब्ध है। ३, मासिक शोध पत्रिका 'भनेकान्त' के ग्राहक बनकर | ___तत्पश्चात् माज से लगभग १०० वर्ष पूर्व से जैन जैन संस्कृति, साहित्य, इतिहास एवं पुरातत्व के शोषा-साहित्य का माधुनिक युग प्रारम्भ होता है। नुसन्धान में योग दें। विविध धार्मिक, सांस्कृतिक पर्वो एवं दानादि के प्रव. सरों पर महत उद्देश्यों की पूर्ति में वीर सेवा मन्दिर की मार्थिक सहायता करें। भनेकान्त में प्रकाशित विचारों के लिए सम्पादक-मण्डल -गोकुल प्रसार बैन, सचिव : उत्तरदायी नहीं है। -सम्पादक Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोम् महम् परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्षरविधानम् । सकलनयविलसिताना विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ।। वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ वीर-निर्वाण संवत् २५०४, वि० सं० २०३४ वर्ष ३१ किरण १ जनवरी-मार्च १९७८ । श्री महावीर-स्तवन प्रशान्तं दर्शनं यस्य सर्वभूताऽभयप्रदम् । मांगल्यं च प्रशस्तं च शिवस्तेन विभाव्यते ॥ जगन्नकावस्थं युगपदखिलाऽनन्नविषयं, यवे तत्प्रत्यक्ष तव न च भवान् कस्यचिदपि । अनेनवाऽचिन्त्य-प्रकृति-रस-सिद्धेस्तु विदुषां, समीक्ष्यंतद्वारं तवगुण कथोरकावयमपि ॥ नाऽर्थान् विवित्ससि न वेत्स्यसि ना, ऽप्यवेत्सोनं ज्ञातवानसि न तेऽच्युत ! वेद्यमस्ति । त्रैकाल्य-नित्य-विषम युगपच्च विश्वं, पश्यस्यचिन्त्य-चरिताय नमोऽस्तु तुभ्यम् ॥ दूरामाप्तं यदचिन्त्य-मृतिज्ञानंत्वया जम्मजराऽन्तकत तेनाऽसि लोकान भिमूय सर्वान्सर्वज्ञ ! लोकोत्तमतामुपेतः ।। क्रियां च संज्ञान-वियोग-निष्फला क्रियाविहीनं च विबोधसंपदम् । निरस्यता क्लेशसमूह-शान्तये त्वया शिवाया लिखितेत पद्धतिः ।। य एव षडजीव-निकाय-विस्तरः पररनालीढ पथस्त्वयोदितः । अनेक सर्वज्ञ-परीक्षण-क्षमास्त्वयि प्रसादोदय सोत्सवाः स्थिता ॥ -सिद्धसेनाचार्यः अर्थ-जिनकी प्रशान्त मूर्ति के दर्शन मात्र से समस्त प्राणी प्रभय प्राप्त करते हैं, वह भगवान् प्रशस्त मंगलरूप एवं कल्याणमयी शोभायमान हैं। अखिल विश्व के अनन्त विषय और उनकी समस्त पर्यायें जिसके प्रत्यक्ष हैं, अन्य किसी को नहीं, पौर प्रकृति-रस-सिद्धविद्वानों के लिए भी जो प्रचिन्त्य है, ऐसे उक्त सर्वज्ञद्वार की समीक्षा करके मैं प्रापका गुणगान करने को उत्सुक हुमा हूँ। विश्व के त्रिकालवर्ती समस्त साकार-निराकार, व्यक्त-अव्यक्त, सूक्ष्म-स्थूल, दृष्ट-प्रदृष्ट, ज्ञातपज्ञात, व्यवहित-अव्यवहित प्रादि पदार्थ प्रपनी अनेक अनन्त पर्यायों सहित पाप को युगपत् प्रत्यक्ष हैं, हे भगवान प्रच्युत! पापको नमस्कार हो! हे सर्वान्सर्वज्ञ ! कठिनाई से प्राप्त होने वाले अचिन्त्य तत्त्वज्ञान द्वारा प्रापने जन्म-जरा मत्यु को जीत कर लोक को अभिभूत किया और लोकोत्तमता प्राप्त की। हे प्रभु ! प्रापके सन्मार्ग में सम्यग्ज्ञानरहित क्रिया को तथा क्रियाविहीन ज्ञान को क्लेश समूह को शान्ति और शिवप्राप्ति के अर्थ निष्फल बताया है। हे वीर जिन ! छ: काय के जीवों का जो विस्तार मापने प्रतिपादित किया है, वसा कोई अन्य नहीं कर सका। प्रतएव जो लोग सर्वज्ञत्व की परीक्षा करने में समर्थ हैं, वे बड़े प्रसन्न चित्त से प्रापके भक्त बने हैं। DDD) Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्यप्रदेश की जैन तीर्थस्थली : मक्सी पार्श्वनाथ D डा. सुरेन्द्रकुमार प्रार्य, उज्जन भारतीय संस्कृति धर्म प्रधान है, और हर धर्म में जैन धर्म में तीर्थ स्थान पर मूर्तियों की प्रतिष्ठा एवं तीर्थ यात्रा की महत्ता प्रतिपादित की गई है। तीर्थ यात्रा उनका पूजन अति प्राचीन काल से प्रचलित है। तीर्थों पर से अनुयायी वर्ग मे भक्ति भाव का प्रादुर्भाव होता है और मन्दिरों का निर्माण किया जाता है एवं मूर्तियों की मात्मा की शांति प्राप्त होती है। ये किसी प्राकृतिक प्रतिष्ठा की जाती है सुषमा की महता के कारण शांत स्थान में निर्मित होते मध्यप्रदेश में जैन पुरातत्त्व का प्रक्षय भंगर है। "तीर्थ" शब्द "तृ" धातु से निकला हुमा है, अर्थात् मध्यप्रदेश भारत वर्ष के मध्य में स्थित, क्षेत्रफल की जिम के द्वारा अथवा जिसके आधार से तरा जाय । जिन- दृष्टि से सबसे बड़ा प्रदेश है। इसमें प्रति प्राचीन जनपद सेन कृत "मादि-पुराण" में प्राता है कि जो इस प्रसार प्रवन्ती प्रदेश है और इसकी राजधानी उज्जयिनी थी। ससार समुद्र से पार करे उसे तीर्थ कहते हैं । यहा जिनेन्द्र इसे ही सातवीं शताब्दी से 'मालवा' कहने लगे। प्राचीन का प्रारूपान श्रवण किया जाता है। जैन धर्म में तीर्थ काल से ही प्रवती प्रदेश में नदी-तटों, वनों के सुरम्य स्थान उस स्थान को कहते है जहां तीर्थकरों ने गर्भ, जन्म, वातावरण मे वीतराग योगी पात्मा के उत्थान के लिए अभिनिष्क्रमण, केवल ज्ञान और निर्वाण कल्याण मे से ध्यानलीन रहा करते थे-पावागिरि, सिद्धवरकूट, चुलकोई कल्याणक हुमा हो अथवा किमी तपस्वी मुनि को गिरि, उज्जयिनी ऐसे ही प्राकृतिक सुषमा के प्रमुख तीर्थ कैवलज्ञान या निर्वाण प्राप्त हुमा हो। दिगम्बर समाज में तीन प्रकार के तीर्थ क्षेत्र प्रसिद्ध मालवा प्रदेश मे अतिशय क्षेत्र तो प्रसिद्ध है ही, परन्तु कला, पुरातत्त्व एवं इतिहास की दष्टि से भी अनेक स्थल (१) सिट क्षेत्र (जहां निर्वाण प्राप्त किया गया हो) महत्त्वपूर्ण है। तीर्थकरो की प्रतिमानों, मानस्तंभ, मन्दिर, (२) कल्याणक क्षेत्र प्रकोष्ठ, जैन ग्रन्थ व जैन चित्रों से ऐसे स्थल अपने पाप (३) भतिशय क्षेत्री मे तीर्थो जैसे महत्त्वपूर्ण स्थल हो गये हैं। उज्जैन मे तो प्रथम कोटि में वे क्षेत्र माते हैं जहां तीर्थकर या जैन धर्म का विकास मौर्य युग (ईसा पूर्व २०० वर्ष) से किसी तपस्वी मुनिराज का निर्वाण हुमा हो जैसे कैलाश, ही हो गया था। कसरावद, महेश्वर, सामेर, उज्जैन, चपा, पावा, ऊर्जयंत और सम्मेद शिखर । मक्सी, कायथा, उन्हेल, झारड़ा, खाचरोद, पानबिहार, दूसरे में हैं जहां किसी तीर्थंकर का गर्भ, जल, मभि- हासामपुरा, बदनावर, इन्दौर व सौढंग, करेड़ी, सखेड़ी. निष्क्रमण और केवल-शान कल्याणक हुमा है। पचोर, जामनेर, अदार, ग्राष्टा, शाजापुर, शुजालपुर' तीसरे अतिशय क्षेत्र है जहां किसी मन्दिर मे या मूर्ति मागर मादि ऐसे स्थान है जहा जैन पुरातत्त्व प्रभूत मात्रा में कोई चमत्कार दिखाई दे, तो वह भतिशय क्षेत्र कह- में है व जैन तीर्थंकरों की प्रतिमाएं, धातुयंत्र, मन्दिर प्रव. लाता है। शेष एवं हस्तलिखित ग्रन्थ सुरक्षित हैं। तीर्थ क्षेत्र की यात्रा से पापों का क्षय मोर पुण्य का गुना, बदनायर, ईसागढ़, पाष्टा, सुसनेर, उदरसी, संचय होता है, प्रात्मशुद्धि होती है और वीतराग मुनियों पचोर मादि स्थानों की तुन्दर तीर्थकर प्रतिमाएं दिगम्बर के पावन चरित्र का श्रवण करके उसे हम अपने जीवन मे जैन पुरातत्त्व संग्रहालय, जयसिंहपुरा, उज्जैन में सुरक्षित उतारने का संकल्प लेते हैं। है। यह संग्रहालय भारत के जैन संग्रहालयों में प्रमुख १.डा.वि.श्री वाकणकर : मालवा के जैन पुरावशेष, श्री महावीर स्मारिका, पु० ३४-४० देखिए लेखक द्वारा लिखित दिगंबर जैन मूर्ति संग्रहालय, जयसिंहपुरा का परिचय, पु. १०) Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्यप्रदेश की जैन तीर्थस्थल : मक्सी पाना द्वारा निर्मित मिली हैं । मध्यप्रदेश में मध्यकाल की जैन मूर्तियां प्रचुर संख्या में मिलती है यहां के अनेक क्षेत्रों की स्थापना इसी काल में हुई। यह मालवा में परमार नरेशों का शाशन - काल था जो लगभग ५०० वर्षों तक रहा, प्रर्थात् ६५० ई० से १४५० ई० तक रहा। इस काल में प्रमुख नरेश मुंज, भोज, उदयसिंह, प्रजयपाल देव प्रमुख थे । इन सहिष्णु नरेशों ने जैन धर्म के उत्थान में अभूतपूर्व योगदान प्रदान किया । है, क्योंकि जैन पुरातत्व की दृष्टि से मध्यप्रदेश प्रमुख है; और किसी भी प्रदेश में जैन पुरातत्व इतनी प्रचुरता से नहीं मिलता है। यहाँ का जैन पुरातत्व प्रचुरता की दृष्टि से ही नहीं, ऐतिहासिक और कला की दृष्टि से भी महत्व पूर्ण माना जाता है। डा० वाकणकर ने मालवा से प्राप्त लगभग साढ़े तीन सौ जैन अभिलेख नये मोजे है। इसके प्रतिरिक्त, जैन तीर्थंकर मूर्तियों, शासन देवी-देवताओंों की मूर्तियों, मन्दिर, स्तंभ व हस्तलिखित ग्रन्थ व दुर्लभ जैन चित्रकला के प्रमाण इस मालव प्रदेश में प्रसंख्य भरे हुए हैं। मानया में जैन धर्म का प्रारम्भिक विकास ईसा पूर्व श्री शताब्दी में हो गया था, पद्यपि वह पौद्ध धर्म की भांति उन्नत न था। श्रीमती स्टीवेन्सन का मत है कि महावीर भगवान ने अपने समय मे उज्जैन में कठोर तपस्या की थी । इसमें रुद्र ने वाघा पहुंचाई थी । जैन परम्पराओं मे चंद प्रद्योत को जैन धर्मानुयायी कहा गया है और उसने जीवंत स्वामी की महावीर प्रतिमा उन विदिशा व दशपुर में स्थापित की थी। मालवा में प्रशोक के पौत्र संप्रति ने जैन धर्म का प्रत्यधिक प्रचार एवं प्रसार किया । इस शासक ने जैन प्राचार्य प्रार्य सुहस्ति से दीक्षा ग्रहण की थी । संप्रति मालवा में अनेक जैन मन्दिर बनवाये और मूर्तियों की प्रतिष्ठा की। उसने अनेक सघों को प्रश्रय दिया व तीर्थों में निर्माण कार्य किया। महेश्वर के निकट कसरावद उत्खनन से ई० पू० दूसरी शताब्दी का 'निघटस बिहारे दीये' एक पात्र पर लिखा मिला है, जिससे कतिपय इतिहासकार यह कहते है कि यह प्रमाणित हैं कि मालवा में मौर्यकाल में जैन निर्भय साधु निवास करते थे' (के.सी. जैन मालवा प्र : दि एजेज, पृ० ७८) । बाद के शुंग सातवाहनकाल में सिद्ध सेन दिवाकर ने मालवा मे जैन धर्म का प्रसार किया । गुप्त काल में जैन धर्म का केन्द्र विदिशा बना और यहां पर जैन तीर्थंकर प्रतिमाओंों की स्थापना की गई। यहां से ४थी- ५वीं शताब्दी की जैन तीर्थंकर प्रतिमायें रामगुप्त १. जैन सेमिनार १९७६ में पठित अपना शोबपत्र । ३. इंडियन हिस्टारिकल क्वार्टरली. भाग २५, ५०२२ । परमार काल में मालवा में जैन धर्म का पर्याप्त समुनत विकास हुआ। इसी काल में यहां का बग-मग पुरातस्य जैन धर्म मंडित हुमा यद्यपि परमार नरेश ब्राह्मण धर्म के अनुसरणकर्ता थे, परन्तु उन्होंने जैन धर्म के उत्थान व प्रसार में अभूतपूर्व योग प्रदान किया। परमार नरेशों ने जैन विद्वानों को राज्याश्रय दिया। उज्जैन व बारा नगरी जंन भाषायों के स्थायी स्थान बने और जैन भाषायों ने बहुत बड़ी संख्या में जनता को जैन धर्म की ओर श्राकर्षित किया। अनेकों जैन मन्दिर इस काल में बने और उनमें मूर्तियों की स्थापना की गई। इसी काल में अनेक जैन तीर्थो की नीव पड़ी और जैन प्राचार्यों ने पूर्व परम्परा से प्रसिद्ध चले आते हुए स्थानों की महत्ता बताई व वहां पर तीयों का समारम्भ हुधा । परमार नरेश वाक्पति मुंच ने जंन प्राचार्य प्रमितगति, महाक्षेत्र, पनपाल व धनेश्वर को राज्याश्रय प्रदान किया । परमार नरेश भोजदेव ने प्रभाचन्द्र सूनि को सम्मान प्रदान किया घोर धनपाल ने "तिलकमंजरी" ग्रन्थ रचा। सूराचार्य व देवमद्र ऐसे जैनाचार्य थे जिनका भोज के दरबार में मादर किया जाता था। साथ ही नयनन्दि, जिनवर गुरि अन्य जैन कवि थे, जिन्हें सादर प्राप्त था। मक्सी पाश्वनाथ का मन्दिर उज्जैन से ३० कि० मी० और इन्दौर से ७२ कि० मी० उत्तर दिशा में स्थित है। यह एक चमत्कारी जैन तीर्थ है जहां पर किवदति [शेष पृष्ठ १२ पर ] २. स्टीवेशन : दि हार्ट आफ जैनिज्म, पृ० ३३ । Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्ययुग का एक अध्यातमियां नाटक कवि बनारसीदास ने 'नाटक समयसार' की रचना की थी। वे अपने युग के प्रख्यात साहित्यकार थे । यद्यपि उनका जन्म एक व्यापारी कुल में हुधा था, किन्तु वे अपने भावाकुल मन्तर मानस का क्या करते, जो सदैव कविता के रूप में प्रस्फुटित रहने के लिए व्याकुल रहता था उन्होंने पन्द्रह वर्ष की आयु मे ही एक 'नवरस रचना' fe डाली, जिसमें एक हजार दोहे-चौपाइयाँ थी। इस रचना में भने ही 'घासी का विसेस वरनन' था, किन्तु 'श्रासिखी काव्य-कला की दृष्टि से वह एक अच्छा काव्य था । इसका प्रमाण है । एक दिन, जब बनारसीदास ने उस कृति को गोमती में बहा दिया तो सहृदय मित्र हा-हा करते हुए घर लौटे। बनारसीदास की दूसरी कृति 'नाममाला' एक छोटा-सा शब्दकोश है। इसमें १७५ दोहे है । उसका मुख्य प्राधार धनजय की नाममाला है। किन्तु इसमें केवल संस्कृत का ही नही, भपितु प्राकृत मोर हिन्दी का भी समावेश है। अतः यह एक मौलिक कृति है। हिन्दी में इतना सरस शब्दकोश अन्य नहीं है । प्रागरे के दीवान जगजीवन ने वि० स० १७०१ मे बनारसीदास की ६५ मुक्तक रचनाओ को एक प्रभ्थ के रूप में संकलित कर दिया था। उसका नाम रक्खा था 'बनारसी विलास' । यह ग्रन्थ बम्बई धौर जयपुर से प्रकाशित हो चुका है। बना रसीदास का प्रारमचरित' अर्धकथानक के नाम से प्रसिद्ध है बनारसीदास चतुर्वेदी ने उसे हिन्दी का पहला प्रारम चरित माना है और इस दृष्टि से वह हिन्दी साहित्य की एक महत्त्वपूर्ण घरोहर है। 'नाटक समयसार' बनारसीदास की सशक्त रचना है । सशक्त इसलिए कि उस युग की 'प्रध्यात्ममूला भक्ति' मे वह अनुपम है। उसका कोई सानी नहीं, तुलना नहीं अभिव्यक्ति परिमार्जित है, तो स्वामा विक भी। इसका निर्माण भागरे मे वि० सं० १६६३, आश्विन सुदी १२, रविवार के दिन हुआ था। उस समय बादशाह शाहजहाँ का सोरठा दोहे २४५ ईमास डा० प्रेमसागर जैन राज्य था। इस कृति में ३१० - इकतीसा ६ चौपाइयां ३७ पहिल पर ४ कुण्डलियाँ २० छप्पय है । नाटक समयसार का पूर्वाधार । । । 'नाटक समयसार' का मूलाधार था प्राचार्य कुन्दकुन्द का 'समयसार पाहू' प्राचार्य कुन्दकुन्द विक्रम संवत् की पहली शती में हुए है उनके रखे हुए तीन ग्रन्थ-समयसार, प्रवचनसार और पंचास्तिकाय अत्यधिक प्रसिद्ध है। जैन परम्परा मे प्राचार्य कुन्दकुन्द भगवान् की भाँति ही पूजे जाते हे श्री देवसेन ने वि० सं० १९० मे अपने दर्शनसार नाम के ग्रन्थ मे लिखा है कि यदि कुन्दकुन्दाचार्य ने ज्ञान न दिया होता तो श्रागे के मुनिजन सम्यक् पथ को विस्मरण कर जाते । श्रुतसागर सूरिकृत 'षट्प्राभूत' की टीका के अन्त में उनको 'कलिकाल सर्वज्ञ' कहा गया है। चन्द्रगिरि और विन्ध्यगिरि के शिलालेखो मे उनकी प्रत्यधिक प्रशंसा की गई है। 'समयसार' म्रध्यात्म का सर्वोत्कृष्ट ग्रन्थ है। अपने स्वभाव और गुण पर्यायों में स्थिर रहने को 'समय' कहते है। जैन मान्यतानुसार छ: द्रव्य 'समय' सज्ञा से अभिहित होते है, क्योंकि वे सर्दव अपने तुणपर्यायो में स्थिर रहते हैं। इनमें भी भास्मद्रव्य ज्ञायक होने के कारण मारभूत है उसका मुख्यतया विवेचन करने से इस ग्रन्थ को समयसार कहते हैं। इसमें प्राकृत भाषा मे लिखी गई ४१५ गाथाएँ हैं । इसका प्रकाशन बम्बई, बनारस भोर मारोठ आदि कई स्थानों से हो चुका है । । इन प्राकृत गाथानों पर प्राचार्य अमृतचन्द्र ने वि० सं० की हवीं शती में 'श्रात्मख्याति' नाम की संस्कृत टीका कलशों के रूप में लिखी । माचायं ममृतचन्द्र प्रसिद्ध टीकाकार थे। उन्होंने केवल समयसार की ही नहीं, अपितु पंचास्तिकाय और तस्वसार की भी टोकायें लिखी है। Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्ययुग का एक प्रध्यातमिया नाटक टीका की विशेषता है कि उसका मूल अन्य के साथ पूर्ण में लिखा गया है। प्रारम्भ मोर पन्त के १०० पद्यों का भी तादात्म्य होना चाहिए। ऐसा प्रतीत होता है जैसे कि भात्मरूपाति टोका से कोई सम्बन्ध नहीं है। जिनका सम्बन्ध अमृतचन्द्र ने प्राचार्य कुन्दकुन्द की प्रतिमा में घुसकर ही है, वे भी नवीन हैं। उनमे 'कलश' का अभिप्राय तो अवश्य इस टीका का निर्माण किया हो। प्राचार्य अमृतचन्द्र लिखा गया है किन्तु विविध दृष्टांतों, उपमा और उस्प्रेक्षामों विद्वान थे पोर कवि भी, कवि प्रतिभा उनमें जन्मजात थी, से ऐसा रस उत्पन्न हुमा है, जिसके समक्ष कलश फीका किन्तु प्रारमख्याति टीका, टीका है, प्रतः उसे अपने मूल जंचता है। एक दृष्टान्त से यह बात स्पष्ट हो जायेगी। ग्रन्थ समयसार पाहड का सही प्रतिनिधित्व करना चाहिए अमृतचन्द्र ने एक कलश में लिखा हैथा, वह उसने किया है। शायद इसी कारण उसमें दार्श- नाश्नुते विषयसेवनेऽपि यस्त्वं फल विषयसेवमस्य ना। निकता ही मुख्य है। उसमे कवि का भावसकुलता का ज्ञान वैभव विरागता बलात्सेवकोऽपि तदसोऽसेवकः ।। समन्वय नहीं हो सका। प्राचार्य अमृतचन्द्र ने जिन अन्य इस पर लिखा गया नाटक समयसार का पद्य इस ग्रन्थों का निर्माण किया है. वे भी दार्शनिक ही है । 'तत्त्व प्रकार हैसार' और 'पुरुषार्थसिद्ध्युपाय' उनकी मौलिक कृतियां है। जैसे निशिवासर कमल रहे पंकही में, विक्रम संवत् की १७वी शती में प. राजमल्ल ने पंकज कहावं न वाके लिंग पंक है। र' पर 'बालबाधिना नाम का टाका लिखा, जो जैसे मन्त्रवादी विषधर सो गहा गात, हिन्दी गद्य मे थी। ये ढूंढाहढ़ प्रदेश के वराटनगर के रहने मन्त्र की शकति बाके बिना विष डंक है। वाले थे। अत: उनकी मातृभाषा ढूंढारी हिन्दी है। हिन्दी जैसे जीभ गहे चिकनाई रहे रूखे प्रग, गद्य के इतिहाम मे उनका गौरवपूर्ण स्थान है। पानी मे कनक जैसे काई से अटक है। प. राजमल्ल की विद्वत्ता को ख्याति चतुर्दिक तसे ज्ञानवान नाना भाति करतूत ठान, व्याप्त थी। वे मस्कृत और प्राकृत के भी मर्मज्ञ विद्वान किरिया ते भिन्न माने मोते निकलक है।" थे। उनका व्यक्तित्व भी प्राकर्षक और समुन्न। था। स्पष्ट ही है कि उपर्युक्त शब्दो के चयन, पक्तियो के विद्वत्ता के समन्वय ने उसे और भी निखार दिया था। गठन, प्रसाद गुण और दृष्टान्तालकर की सहायता से "ज्ञानकिन्त. अर्धकथानक मे लिखा है कि इस टीका को पढकर वानमान कार्यों को करता aur भी उनसे पथक रहता बनारसीदास को 'मात्मा' के विषय मे भ्रम हुमा था। है", यह दार्शनिक सिद्धान्त सजीव हो उठा है। सच तो इसका अर्थ यह हुमा कि पं० राजमल्ल जी 'समयसार' का यह है कि समयसार और उसकी टीकायें दर्शन से सम्बसही प्रथं नही समझ सके। सच तो यह है कि समयसार धित है. जबकि बनारसीदास का नाटक समयसार साहित्य एक ऐमा प्रस्थ है जिसका मूल समझ लेना मावश्यक है। का ग्रन्थ है। उसमें कवि की भावुकता प्रमुख है, जबकि बिना उसके पाठक उलझ जाता है। हो सकता है, प. समयसार मे दार्शनिक का पाण्डित्य । दर्शन के रूखे गजमल्ल भी कही मूल में ही भूल कर गये हो। मिद्धान्तों का भावोन्मेष वह ही कर सकता है जिसने उन्ह बनारसीदाम के नाटक समयसार पर उपर्युक नीनो पचाकर प्रात्मसात कर लिया हो। कवि बनारसीदास ने माचार्यों का प्रभाव है। अपनी प्राध्यात्मिक गोष्ठी में समयसार का भली भाति नाटक समयसार और उसकी मौलिकता अध्ययन, पारायण प्रोर मनन किया था। इसमें उन्होन वर्षों __'नाटक समयसार' को प्रमृतचन्द्र के सस्कृत कलशो खपा दिये थे । बीच मे गलन प्रथं समझने के कारण उन्हे का अनुवाद नही कहा जा सकता, उसमें पर्याप्त मौलिकता कुछ भ्रम हो गया था, परिणामवशात् वे और उनके चार भी है । अमृतचन्द्र की प्रात्मख्याति टीका मे केवल २७७ साथी एक बन्द कोठरी में नग्न होकर मुनि बनन का कलशे हैं, जबकि नाटक समयसार मे ७२७ पद्य है । अत अभ्यास करते थे। बाद मे पाण्डे रूपचन्द्रसे, जिनकी समूची का १४वो 'गुणस्थान अधिकार' तो बिल्कुल स्वतन्त्र रूप शिक्षा बनारस में हुई थी, गोम्मटसार सुनकर 3.हे Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३१, कि.. अनेकान्त वास्तविक ज्ञान हुमा मोर समयसार का सही अर्थ समझ इसका नाम ही 'नाटक समयसार' रखा। सके। किन्तु, केवल अर्थ समझना और उसकी अनुभूति नाटक समयसारमें सात तत्त्व-जीव, बन्ध, अजीव, मानव, करना दो भिन्न बातें हैं। अनुभूति तभी हो सकती है, संवर, निर्जरा और मोक्ष भभिनय करते हैं। इनमें प्रधान जबकि अर्थ को साक्षात किया गया हो, अर्थात् अनुभूति होने के कारण जीव नायक है और प्रजीव प्रतिनायक के लिए केवल ज्ञाता ही नहीं, द्रष्टा होना भी प्रावश्यक उनके प्रतिस्पर्धा अभिनयों ने चित्रमयता को जन्म दिया है। हाकवि बनारसीदास ने प्राचार्य कुन्दकुन्द के समयसार जीव को अजीव के कारण ही विविध रूपों में नत्य करना की गाथानों का प्रमतचन्द्र की प्रात्मरूपाति टीका के पड़ता है। प्रास्मा के स्वभाव और विभाव को नाटकीय ढंग माध्यम से अध्ययन किया, प्राध्यात्मिक गोष्ठी में मनन से उपस्थित करने के कारण इसको 'नाटक समयसार' वहते किया और एकान्त में साक्षात् किया। इनके समन्वय से हैं। यह एक प्राध्यात्मिक रूपक है। एक स्थान पर प्रात्माकायत दुई मनभति ने 'नाटक समयसार' को जन्म दिया। रूपी नर्तक मत्तारूपी रंगभूमि पर ज्ञान का स्वांग बना कर बनारसीदास की दृष्टि में सच्ची अनुभूति ही सच्चा ब्रह्म नत्य करता है। पूर्वबध का नाश उसकी गायन विद्या है, है। तज्जन्य मानन्द परमानन्द ही है, उससे कम नही। नवीनबध का सवर ताल तोड़ना है, नि.शकित प्रादि पाठ बहकामधेन और चित्रवेलि के समान है। उसका स्वाद प्रग उसके मना प्रग उसके सहचारी है, समता का मालाप स्वरो का पंचामृत भोजन-जैसा है । नाटक समयसार मे यह पचामृत । उच्चारण है, निर्जरा की ध्वनि ध्यान का मृदग है। वह भोजन पग-पग पर उपलब्ध है। 'देह विनाशवान् है, गायन और नृत्य मे लीन होकर मानन्द मे सराबोर हैउसकी ऊपरी चमक-दमक धोका देती है', दर्शन के इस मरुस्थल में से फूटने वाला एक निर्मल जल का स्रोत "पूर्वबध नास सो तो संगीत कला प्रकास देखिए नवबघ रुधि ताल तोरत उछरिक । "रेत की-सी गढ़ी किधों मढ़ी है मसान की-सी, निसक्ति प्रादि प्रष्ट अग संग सखा जोरि अन्दर अन्धेरी जैसी कन्दरा है मल की। समता अलापचारी करै सुर भरिकै । ऊपर की चमक-दमक पटभूखन की घोखे, निरजग नाद गाज ध्यान मिरदग बाजे ___ लागे भली जैसी कली है कर्नल की। __छक्यो महानन्द मै समाधि रीझि करिक। मौगुन की प्रोडो महाभौड़ी मोह की कनोडी, सत्तारगभूमि मै मुकत भयो तिहूं काल माया की मसूरति है मूरति है मल की। नाच सुद्ध दिष्टि नट ग्यान स्वांग धरिक ॥' ऐसी देह याहि के सनेह याको सगति सो, प्रात्मा ज्ञानरूप है और ज्ञान तो समुद्र ही है। जब वह ह रही हमारी मति कोल के.से बल को॥" मिथ्यात्व की गाठ को फोड़कर उमगता है, तो त्रिलोक में समयसार की 'नाटक' संज्ञा व्याप्त हो जाता है । इसी को दूसरे शब्दों में यो कहा जा जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, 'गमयसार' सकता है कि जब पात्मा मिथ्यात्व की तोड़कर केवलज्ञान अध्यात्म का ग्रन्थ था, उसमे प्राचार्य कुन्दकुन्द के दार्श- प्राप्त कर लेता है, तो ब्रह्म बन कर घर-घर में जा विरा. निक विचार मुख्य हैं, भाव नहीं। उन्होने समयसार को जता है। इसी को कवि ने एक रूपक के द्वारा प्रस्तुत माटक संज्ञा से अभिहित नहीं किया। सर्वप्रथम प्राचार्य किया है। रूपक मे प्रात्मा को पातुरी बनाया गया है। अमृतचन्द्र ने समयसार को 'नाटक' कहा। किन्तु, केवल वह वस्त्र और आभूषणो से सजकर, रात के समय नाटयवह देने मात्र से कोई ग्रन्थ नाटक नहीं बन जाता। उसमे शाला मे, पट को प्राडा करके पाती है, तो किसी को भावोन्मेष को मावश्तकता बनी ही रहती है। वह प्रात्म- दिखाई नहीं देती, किन्तु जब दोनो पोर के शमादान ठीक ख्याति टीका मे नही हो सका । बनारसीदास ने समयसार करके परदा हटाया जाता है तो सभा के सब लोग उसको की 'नाटक' सज्ञा को सार्थक किया और इसी कारण उन्होंने भली भाति देख लेते है। यह ही दशा प्रात्मा की है Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्ययुग का एक प्रयातमियाँ नाटक जैसे कोऊ पातुर बनाय वस्त्र ग्राभरन प्रावति प्रसारे निसि घाड़ो पट करि दुहं श्रोर दीबटि सवारि पट दूरि कीज सकल सभा के लोग देख दृष्टि धरिकै ॥ ज्ञानसागर मिध्यानि पंथि भेदि करि उमग्यो प्रगट रह्यो ति लोक भरिकै ऐसो उपदेश सुनि चाहिए जगत जीव सुद्धता संभारे जग जाल सों निसरि के ।। जीव एक नट है और वह वटवृक्ष के समान है । वट वृक्ष मे अनेक फल होते है, प्रत्येक फन मे बहुत से बीज तथा प्रत्येक बीज मे वटवृक्ष मौजूद रहता है। बीज मे वट और बट मे बीज की परम्परा चलती रहती है । उसकी अनंतता कम नही होती इसी प्रकार जीव रूपीनट की एक सत्ता मे धनन्त गुण, पर्यायें और कलाएं है। एक विलक्षण नट है. जैसे वटवृक्ष एक सा फल है भनेक फल-फल बहु बीज बीज-बीज वट है। बट माहि फल, फल माहि बीज तामै बट को जो विचार तो ताम्रपट है। तैसे एक सत्ता मैं, अनंत गुन परजाय परमं धनस्य साथै धत उ है । टट में अननकला, कला मै श्रनत रूप रूपमे अनंत सत्ता, ऐसो जीव नट है ॥ इस संसाररूपी रंगशाला मे यह चेतन जो विविध भौति के नृत्य करता है, वह वेतन की संगति से ही । तात्पर्य है कि अचेतन हो उसे संसार के श्रावागमन में भटकाता है। यदि श्रचेतन का साथ छूट जाय तो चेतन का नृत्य भी बन्द हो जाये। इसी को कवि ने लिखा हैबोलत विचारत बनविना छ भखको न भाजन पे भैखका धरत है । ऐसो प्रभु चेतन अचंतन को संगति सो उलट पलट नटवाजी सी करत है । जब चेतन वेतन की संगति छाड देता है, तो वह उस नाटक का केवल दर्शक भर रह जाता है, जो भ्रम पूर्ण, विशाल एवं महा भविवेकपूर्ण खाई मे धनादिकाल स दिखाया जा रहा है । यह पखाड़ा जीव के घट में ही बना है । वह एक प्रकार की नाटघशाला है। उसमे पुद्गल नृत्य करता है मोर वेष बदल-बदल कर कोतुक दिखाता है। चिमूरति जो मोह से भिन्न धौर जट से जुदा हो चुका है. इस नाटक का देखने वाला है, वेतन मोह घोर जड़ से पृथक् होकर शुद्ध हो जाता है. अतः वह सांसारिक कृत्यों को केवल देखता भर है, उनमें संलग्न नहीं होता । बनारसीदास का कथन है- या पट मे भ्रमरूप मनादि, विशाल महा अविवेक तामह और स्वरूप न दीसत, पुद्गल नृत्य करें प्रति भागे ॥ फेरत भेष दिखावत कौतुक, सौजि लिये करनादि पसारो । मोइसों भिन्न जुदो जड़ सौ चिन्मूरति नाटक देखन हारी ॥ कोई नट जब रंगमंच पर अभिनय करता है, तो उसकी अभिनयोपयुक्त वेशभूषा होती है। वह अपनी वास्तविकता भूलकर उसी को सच्ची मान बैठना है । नाटक की तन्मयता से उभरते ही उसे अपने वास्तविक रूप का ज्ञान होता है । ठीक यह ही हाल चेतन का है। वह घट में बने रंगमच पर अनेक विभावो को धारण करता है । विभाव का अर्थ है कृत्रिम भाव। जब सुदृष्टि खोलकर वह अपने पद को देखता है तो उसे अपनी वास्त विकता का ज्ञान हो जाता है। चेतनरूपी नट का यह कौतुक ज्यो नट एक घर बहु भेख, कला प्रगट बहु कौनुक देख पुल अपनी करतूत नट भिन्नलि त्यो घट मे नट चतन राव, विभाउ दसा घरि रूप विशे खोलि दृष्टि न प दु विचार दान | चेतन है वह वेतन के सब फंसा रहता है । प्रचेत-चेतन को या तो भटकाता है अथवा मोह की नीद में सुला देता, अपना रूप नहीं देखन देना है। नाटक समयसार में चेतन की सुपुप्तावस्था का एक चित्र प्रति किया गया है। वह काया की चित्रमारी में माया के द्वारा निर्मित सेज पर सो रहा है। उम सेज पर कलपना (तडपन) की चादर बिछी है। माह के भकारो से उसके नेत्र ढंप गये है । कर्मों का बलवान उदय ही दवास का शब्द है । विषय भोगो का मानन्व ही स्वप्न है । इस Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३१, कि.१ अनेकान्त भांति चेतन मस्त होकर सो रहा है। वह ऐसी मूढ दशा की हो। जैन सिद्धान्तों में मात्मा और जिनेन्द्र का एक ही में तीनों काल मग्न रहता है, भ्रम-जाल में फंसा रहता है। रूप माना गया है, अतः वह शरीरी हो अथवा अशरीरी, उससे कभी उभर नहीं पाता जैन भक्त को दोनों ही पूज्य है। नाटक समयसार में इस "काया चित्रसारी मे करम परजंक भारी, परम्परा का पालन किया गया है। कवि बनारसीदास ने माया की सवारी सेज चादर कलपना । यदि एक ओर निष्कल ब्रह्म की प्राराधना की है, तो दूसरी शन कर चेतन अचेतनता नींद लिये, ओर सकल के चरणो मे भी श्रद्धा के पुष्प चढ़ाये हैं। मोह की मरोर यहै लोचन को ढंपना॥ निष्कल' का दूसरा नाम है सिद्ध । कर्मों के प्रावरण उद बल जोर यहै श्वास को शबद घोर, से मुक्त प्रात्मा को सिद्ध कहते है। 'नाटक समयसार' में विष सुषकारी जाकी दौर यहै सुपना।। शुद्ध प्रात्मा के प्रति गीतों की भरमार है। एक स्थान पर ऐसी मूढ़ दशा मे मगन रहै तिहुंकाल, कवि ने लिखा है कि शुद्धात्मा के अनुभव के अभ्यास से ही घावै भ्रमजाल में न पावै रूप अपना ॥" मोक्ष मिल सकता है, अन्यथा नही । उनका यह भी कथन नाटक समयसार में वीर रस के अनेक चित्र है. जिनमें है कि प्रात्मा के अनेक गुण-पर्यायों के विकल्प मे न पडकर से एक में मास्रव और ज्ञान का युद्ध दिखाया गया है। शुद्ध प्रात्मा को अनुभव का रस पीना चाहिए । एपने स्व. शुक्ष प्रात्मा का कर्मों के प्रागमन को प्रास्रव कहते है। वह बहुत बड़ा रूप में लीन होना और शुद्ध प्रात्मा का अनुभव करना ही श्रेयस्कर है। सिद्ध शुद्ध प्रात्मा के ही प्रतीक है। उनके योद्धा है, अभिमानी है। ससार मे स्थावर प्रौर जंगम के विशेषणो का उल्लेख करते हुए कवि ने उसकी जय-जयकार रूप में जितने भी जीव हैं, उनके बल को तोड़-फोड़कर की है। एक पद्य देखिएप्रास्रव ने अपने वश मे कर रखा है। उसने मंछों पर "अविनामी अविकार परम रस घाम है, ताव देकर रण-स्तम्भ गाड़ दिया है, अर्थात् उसने अपने समाधान सरवग सहज अभिराम है। को अप्रतिद्वन्द्वी प्रमाणित करने के लिए अन्य योद्धानों को सुद्ध बुद्ध अविरुद्ध अनादि अनंत है, चुनौती दी है । अचानक उस स्थान पर ज्ञान नाम का एक जगत शिरोमनि सिद्ध सदा जयवत है॥" सुभट, जो सवाये बल का था, प्रा गया। उसने प्रास्रव को पछाड़ दिया, उसका रण-थभ तोड दिया। ज्ञान के शौर्य एक दूसरे स्थान पर कवि ने शिवलोक में विराजमान को देखकर बनारसीदास नमस्कार करते हैं 'शिवरूप' की वन्दना की है। उनका कथन है कि जो जेते जगवासी जीव थावर जंगम रूप, अपने प्रात्मज्ञान की ज्योति से प्रकाशित है, सब पदार्थों मे ते ते निज वस करि राखे बल दोरि के। मुख्य है, निष्कलक है, सुख सागर मे विश्राम करता है, महा अभिमानी ऐसो प्रास्रव अगाध जोधा, संमार के सब जीव और अजीवों के घट-घट का जानने रोघि रन थभ ठाढो भयो म छ मोरि के ॥ वाला है और मोक्ष का निवासी है, उसे भव्य जीव सदैव पायो विहि थानक अचानक परम धाम, नमस्कार करते है। भक्त के वन्दनीय को शिवरूप तो ज्ञान नाम सुभट सवायो बल फोरि के। होना चाहिए ही, साथ ही तेजवान भी, किन्तु तेज भौतिक प्रास्रव पछार्यो रनथभ तोरि डार्यो ताहि, न होकर, दिव्य हो, वह तभी हो। सकता है, जबकि सासानिरखि बनारसी नमत कर जोरि के ॥" रिक कलंक निकल जावे। तभी उसे मनत सुख पौर केवल ज्ञान उपलब्ध हो सकता है। ऐसे भगवान् के भक्त नाटक समयसार में भक्ति-तत्त्व का भक्तिपरक मापदण्ड निश्चयरूप से ऊँचा है। वह पद्य निष्कल और सकल अर्थात् निर्गुण और सगुण की इस प्रकार है - उपासना का समन्व। जैन भक्ति की विशेषता है। कोई जो अपनी दुति प्रा विराजत, है परधान पदारथ नामी। जन कवि ऐसा नही, जिसने दोनो की एक साथ भक्ति न चेतन अक सदा निकलंक, महासुखसागर को विसरामी॥ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्ययुग का एक प्रम्बातमिया नाटक जीव मजीव जिते जग में, तिनको गुन ज्ञायक मंतरजामी। अन्यत्र दुर्लभ ही है। बनारसीदास ने उस भारम-ब्रह्म की सो सिवरूप बस सिवथान, ताहि विलोकि नमै सिवगामी ।" प्रशंसा में लिखा हैनिर्गनिए संतों की भांति ही बनारसी ने यह स्वीकार "देख सखी यह ब्रह्म विराजित, याको इसा सब याही की सो है। किया कि जिनराज घट मन्दिर में विराजमान रहता है। एक मैं अनेक अनेक में एक, उसमें ज्ञानशक्ति विमल पारसी की भांति दमक उठती है, जिससे वह समूचे विश्व को देख पाता है। इस देख सकने दुंदु लिये दुविधामह दो हैं । प्रापु संभारि लख प्रपनो पद, की सामर्थ्य से अन्तर-राग और महामोह दोनों समाप्त हो मापु विसारिक मापुहि मो है। जाते हैं और मात्मा परम महारस रूप बन जाती है । ___ व्यापक रूप यहै घट अंतर, महारस वह है जिसमें एक भोर मन की चपलता नही रहती तो दूसरी पोर योग से भी उदासीनता मा जाती ग्यान मैं कौन प्रज्ञान मैं को है।" है, अर्थात प्रात्मा सहजयोगी का रूप धारण कर लेती है। बनारसीदास ने सकल ब्रह्म के भी गीत गाये । सकल 'सहजयोगी' का तात्पर्य है कि परम महारस के प्राप्त हो ब्रह्म वह है, जो केवलज्ञान उत्पन्न होने पर भी, प्रायुकर्म जाने से योगी को योग को दुरूह साधना से स्वत: निर्वति के प्रवशिष्ट रहने से विश्व में शरीर सहित मौजूद रहता मिल जाती है। वह साधना के बिना स्वाभाविक ढंग से है, अर्थात उसके घातिया कर्मों का क्षय हो जाता है, ही योगी बना रहता है। बनारसीदास की सहजता में अत: उसको भात्या में ब्रह्मत्व तो जन्म ले ही लेता है, व्रजयानियों के सहजयानी सम्प्रदाय का 'सहज' नही है, या क सहजयाना सम्प्रदाय का 'सहज नहा ह। किन्तु प्राय के क्षीण होने तक उसे संसार में रुकना पड़ता इसमे प्रात्मा का स्वाभाविक रूप ही मुख्य है, अर्थात् है। केवलज्ञान उत्पन्न होने के उपरान्त महन्त को यह ही बनारसीदास पहले महारस प्राप्त करते है, तब सहजता हाती रत ह। तब सहजता दशा होती है। उन्हें जीवन्मुक्त कहा जा सकता है। वे स्वाभाविक ढंग से प्रा ही जाती है। सहजयानी पहले। सशरीरी ब्रह्म है। प्राचार्य जोइन्दु ने उन्हे 'सकल ब्रह्म' सहजता प्राप्त करते है, फिर महारस को ओर अखि कोमजान की सज्ञा से अभिहित किया है। सूर और तुलसी ने ऐसे लगाते है। कुछ भी हो, बनारसीदास घट में शोभायमान ब्रह्म को सगुण कहा है, बनारसीदास ने तेईसवें तीर्थहर सहजयोगी चेतन की वन्दना करते है। पार्श्वनाथ को वन्दना करते हुए लिखा है कि उनकी भक्ति जैन प्राचार्यों ने 'परम महारस' में डूबी प्रात्मा को करने से समूचे डर भाग जाते हैं, अर्थात् भक्त निर्भय हो ब्रह्म कहा है। बनारसीदास ने भी उसे ब्रह्म कहा, उसके जाता है। भगवान् पाश्र्वप्रम का शरीर सजल-जलद की स्याद्वाद रूप का विवेचन किया। उन्होंने लिखा है कि मांति है। उनके सिर पर सप्तफणियों का मुकुट लगा है। वह एक भी है और अनेक भी, अर्थात् वह प्रात्मसत्ता में उन्होंने कमठ के प्रकार को दल डाला है। ऐसे जिनेन्द्र एकाप है और परसत्ता में अनेक रूप । वह ज्ञानी है और को बनारसीदास नमस्कार करते है। यह सच है कि प्रज्ञानी भी, अर्थात शुद्ध रूप में ज्ञानी और कर्मसगति मे जिनेन्द्र ने अपने भक्तो को कभी नरक में नही जाने दिया, प्रज्ञानी है। इसी भांति वह प्रमादी है और अप्रमादी उनके पापों को बादल बनकर हरण कर लिया। इतना ही भी-जब अपने रूप को भूल जाता है तो प्रमादी और नही, किन्तु उन्हे प्रगम्य प्रकार भव-समुद्र से पार कर जब अपने रूप को जागृत होकर स्मरण करता है तो दिया। वह भगवान् कामदेव को भस्म करने के लिए रुद्र अप्रमादी। अपेक्षाकृत दृष्टि से ही वस्तु का वास्तविक के समान हैं। भक्तजन सदेव उसकी जय-जय के गीत निरूपण हो सकता है, अन्यथा नहीं। इस दृष्टि को ही गाते है । स्यावाद कहते हैं। यह सिद्धान्त प्रात्मा पर भी घटित जिनेन्द्र (सकल ब्रह्म) की भक्ति की सामर्थ्य का होता है। मात्मा का ऐसा निष्पक्ष और सत्य विवेचन बखान करते हुए बनारसीदास ने एक स्थान पर लिखा है Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १., बर्ष ३१ कि.. अनेकान्त कि जिनेड की भक्ति कभी तो सुबुद्धि रूप होकर कुमति मुनिराज विश्व की शोभा बढ़ाते है । बनारसीदास ने उन्हें का हरण करती है, कभी निर्मल ज्योति बनकर हृदय के पुनः पुनः नमन किया। अन्धकार को दूर भगाती है, कभी करुणा होकर कठोर भक्त प्राराध्य की वाणी में भी श्रवा करता है। हृदयों को भी दयालु बना देती है, कभी स्वयं प्रभु की उसकी महिमा के गीत गाता है। जिनवाणी जिनेन्द्र के लालसा रूप होकर अन्य नेत्रों को भी तद्रूप कर देती है, हृदयरूपी तालाब से निकलती है और श्रुत-सिन्धु में समा कभी भारती का रूप धारण कर भगवान के सम्मुख पाती जाती है, अर्थात् वह एक सरिता के समान है। यह वाणी है भोर मधुर भावों को अभिव्यक्त करती है। कहने का सत्यरूपा है । सत्य अनन्त नयात्मक है। अनेक अपेक्षाकृत तात्पर्य है कि भक्ति भक्त को प्रभु की तद्रूपता का दृष्टियों से यह विविध रूप है। उसका कोई एक लक्षण मानन्द देती है। कवि ने लिखा है नहीं, कोई एक रूप नहीं। उसे समझने के लिए वैसी कबहूं सुमति ह कुमति को बिनास करें, सामर्थ्य पावश्यक है, अर्थात् सम्यग्दष्टि ही उसे समझ कबहुं विमल ज्योति प्रतर जगति है। सकता है, अन्य नही । बनारसीदास का कथन है कि वह कबहूं दया ह चित्त करत दयाल रूप, जिनवाणी सदा जयवंत होकबहूं सुलालसा ह लोचन लगति है। "तास हृद-द्रह सौ निकसी, कबहूं प्रारती ह्र के प्रभु सन्मुख प्राव, सरिता-सम हूं श्रुत-सिन्धु समानी। कबहूं सुभारती ह बाहरि बगति है। थाते अनन्त नयातम लच्छन, घर दसा जैसी तब कर रीति सी ऐसी, मत्य स्वरूप सिधत बखानी । हिरदै हमारे भगवत की भगति है। बुद्ध लख न लग्वं दुरबुद्ध, जिनेन्द्र की मूर्ति अथवा विम्ब को देखकर जिनेन्द्र की सदा जगमाहि जगे जिनवानी ॥" याव पाती है, उनके गुणों को प्राप्त करने की चाहना कबि बनारमीदास ने नवधा भक्ति का निरूपण किया उत्पन्न होती है। जिनेन्द्र मे कुछ ऐसा सौन्दर्य है, जिसके है। उन्होने लिखा है, "श्रवन कीरतन चितवन सेवन समक्ष इन्द्र का वैभव भी न-कुछ सा लगता है। उसके । वंदन ध्यान । लघुता समता एकता नवधा भक्ति प्रवान।" यश का गान हृदय के तमस् को भगाने में पूर्ण समर्थ है। नाटक समयसार में इस नौधा भक्ति के उद्धरण बिखरे भक्त उससे 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' की याचना करता है। उससे मलिन बुद्धि शुद्ध हो जाती है। इस भांति जिनेन्द्र विम्ब की छबि को महिमा स्पष्ट ही है। नाटक समयसार की भाषा बनारसीदास ने केवल निष्कल भौर सकल ब्रह्म की कवि बनारसीदास ने अपने प्रर्धकथानक की भाषा ही नहीं, अपितु उन सब साधुओं की भी वन्दना की है. को 'मध्य देश की बोली' कहा है। डा. हीरालाल जैन ने जो सदगुणों से युक्त हैं। उन्होंने लिखा है कि मनिराज 'मध्यदेस की बोली' की व्याख्या करते हुए लिखा है, ज्ञान के प्रकाश तो होते ही है, सहज सुखसागर भी होते "बनारसीदास जी ने अर्धकथानक की भाषा में ब्रजभाषा हैं, अर्थात् ज्ञान के उत्पन्न होते ही उन्हे परम सम्ष स्वतः की भूमिका लेकर उस पर मुगलकाल मे बढ़ती हुई प्रभाव. प्राप्त हो जाता है। वे प्रयत्नशील नही होते पौर सुख शाली खड़ी बोली को पुट दी है, और इसे ही उन्होंने मिल जाता है। पापी शरणागत को भी वे शरण देते हैं। 'मध्यदेस की बोली' कहा है, जिससे ज्ञात होता है कि यह उन्हे मौत का भय नही सताता। वे धर्म की स्थापना और मिश्रित भाषा उस समय मध्य देश में काफी प्रचलित हो भ्रम का खण्डन करते है। बे कर्मों से लड़ते है, किन्तु चुकी थी।" डा० माताप्रसाद गुप्त का कथन है, "यद्यपि विनम्र होकर, कोष अथवा भावावेश के साथ नही । ऐसे मध्य देश की सीमाये बदलती रही है, पर प्राय: सदैव ही Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्ययुग का एक मन्यातमिया नाटक चार खडी बोली और ब्रजभाषी प्रान्तों को मध्य देश के अन्तर्गत द्वारा मासान बनाने की प्रवृत्ति नाटक समयसार में भी माना जाता है और प्रकट है कि मर्घकथानक की भाषा में पाई जाती है। जैसे-निह (निश्चय), हिग्दै (हस्य), ब्रजभाषा के साथ खड़ी बोली का किचित् सम्मिश्रण है। विवहार (व्यवहार), सुभाव (स्वभाव). शकति (शक्ति), इसलिए लेखक का भाषा विषयक कथन सर्वथा संगत जान सासत (शाश्वत), दुन्द (द्वन्द्व), जगति (युक्ति), पिर पड़ता है।" यह सत्य है कि प्रर्धकथानक मे खड़ी बोली मोर (स्थिर), निरमल (निर्मल), मूरतीक (नत्तिक), सरूप ब्रजभाषा का समन्वय है । इस भांति वह जनसाधारण की (स्वरूप), मुकति (मुक्ति), अभिप्रंतर (मध्यंतर). भाषा है। पं० नाथ राम प्रेमी ने 'बोली' को बोलचाल की प्रध्यातम (पध्यात्म), निरजरा (निर्जरा), विभचारिती भाषा कहा है। मध्यदेश की बोली ही मध्यदेश की बोल- (व्यभिचारिणी), रतन (रस) मादि। 'य' के स्थान पर चाल की भाषा थी। 'ज' का प्रयोग हुमा है। जैसे-जथा (यथा), जथारथ बनारसीदास ने अर्धकथानक बोलचाल की भाषा में (यथार्थ), जथावत (यथावत), जोग (योग), विजोग लिखा, किन्तु उनके अन्य ग्रंथ साहित्यिक भाषा मे है। (वियोग) भोर माचरज (प्राचार्य)। कोई स्थान ऐसा नरी 'साहित्यिक' का तात्पर्य यह नही है कि उसमें से खड़ी जहाँ 'य' का प्रयोग हुमा हो। बोली और ब्रजभाषा निकल कर दूर जा पड़ी हों। रही तद्भवपरक प्रवृत्ति के होते हुए भी नाटक में संस्कृत दोनों किन्तु संस्कृत-निष्ठ हो जाने से उन्हें 'साहित्यिक' की निष्ठा ही अधिक है, अर्थात् प्रर्घकथानक की भांति सज्ञा से अभिहित किया गया। अर्धकथानक में प्रत्येक चलताऊ शब्दों का प्रयोग नहीं के बराबर है। भले ही स्थान पर 'श' को 'स' किया गया है, जैसे वहा शुद्ध को परपरिणति को परपरिनति कर दिया गया हो किन्तु शब्द सद्ध, वंश को बस और पार्श्व को पारस लिखा है, किन्तु तो संस्कृत का ही है। इस श्रेणी में उपर्युक्त शब्दों को नाटक समयसार मे अधिकाशतया 'श' का ही प्रयोग है। लिया जा सकता है। इसके अतिरिक्त सानवन्त, कलावन्त, शुद्ध चेतना, शुद्ध प्रातम और शुद्धभाव । इसी प्रकार सम्यक्त्व, मोक्ष, विचक्षण और निविकल्प मादि पधिकांश प्रशुभ, शशि, विशेषिये, निशिवामर और शिवसत्ता प्रादि। सस्कृत के तत्सम शब्दो का प्रयोग हुमा है। उर्दू-फारसी अर्धकथानक में 'प' के स्थान पर 'स' का प्रादेश देखा के शब्द अर्धकथानक मे भरे पड़े हैं, किन्तु समूचे नाटक जाता है, किन्तु नाटक समयसार मे सव स्थानो पर 'ष' का समयसार मे बदफैल पोर खुरापाती जैसे शब्द दो-चार से ही प्रयोग हुप्रा है। उस समय 'ष' का ख उच्चारण होता अधिक नही मिलेंगे। बनारमीदास उर्द-फारसी के अच्छे था, प्रतः लिपि में वह 'ख' लिखा हुआ मिलता है। किन्नु जानकार थे। उन्होंने जौनपुर के नवाब के बड़े बेटे चीनी ऐसा बहुत कम स्थानों पर हुअा है। विषघर, भेष, दोष, किलिच को उर्द-फारसी के माध्यम से हो सस्कृत पढ़ाई विशेष और पिऊष मादि मे ष का ही प्रयोग है, किन्तु थी। किन्तु नाटक गमयमार का विषय ही ऐसा था, पोष के स्थान पर पोख, विशेपिये के स्थान पर विशेखिये, जिसके कारण वे फारसी के शब्दो का प्रयोग नहीं कर प्रभिलाष के स्थान पर अभिलाख में ख देखा जाता है। सके। बनारसीदास ने विषयानुकल ही भाषा का प्रयोग किया है । यह उनकी विशेषता थी। अर्घ कथातक में 'ऋ' कही-कही ही सुरक्षित रह पाया भाषा का मौन्दर्य उसके प्रवाह मे है, मस्कृत अथवा है, किन्तु नाटक समयसार में उसको कही पर भी स्वरादेश फारसी निष्ठा में नही। प्रवाह का अर्थ है भाव का गुम्फन नही हुमा है। जैसे अर्घकथानक मे दृष्टि' को 'दिष्टि' का ___ के साथ अभिव्यक्तीकरण । नाटक समयसार के प्रत्येक पद्य प्रयोग किया गया है, नाटक समयसार मे वह दृष्टि ही मे भाव को सरसता के साथ गया गया है, कही विशृव. है। इसके अतिरिक्त कृपा, कृपाण, मृपा मादि शब्द ऋका- लता नही है, लचरपन नही है। एक गुलदस्ते की भांति रात्मक है। सुन्दर है। दृष्टान्तों की प्राकर्षक पंखुड़ियो ने उसके संस्कृत के संयुक्त वर्गों को स्वरभक्ति या वर्ण लोप के मौन्दर्य को और भी पुष्ट किया है। विचारों को अनु. Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२३१.० १ । भूति जब भावपरक होती है तो उसको प्रकट करना घासान नहीं है। किन्तु बनारसीदास ने सहज में ही प्रकट कर दी है। इसका कारण है उनका सूक्ष्मावलोकन उन्हें बाह्य संसार पोर मानव की अन्तःप्रकृति दोनों ही का सूक्ष्म ज्ञान था। इसी कारण वे भावानुकूल दृष्टान्तों को चुनने और उन्हें प्रस्तुत करने में समर्थ हो सके । एक उदाहरण देखिए ustra जैसे निशिवासर कमल रहे पंकहि मे, पंकज कहा न वाके दिन एक है। जैसे मंत्रवादी विषधर सों महावं मात मंत्र की सकति वाके बिना विप डंक है ॥ जैसे जीभ गहै चिकनाई रहे रूखे अंग, पानी में कनक जैसे कार्ड सों घटक है । तसे ज्ञानवंत नाना भाँति करतूति ठाने, किरिया को भिन्न मार्न याते निकलंक है। दृष्टान्तों के अतिरिक्त उत्प्रेक्षा, उपमा और रूपको की छटा भी अवलोकनीय है। रूपकों मे साग और निरग दोनों ही हैं। धनुप्रासों मे सहज सौन्दर्य है। बनारसीदास को प्रलंकारों के लिए प्रयास नहीं करना पड़ा। वे स्वतः ही माये है। उनको स्वाभाविकता ने सपताको अभिवृद्ध किया है। बनारसीदास एक भक्त कवि थे। उनके काव्य में भक्तिरस ही प्रमुख है। उनकी भक्ति अलंकारों की दासता न कर सको अपितु अलंकार ही [पृष्ठ ३ प्रसिद्ध है कि जब महमूद गजनवी इधर धाया तो उगने इस मन्दिर को तोड़ने की सोची, पर रात मे ही भयंकर रूप से बीमार पड़ गया । फिर उसने वहा अपनी श्रद्धा प्रकट करने के लिए ५ वृजियां बनवा दी। १४वीं शताब्दी मे भट्टारक ज्ञानसागर ने लिखा है "मालव] देश मकार नयर ममसी सुप्रसिद्ध महिमा मैरु समान निर्धन हू घन दोषह ||" यहां पर न केवल जैन समाज बरन् ग्रास-पास के भक्ति के चरणों पर सदैव प्रपित होते रहे। वे रसस्कूल के विद्यार्थी ये शरीर की विनश्वरता दिखाने के लिए उत्प्रेक्षा का सौन्दर्य देखिए- चारे से धका के लगे ऐसे फट जायमानो कागद की पुरी किध चादर है चैन की ।। छन्दों पर तो बनारसीदास का एकाधिपत्य था । उन्होंने 'नाटक समयसार' में सर्वया, कवित्त, चौपाई, दोहा, छप्पय और डिल्ल का प्रयोग किया है। इनमें भी 'सवैया इकतीसा ' का सबसे अधिक और सुन्दर प्रयोग है । सवैया' तो वैसे भी एक रोचक छन्द है, किन्तु बनारसीदास के हाथों में उसकी रोचकता भौर भी बढ़ गई है। कुल कहने का तात्पर्य यह है कि बनारसीदास ने जंग माध्यात्मिक विचारों का हृदय के साथ तादात्म्य किया, अर्थात् उन्होंने जैन मन्त्रों को पढ़ा और समझा ही नही, अपितु देखा भी । इसी कारण मन्त्रदृष्टाम्रो की भांति वे उन्हे चित्रवत् प्रकट करने में समर्थ हो सके। ऐसा करने मे उनकी भाषा सम्बन्धी शक्ति भी सहायक बनी । वे शब्दों के उचित प्रयोग, वाक्यों के कोमल निर्माण मौर अलंकारों के स्वाभाविक प्रयोग में निपुण थे उनकी भाषा भावो की धनुवर्तिनी रही वही ही कारण था कि वह निर्गुनिए सतो की भाँति घटपटी न बन सकी। 000 अध्यक्ष हिन्दी विभाग दि० जैन कालेज, बड़ौत (मेरठ) I का दोषास ] । जनेतर लोग भी आकर मनौतियां मानते है यहा पर सर्व धर्मों के लोग एकत्रित होकर धर्म आराधना करते है। समाज कल्याण के लिए गरीब छात्रों के लिए एक पाठशाला, गुरुकुल व प्रत्रछत्र भो है । पुस्तकालय से नि.शुल्क पुस्तके दी जाती है। इस तीर्थ पर निश्चय ही धार्मिक सहिष्णुता के दर्शन होते है। मालवा मे जैनो का यह एक प्रमुख तीर्थ है। ODO प्राचीन भारतीय इतिहास संस्कृति विभाग, विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन (म०प्र०) Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि स्वयम्भू और तुलसीदास ग० प्रेमनुमन जैन सभी भारतीय साहित्य एवं दिग्गज साहित्यकारों से के निवासी थे। दोनों महाकवियों में करीब माठ सौ रामकथा अन्तरग रूप से सम्बन्धित है। देश में जब वर्षों का अन्तर है। स्वयम्भू का समय ईसा की पाठवीं कोई नया विचार, सम्प्रदाय या बोनी पाई, तो उसने सदी का प्रथम चरण माना गया है। तुलसीदास सोलहवीं रामकथा के पट पर ही अपने को प्रङ्कित किया। रामकथा सदी (सं० १५८६) मे जन्मे थे। दोनों कवियों के पुरानी बनी रही, पर माध्यम से कितनी ही नवीनताएँ पारिवारिक जीवन में कोई समानता नही है। स्वयम्भू साहित्य के वातायन से जन-जीवन तक पहुचती रही।' परम्परागत कवि थे और उनके बाद भी घराने में सृजन रामव या जन-साहित्य मे भी पल्लवित हुई है। ईसा की होता रहा । तुलसीदास की परम्परा उन्ही तक सीमित है। दूसरी तीमरी शताब्दी से लेकर १६वी शताब्दी तक प्राकृत, वे एक पूर्ण गृहस्थ तथा एक घुमक्कड साधु थे। स्वयम्भू सस्कृत, अपभ्रश और प्राधुनिक भापामो मे उसका सृजन सम्पन्न थे। तलमीदास हमेशा अपनी निर्घनता दरसाते होता रहा है । इसमे विमल सूरिकृत पउमचरिय' (प्राकृत), रहे। यथारविषेण कृत 'पद्मचरित' (सस्कृत) पौर स्वयम्भकृत बारे ते ललात बिललात द्वार-द्वार दीन । 'पउमचरिउ' (अपभ्रंश) गमकथा की प्रमुख रचनाएं है। जानत हो चारि फल चारि ही चनन कों॥ ये अपने पूर्व और परवर्ती रामकथा साहित्य से तुलनात्मक अध्ययन की अपेक्षा रखती हैं। स्वयम्भू की मृत्यु और जीवन पर कोई सूचना प्राप्त ___महाकवि स्वयम्भ और तुलसीदास रामकथा के समर्थ नही है, जबकि तुलसीदास स्वय अपनी जीवनी लिखकर भाषाकवि हए है। यद्यपि इन दोनों कवियों की विषय- सं० १६८० मे काशी में मृत्यु को प्राप्त होते है। वस्त, यगचेतना, दार्शनिक-मान्यता प्रादि में बहुत अन्तर व्यक्तित्व दोनो महाकवियों का समान था। दोनों ही है फिर भी कई बातों में वे समान भी हैं । इस विषय का स्वभाव से दयालु और भावक थे तथा शारीरिक सौन्दर्य परिवेक्षण लोकभाषामों के पारस्परिक सम्बन्धों पर विशेष की जगह प्रात्मसौन्दर्य के प्रशंसक थे। दोनों ही उत्कृष्ट प्रकाश डाल सकता है। प्रतिभा और गहन अनुभूतियों के स्वामी थे और एक-से वयक्तिक जीवन एवं व्यक्तित्व साहित्यकार भी। यद्यपि स्वयम्भ की रचनायें तीन हैं, ___ महाकवि स्वयम्भू और तुलसीदास के वैयक्तिक जीवन किन्तु गोस्वामी तुलसीदाग की १५-१६ रचनामों के समक्ष मे भिन्नता है, किन्तु व्यक्तित्व में समानता है। स्वयम्भू बैठने में वे समर्थ भी है। चिन्तन की मौलिकता पौर कर्णाटक, दक्षिण भारत के थे। तुलसीदास का जन्म प्राध्यात्मिकता के पुजारी होने के नाते दोनों का व्यक्तित्व राजापुर (बांदा), उत्तर भारत मे हुमा था। वे प्रवध और सन्निकट हो जाता है। १. पउमचरिउ-डा० देवेन्द्रकुमार, दो शब्द । ४. तुलसीदास-डा० माताप्रसाद गुप्त, पृ० १६६ । २. द्रष्टव्य-डा.के.पार, चन्द्रा, 'पउमचरियं : ए स्टडी' ५. तुलसीदास और उनके ग्रन्थ, पृ० ४६ । हा. प्रार. सी. जन-रविषेणकृत पचरित का सांस्कृतिक अध्ययन ६. पउमचरित की भूमिका-हा. देवेन्द्रकुमार। डा० एस. पी. उपाध्याय-'महाकवि स्वयम्भू' ७. तुलसीदास-हा० गुप्त, पू० १४०। ३. पउमचरिउ की भूमिका-डा० भायाणी द्वारा संपादित ८. कवितावली ३, ७३ । Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त १४,३१,०१ काव्य-सृजन का उद्देश्य एवं प्रारम्भ स्वयम्भू के पउमचरिउ के सृजन के मूल में क्या कारण थे स्पष्ट नहीं है। यद्यपि पउमचरिउ की सन्धियों की पुष्पिकाओं से इतना ही विदित होता है कि किसी धनंजय नाम के व्यक्ति की प्रार्थना पर कवि ने प्रस्तुत ग्रन्थ की रचना की थी— इय रामचरिए घर्णजयासिय सयंभुएव कए । पउ (१-१६) ' लेकिन इतना ही कारण न रहा होगा । अपनी काव्य-रचना का ध्येय श्रात्माभिस्वयम्भू व्यक्ति मानते हैं। रामायण काव्य के द्वारा वह अपने प्रापको व्यक्त करना चाहते थे- 'पुणु प्रप्पाणउ पायडमि रामायण कार्ये (१३० १-१-१६) उनका लौकिक लक्ष्य या - यश की प्राप्ति । इसलिए उन्होंने अपने यश को चिरस्थायी रखने के लिए रामकथा का ही माध्यम चुना, क्योकि उनके पूर्व कम से कम दो जैन महाकवि विमलमूर और रविषेण राम साहित्य का सृजनकर प्रसिद्ध हो चुके थे । सम्भवतः उनकी कृतियो का आदर भी जन माधारण मे स्वयम्भू के समय था, जिससे प्रेरित और प्रभावित होकर प्रथ-प्रणयन के समय उनको कहना पड़ा है निम्मल-पुष्ण पवित्त कह किल माउप्प जेण समाणिजन्तरण चिर किसि विढप्य ॥ - ( १३० १, २, १२) जैन साहित्य में रामकथा का प्रणयन लोक प्रचलित कुछ शंकाओ के समाधान के रूप मे भी हुआ है। हो सकता है, इसके प्रचार-प्रसार की भावना भी स्वयम्भू के मन मे रही हो । महाकवि तुलसीदास का लक्ष्य रामचरित मानस के प्रणयन में इससे भिन्न था। पत्नी की प्रवहेलना व प्रेरणा से उनमें रामभक्ति उपजी स्वाभाविक है कि वे जो भी लिखते या उन्होने लिखा है, राम के विषय मे ही। दूसरी बात, वे अपने माराष्यका चरित बखानकर अपनी वाणी को पवित्र करना चाहते थे। उन्होंने परम्परा से प्राप्त रामकथा का भी अध्ययन किया था 'जो प्राकृत कवि परम सयाने, भाषा जिन हरि चरित बखाने । ' । इनके अतिरिक्त तुलसीदास अपने युग से कम प्रभावित नहीं थे तत्कालीन दार्शनिक व सामाजिक स्थिति को नया मोड देने के लिए एक इतने ऊंचे भादर्श को भावश्यकता थी जो केवल रामचरित के वर्णन में ही सम्भव थी मत सुननीदास ने हिन्दू संस्कृति को मुगलशासन । के प्रभाव से सुरक्षित रखने के लिए रामचरितमानस का प्रणयन किया और हर सम्भव प्रयत्न उन्होंने इस ग्रन्थ के द्वारा करना चाहा, जिससे वे परिवर्तन की दिशा को एक नया मोड़ दे सकें । १. जइ रामहो तिहुभ्रणु उवरे माइ । तो रावण कहि तिय लेवि जाइ । इत्यादि यही १.१० २. रामचरितमानस, बालकाण्ड | स्वयम्भू और तुलसीदास ने अपने प्रस्तुत ग्रन्थो का प्रारम्भ प्रायः एक-सा किया है। सर्वप्रथम देवताओं और अपने आराध्य की वन्दना कर आत्मलघुता दोनों ने प्रकट की है। यथा तिम्रण लग्गाण खम्भु गुरु परमेट्ठि णवेष्पिणु । पुणु प्रारम्भिय रामकह प्रारिसु जोणेपि । प० १-१ बंदऊ गुरुपद पदुम परागा । सुरुचि सुबास सरस अनुरागा । बदऊ नाम राम रघुबर को । हेतु कृसानु भानु हिमकर को ॥ यथा - बुहपण सयम्भू पूइँ विष्णवई । मई सरिस प्रष्णु णाहि कुरुई हऊँ कि पिण जाम मुक्ख मुणें । यि वद्धि पयासमिनो विज ।। (१३० १ ३.१,९) कवि न होहुं नहिं चतुर प्रवीनू । सकल कला सब विद्या हीनू ॥ इत्यादि । इसके अतिरिक्त बल निन्दा, सज्जन प्रशंसा प्रादि प्राचीन परम्परा का निर्वाह दोनों ने किया है। स्वयम्भू ने रामकथा को अनेक गुणों से युवक माना है तथा सरिता के रूप मे उसका चित्रण किया है। रामकथा अक्षरविन्यास के जनसमूह से मनोहर, सुन्दर लकार तथा छन्दरूपी मरस्यों से परिपूर्ण घोर सम्बे प्रवाहरूप से प्रति है । यह संस्कृत और प्राकृतरूपी पुलिनों से प्रलंकृत देशीभाषा रूपी दो कूलों से उज्ज्वल है 1 ३. दसरह तब कारण सब्बुद्धारणु वज्जयष्ण सम्मयभरि । जिणवरगुणकिसणु तीयसइस तं विसुणडु राहव चरि ॥ प० स ि४० Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि स्वयम्भू पोर तुलसीदास इसमें कहीं कठिन घनशब्दरूपी शिलातल है, कही यह भादि ने निर्मित किया था। यह सब प्रत्येक कविके अनेक अर्थरूपी तरंगों से प्रस्त-व्यस्त हो गई है और कही उद्देश्य भेद के कारण हमा है। सैकड़ों प्राश्वासरूपी तीर्थों से प्रतिष्ठित है। ___ स्वयम्भू के पउमचरिउ की रामकथा में परिवर्तन एहि रामकह तोरे सोहन्ती। गणहर देवहि दिट बहन्तो॥ स्वाभाविक है । यहाँ न केवल कवि की दष्टि मे ही भेद है, भपितु रामकथा को जैन विच रधारा के अनुकूल ढाला गोस्वामी तुलसीदास रामकथा को सरिता मानकर तो भी गया है। मानस की रामकथा के साथ-रामजन्म, चलते हैं धनुषभग, सीता-विवाह, वन-गमन, भरतमिलाप, गीताचली सुभग कविता मरिता-सी। हरण, शूर्पणखा का अपमान, खरदूषण-वध, रावण-वध राम विमनस जल भरिता-सी ।। (गम• बाल ० ३६-३८) प्रादि प्रमगो के वर्णनो मे पउमरिउ का कोई विशेष विरोध नहीं है, केवल कही नामो म भिन्नता व वर्णनशैली उसकी उपमा मरोवर में भी देते है और अनेक तरह की विविधता है। लेकिन प उमचरिउ मे स्वयम्भू की अपनी से इसका गुणगान करते है। कुछ मौलिक स्थापनाएँ भी है; जैसे-(१) राम-लक्ष्मण दोनो ही कवि गमकथा को प्रारम्भ करते ममय अपने पौर रावण को न केवल जैन धर्मावलम्बी मानना प्रपितु पूर्व के प्राचार्यों व भगवत्कृपा के प्रति अपनी कृतज्ञता विषष्टि शलाका महापुरुषो की कोटि मे रखकर बलदेव, प्रकट करते है वासुदेव और प्रतिवासुदेव मानना । (२) राक्षस और बद्धमाण, मुह-कुहर-विणिग्गय । वानर-वशो का विद्याधर वशो की भिन्न-भिन्न शाखाएँ गम कहा-णइ-एह कमागय ॥ (उ० १. २, १.) मानना । (३) दशरथ की तीन रानियों के साथ चौथी तथा .. रानी सुप्रभा को शत्रुघ्न की माता मानना। (४) राम जस कछु बुधि विवेक बल मेरे । और लक्ष्मण की अनेक पत्नियो का उल्लेख । (५) राम, तस कहिहहु हिन हरि के फेरे ॥ लक्ष्मण मोर सीता की कामदशा का वर्णन । (६) वनप्रत. काव्यमृजन के उद्देश्य एवं प्रारम्भ मे दोनो कवि वास मे जलक्रीडा प्रादि के उल्लेख । (७) लक्ष्मण द्वारा काफी साम्य रखते हैं। उनमे भिन्नता जो भी है, नही। रावण का वध तथा राम, सीता, लक्ष्मण मादि प्रमुख पात्रों के बराबर है। फिर भी खल-निन्दा और सज्जन-प्रशंसा द्वारा जिनदीक्षा का ग्रहण, इत्यादि । के बहाने तुलसीदास ने जो अपने युग का और अपनी तुलसीदास पौर स्वयम्भू की कथावस्तु मे इस तरह प्रान्तरिक भावनाओं का चित्रण किया है, वह स्वयम्भू मे साम्य, वैषम्य होते हुए भी कथा की स्वाभाविकता किसी नहीं है। मे समाप्त नहीं हुई है। दोनों जगह जो परिवर्तन व वस्तु-विन्यास भिन्नता है उसके अपने कुछ अनिवार्य कारण भी हैं। मोस्वामी तुलसीदास ने रामकथा का जो स्वरूप यद्यपि स्वयम्भू प्रौढ प्रतिभा के धनी थे किन्तु वस्तु-विन्यास है, उसका घटनाक्रम इतना प्रसिद्ध हो चुका मे वह सुघड़ता वे नही ला सके जो महाकवि तुलसीदास है कि यदि हम अन्य रामकथानों को पढ़ते हैं तो उनके के रामचरितमानस मे है । गोस्वामी जी का प्रबंध सौष्ठव परिवर्तनों पर हमें विश्वास ही नही होता। लेकिन यह तो कमाल का है।' मानना ही पड़ेगा कि रामकथा जब भी जिस किसी भाषा मे काव्य-सौष्ठव लिखी गई, कई रूपों में परिवर्तित हुई है। स्वय तुलसी- महाकाव्यगत समस्त विशेषतामों का समावेश स्वयम्भू दास की रामकथा मे वे घटनाएं व प्रसंग नही है जिनसे और तुलसीदास के प्रस्तुत ग्रन्थों में है। सध्या-वर्णन, राम के प्रादर्श में कुछ कमी माती थी मोर जिन्हे बाल्मीकि बसन्त, नदी, समुद्र, वन, युवमादि काव्योपयुक्त प्रसंगों के १. तुलसी-दर्शन -30 बनबरसाद मिश्र, पृ. ३४७ । Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६,३१,०१ अनेकान्त वर्णनों में दोनों कवि सिद्धहस्त हैं। प्रकृतिचित्रण में स्वयम्भू ने प्रकृति के शान्तरूप की अपेक्षा उसके उग्ररूप के वर्णन में जहां afar ofa दिखाई है' वहां तुलसीदास ने प्रकृतिचित्रण के बहाने समाज का चित्र उपस्थित किया है। 'परम रम्य धाराम यह जो रामहि सुख देत' के ब्याज से रामप्रेम से प्रोतप्रोत सन्त समाज की सृष्टि की है* मोर 'चातक को किस फीर चकोरा' पक्षियों के वर्धन में भक्तों के गाये हैं। दोनों कवि जन-साधारण मे प्रचरित उपमानों का उपयोग करते है यही उनकी प्रमुख विशेषता है । चरण में स्वयम्भू के पात्र उतने सशक्त प्रर सजीव नही हैं, जितने तुलसीदास के । स्वयम्भू ने हर पात्र को जिन-भक्ति के रंग में रंगने की कोशिश की है और उसमें संसार की प्रसारता श्रादि का कथन कराया है, जबकि तुलसीदास का प्रत्येक पात्र सघी हुई तुलिका से निर्मित भौर स्वाभाविक है । स्वयम्भू के राम धीरोदात्त भक्ति, क्षमा, दृढ़ता प्रौर प्रात्मगौरव से युक्त साधारण मानव की तरह पूर्ण विकास की ओर बढ़ते है, जबकि तुलसी के राम परमात्मा से मनुष्य का अवतार ग्रहण करते हुए सरलता, स्नेह, नम्रता, उदारता एवं निस्वार्थता के प्रादर्श को उपस्थित करते हैं। भाव-चित्रण मे दोनो कवि बेजोड़ हैं। नव-रमों का समावेश दोनो ग्रन्थों मे है। किन्तु शान्तरस की प्रधानता है स्वयम्भू ने यद्यपि निवृति-मार्ग का प्रतिपादन किया । है, किन्तु जलकीड़ा के वर्णन मे स्वयम्भू की प्रसिद्धि है।' उन्होंने शृङ्गाररस का चित्रण भी बड़ी उदारता से किया है। यहां तक कि संसारत्यागी साधु भी हृदयग्राही शृङ्गरिक वर्णन करते नजर भाते है, जबकि गोस्वामीजी का शृङ्गार रस मर्यादापूर्ण धौर विशुद्ध है। करुण रस के चित्रण मे स्वयम्भू ने अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की है। राम वनगमन के समय व्याकुल सुमित्रा का चित्रण कवि ने किया है १. अपभ्रंथ साहित्य कोछड़ ०६३ । २. तुलसी-वर्धन, पृ० ३४७ । ३. प्रपभ्रंश-साहित्य, पृ० ५७ तथा द्रष्टव्य, डा० उपा --- रोवतिए लक्खण- मायरिए, सयल लोड रोवापियउ । कारण कय्व कहाए जिह, कोवल धंसु मुभावियत ॥ (पउ० ६९-१३) इसी तरह तुलसीदास की कौशल्या का विषाद हृदयविदारक है कहि न जाइ कछु हृदय विषाद् । मनहुं मृगी सुनि केहरि नादू || दारुन दुसह दाहू उर व्यापा । वरनिन हि विलाप कलापा ॥ ( रा० प्रयो० ५४-५७) तुलसीदास रससिद्ध कवीश्वर थे। उनका मानस दिव्य रस से परिपूर्ण है। उन्होंने प्रत्येक भाव की प्रभिव्यंजना इतने स्वाभाविक और सरल ढंग से की है कि कई स्थलों पर नौ रसों का माधुर्यं समेट कर रख दिया है। तीव्रता और वेग के भावों और मनोवेगों का चित्रण करने में वे सिद्धहस्त थे । इसलिए जन मानस के अन्तस्थल तक बैठ गये हैं। कल्पना - विलास में दोनो कवियों ने विभिन्न अलंकार वन्दी का प्रयोग किया है। स्वयम्भू के महाकाव्य मे उपमा, उत्प्रेक्षा, यमक, अनन्वय, तद्गुण आदि अनेक अलंकारों का स्वाभाविकता से प्रयोग हुआ है। अलंकारों में कहीं-कहीं हल्की-सी उपदेश- भावना भी दृष्टिगत होती है । यथा लक्खण कहि वि गवेसिंह तं जलु । सज्जन हियउ जेम जं निम्मलु ॥ तुलसीदाम का अलंकार विधान भी परम मनोरम है। उत्प्रेक्षा, रूपक घोर उदाहरण उनके सबसे प्रिय धलंकार हैं । इनके समन्वय की प्रसाधारण क्षमता भी उनमें है । " दोनों कवियों ने अपने-अपने युग की प्रतिनिधि भाषा मे लिखा है । स्वयम्भू ने साहित्यिक अपभ्रंश भाषा का प्रयोग किया है। अनुकरणात्मक शब्दों का प्रयोग - तड़ तड़-तड़पड़ पड़ गई भावानुकल शब्द-योजना एवं ४. ५. ध्याय, 'महाकवि स्वयम्भू' । पभ्रंश-साहित्य, पृ० ६७ । तुलसीदास, पू० ३५२ । Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि स्वयम्भू पोर तुलसीदास शब्दों में समाहार-शक्ति के दर्शन स्वयम्भू की भाषा की त्मिक विचागे के प्रसार के लिए प्रयत्न किये हैं। दोनों मुख्य विशेषता है। तुलसीदास की भाषा क्रमसः पोह हुई की दष्टि अपनी-अपनी विशेष दार्शनिक परिधि में उदार है। मानस में भाषा का प्रत्यन्त सुवराहपा रूप प्राप्त है। किन्तु दार्शनिक सिद्धान्तों में पर्याप्त अन्तर भी है। होता है। तुलसीदास ने प्रवधी भाषा को अपने भाव व्यक्त करने का माध्यम बनाया है। किन्तु वे सस्कृत, स्वयम्भू का मुख्य उद्देश्य प्राचीन रामकथा की कुछ प्राकृत एवं अन्य क्षेत्रीय भाषानों के भी जानकार थे। भ्रान्ति मूनक घटनामो को बदलकर उमे जैनधर्म मे ढालना -भंडार इनका पत्यान विशाल है। प्रभिधा, लक्षणा, शाf ra athart frama व्यजना शक्तियों का चमत्कारिक प्रयोग उन्होंने किया है। उन्होने जैनधर्म के प्रमय सिद्धान्तो का प्रचार खब किया इस प्रकार तुलसीदास जी की शैली मे ऋजुता, सुबोषिता, चारुता, प्रल्पाल कारप्रियता पोर उपयुक्त प्रवाह प्रादि हैं। शायद हा काई जनतत्त्वमामामा का क्षेत्र उनी दष्टि गुणों का समावेश हो गया है। भाषा शैली विषयक विशे से बचा हो। मनुष्य जीवन की सार्थकता, सामारिक जीवन षताएं उनकी पूर्व प्रतिभा को ही परिचायक हैं।' में धार्मिक अनुष्ठानों का विधान, सुख-दुःख, पाप-पुण्य, स्वयम्भ ने यद्यपि अपभ्रश के प्रायः सभी छन्दो का स्वर्ग-नरक प्रादि की तात्त्विक व्याख्या कर स्वयम्भ ने प्रयोग किया है। किन्तु उनके ग्रन्थ मे कडवक का प्रयोग अपना प्राध्यात्मिक दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है। दार्शनिक बहलता से हपा है, जिसमें माठ अर्थालियो के बाद छत्ता विचारों के अन्तर्गत उन्होंने अणिकवाद, सर्वास्तिवाद छन्द का व्यवहार किया गया है। यही शैली रामचरित प्रादि अन्य मतो का खण्डन कर स्थाद्वाद और समत्वयोग मानस में भी हाई जाती है। तुलमीदास ने पाठ प्रर्धाग्नियों की प्रतिष्ठापना की है। यद्यपि ये सब परम्परागत जैन अर्थात् चौपाई के बाद दोहो का प्रयोग किया है। छन्द सिद्धान्त है तथापि अभिव्यक्ति को नवीनता मे स्वयम्भू प्रपोग मे तो वे निश्चित ही स्वयम्भ् एवं अपभ्रंश शंनी को अपनी मौलिकता है। जिनवर-भक्ति द्वारा मवंसामान्य से प्रभावित थे। को प्रवृत्ति से निवृत्ति की पोर प्रेरित करना उनका प्रमुख दोनों ही महाकवि नतिक पादों के प्रतिष्ठापक हैं। जोया जिममा प्रत स्वभावतः उनके ग्रन्थों के वर्णनों में से कुछ पंक्तियो नैतिक उपदेशों का प्रतिपादन सम्प्रदाय के घेरे से बाहर है। ने रम भरी उक्तियो का प्रभाव लिया है और जन-साधा. महाकवि तुलसीदास की प्राध्यात्मिकता एवं दार्शरण मे सरलता से प्रयोग की जाती है। तुलसीदास को निकता. जो रामचरितमानस में चित्रित हुई है, भक्तिवाद उक्तिया तो प्रसिद्ध है, किन्तु स्वयम्भू के पास भी उनका से शामिलोसामने भावना से बाबा . कम भडार नही है ; जैसे-तिय दुक्वहं खाणि विप्रोय भूत-प्रेत-पूजा तथा रहस्यवाद का खण्डनकर नैतिक धर्म की णिहि', 'सच्च उ जीविउ जलबिन्दु-सउ', 'गय दियहा कि स्थापना में अहिंसावाद को सर्वोच्च स्थान दिया है और एन्ति पडीवा', इत्यादि । हिंसा का परम्परागत रूप से विरोध किया है -'परपीडा प्राध्यात्मिक एवं दार्शनिक दृष्टिकोण सम नहीं अषमाई' प्रादि । महाकवि स्वयम्भू और तुलसीदास दोनों के ग्रन्थ- गोस्वामी जी की दार्शनिक पद्धति स्वतंत्र है। उनका प्रणयन के मूल में प्राध्यात्मिक एवं दार्शनिक भावना ही ज्ञान प्रत्यक्ष है, तर्क और वाद पर प्रवलम्बित नहीं।' प्रधिक प्रबल है। दोनों महाकवियो के समय धामिकता के उनके द्वारा माया, ब्रह्म, जीव, जगत् पादि के निरूपण में क्षेत्र में परिवर्तन जोरों से हो रहा था। प्रतः प्राय: दोनों उपासक और उपास्य की पृथक् सत्ता पूर्णतया प्रतिष्ठित ने विभिन्न दार्शनिक मतभेदों के समन्वय और एव प्राध्या- है। शरीर पर प्रात्मा का भिन्न मानते हए उन्होंने कर्म. १. अपभ्रंश-साहित्य, १० ६५ । ५. द्रष्टव्य-डा० उपाध्याय - 'महाकवि स्वयम्भू' । २. तुलसीदास, पृ० ३६५ । ६. तुलसी-दर्शन--डा. बलदेवप्रसाद मिश्र । ३. पउमचरिउ-हा. भायाणी, पृ० ७८ । ४ भारतीय जैन साहित्य संसद परिवेशन १, पृ० ७७ ७. रामचरितमानस की भमिका, पृ० १०८ । -डा० राजाराम जैन का निबन्ध । ८. तुलमीदास और उनका युग, ५० ३०२ । Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८, बर्ष ३१, कि.१ भनेकान्त सिद्धान्त का पनुकरण किया है। किन्तु वे इम जगत को किया है, किन्तु अभी तक वह अन्यान्य कारणों से प्रकाश मिथ्या, कलेशयुक्त मादि नही मानते। उन्हें समस्त जगत मे नही पा पाया।' ही परमात्मामय दिखाई पडता है। इसलिए रामभक्ति को महाकवि तुलसीदाम के योगदान को परिधि में उन्होने सर्वोपरि मानने का प्राग्रह किया है। किन्तु इस बाधना उसकी विशालता को कम करना है । वे भारत के सबके बावजूद भी वे वर व मंकीणं मम्प्रदायवादी नहीं उन प्रमख रत्नों मे है जिन्होंने भारत की संस्कृति पर कहे जा सकते क्योकि वे मूलतः उदार चिन्तक थे । उनका प्रभाव डालकर हमारी मानसिक, व्यावहारिक और सामाकहना है - जिक भावना के स्वरूप को बहुत कुछ बदल दिया है। कोउ कह सत्य झूट कह कोऊ जुगल प्रबलकर मान । भाषा और माहित्य के माध्यम से उन्होंने विश्व साहित्य में भी प्रतिष्ठापूर्ण स्थान बना लिया है। भाज गोस्वामी तुलसीदास जो त तीनि भ्रम सो प्रापून पहिचान ।। जी के रामचरितमानस का घर घर, गांव-गांव पौर योगदान झोंपड़ी-झोपड़ी में जो प्रचार और प्रसार हमें दिखाई इसमें कोई शक नहीं कि स्वयम्भू और तुलसीदास दोनों देता है उसका कारण ग्रन्थ द्वारा सदाचार की प्रवृत्तियो ने ही अपने-अपने यूग का प्रतिनिधित्व किया है। भारतीय का विकास, राम एवं सीता की प्राध्यात्मिक भावना पोर सस्कृति और प्राज के मम-सामयिक परिवेश में उनका सासारिक जीवन के पारिवारिक व व्यक्तिगत उत्थान को कितना योगदान है, इसका मूल्याकन करना महज नही है। ही मानना चाहिए। प्राज भी ये भावनाएँ हमारे लिए स्वयम्भ के पउमचरिउ ने पूर्व प्रसिद्ध रामकथा को वैसी ही उपयोगी है जैसी गोस्वामी जी के समय में थी। एक नयी भाषा में जीवित रखा है और उसे नये परिवेश किन्तु ममाज के बदलते परिवेश और वातावरण के अनुमे देखने की कोशिश की। रामकथा और अपभ्रश भाषा कूल हमे काफी सजग होकर उसमे प्रवृत्त होना चाहिए। दोनो एक दूसरे से परस्पर उपकृत है। रामकथा को तुलमीदाम की इस अपूर्व देन के बावजूद भी राम कर जैनघम के सिद्धान्तों का प्रचार प्रसार चरितमानस, यद्यपि जन-साधारण में प्रसिद्ध एवं समादरसर्वसामान्य में करने के लिए स्वयम्भु ने प्रयत्न किपा पोर णीय है, किन्तु व्यावहारिक रूप में उसके प्रादों का जनभाषा का प्राधार होने के कारण उस समय उसे कितना उपयोग हमा है या हो रहा है, सोचने का विषय प्रसिद्धि भी मिली, यह प्रसदिग्ध है। किन्नु पउमचरिउ के है ? तुलसीदास ने परम्परा, अपने व्यक्तित्व एवं समय से है? कथानक को समुचित पादर नही मिला, फिर भी कवि ने प्रभावित होकर - अपनी प्रमाघारण काव्य-प्रतिभा, सरसता और अनुभव नही शूद्र गुनगान प्रवीना । पूजिय विप्र शील गुन होना ।। गम्भीरता के कारण अपने जीवनकाल मे पर्याप्त सम्मान सकल कपट प्रघ अवगुन खानी। एवं यश विद्वस्स माज मे अजित कर लिया था, जो विधिहुं न नारि हृदयगति जानी । कवि का प्रतिपाद्य भी था। प्रधम तें अधम अधम अति नारी । उमचरिउ वर्तमान मे पठन-पाठन एव मनन-चिन्तन इत्यादि जो बातें कही है इनसे कवि के व्यक्तित्व पर मेमो उपेक्षित ही हो, किन्तु हिन्दी साहित्य के विकास में कोई अच्छा प्रभाव नहीं पड़ा है, भले ही उनके साथ भाषा-विज्ञान एवं काव्यात्मक दृष्टि से उसकी उपयोगिता मजबरी रही हो। कम नही है। वह तत्कालीन सामाजिक एव धार्मिक जीवन द्वैतवाद का खण्डन नुलसीदास को अवतारवाद की का चित्र उपस्थित करने मे भो समर्थ है। इस दृष्टि से स्थापना के लिए करना पड़ा। किन्तु वही अवतारवाद शोध के क्षेत्र मे कई विद्वानों ने उसका अध्ययन प्रस्तुत [शेष पृष्ठ २१ पर] १. द्रष्टव्य, जैनोलाजिकल रिसर्च सोसायटी के दिल्ली सेमिनार ७३ को स्मारिका एवं ज्ञानपीठ-पत्रिका, ६६ । २. तुलसीदास और उनके ग्रन्थ, पृ०२। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिगम्बर जैन ग्रंथ प्रशस्तियों का महाखान मोजखान श्री प्रस्तर हुसन निजामी, रीवां (म० प्र०) चदेरी देश के इतिहास के तीन युग है -पहला राज में भी पादपाह महमूद के राजत्वकाल का उगव प्रत काल जिसमें परिहारो तथा याज्वपेल्लो का शासन जिसमे उसके लिए महासुल्तान" की उपालिका प्रयोग रहा है। इस समय की प्रशस्तियो और शिलालेखो पर किया गया है और एक अन्य लेख में उसके लिए "महाअनुमधान की प्रावश्यकता है। दूसरा युग उस समय राज साहि" तथा "महाराजाधिराज सुरताण" भी पाया है। प्राता है जब अलाउद्दीन खिलजी की भेजी हुई सेना ने दतिया के पास एक शिलालेख मिला है जिसमे फीसेज चंदेरी पर दिल्ली सुलतानो की सत्ता जमाई । तीसरा युग शाह तुगलक को सन १३६४ ई० में "परम भटारक है माडव के गोरी खिलजी नरेशो का जब बृहद् मालवा परमेश्वर" के विरूद से स्मरण किया गया है। परगना. के उत्तरी खण्ड की राजधानी चन्देरी रखी गई, जिसका धिकारियो के लिए प्राय: 'महामलिक' का उएयोग शिला. अपना महत्त्व रहा। इस दिल्ली-माडव काल म मनको लखो में मिलता है। शिलालेख सस्कृत तथा देशी बोली अथवा मिश्रित भाषा ___ माडव सलतनत की नीव डालने वाला दिलावर बाँ मे पोर इमी प्रकार ग्रथ प्रशस्तिया तथा लिपि प्रशस्तिया भी पाई गई है जो दिगम्बर जैन ग्रंथों में लगी हुई है। है। एक फारसा के शिलालख म उसकी उपाधिया इस प्रकार है-"उलुग कुत्लुग, माजम मुअज्जम, शम्सुद्दौलत चंदरी देश मे दिल्ली सुलतानी के राज्यांतर्गत वहीन अमीद बिन दाऊद गोरी प्रलमुखातुब दिलावर बटिहाडिम को उप-राजधानी बनाकर गढ़ का निर्माण खा।" विदित हो कि 'उलुग कुत्लुग' (तुर्की) और 'माजम कराया गया था। तुगलक काल के अनेको शिलालेख मिले मुअज्जम' (परबी) पर्यायवाची है जिनके लिए सस्कृत है। सवत १३८५ (सं० १३२८ ई.) के बटिहागढ़ लेख वालो न 'महाभोज' की शब्दावली चलाई। यहां प्रयोजन मे सुलतान मुहम्मद बिन तुगलक के विषय में इस प्रकार तो चदेरी देश से है। चंदेरी का प्रथम राज्यपाल कद्रखा लिखा है : जान पड़ता है । दिलावर खाँ का जेठा पुत्र अल्य खां (होशग) "प्रस्ति कलियुगे राजा शकेन्द्रो वसुधाधिपः । युवराज पद के पश्चात् सुलतान बना और कनिटपुत्र कद्रखा योगिनीपुरमास्थाय यो भुक्ते म कलां महीम् ।। चदेरी का शासक था जिसके दो शिलालेख चदेरी सर्वसागरपर्यन्त वशीचक्रे नराधिपान् । (१४१६) तथा शिवपुरी (१४१६) के प्राप्त है। इसके नहमृदसुरत्राणो नाम्ना शोभिनन्दतु ॥ दरबार में काजी खाँ बद्र मुहम्मद दिल्ली निवासी जो अर्थात् -कलियुग में पृथिवी का स्वामी शकेन्द्र (मुसल- अपने को 'घारवाल' कहता है पोर 'प्रदातुल कुदला' नाम मान राजा) है जो योगिनीपुर (दिल्ली) मे रहकर के शब्दकोश का सम्पादक था, मन १४१८ में पाया था। समस्त पृथ्वी का भोग करता है और जिसने ममुद्र पर्यन्त उसने चंदेरी के शासक की आधिया इस प्रकार दी है. सब राज्यो को अपने वश में कर लिया है। उस शुरवीर "खाने भाजम खाकाने मुअज्जम मसनदे प्राली कद्र या सुलतान महमूद का कल्याण हो।" यहा 'महमूद' से अभि- इन दिलावर पॉ।' बग यू समझना चाहिए कि देरी प्राय मुहम्मद बिन तुगलक है। के गवर्नरो का विरूद “खाने आजम खाकाने मनम" संवत १३८३ (सन् १३२६ ई.) के एक सती लेख कद्र ग्वां शाहजादे से चला और बाद के उत्तराधिकारी १. देखिये उर्दू (पत्रिका) ,जिल्द ४३, प्रक ४ (प्रक्तूबर १९६७)। Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०, वर्ष ३१,कि०१ अनेकान्त उसी का अनुसरण करते रहे ; उदाहरणार्थ खाने पाजम मे इनकी चार कृतियां उपलब्ध हैं। हरिवंशपुराण की शेर खाँ' १४७६, ८४ और ८८-८९ के शिलालेखों दो प्रतिया-एक पारा के जैन सिद्धान्त भवन और पौर खाने प्राजम अफजल खाँ १५२० ई. के शिलालेख दूसरी पामेर के भट्टारक महेन्द्र की ति के शास्त्र भडार मेमे इमी विरूद के माथ उल्लिखित है। इमी प्रकार माडव पाई गई है। परमेष्ठी प्रकाशसार की एकमात्र प्रति ग्रामेर सुलतान के लिए 'महाराजाधिरज' का उपयोग गयाम-शाह ज्ञान भण्डार में है। योगसार या जोगसार श्रुतकीति का से महमूदशाह द्वितीय तक होता रहा । मालवा सुलतानो तीसरा ग्रथ है। चौथा प्रथ धर्मपगीक्षा है, जिसकी एक ने प्राम जनता की राजभक्ति और स्वामीभक्ति का जहां मात्र अपूर्ण प्रति स्वर्गीय डा. हीरालाल जैन के पास थी। लाभ उठाया, वहा साथ ही गैर मुस्लिम जनता का हृदय में चारो अथ श्रतकोति ने माडवगढ़ के सुलतान गयासुद्दीन भी मोहने के साधन प्रपनाये ; मन्दिरो को उदारतापूर्वक और युवराज नसीर शाह के राज्यकाल मे सं० १५५२सहायता देने के साथ-साथ जैन श्रेष्ठियो को उच्च पद ५३ (१४६५-६६ ईस्वी) मे ही लिखे और प्रतिया भी तथा सम्मान प्रदान किया; सुदृढ़ शासन के द्वारा व्यव जो मिली है वे भी इसी सन्-सवत की है। साय तथा व्यापार को उन्नति दी। इतिहासकार फरिश्ता श्रुतकीति के इन ग्रन्थों मे दमाबादेश के जेरहट नगर ने गयास खिलजी को भोगी-विलासी लिखा है । किन्तु उसके समय में शिलालेखो का बाहुल्य था तथा ग्रन्थ के 'महाग्वान मोजखान" का मोर जेरहट नगर के नेमी श्वर जिनालय मे बैठ कर ग्रंथो के निर्माण का उल्लेख है। प्रशस्तियो में बड़ी संख्या में उसका उल्लेख है और ये शिलालेख और प्रशस्तिया दूरवर्ती क्षेत्रो मे पाई गई है। हरिवश पुराण की प्रारा प्रति मे लिखा है-"सवत १५५३ __ स्वय चंदेरी में जेनियो के भट्टारकीय प्रान्दोलन का वर्षे क्वावादि दूज सुदि (द्वितीया) गुरी दिने प्रद्येह श्री केन्द्र इसी समय में बना। पडित फूलचन्द शास्त्री लिखते मंडपाचल गढदुर्गे सुलतान गयासुद्दीन राज्ये प्रवर्तमाने श्री दमोवादेश महाग्वान भोजखान वर्तमाने जेरहट स्थाने हैं कि-"मूलसघ नन्दि प्राम्नाय की परम्परा मे भट्टारक मोनी श्री ईसर प्रवर्तमाने श्री मूलसंधे बलात्कारगणे पग्रनन्दी का जितना महत्त्वपूर्ण स्थान है, उनके पट्टधर सरस्वती गच्छे श्री कुन्दकुन्दाचार्यान्वये भट्रारक श्री पन. भट्रारक देवेन्द्रकीति का उससे कम महत्त्वपूर्ण स्थान नही नन्दिदेव तस्य शिष्य मडलाचार्य देविन्दकीर्तिदेव तच्छिष्य है। उनका अधिकतर समय गुजरात की अपेक्षा बुन्देलखंर मे और उससे लगे हुए मध्यप्रदेश में व्यतीत हुप्रा है। मडलाचार्य श्री त्रिभुवनकीर्तिदेवान् तस्य शिष्य श्रुतकीति हरिवंशपुराणे परिपूर्ण कृतम ...।" धर्मपरीक्षा ग्रंथ में चंदेरी पट्ट की स्थापना का श्रेय इन्ही को प्राप्त है।'' उस समय जेरहट नगर के सम्पन्न होने की सूचना मिलती शास्त्री जी की मान्यता यह है कि वि० सं १४६३ है किन्तु 'जेरहट' अभी तक खोजा जा रहा है, इसका (सन् १४३६ ईस्वी) के पूर्व देवेन्द्र कीति भट्टारक पद को पता नही चलता । सागर जिले में रायबहादुर हीरालाल अलंकृत कर चुके थे। ....... ऐसा लगता है कि वि० ने 'जेरठ' गाव का उल्लेख किया है, लेकिन यहां मन्दिर सं० १४६३ के पूर्व ही चन्देरी पट्ट स्थापित किया जा के अवशेष पाये नही जाते । तो फिर 'जेरहट' कहा गया चका होगा।... . . पोर देवेन्द्रकीति चदेगे मण्डला यह प्रश्न हल करने की आवश्यकना है। चार्य बन चुके होंगे। भट्टारक देवेन्द्रकीति के शिष्य भट्टारक विभुवनीति मण्डलाचार्य हुए पौर वि० सं० १५२५ अब रहा मूल प्रश्न महाखान मोजखान का, तो यह (सन् १४६८ ई.) के पूर्व ही चन्देरी पट्ट पर अभिषिक्त कोई राज्यपाल का नाम हो ऐसा जान नही पडता, यद्यपि हो गये थे जो वि. स. १५२२ (१४६५ ई.) के इसे कुछ लोग महाखान भोजखान भी पढ़ते हैं। इन पास-पास का समय निर्धारित किया गया है। पंक्तियों के लेखक का मत है कि यहां कवि श्रुतकीर्ति कवि श्रुतकीति, त्रिभुवनकीति के शिष्य थे। अपभ्रंश अथवा लिपिकार का प्रभिप्राय किसी विशेष व्यक्ति से न १. अनेकान्त, वर्ष २६ पृ० १३ । २. वही। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिगम्बर जैन ग्रन्थ प्रशस्तियों का महाजान मोज्ञान ६ ७. होगा। केवल परम्परा के अनुसार मांडव के सुलतान का नाम तो दे दिया जो गयासशाह और उसका युवराज नसीरशाह था, चन्देरी के राज्यपाल के नाम की चिन्ता नही की केवल उसकी उपाधि जो उस समय प्रचलित और उपयोग में पा रही थी, पर्थात् "खानेपा वाने मुजम", उसी का संस्कृत रूप महाजान मोजदान' अंकित करते चले गये हैं। फिर भी सवाल उठता है कि सन् १४९५-९६ ई० में चंदेरी का हाकिम कौन था । अभी तक इसकी जानकारी शिलालेख या अन्य साधनो द्वारा सन्-सवत के साथ प्राप्त नहीं है । सन्दर्भ ग्रन्थ सूची १. हीरालाल : दमोह दीपक । २. हीरालाल : इन्सक्रिप्शन्स ग्राफ सी. पी. ऐन्ड बरार | ३. हरिहरनिवास द्विवेदी ग्वालियर राज्य के प्रभिलेख | ४. पन्नालाल जैन शास्त्री जैन पुस्तक प्रशस्ति संग्रह, भाग २ । ५. एपिफिया इन्डिका विक पशियन सप्लीमेण्ट [पृष्ठ १८ मानस के प्रादर्शों के अनुकरण मे बाधा स्वरूप उत्पन्न हुमा है, क्योंकि समाज के महानुभाव जब सवनारकोटि मे चित्रित किये जाते है तो वे भक्ति और श्रद्धा के योग्य तो हो जाते है, किन्तु उनके जीवनचरितो से हम प्रदर्श पोर स्फति ग्रहण नहीं कर पात उनकी धनोकि 1 । भूत शक्तियों के धनुकरण मे हम धममर्थ हो जाते है। प्रतः रामचरितमानस के प्रादर्शों का मान बीप स्तर पर ग्रहण किया जाना अधिक अपेक्षित है । इस दृष्टि से 'पउम afta' का कथानक अधिक व्यावहारिक है । उनके प्रादर्श अधिक दूर नहीं लगते। वे व्यक्तिको स्वयं पुरुषार्थ के लिए प्रेरित करते हैं । उक्त पर्यवेक्षण के फलस्वरूप महाकवि स्वयम्भू पौर तुलसीदास के व्यक्तित्व एवं कृतित्व का प्रत्येक पक्ष संक्षेप रूप से हमारे समक्ष स्पष्ट हुया है। दोनों के वैयक्तिक जीवन में भिन्नता होते हुए भी व्यक्तित्व में प्रायः समा नता है. साहित्य सृजन में यदि एक का उद्देश्य धार्मिक प्रचार तथा कीर्तिकर का है तो दूसरा मामात्रिक उत्थान और आध्यात्मिक भावना के प्रसार से प्रेरित है। ८ २. १०. ११ इन्डियन एविकी ऐन्युधन एपिफिया इन्डिका रिपोर्टस १६. १७ रिसर्चर ( जयपुर - राजस्थान ) । धनेकान्त (दिल्ली) । जैन सिद्धान्त भास्कर (आरा)। जैन साहित्य का इतिहास (बारागनी ) । : १२ नाथूराम प्रेमी दि० जैन ग्रंथकर्ता प्रौर उनके प्रथ १३. डा० नेमीचन्द शास्त्री तीर्थङ्कर महावीर मौर उनकी प्राचार्य परम्परा भाग ३, ४३०३२ । १४. भूबनी शास्त्रीप्रशस्ति स १५ भट्टारक श्रुतकीर्ति हरिवशपुराण ( द्वारा तथा श्रामेर प्रतियाँ) परमेष्ठी प्रकार (प्रति R योगगार (जयपुर प्रति) | कोयर रीवा (म०प्र० ) 000 का शेषाण ] काव्यौष्ठव मे दोनो बेजोड़ है एक कानि चिन्तन यदि ममार की प्रमारता पर मनन करता हुप्रा निर्वाण की है तो दूसरे नेत् को हो परमात्मामय बना देने की कोशिश की है। एक के मानवता से पूर्णता की ओर उन्मुख है तो दूसरे के राम पूर्णता से अवतरित हो मानवता की सृष्टि करते हैं । भारतीय संस्कृति को पति एवं समृद्ध बनाने में दोनो का योगदान इतना है कि आने वाली पीढो हमेशा ऋणी रहेगी । प्रौर स्वयम्भू और तुलसीदास का यह तुलनाध्य इस बात का एक उदाहरण है कि प्राकृत, अपभ्रंश भाषाम्रो के साहित्य ने धाधुनिक क्षेत्रीय भाषाओं के साहित्य को कितना प्रभावित किया है; कितना स्वरूप एवं उपयोगिता की दृष्टि से दोनो मे साम्यम्य है ? भारतीय भाषायों की रचनाओ के तुलनात्मक अध्ययन का यह क्रम जितना बढ़ेगा उतनी ही सांस्कृतिक एकता की दिशाएं उद्घटित होगी। DOU Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्यादवाद : जैन-दर्शन की अन्तरात्मा [] डा० रामनंदन मिश्र, पारा (बिहार) 'स्यात' शब्द लिइ-लकार का क्रियारूप पद भी होना एक प्रगिद्ध जैन चितक प्रकलक देव 'स्यात' का प्रयोग है और उसका अर्थ होता है -- होना चाहिए। लेकिन 'अनेकान्त' के अर्थ मे करते है। अपने ग्रथ 'तत्तार्थवातिक' यहाँ इस रूप में यह प्रयुक्त नही है। 'स्पात' विधिलिड (पृ० २५३) मे उन्होने लिखा है 'तम्मानेकान्त विधिमें बना हा तिडन्त प्रतिरूपक निपान है। इसका विचारादिप वहष्वर्थेषु संभवत्सु इह विवक्षावशात् शाब्दिक अर्थ है 'शायद' 'सम्भवत' प्रादि । प्रतः रयाद्वाद अनेकान्तार्थों ग्रह्यते।" स्वामी समंतभद्र अपनी पुस्तक को कभी कभी संभववाद (theory of probability 'प्राप्तमीमांगा' मे कहते है कि स्थाद्वाद वह सिद्धान्त है or may be) भी कहते है। प्रोफेपर बलदेव उपाध्याय जो मदा एकात को अस्वीकार कर अनेकान्त को ग्रहण प्रपती पुस्तक 'भारतीय दर्शन" (पृष्ठ १५५) में 'स्यात' करता है। वस्तु अनन्तधर्मात्मक है -अनन्त धर्मक वस्तु । हमारे मभी निर्णय प्रावश्यक रूप में गापेक्ष तथा सीमित शब्द का अनुवाद शायद या स भवन करते है ; किन्तु यह अनुवाद सही नहीं है । 'शायद' शब्द सदेहवाद का सूचक है । वस्तु गत् और असत् दोनों है। यह सामान्य भी है और विशेष भी। यह स्थायी भी है और क्षणिक भी। है किन्तु जैन दर्शन सदेहवाद नही है। डा. देवराज ने अपनी पुस्तक "पूर्वी और पश्चिमी दर्शन" (७० ६५) यह एक भी है और आनेक भी। यदि हम द्रव्य की दष्टि मे वस्तु को देखते है तो यह यथार्थ, सामान्य, स्थायी में 'स्यात्' शब्द का कदाचित् (किसी समय) अनुवाद तथा एक है किन्तु यदि हम इसे पर्याय की दृष्टि से देखते किया है। किन्तु यह अनुवाद भी भ्रमात्मक है क्योकि यह है तो यह अयथार्थ, विशेष, क्षणिक तथा पनेक है। छ: संह का सकेत करता है। कभी-कभी 'स्यान' का अन्धे मनुष्यो तथा हाथी की प्रसिद्ध कथा का तात्पर्य यही अनुवाद 'somehow' (किसी न किसी प्रकार मे) किया है कि प्रायः सभी दार्शनिक मतभेदो तथा विवादो का जाता है जिन्तु यह भी राही अनुवाद नहीं है क्योकि इससे मख्य कारण है एक प्राशिक सत्यता को सम्पूर्ण सत्यता प्रज्ञातवाद की गंध मिलती है और जैन दर्शन अज्ञातवाद मानने की भूल करना । हमारे मनभेद का कारण यह है नही है। यद्यपि डा. एस ०सी० चटर्जी तथा डा०डी०एन० कि हम अपने विचारो को सर्वथा सत्य मानने लगते है। दत्त अपनी भारतीय दर्शन की पुस्तक मे 'स्यात्' के लिए इस तरह जैन दर्शन की दृष्टि में प्रत्येक वस्तु अनेक 'somehow' शब्द का प्रयोग करते हे तथापि वे इसका धर्मवाली है । न वह सर्वथा सत् ही है और सर्वथा प्रसत अनुवाद 'कथंचित्' (in some respect) करते है। ही है, न मर्वथा नित्य है पोर न सर्वथा अनित्य ही है। यह अनुवाद सही है। प्रोफेसर महेन्द्र कुमार जैन भी किन्तु किसी अपेक्षा से वस्तु सत् है तो किसी अपेक्षा से अपनी पुस्तक “जैन-दर्शन" (पृ० ५१८) मे 'म्यात' असत् है, किसी अपेक्षा से नित्य है तो किसी अपेक्षा शब्द का अनुवाद 'कचित' ही करते हैं। पं० कैलाश से अनित्य है । अत: सर्वथा सत्, सर्वथा प्रसत, सर्वथा चन्द्र शास्त्री अपने ग्रथ "जैन न्याय" (१० २६८-६९) नित्य, सर्वथा अनित्य इत्यादि एकान्तों का निरसन करके मे स्यान का अनुवाद किंचित्', 'कथ चित् ' तथा 'कथ चन्' बस्तु का कथचित् सत्, कर्थचित् असत्, कथंचित् नित्य, करते है । 'ग्यात' का अनुवाद कथचित होना चाहिए। कथचित् अनित्य मादि रूप होना अनेकान्त है और स्थात्' का प्रयोग सापेक्ष के अर्थ में किया जाता है। अनेकान्तात्मक वस्तु के कथन करने का नाम स्याद्वाद इस तरह स्याद्वाद का प्रथं होना चाहिए सापेक्षतावाद । है-अनेकान्तात्मकार्थकथन स्याद्वाद. । Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याहार-जैन-दर्शनको अन्तरात्मा (२) स्व द्रव्य, दिक, काल तथा रूप की दृष्टि से प्रत्येक हम लोग देख चके है कि जैनों के प्रनमार वस्तु वस्तु मत् है तथा पर द्रव्य, दिक्. काल तथा रूप को मनन्त धर्मात्मक है। केवल सर्वज्ञ ही वस्तु के सभी धमों दृष्टि से प्रत्येक वस्तु प्रसत् है । 'घडा है' का अर्थ यह को जान सकता है। किन्तु हम लोगो जैसे प्रपूर्ण प्राणी नहीं है कि घडा सर्वथा सत् है। घडे का अस्तित्व म. विशेष, रूप विशेष. स्थान विशेष तथा काल-विशेष के वस्तु को एक समय मे एक ही विशिष्ट दृष्टि से देखते है पौर इस तरह वस्तु के केवल एक पक्ष या धर्म का ही ज्ञान प्रनु र है। प्रतः यह कथान व्याघातक नही है कि घड़ा प्राप्त करते है। इस पाशिक ज्ञान को 'नय' कहते है- सत् पोर प्रसत् दोनो है (भिन्न दृष्टियों से)। एकदेश विशिष्टोऽर्थो नयस्थ विषयो मतः (न्यायावतार, श्लोक २६)'। इस पाशिक ज्ञान के प्राधार पर जो परामर्श (Judgement) होता है उसे भी 'नय' कहो पाश्चात्य तर्कशास्त्र में परामों के साधारणतः दो हैं। प्रकलंक देव 'लघीयस्त्रय' (श्लोक ५५) में 'नय' की भद किग जाते है - प्रस्तिवाचक तथा नास्तिवाचक । परिभाषा इस प्रकार करते है--'नयो ज्ञातुरभिप्राय.'। किन्तु जन सात प्रकार का भेद मानते है। उपयुक्त हो अभिप्राय वह है जो वस्तु के एक पक्ष को स्पर्श करता है। भेद भी इनके अतर्गत है। परामर्श को जैन दार्शनिक 'नय' स्वामी समन्तभद्र के अनुसार, 'नय' वह है जो श्रत प्रमाण भी कहते है। जैन ताकिक प्रत्येक नय के साथ स्यात के द्वारा गृहीत अर्थ के विशेषो प्रर्थात् धर्मो का अलग- NEE जोडते है । स्यात् शब्द को जोड़ कर यह दिखलाना अलग कथन करता है। उन्होने अपनी प्रात्ममीमामा' चाहते है कि कोई भी नय एकान्त या निरपेक्ष रूप से (श्लोक १०६) मे लिखा है --'स्याद्वादप्रविभक्तार्थविशेष- सत्य नही है, बल्कि प्रापेक्षिक है। यह प्रश्न किया जा व्यञ्जको नयः।' विद्यानन्द स्वामी भी अपन 'तत्त्वार्थ- सकता है कि भग सात हो क्यो होते है ? जैन ताकिको के इलोकवातिक' मे 'नय' के इसी अर्थ को स्वीकार करते है। अनुगार इस प्रश्न का एक समाधान तो यह है कि मूल नय के दो मूल भेद है - द्रव्याथिक और पर्यायायिक । वस्तु नय या भग तीन है और गणित के नियम के अनुसार के द्रव्याश या सामान्य रूप का ग्राही द्रध्याथिक नय है नीन के आपुनरुक्त विकल्प गात ही हो सकते है, प्रषिक और पर्यायाश या विशेषात्मक रूप का ग्राही पर्यायाथिक नही। दूसरा समाधान है कि प्रश्न सात प्रकार के ही नय है। होने है। प्रश्न मात प्रकार के क्यो होत है ? इसका किसी वस्तु का ज्ञान तीन प्रकार से सभव है उनर है कि जिज्ञासा सात प्रकार की होती है। जिज्ञासा दुर्नीति (bad judgement), नय (judgment) तथा सात प्रकार की क्यों होती है ? क्योकि सशय सात प्रकार प्रमाण (valid judgement)। दुर्नीति का अर्थ है के ही होते है। सशय सान प्रकार क्यो होत है ? क्योकि प्राशिक सत्यता को पूर्ण मत्यता के रूप में जानने की वस्तु के धर्म ही मान प्रकार के है। भल करना ; जैसे यह कथन कि वस्तु निरपेक्ष रूप से भारतीय दर्शन में विश्व के सम्बन्ध मे सत्, प्रसत्, सत है (सदेव) । किमी सापेक्ष सत्यता का कथन मात्र, उभय तथा प्रनुभय ये चार पक्ष वैदिक काल से ही विचार-कोटि मे रहे है । चार काटियो मे नीमगे उभयबिना यह कहे कि यह निरपेक्ष है या मापेक्ष नय कहा कोटि ती मत और प्रसनदो को मिलाकर बनाई गई है। जाता है। उदाहरणार्थ, यह कहना कि वस्तु सत है अन. मूल भग तो तीन ही है - सत्, प्रमत और अनुभय (सत्) । प्रमाण सापेक्ष सत्यता की उक्ति है, यह जानते अर्थात् प्रवक्तव्य । गणित के नियम के अनुसार तीन के हुए कि यह सिर्फ सापेक्ष है और विभिन्न दष्टियो से अपुनरुक्त विकल्प मात ही हो सकते है, अधिक नहीं। इसके भिन्न भिन्न प्रर्थ हो सकते हैं (स्यात मन)। जैन प्रत: जन ताकिक परामर्श के सात भेद मानते हैं जिसे दार्शनिको के अनुसार स्यात् विशिष्ट नय को प्रमाण सप्तभगी नय कहा जाता है। नय के मान भव कहते हैं। निम्नलिखित है Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४.३१ ० १ स्यात् ग्रस्ति स्यात् नास्ति स्यात् अस्ति च नास्ति प स्यात् प्रवक्तव्यम् स्यात् प्रस्ति च प्रवक्तव्यम् च स्यात् नास्ति च प्रवक्तव्यम् च प्रौर स्यात् श्रस्ति च नास्ति च प्रवतव्यम् च । 'स्यात् प्रस्ति' प्रस्तिबोधक या भावात्मक परामर्शो का सामान्य रूप है । स्वद्रव्य की दृष्टि से प्रत्येक वस्तु सत है 'स्यात् घडा लान है' इसने यह बोध होता है कि घड़ा सब समय के लिए बाल नहीं है, बल्कि किसी विशेष समय में या विशेष परिस्थिति मे लाल है। यह भी बोध होता है कि इसका लाल रंग एक विशेष प्रकार का है । परामर्श का दूसरा भेद है स्यानानि यह नास्ति वोक या प्रभावात्मक परामर्शो का सामान्य रूप है । इसका है कि कोई एक 'स्यात् घडा काला नही है' विशेष घडा विशेष स्थान समय तथा परिस्थिति में काला नहीं है। परद्रव्य की दृष्टि से प्रत्येक वस्तु अमत्य है । परामर्श या नय का तीसरा रूप है-स्वात् प्रस्ति व नास्ति च ; जैसे- 'घड़ा लाल है तथा नही भी लाल है ।' इससे यह बोध होता है कि घड़ा कभी लाल हो सकता है। तथा कभी दूसरे रंग का भी हो सकता है । वस्तु सत् तथा घसत् दोनों है ( दो भिन्न अर्थो मे ) चौबे प्रकार का नय है - स्यात् प्रवक्तव्यम् जिस परामर्श मे परस्परविरोधी गुणों के सम्बन्ध में एक साथ विचार किया जाता है उसका यथार्थ रूप 'स्वात् प्रवक्तव्यम्' होता है। घड़ा जब अच्छी तरह से नहीं पकता है तो कुछ काला रह जाता है । जब पूरा पक जाता है तो लाल हो जाता है । यदि यह पूछा जाय कि घड़े का रंग सभी समय मे तथा सभी अवस्थानों में क्या है, तो इसका एकमात्र सही उत्तर यही हो सकता है कि इस दृष्टि से घड़े के रंग के सम्बन्ध मे कुछ कहा ही नही जा सकता है । प्रनेकान्त - शेष तीन नय निम्नलिखित ढंग से प्राप्त होते है । पहले, दूसरे तथा तीसरे नयों के बाद अलग-अलग चौथे नय को जोड देने से क्रमश. पाँचवा छठा तथा सातवाँ नय बन जाते है । पहले और चौथे नयो को क्रमिक रूप से जोडने से पाँचवा नय बनता है - स्यात् प्रस्ति च प्रवक्तव्यम् च । दूमरे और चौथे नयों को क्रमिक रूप से जोड़ने में छठा नय बनना है स्वात् न स्तिपम् व इसी तरह तीसरे और चौथे नयो को श्रमानुसार जोड़ देने से सातवा नय बन जाता है— स्यात् प्रस्ति च नास्ति 'च प्रवक्तभ्य च । ( ४ ) स्यादवाद के सात मंग जैन ग्रन्थों में विभिन्न फर्मो में पाये जाते है। प्राचार्य कुन्दकुन्द ने अपने प्रवचनसार' गाथा (२-२३) में 'स्पात् धवक्तव्य' को तीसरा और 'स्यादस्ति नास्ति' को चतुर्थ भग रखा है। विन्तु 'पंचास्तिकाय' गाथा चौदह में 'प्रस्ति नास्ति' को तीसरा श्रीर 'वक्तव्य' को चतुर्थ भग रखा है। इसी तरह कलंक देय ने अपने 'तत्त्वार्थवार्तिक' में एक स्थल ( पृ० ३५३ ) पर 'प्रवचनसार' का क्रम अपनाया है और दूसरे स्थल ( पृ० ३३ ) पर पंचास्तिकाय' का क्रम अपनाया है । दोनो जैन सम्प्रदाय मे दोनो ही क्रम प्रचलित रहे है। दार्शनिक क्षेत्र में दूसरा ही क्रम प्रचलित रहा है अर्थात् 'प्रस्ति नास्ति' को तीसरा चौर वक्तव्य को चतुर्थ भग माना गया है । किन्तु मूल भंग तीन ही है- स्यादस्ति स्यान्नास्ति और स्यादवक्तव्य । श्रतः प्रवक्तव्य ही तीसरा, भग होना चाहिए। स्वामी समन्तभद्र ने अपने 'युक्त्यनुशासन' मे इसी मत को स्वीकार किया है । ( ५ ) कुछ पाश्चात्य तार्किको के विचारों के साथ स्याद्वाद की बड़ी समानता है। ये पाश्वात्य ताहिक भी कहते है कि प्रत्येक विचार का अपना-अपना प्रसंग या प्रकरण होता है । उसे हम विचार-प्रसंग कह सकते है । विचारो की सार्थकता उनके विचार-प्रसंगो पर ही निर्भर होती है। विचारप्रस मे स्थान, काल, दशा, गुण आदि अनेक बाते सम्मिलित रहती है विचार परामर्श के लिए इन बातों को स्पष्ट करने को उतनी घावश्यकता नहीं रहती है । साथ-साथ उनकी संख्या इतनी अत्रिक होती है कि प्रत्येक का स्पष्टीकरण सम्भव भी नहीं है । जैन स्वाद्वाद की तुलना कभी-कभी पाश्चास्य सापेक्षबाद (theory of relativity) से भी की जाती है। सापेक्षवाद दो प्रकार का होता है— विज्ञानवादी धौर वस्तुवादी विज्ञानवादी सापेक्षवाद के प्रवर्तक प्रोटागोरस | Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थाहाव-जैन-दर्शन की अन्तरात्मा २५ बर्कले तथा शिलर प्रादि हैं। वस्तुवादी सापेक्षवाद के ही सत्य है। इस प्राक्षा के विरुद्ध यह कहा जा सकता है प्रवर्तक हाइटहेड, बडिन प्रादि हैं। जनमत को यदि कि किमी सिद्धान्त की मौलिक मान्यता को स्वय उस सापेक्षवाद माना जाए तो वह वस्तुवादी सापेक्षवाद होगा, सिद्धान्त के विरुद्ध प्राक्षेप के रूप में प्रयुक्त करना सही क्योंकि जैन दार्शनिक मानते हैं कि यद्यपि ज्ञान सापेक्ष है, नहीं है । ताकिक भाग्वादियों को मौलिक मान्यता है कि फिर भी यह केवल मन पर निर्भर नही है, बल्कि वस्तुमो जो प्रत्यक्ष द्वारा प्रमाणित है वही सत्य है। उनके विरुद्ध के धर्मों पर भी निर्भर है। यह माक्षेप करना सही नहीं है कि उनका यह सिद्धान्त स्यादवाद सिद्धान्त से यह स्पष्ट है कि जनों की दष्टि ही सत्य नही है क्योंकि यह प्रत्यक्ष द्वारा प्रमाणित नही बडी उदार है । जैन मन्यान्य दार्शनिक विचारों को नगण्य है। प्रा: "द्वाद के विरुद्ध यह पाक्षेप सही नहीं है कि नहीं समझते, बल्कि अन्य दष्टियो से उन्हे भी सत्य यह सिद्धान्त मागिक प से सत्य है। मानते है। भिन्न-भिन्न दर्शनो मे समार के भिन्न-भिन्न सप्तभंगी-नय के विरुद्ध यह प्राक्षेप किया जाता है वर्णन पाये जाते है। इसका कारण यह है कि उनमे एक कि इसके अन्तिम तीन भग पुनरुक्ति मात्र तथा दष्टि नहीं है । दहि भेद के कारण ही उनमे मतभेद पाया निरर्थक है क्योंकि वे चतथं मंग को क्रमशः प्रथम. जाता है। द्वितीय तथा तृतीय से मिला देने पर प्राप्त होते हैं। कुमारिल का प्राक्षेप है कि इस तरह के संयोग के माधार बौद्ध तथा वेदान्त दार्शनिको के प्राक्षेप है कि स्याद. पर सात के स्थान पर सौ भंग सम्भव है। जैन ताकिक वाद प्रात्मविरोधी मिद्धान्त है। धर्मकीर्ति तथा शान्त इस प्राक्षेप का उत्तर इस प्रकार देते हैं। वे स्वयं इस रक्षित का कहना है कि अस्तित्व तथा अनस्तित्व जैसे बात को स्वीकार करते है कि मूल भग तीन ही है किन्त व्याघातक गुण एक ही वस्तु मे एक ही अर्थ मे नही पाये अन्य चार भंग पुनरुक्ति मात्र तथा निरर्थक नहीं हैं। उनका जा सकते । शकराचार्य तथा रामानुज भी स्यावाद के कहना है कि गणित के नियम के अनुसार तीन के प्रषिकविरुद्ध यही प्राक्षेप करते है। किन्तु ये आक्षेप सही नही तम अपुनरुक्त विकल्प सात ही हो सकते है। दूसरी बात है। जैन दर्शन यह कभी नही कहता है कि व्याघातक है कि प्रश्न सात प्रकार के ही होते है। अतः अपुनरुक्त गुण एक ही वस्तु में, एक ही समय तथा एक ही अर्थ मे । अधिकतम भगो की संख्या वे सात मानते हैं। 000 श्री पाये जाते है। जैनों के अनुमार वस्तु अनन्त धर्म वाली मगध विश्वविद्यालय, प्रारा (बिहार) है। द्रव्य की दृष्टि से वस्तु एक, स्थायी तथा यथार्थ है । किन्तु पर्याय की दृष्टि से यह अनेक, परिवर्तनशील तथा 'अनेकान्त' के स्वामित्व सम्बन्धी विवरण प्रयथार्थ है । स्व द्रव्य, रूप, दिक तथा कान की दृष्टि से | प्रकाशन स्थान-वीरसेवामन्दिर, २१ दरियागज, नई दिल्ली वस्तु सत् है तथा पर द्रव्य, रूप, दिक तथा काल की दृष्टि | मुद्रक-प्रकाशक --वीर सेवा मन्दिर के निमित्त से यह प्रसत् है । अत: यहा विरोध का कोई प्रश्न ही प्रकाशन प्रवधि--मासिक श्री प्रोमप्रकाश जैन नहीं है। वस्तु मे व्याघातक गुण भिन्न दृष्टियों से पाये | राष्ट्रिकता - भारतीय पता-२१, दरियागज, दिल्ली-२ जाते है. एक ही दृष्टि से नहीं। सम्पादक-श्री गोकुलप्रसाद जैन राट्रिकता-भारतीय वेदानी स्याद्वाद के विरुद्ध एक दूसरा प्राक्षेप भी पता- वीर सेवा मन्दिर २१, दरियागज, नई दिल्ली-२ करते है । उनका कहना है कि यदि प्रत्येक वस्तु सभाव्य | स्वामित्व-चोर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ है तो स्यावाद भी संभाव्य है, यधार्थ नहीं। किन्तु यह मैं, पोमप्रकाश जैन, एतद्द्वारा घोषित करता हू कि प्राक्षेप भी मही नही है । स्याद्वाद संभाव्यव द नहीं है। मेरी पूर्ण जानकारी एवं विश्वास के अनुसार उपयुक्त बल्कि सापेक्षवाद है। शकराचार्य का प्राक्षेप है कि यदि विवरण सत्य है। -~-मोमप्रकाशन, प्रकाशक प्रत्येक सत्यता प्रांशिक है तो स्यावाद भी प्रांशिक रूप से । Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अग्रवालों की उत्पत्ति पं. परमानन्द जैन, शास्त्री (समूची वैश्य जाति प्रर्थात अग्रवाल जैन एवं जैनेतर, खंडेलवाल, प्रोसवाल. वर्णवाल, माहेश्वरी रस्तोगी, राजवंशी, परमार (परवार), जायसवान, पल्लीवाल, लम्बेच, पोरवाड, गोलालारे, गोल-सिंगारे, गोलापूर्व एवं देश भर में फैली हुई अनेकानेक इतर वैश्य उपजातियो के सम्बन्ध मे तथा उनके उत्पत्ति स्थलों के सम्बन्ध मे प्रानुश्रुतिक, पुरातात्विक एवं ऐतिहासिक शोध कार्य करने तथा प्रामाणिक इतिहास प्रस्तुत करने के प्रयास सदैव होते रहे है जिनमें 'प्रनेकान्त' का भी प्रपना समुचित योगदान रहा है। _ विद्वान लेखक का प्रस्तुत गवेषणापूर्ण लेख इसी दिशा में एक सराहनीय प्रयास है। -सम्पादक) 'अग्रवाल' शब्द का अर्थ होता है, पन या प्राग्रेय प्राचीन माहत मुद्रा का नमूना भी मिला है। प्राचीन जनपद का निवासी । प्राचीन समय मे अग्र गण अथवा नगर के अवशेषो के साथ यूनानी सिक्के और ५१ चौखुटे प्रग्रेय जनपद समद्धशाली नगर था। उसी का परिवर्तित तांबे के सिक्के भी मिले है, जो इतिहास की दृष्टि से म प्रयोहा जान पडता है। प्रमोदक भी उसका नाम महत्वपूर्ण है । ताबे के सिक्को के सामने की पोर वृषभ तथा है, इससे जान पड़ता है कि वहाँ कोई सुन्दर विशाल पीछे की ओर सिंह या चैत्य वृक्ष की मूर्ति अकित है, जो तालाब था, इसी से उसका नाम अग्रोदक ख्यात हुप्रा है। जैन मान्यता की मोर सकेत करती है।' सिक्को के पीछे पर स्थान हरियाणा में हिसार नगर से १३ मील की बाली अक्षरो मे अगोद के प्रगच-जनपदस, शिलालेख भी दूरी पर दिल्ली-सिरसा सड़क पर अवस्थित है पोर इम अंकित है, जिसका प्रथं प्रमोदक में प्रगघ जनपद का समय वह उजड़ा हपा एक छोटा-सा गांव है। प्राचीन सिक्का होता है। उक्त प्राग्रेय जनपद का ही नाम अग्रोहा काल में वह एक विशाल एव प्रत्यन्त सम्पन्न नगर था। प्रचलित हमा है पोर राजधानी का नाम 'अग्रोदक' सिक्कों इसका प्रमाण वे वसावशेष है, जो उसके निकट सात सौ पर उत्कीर्ण है। एकर भूमि मे फैले हुए है। उमको समृद्धि का इसग भी इडियन एण्टोक्वेरी, भाग १५, पृ० ३४३ पर प्रमोदक अनुमान होता है कि वहां के निवामी सवा लाख व्यक्ति वैश्य का वर्णन दिया गया है, जिससे ज्ञात होता है कि लोहाचार्य के उपदेश से जैन धर्म के धारक श्रावक बने थे। वहाँ अग्रवाल वैश्यो का खासा जमघट रहा है। अन्य इससे नगर की विशालता का भी पता चलता है । यह जातियो की अपेक्षा वहाँ अग्रवाल वैश्यो की संख्या एक प्राचीन ऐतिहासिक नगर रहा प्रतीत होता है। यहाँ अधिक रही है और वे वहाँ अच्छे सम्पन्न एवं वैभवशाली एक टीला ६० फुट ऊँचा था, जो फतेहगढ़ जाने वाली रहे है। वे अग्रवाल देशभक्त और वीर जान पड़ते हैं, सड़क के दक्षिण की पोर प्रवस्थित है। इस टीले से तीन क्योकि उन्होने अपने देश की रक्षार्थ यूनानी, शक, कुषाण, प्राचीन नगरो के अवशेष मिलत है, जिनका समय दूसरी हण और मुसलमान प्रादि विदेशी प्राक्रमणकारियो से शताब्दी मे पूर्व और दसवी शताब्दी मे बाद का जमकर लोहा लिया थ । मुहम्मद गौरी के समय पहाँ अनुमानित किया जाता है, जिसकी खुदाई सन् १९३६- के निवासी अग्रवाल राजस्थान, उत्तर प्रदेश, दिल्ली ४० मे हुई थी। उसमें अनेक वस्तुएँ प्राप्त हुई थी। प्रादि इधर-उधर के प्रान्तो मे बस गये थे । इस जाति मे भी उसी से यह भी ज्ञात हुप्रा था कि वहां अनेक विशाल अनेक प्रतिष्ठित, वीर, पराक्रमी एव पोज-तेज से सम्पन्न भवन भी बने हुए थे । २६ फुट के नीचे सबसे अधिक व्यक्ति हुए हैं, जिन्होने समय-समय पर महत्वपूर्ण कार्यों १, एपिमाफिया इडिका, जिल्द २, पृष्ठ २४४ । २. एपिग्राफिमा इडिका, जिल्द १, पृष्ठ ६३-६४ । Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अग्रवालों की उत्पत्ति २७ का संचालन किया है और अपनी कीतिको चिरस्थायी ऐसी स्थिति में सहसा हिपा मे चूणा हो जाना माश्चर्यबनाने का प्रयत्न किया है। जनक है। कर्ता ने इसका समर्थक कोई प्रमाण नही दिया। __संभवतः ३२६ ई० पूर्व सिकन्दर की वापसी में लगता है यह भी कोरी कल्पना ही है । हिंसा पर हिंसा प्रमोहे के प्रग्र श्रेणी गणतत्र से मुठभेड हुई है। प्रयोहे के का प्रभाव किस निमित से पडा है. उसे व्यक्त किये बिना वर्तमान अग्रवालो के पूर्वज अपनी स्वतन्त्रता की रक्षा उसकी यथार्थना सन्देहास्पद ही है अथवा कवि की कोरी के लिए वीरतापूर्वक लडे और उन्होने सिकन्दर के यूनानी कल्पना ही जान पडती है, अन्यथा जिस हिसा की महत्ता सैनिकों के दांत खट्टे किये, किन्तु वे पाकान्ता की विपुल ने राजा के अन्तर्मानस को प्रभावित किया, उसका कोई सैन्य शक्ति के प्रागे ठहर न सके । फलतः बीस हजार कारण अवश्य होना चाहिए, जिसे ग्रन्थ कार व्यक्त नहीं स्त्री.बच्चो ने जौहर द्वारा अपना अन्त किया। जो कर सका। जान Tea कर मका। जान पडना है कथाकार ने महालक्ष्मीबत की aur इधर-उधर भाग गये थे, व्यापारादि द्वारा अपनी प्राजीविका महत्ता बतलाने के लिए एमी कल्पना को हो । करने के कारण वैश्य अग्रवालो मे उनको गणना होने 'अग्रवाल' शब्द पर विचार लगी। ___ डा० मत्यकेतु ने अग्रवाल जाति के प्राचीन इतिहास कहा जाता कि प्रयोहा मे अग्रमेन नाम का कोई के पृष्ठ १५६ पर लिखा है कि "प्रगरवाल शम्म बहत राजा था, उसी की संतान परम्पग मे अग्रवाल कहे जाते पुगना नही है, इस जाति के लिए जो विभिन्न नाम पहले हैं। यद्यपि प्रग्रसेन नामक राजा की कोई इतिवनि नही प्रयुक्त होते थे अग्रोतान्यव उनमे एक है।" जान पडता मिलती और न इतिहास तथा पुराणो में उसका डा० साहब को अग्रवाल शब्द को प्राचीनना का उल्लेख नामोल्लेख ही उपलब्ध होता है और न उसकी वंश नही मिला, इसी से उन्होंने ऐसा लिखा है। प्राकार परम्परा का ही नामोल्लेख मिलता है। उसके अट्ठारह अपभ्रश भाषा में "अगरवाल" शब्द सन १९३२ मे तोमर पुत्रो प्रादि का भी इतिहास मे कही कोई उल्लेख नहीं वशीय राजा प्रनंगपाल तृतीय के समय प्रचलित था। मिलता है। इससे अग्रसेन नाम कल्पित जान पड़ता है। अगरवाल का अर्थ प्रणवाल होता है। कविवर पोखरा किसी ने 'ग्रन' शब्द के प्रागे 'सेन' शब्द जोडकर अग्रसेन स० ११८६ (सन् ११३२) में दिल्ली में रचित पास. नाम की कल्पना कर ली, अन्यथा सत्रह यज्ञ करने वाले णाहचरिउ' मे उक्त प्रगरवाल शब्द का उल्लेख अग्रवालो राजा का पुराणों यादि में नामोल्लेख तक न होना ही के लिए किया गया है, इतना ही नही किन्त अग्रवाल साह उमको प्रमाणिकता का द्योतक है। जेजा के ज्येष्ठ पुत्र गधव का उल्लेख करते हुए उसे 'ग्रो. प्रज्ञानकर्तृक महालक्ष्मी व्रत-कथा के अनुसार, राजा तकान्वय नमोङ्गण पार्यणेन्दु बतलाया गया है जिसका अग्रसेन को अन्तिम यज्ञ मे हिसा से महसा पूणा हो गई, अर्थ अग्रवाल वशरूपी आकाश का चन्द्रमा होता है। इससे और उसने बीच में ही यज्ञ बन्द कर दिया। राजा का प्रमाणित होना है कि अग्रवाल वंश उम समय बहत प्रसित हिमात्मक यज्ञो से महमा उदासीन हो जाना, यह घटना हो चुका था। 'अध्यय' शब्द वश परम्परा का सचक है। अपने मे किसी रहस्य विशेष को ममोये हुए है। उसका अनंगपाल तृतीय के समय साहू जैजा का कुटम्ब अत्यन्त कोई न कोई कारण अवश्य रहा जान पड़ता है, जिसका प्रसिद्ध था। इनके लघु पुत्र नट्टल माह ने दिल्ली में प्रालि ग्रन्थ में कोई खनासा नही, क्योंकि बिना कारण के कार्य नाथ का एक सुन्दर मन्दिर बनवाया था और उसकी की उत्पत्ति नहीं होती। जिसे जीवन में कभी प्रबल हिंसा प्रतिष्ठा भी की थी। वह राज्यमान्य था और उसका से खेद तक नही हुमा, प्रत्युत उसमें हर्ष मानता रहा हो, व्यापार अग, बंग, कलिंगादि देशों में होता था। उसी ने १. भारतीय इतिहास : एक दृष्टि, प्रथम सस्करण, भारतीय ज्ञानपीठ, पृ०७४ । २. यस्यागजो जनि सुधोरिह राघवास्ययो, ज्यामानमन्दमतिसज्झितसर्वदोषाः । अग्रोतकान्वयनभोगणपार्थणेन्दुः, श्रीमाननेकगुणरज्जित-चारुचेताः-पास. च. । Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८, बर्ष ११,कि.१ अनेकान्त हरियाणा निवासी कवि श्रीधर से, जो स्वयं अग्रवाल वश मद्योगिनीपुरे सकलराज्यशिरोमुकुटमाणिक्य मरीचिकृत में उत्पन्न हुमा था। उक्त पार्श्वनाथच रित्र की रचना चरण कमलपादपीठस्य श्रीमत् पेरोजसोहे सकल साम्राज्यकराई थी। उस समय दिल्ली और हरियाणा प्रादि नगरों धुरां विभ्राणस्य समये वर्तमाने श्री कुन्दकुन्दाचार्यान्वये में अग्रवालों का निवास था। इसके बाद संवत् १३२६, मूलसंघे सरस्वतीगच्छे बलात्कारगणे भट्टारक रत्नकोति १३९१, १३६' की लिपि प्रशस्तियों, तथा संवत् १३६५ तरुणतरुणित्वभर्वीकूणां श्रीप्रभाचन्द्राणां तस्य शिष्य में लिखी हुई दातृ-प्रशस्ति मे 'तहि मज्झ पसद्ध उ अगर- ब्रह्मनाथ पठनार्थ प्रयोतकान्वये गोहिल गोत्र भर (मर) बाल, णामेण पउतउ रयण पालु।' अग्रवाल रत्नपाल का थल वास्तव्य परमश्रावक साधुसाउ भार्यावीरो तयो पुत्र उल्लेख किया गया है । इसके अतिरिक्त वि० स० १४१६, साधु ऊधस भार्यालोथा ही भरहपाल भार्या लोथा ही १४८६, १५१०, १५६६ प्रादि के अनेक ग्रन्थों को प्रशस्तियों श्रीभरहपाल लिखापित कर्मदायार्थ । कनकदेव पंडित में उनके लिखवाने वाले अग्रवालों का उल्लेख है :- लिखित । शुभ भूयात् । "संवत्सरेस्मिन श्री विक्रमादित्य गताब्दा: संवत् १३६१ -(जैन शास्त्र भंडार, ठोलियों का मन्दिर, जयपुर)" वर्ष ज्येष्ठ सुदि गुरुवासरे प्रथेह श्री योगिनीपुरे समसूराजा- ४. "सवत् १४८६ वर्षे पोषवदी ६ रवो दिने श्री गोपबलि शिरो मुकुट माणिक्य ग्वचित नवररमो सरचाण श्री गिरेः तोमरवंश महाराजाधिराज श्रीमत् डोगरसोदेव राज्य महम्मदसाहि नाम्नि महीविभ्रति सति प्रस्मिन राज्ये प्रवर्तमाने श्री काष्ठासंघे माथुरान्वये पुष्करगणे भट्टारक योगिनीपूरस्थिता अग्रोतकवान्यनभ. शशाक सा० महिपाल श्री क्षेमेन्द्र कीतिदेवास्तद्गुरुशिष्य श्रीमद्कोतिदेवा: तस्य पुत्र: जिन चरणकमल चंचरीक सा० सेतु, फेरा, साढा, शिष्य श्री वादीन्द्रचुडामणि महासिद्धान्ती श्रीब्रह्मसीराख्य महाराजा, तूपा, ऐते, साहलेपु पुत्र गाल्हा माजा ऐते नामदेवा । अग्रोताकान्वये मीतलगोत्र साधु श्री गल्हा साह घेरा पुत्र बी था हेमराज एते: धर्म कम्मणि सदो. भार्या खेमा तयो पुत्रः भोणी एक पक्ष।। द्वितीय पक्षा समपरेः ज्ञानावरणीकर्मक्षयाय भव्य जननां पठनाय उत्तर- अग्रोतकान्वये गर्ग गोत्र साधु श्री क्षेमधरा भार्या हरो तयो पुराण पुस्तकं लिखापितं । लिखितं गोडान्वय कायस्थ पंडित पुत्राश्चत्वारः प्रथम पुत्र देखलु. द्वितीय वील्हा, तृतीय गंधर्व पुत्र वाहड राजदेवेन । (प्रशस्ति सं० पृ.६२)।" पाल्हा, चतुर्थ भरया। देखलु भार्यारूपा, वील्हा भार्या ना ___ "सं० १३६९ फाल्गुण सदी ५ शुत्रवासरे श्रीयोगिनी- थी. साधु नाल्हा भार्या था नी, तयोः पुत्राश्चत्वारः साधु पुर सुरत्राण श्री मन्महंमद साहि राज्य प्रवर्तमाने काष्ठासघे श्रीचन्द्रा, साधु हरिश्चन्द्र सा० रना, सा० साल्हा । त्रयोदशविधि चारित्र (धारक) भट्टारकनयसेनः तस्य । चन्द्र पुत्र मेघा, स्वधर्मरत साधु श्री मर्या मीणा, शीलशिष्यः भट्टारक दुर्लभसेन तस्याध्ययनाय पुस्तकामदं प्रति- शालिनी ध र शालिनी धर्मप्रभावनी रत्नत्रयाराधिनी बाई जोगी प्रात्मक्रमणरते लिखापयित्वा दरबारचेत्यालय समीप स्थित घम क्षाथ इद परमात्मप्रकाश प्रथालखापत। अग्रोतकन्वय परमश्रावक सागिया इति पूर्वपूरुषसज्ञकेन -ठोलियों का मन्दिर जंग शास्त्र भडा', जयपुर" पाटण वास्तव्य सा० पाणा भार्याहलो प्रनयो पुत्रो दिउप इसके अतिरिक्त म० यशःकीर्ति (१४०२-१५००) ने पूना नामादो सा० पूना भार्या बीक्षा प्रतयो पत्रेण दरबार- अपने पाण्डव पुराण पोर हरिवशपुराण मे अग्रवालों का चेत्यालये पंचभ्युद्यानाय सकलसंघमाकार्य देव-शास्त्र. उल्लेख किया है । यथागुरुणा महामहं विधाय सघपूजा वस्त्रापाराधिभिः कृता "मिरि अगरवाल बमहि पहाण शास्त्रदान प्रस्तावे पच पुस्तकानि ददानि । मो सघहे वच्छलु विनयमाणु ।"-पांडव पुराण -प्रशस्तिसंग्रह, पृ० ६७" । र "तहि प्रयरवाल बसहि पहायु सिग्गिग्गनोगंगेयभाण । ___ जो रूबें णिज्जिय काम बाणु दिउचंद साहू कि उपत्तदाणु।" ३. "सं० १९४६ वर्षे सादवा सुदी १३ गुरो दिने श्री. -हरिवश पुराण १. 'सवत् १३२६ चैत्र सदि दशम्या बुधवासरे अथेह योगिनीपुरे समस्त राजाबलि समालंकृत गयासुद्दीन राज्ये प्रवस्थित अग्रोतक परमश्रावक जिनचरणकमल..." तेरापंथी बहा मदिर भंडार, जयपुर की प्रथ सूची, भाग २, ५० १४२। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपवालों की उत्पत्ति कवि रहघ ने भी अपने अनेकों ग्रन्थों में अग्रवालों का गांव प्रादि के नाम पर गोत्र और जाति कल्पना परिचय उनके कुटम्ब-परिकर के साथ दिया है। दो प्रथों उपजातियो का इतिवृत्त दसवी शताब्दी से पूर्व का का उल्लेख निम्न प्रकार है : नहीं मिलता। हो सकता है कि कुछ उपजातियां पूर्ववर्ती बोरवाल सहि हमयकू, विह पवग्व बुद्ध सोणय बकु। रही हों। इन उपजानियों और उनके गोत्रादि का विकास वीण, नियजलण विहलोहम विणयलीणु। ग्रामों पोर नगरी ग्राति के नाम पर हमा है, उदाहर _ --बलहद पुराण णार्थ, खण्डेला से खण्डेलवाल, मोसा से पोसवाल, बर्षरा भानोय बंश णहससि दाणाविहाणेण णाह खेयंहो। मे बघेरावाल (व्याघवाल), पाली से पल्लीवाल, पा. बयणमण क्यतोखो हालू माहुस्स पंगमोविदियो।। बती से पद्मावतीपुरवाल, इसी तरह अग्रोहा से प्रवाल, .- वित्तसार' चदरी के निवामी होने के कारण चदरिया, चन्द्रवार से मोलहवी शताब्दी के कवि महाचन्द और माणिक्य- नान्दुवाड । विभिन्न कार्य करने से भी लोगो की विविध चन्द ने अपने ग्रन्थो मे अग्रवालों का निम्म शब्दो मे नामो मे ख्याति देखी जाती है। पटवार गिरीको उल्लेख किया है : पटवारी, सोने का कार्य करने से मोनी या सुवर्णकार को 'भयरबाल सघह सुह भाव उ, गग्ग गोत्त-णिम्मल गुणमायर। प्रसिद्धि होती है । -शान्तिनाथ पुराण गाँव के नाम पर गोत्र कल्पना कैसे की जाती थी, प्रयरवाल स्पसद्ध विभामिन, सिंघनगोत्त उ सुषणममामि। इमका एक उदाहरण १७वी शताब्दी के पडित बनारसी. दास के प्रवधानक मे जात होता है और वह इस प्रकार इन दोनो कवियों के ग्रन्थों का रचनाकाल स. १५७ ह - मध्यदेश के रोहतकपुर के निकट बोहोली नाम का एक गांव था, जिसमे राजवंशी राजपूतों का निवास पा। पौर १५७६ है। वे गुरु प्रसाद से जैनी हो गये और उन्होंने अपना पापमय इन सब उल्लेखों से अग्रवाल शन्द की प्राचीनता क्रियाकाण्ड छोड दिया, णमोकार मात्र को माला पहनी, पौर महत्ता पर प्रकाश पड़ता है। ये सब उल्लेख जैन अतएव उनका कुल श्रीमाल बताया गया। और गोत्र गांव पग्रवालों के है। पप जनपद या प्रदेश के निवासी होने के नाम पर बिहोलिया रक्या गया, जैसा कि अर्धकथानक के कारण अग्रवाल कहे जाते है। अग्रसेन राजा को मनान के निम्न पदों से प्रगट है :--- परम्परा के कारण अग्रवाल नहीं कहे जाते ।। याही भरत सुखेत में, मध्यदेश शुभ ठाऊं। 'अग्रवालों' में दो शब्द जुड़े हुए हैं-'प्रय' जोर 'वाल'। बसं नगर रोहतकपुर, निकट बिहोली गाऊँ। इनमें अन शब्द देश या जनपद का वाचक है और वाल ते गुरुमुख जनी भए, त्यागि काम प्रधभूत । शब्द उनके पूर्व निवास का सूचक है। जिस तरह कोई पहरी माला मन्त्र की, पायो कुल श्रीमाल । व्यक्ति कलकत्ता से दिल्ली मे जाये तो उसे कलकतिया थाम्यो गौत्र बिहीलिया, बीहोली रखपाल । या कलकत्तं वाला कहा जाता है, या किसी अन्य स्थान --मर्धकथाक पर बस जाने पर उसे अन्य स्थान वाला कहा जायगा, इसी तरह अन्य जातियों के गोत्रादि के सम्बन्ध में इसी तरह राजस्थान के खण्डेला से खण्डेलवालो का विचार करना चाहिए। उपजातियों के गोत्रों की कल्पना निकास हुमा है। खण्डला के निवासी होने से उन्हें खण्डेल- जदी-जुही है। जैन समाज में उपलब्ध उपजातियां व बाल कहा जाता है। पाली वासी होने के कारण पल्ली- गोवादि भिन्न-भिन्न है। इसी तरह वैष्णव सम्प्रदाय को बाल, पथावती नगरी के निवासी होने के कारण से पद्मा. उपजातियों में भी गोत्र कल्पना भिन्न-भिन्न पायी वतीपुर वाल कहा जाता है। यहां बाल शब्द स्पष्ट रूप जाती है। अग्रवालों के १८ गोत्र बतलाये जाते हैं। उनमें से निवास का द्योतक है। गर्ग, गोयल, मित्तल, सगल या सिंगल, बंसल, जिन्दल, Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०, वर्ष ११कि०१ भनेकास एण्डिल और मंगल नाम के गोत्रो के नामोल्लेख विविध के एकदेश धारक थे। इनका समय ६८३ वर्ष की श्रतअन्धादि में मेरे प्रवलोकन में पाये है। उन सब मे गर्ग घरों की काल गणना मे पाता है। प्राकृत पट्टावली के गोत्र वालो के उल्लेख अधिक पाये जाते है । सम्भवतः अनुसार इनका समय वीर नि० सं०५६५ है। 'लोहज्ज' उसो तरह वैष्णव अग्रवालों में भी वैसे ही पाये जाते होगे। शब्द प्राकृत भाषा का है जिसका अर्थ लोहार्य या लोहाशेष गोत्रों के सम्बन्ध में मुझे कुछ जानकारी प्राप्त नहीं हुई। चार्य होता है। बहुत सम्भव है कि इन लोहाचार्य से अग्रजनइसी तरह परवार, खण्डेलवाल, गोलापूर्व, हुंबड, गोलालारे, पद के निवासियों को प्रबोध मिला हो और उनके उपदेश पोसवाल, बधे रवाल, प्रादि उपजातियों के गोत्रादि भिन्न- से उन्होने जैनधर्म धारण किया हो और प्राग्रेय या अग्र भिन्न पाये जाते है । सम्भव है तुलना करने पर कुछ उप- जनपद के निधासी होने से अग्रवाल कहलाने लगे हो। जातियों के गोत्रादिको में कही कुछ गमानता भी मिल काष्ठामघ की उत्पत्ति तो बाद में हुई है, फिर भी जाय । वस्तुत उनके गात्र भिन्न हो देवा में प्राते है। काष्ठा संघ के साथ लोहाचार्यान्वय का उल्लेख है। परन्तु लोहाचार्य इसका कोई प्राचीन उल्लेख मेरे देखने मे नही पाया है। ___ लोहाचाय काम के दा प्राचार्यों का उल्लेख मिलता हां, १५वी-१७वी शताब्दी की लिपि प्रशस्तियो आदि मे है। उनमे प्रथम लोहाचार्य तो भगवान महावीर के पचम लोहाचार्यान्वय का उल्लेख अवश्य देखने मे प्राया है।' गणघर थे। पटखण्डागम की धवला टीका और कपाय एक लोहाचार्य का उल्लेख प० बुलाकीचन्द्र ने अपने पाहड़ की जयधवला टीका मे लौहिज्ज नाम से उनका स० १७३७ मे रचित बचन-कोश में किया है और बताया उल्लेख मिलता है यथा तेण गोदर्मण दुबिह मबिसुदणाण है कि काष्ठामघ की उत्पत्ति उमास्वामी के पट्टाधिकारी लोहजस्स सचाग्दि (धवला पु० १, पृ०६५)। इनका नाम लोहाचार्य द्वारा अगरोहा नगर में हुई। इसका कोई प्राचीन सुधर्म स्वामी धा पौर प्रपरनाम लोहाचार्य । मनि पद्म प्रामाणिक उल्लेख अभी तक प्राप्त नही हुमा । अतएव यह नन्दी ने जम्बद्वीप पण्णती मे सुधर्म गणधर का नाम लोहा प्रामाणिक नही हो सकता । उमास्वामी के पट्टाचार्य किसी चार्य बतलाया है-तेण बि लोहज्जस्य य लौरज्जेण य सधम्म लोहाचार्य का कोई उल्लेख अभी तक प्राप्त नही हमा। । (जम्बद्वीप पणती १-१०)। इनका निवाण इ० काष्ठासंघ की उत्पत्ति पूर्व ५७३ मे हुप्रा था। काष्ठासध की उत्पत्ति का उल्लेख प्राचार्य देवसेन के __दूसरे लोहाचार्य प्राचाराग के धारण और शेष अगो दर्शनसार मे मिलता है । उसमे लिग्वा है कि गुणभद्राचार्य सुभद्रो तो यशोभद्रो यशोबाहुनेतर । मायरान्वये पुष्करगच्छे लोहाचार्यान्वये प्रतिष्ठाचार्य लोहाचार्यस्तुरीयो भदाचारागधुतां प्रतत. ।। श्री अनन्तकीर्तिदेवा: तस्य पट्टनगणागणे भट्टारक - हरिवशपुराण १.६५ कल्प श्री क्षेमकीर्ति देवः तत्पट्टे श्री हेमकीर्ति देवाः लोहिज्जो, लोहाइरिए सर्ग गदे पायावस्स बीच्छेदो तत्शिष्य श्री धर्मचन्द्रदेवा: तस्य धर्मोपदेशामृतेन हृदिजादो। ---जयषवला, पु. १, पृ० ८६ स्थित घनोबल्ली खिच्चभामेन रोहितासनगरे वास्तव्य २. भट्टारकीय मन्दिर प्रजमेर शास्त्र भण्डार की समय- श्री कालपीनगरस्थित अग्रोत कान्वय मीतल गोत्रीय सार टीका (प्रात्मख्याति) की लिपि प्रशस्ति में जो पूर्वपुरुप ...। १४६३ सोमवार की लिखी हुई है, काष्ठा सघ के सवत् १६५८ फाल्गुन सुदी ८ शनिवासरे श्री काष्ठासाथ लोहाचार्यान्वय का उल्लेख है, यथा-'स्वस्ति सघे माथुरागच्छे श्री लोहाचार्यान्वये श्री गुणभद्र श्री संवत १४६३ वर्ष त्रयोदश्या सोमवासरे प्रथेय त्री पट्टे श्री गुणकीति तत्पट्टे श्री कुमारसेनास्तत: श्री कालपीनगरे समस्त राजाबली समलकृत विनजितारि- विशालकीतिः तच्छिष्य जसोघर नित्य प्रणमिति । बली प्रचंड महाराजाधिराज सुरबाण महमूदं साहि यह लेख तार की गली मागरा मन्दिर की मूर्ति विजयराज्य प्रवर्तमाने प्रस्मिन राज्ये श्री काष्ठासंघ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपवालों की उत्पत्ति को मत्य के बाद जिनसेनाचार्य के गुरु भाई विनयसेन के सुनाई काल्पनिक बातों से भरा हमा है, प्रतएव प्रामाणिक दीक्षित शिष्य कुमारसेन द्वारा सं०७५३ मे नन्दितट ग्राम प्रतीत नही होता। मेकाष्ठासघ की उत्पत्ति हुई, जैसा कि उसकी निम्न प्रयोक नगरी को महालक्ष्मी व्रत कथा मे गंगा-यमुना गाथानों में स्पष्ट है : नदियो के मध्य हरिद्वार मे १४ कोश पश्चिम की मोर तेण पुणो बिय बिच्चु णाऊण भुणिस्य बिणयसेणरस । बतलाया गया है और अग्रसेन के साथ उसका सम्बन्ध सिद्धते घोसिता सय गय सन्न लोयस्स ॥३३॥ जोडा गया है, जो काल्पनिक है । डा. सत्यकेतु की दृष्टि मासीकुमारसेणो एबियडे बिणयसेण दिव्यखयो। मे भी वह काल्पनिक रहा है। इतिहास की दृष्टि से वह चचोन समो रूद्दी क्ट्ठ सघ परुवेदि ॥३६॥ मनगढंत है। दूसरे, अग्रसेन राजा की रानियों, पूत्रों और सो सवणसंघ बज्जो कुमार मेणो दुग्नमय भिच्छत्ती। कन्यानों के नाम भी पूरे नहीं गिनाने जा सके है। उनका सत्त सये तेवणे विचकमरायस्म मरणपतस्स । भी समर्थन अन्यत्र से नही होता। माढे सत्रह गोत्रों की पदिय हे बरनामे कठो सपो मुणयन्वो ॥३८॥ वल्पना काल्पनिक ही है, प्राधे गोत्र का क्या प्राधार --दर्शनसार है ? पुगणो में इनका साक्ष्य मिलना चाहिये। डा. सत्तवेतु ने १० १९८ पर लिखा है कि 'परम्परा दर्शनसार की गाथा मे, वि० सं०७५३ में काष्ठासंघ अनुश्रति के अनुसार गनियो की संख्या साढ़ सत्रह या की उत्पत्ति बतलाई गई है। यह ममय ऐतिहामिक दृष्टि मे अठारह लिखकर भी महालक्ष्मीव्रत कथा का लेखक उनके ठीक नही मालम होता, क्योकि प्राचार्य गुण भद्र की मृत्यु नामो की गिनती पूरी न कर सका। इस ग्रन्थ मे राजा के उपरान्त काष्ठासंघ की उत्पत्ति हुई। इसमे ७५३ का अन की रानियो व कन्याप्रो के जो नाम दिये गये है वे विक्रम संवत ठीक प्रतीत नही होता, क्योकि बीरसेन के कहा तक सत्य है यह कहना कठिन है। इससे स्पष्ट है शिष्य जिनसेन के सधर्मी विनय मेन थे, और इन्ही विनय कि डाक्टर साहब भी उससे शकित है। सेन के अनुरोध से जिनसेन के पाश्र्वाम्यदय काव्य की रचना की थी। इन कुमारसेन ने गुणभद्र की मृत्यु के बाद कथा के १३७-१३८ पद्यो में बतलाया गया है कि प्रमकाष्ठासघ की स्थापना की, जिससे उक्त ७५३ का से नने साढ़े सत्रह यज्ञा से मधुसूदन को सतुष्ट किया। एक सवत् १५० वर्ष के लगभग पीछे पड़ जाता है। इससे बार यज्ञ के बीच मे घोड़े का मास बोल उठा। उसने वह स्थापना काल सदोष है। काष्ठासष की उत्पत्ति कहा कि राजन् ! मांस और मद्य द्वारा स्वय को जय मत विक्रम की १०वी शताब्दी के लगभग ठहरती है। यदि करो। हे दयानिधे ! इन दोनो से रहित जीव कभी पाप उसे विक्रम संवत् न मानकर शक सबत् माना जाय तो से लिप्त नहीं होता । इसमें विचारणीय है कि क्या घोडे संभवत: उसका सामंजस्य हो सकेगा। या किसी जीव का मास बोल सकता है; उसमे उसका प्रात्मा निकल जाने या प्राण रहित हो जाने के बाद महालक्ष्मी व्रत कथा बोलने की शक्ति कहा से आ गई; क्या निर्जीव व्यक्ति का महालक्ष्मी व्रत कथा संस्कृत भाषा की एक अर्वाचीन इश प्रकार की उद्घोषणा कर सकता है। यह कथन निरा खंडित कृति है जिसका कर्ता प्रज्ञात है मौर जिसे भविष्य काल्पनिक और मनगढ़त जान पड़ता है। क्या कोई वंज्ञा निक इसे कसौटी पर कसकर प्रमाणित कर सकता है? पुराण का अंश बतलाया गया है। परन्तु वह उसमें उपलब्ध नही होती। प्रन्थ व्याकरण सम्बन्धी प्रशुद्धियों से युक्त कथा में यह भी लिखा है कि धनंजय का पुत्र श्रीनाथ है, जिसका सकेत डा० सत्यकेतु विद्यालकार ने भी अपने हमा और श्रीनाथ का पुत्र दिवाकर हुमा। दिवाकर ने अग्रवालों के प्राचीन इतिहास में किया है। रचना साधारण जनमत का पालन किया। परन्तु प्रयकर्ता ने इसे स्पष्ट है। भाषा में प्रौढ़ता के दर्शन नहीं होते। कथानक सुनी (शेष प्रावरण पृ०३ पर) Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ झारड़ा की अप्रकाशित जैन देवी प्रतिमाएं D डा० मायारानी प्रार्य, उज्जैन मध्यप्रदेश के उज्जैन जिले की महीदपुर तहसील से पूर्व नीचे के प्रभिलेख मे 'संवत १२२६ वैशाख वदी। शुक्र दिशा में १५ कि. मी. दूर झारडा ग्राम अपने जैनावशेषो ... शांतिनाथ चंत्ये सा श्री गोशल भाय के कारण कला जगत मे अधिक प्रसिद्धि प्राप्त कर चुका है। कूटम्बेन सहितेन निज गोत्र देव्याः श्री अच्छम्नाथ प्रतियहाँ कई स्थलो पर जन अभिनय तथा तीर्थ व.र प्रतिमायें कृति कारिता" अकित है। हैं जिनमें से कुछ को तो डाकर वाणकर ने प्रकाशित तीसरी प्रतिमा चक्रेश्वरी की है। प्रथम तीर्थंकर ऋषभ किया है। पूर्व जन जिला जैन र.वशेष सग्रह नाथ की शासनदेवी चश्वरी परमार मूर्तिकला मे विशेष समिति के तत्वावधान मे झारडा ग्राम के जैन अवशेषो का रूप से अकित मिलती है। मालवा की ऐसी चक्रेश्वरी सर्वेक्षण पं० सत्यधर कुमार जी सेठी तथा डा सुरेन्द्र प्रतिमाये उज्जैन की जैसिंहपुग जैन संग्राहलय कुमार मार्य ने किया। यहाँ ५.६ प्रतिमायें प्राप्त हुई है मे सकलित है। झारडा की इस प्रतिमा मे देवी गरुड़जिनकी चर्चा प्रथम बार यहां की जा रही है। वाहना है और प्रष्टम् नी है। रूपमंडनकार ने जो प्रायुध वि० सं० १२०८ के अभिलेख वाली रोहिणी की एक दिये है वही इस प्रतिमा में है। चक्र, पाश, वाण, वरद, कलात्मक प्रतिमा २' ५" ऊची और १.७" चौड़ी है। अकुश, वज प्रायुध स्पष्ट है व दो हाथो के मायुध मग्न १६ विद्यादेवया म राहिणा प्रसिद्ध है । प्रतिमा का वाहन अस्पष्ट शिलानेम्व से प्रतिमा का निर्माण काल १३वी गाय है। प्रतः यह श्वेताम्बर परम्परा मे निमित है। अतः यह पताम्बर पपसम नामा हाताब्दी ज्ञात होता है। प्रतिमा के चार हाथ है। ऊपर के प्रथम बाये हाथ मे झारड़ा की चतुर्थ व पंचम जैन प्रतिमायें क्रमश: कलश, दायें हाथ मे शख, नीचे के बॉये हाथ मे कमल व पदमावती व अम्बिका की है। ये क्रमशः पाद्यनाथ चौथा भग्न है । प्रतिमा एक विशिष्ट मूर्तिकला का उदा. और नेमिनाथ की यक्षिणी देवियाँ है । पद्मावती ललिताहरण यह प्रस्तुत करती है कि इसमें वाहन के माधार पर सना है और अम्बिका की गोद मे बालक है। जैन देवी श्वेताम्बरी है, पर मायुध के प्राचार पर दिगबर है (जंन लक्षण ग्रंथों के प्राधार पर)। संभवतः यह परमार इस प्रकार की अन्य खडित देवी अबिका की प्रतिमायें नरेश भोज के समय संस्थापित धार्मिक समन्यव के कर्तृत्व घरों की सीढियों व दीवारों में चनी हुई पायी गई है जो द्वारा प्रभावित थी। देवी को शरीर यष्टि विशुद्ध रूप से अभी तक पूर्णतः अप्रकाशित है। झारड़ा में तीर्थंकरपरमार शिल्प से अनुप्राणित है। प्रतिमाये प्रचुर मात्रा में है (डा. वाकणकर ने प्रादिनाथ, द्वितीय प्रतिमा काले स्लेटी पत्थर पर बच्युता सुपार्श्वनाथ, सुमतिनाथ की ही लगभग ३० प्रतिमायें अथवा पच्छुप्ता देवी की है। जैन प्रतिमा शास्त्र के खोजी है)। सभी प्राय: १० से १३वी शताब्दी में निमित है अनुसार यह भी १६ विद्या देवियों में प्रसिद्ध है। देवी व उन पर मालवा के परमार मूर्ति-शिल्प की स्पष्ट छाप है। अश्व पर मारूद हैं और ५.४" लम्बे व ३.७" चौडे 000 प्रस्तर फलक पर उभारी गई है। दो हाथों से नमस्कार २२, टी. माई०टी० कालोनी, मुद्रा की प्राप्ति व दायें में खड्ग तथा बायें में बज है। दशहरा मैदान, उज्जैन (म. प्र.) Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पृष्ठ ३१ का शेषांश नही किया। दिवाकर ने जिसके द्वारा जैनधर्म ग्रहण किया, प्रप में लिखा है, कि जब अठारहवा यज्ञ महर्षि ने शुरू उसका स्पष्टीकरण प्रपेक्षित है, जिससे उनकी जांच की जा किया तब अग्रसेन के हृदय में हिंसा से प्रकस्मात् घृणा सके। इस तरह यह कया अनेक कल्पित पाख्यानों, किव उत्पन्न हो गई और यज्ञ का कार्य बन्द हो गया। अग्रोहा दन्तियों से पूर्ण है। उनका अन्यत्र से समर्थन नही होता। से उरू का सम्बन्ध प्रतीत नही होता । उस परित प्रतः वह प्रमाण कैसे मानी जा सकती है। से अग्रसेन के साथ उसका सम्बन्ध जोडना . सचित उरू चरितम् नही है। उरू चरितम् कर्ता के नाम से रहित खण्डित ग्रन्थ अग्रसेन के भाई शूरसेन के नाम मे मथुरा का नाम है, जिसमें राजा उरू का चरित वणित है। उसका प्रय. शूरसेन पड़ा, यह कल्पना निराधार भौर प्रतिहासिक है। वालों के साथ कोई सम्बन्ध प्रतीत नही होता । ग्रन्थ में र अग्रसेन और शूरसेन की एकता का क्या प्रमाण है ? अग्रसेन के भाई शूरसेन का उल्लेख किया गया है और उसे उरू को चन्द्रवंशी राजा लिखा गया है। उसका कोई शूरसेन देश बसाने वाला लिखा गया है । शूरसेन प्रदेश मथुरा पाराणिक उन पौराणिक उल्लेख उपलब्ध नहीं होता। उसका मथुरा के के प्रासपाम का क्षेत्र है। यह कथन ऐतिहासिक दृष्टि से साथ क्या सम्बन्ध था यह भी कुछ ज्ञात नहीं होता। जान ठीक नहीं है। शूरसेन प्रदेश प्राचीन है और उसका पड़ता है कि लेखक ने इधर-उधर से सुनी-सुनाई बातों को सम्बन्ध यदुव शियो के साथ है। वे उसके शासक रहे है। कल्पना के प्राधार पर सगठिन करने का प्रयन्न किया है। कंस के मरने के बाद जरासंघ के भय से यादव लोग शरसेन प्रतः इससे इतिहास की शृखला का सम्बन्ध निश्चय करना प्रदेश को छोड़कर द्वारिका चले गये थे । शरसेन प्रदेश के दुष्कर है । कारण वहाँ की भाषा शौरसेनी कही जाती है । जैनियों के एफ ६५, जवाहर पार्क (वेस्ट), कितने ही प्रन्थ शौरसेनी प्राकृत में लिखे गये है। लक्ष्मीनगर, दिल्ली-५१ 000 आवश्यक सूचना अनेकान्त साहू शान्तिप्रसाद जैन स्मृति अंक इस अंक की प्रकाशन योजना मे किंचित परिवर्तन किया गया है। पूर्वज्ञापित योजना के स्थान पर प्रब यह अक दिसम्बर, १९७८ में प्रकाशित होगा और भनेकान्त के वर्ष ३१ की किरणें ३ मोर ४ इसमें समाहित होंगी। -सम्पादक Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८.०० 1.N !0591/62 वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन पुरातनवाक्य-सूची: प्राकृत के प्राचीन ४६ मूल-ग्रन्थों की पद्यानुक्रमणी, जिसके माथ ४८ टीकादि ग्रन्थों में उद्धृत दूसरे पद्यों की भी अनुक्रमणी लगी हुई है । सब मिलाकर २५३५३ पद्य-वाक्यों की सूची । संपादक: मुख्तार श्री जुगलकिशोर जी की गवेषणापूर्ण महत्त्व की ७ पृष्ठ की प्रस्तावना से अलंकृत, डा. कालीदास नाग, एम. ए., डी. लिट. के प्राक्कथन (Foreword) और डा० ए. एन. उपाध्ये, एम. ए.,डी. लिट. की भूमिका (Introduction) से भूषित है। शोध-खोज के विद्वानों के लिए अतीव उपयोगी, बड़ा साइज, सजिल्द । १५... ' प्राप्तपरीक्षा :श्री विद्यानन्दाचार्य की स्वोपज्ञ सटीक अपूर्व कृति, प्राप्तों की परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषयक सुन्दर विवेचन को लिए हए, न्यायाचार्य पं दरबारीलालजी के हिन्दी अनुवाद से युक्त, सजिल्द । स्वयम्भू स्तोत्र : समन्तभद्र भारती का अपूर्व ग्रन्थ, मुख्तार श्री जुगलकिशोरजी के हिन्दी अनुवाद तथा महत्व की गवेषणापूर्ण प्रस्तावना से सुशोभित । ... २.०० स्कृतिविद्या : स्वामी समन्तभद्र की अनोखी कृति, पापो के जीतने की कला, सटीक, सानुवाद मोर श्री जुगल किशोर मुख्तार की महत्त्व की प्रस्तावनादि से अलकृत, सुन्दर, जिल्द-सहित । पण्यात्मकमलमार्तण्ड : पंचाध्यायीकार कवि राजमन की सुन्दर प्राध्यात्मिक रचना, हिन्दी-अनुवाद-सहित ।। अपरयनुशासन : तत्त्वज्ञान से परिपूर्ण, समन्तभद्र की असाधारण कृति, जिसका अभी तक हिन्दी अनुवाद नहीं हुपा था। मुख्तार श्री के हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादि से अलकृत, सजिल्द । ... १.२५ समीचीन धर्मशास्त्र : स्वामी समन्तभद्र का गहस्थाचार-विषयक अत्युत्तम प्राचीन ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोर जी के विवेचनात्मक हिन्दी भाष्य और गवेषणात्मक प्रस्तावना से युक्त, साजल्द । नग्रन्थ-प्रशस्ति संग्रह, भाग १: संस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियो का मंगलाचरण सहित अपूर्व संग्रह, उपयोगी ११ परिशिष्टों भौर प० परमानन्द शास्त्रो की इतिहास-विषयक साहित्यपरिचयात्मक प्रस्तावना से अलंकृत, सजिल्द । ४.०० समाषितन्त्र पौर इष्टोपदेश : प्रध्यात्मकृति, पं० परमानन्द शास्त्री की हिन्दी टीका सहित ४-०० भवणबेलगोल और दक्षिण के अन्य जैन तीर्थ : श्री राजकृष्ण जैन १-२५ अध्यात्म रहस्य . पं० पाशाघर की सुन्दर कृति, मुख्तार श्री के हिन्दी अनुवाद सहित । ... १.०० जनग्रन्थ-प्रशस्ति संग्रह, भाग २: अपभ्रश के १२२ अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का महत्त्वपूर्ण संग्रह। वपन अन्धकारों के ऐतिहासिक ग्रंथ-परिचय पोर परिशिष्टों सहित । स. प. परमानन्द शास्त्री। सजिल्द। १२.०० म्याय-बीपिका : मा. अभिनव धर्मभूषण की कृति का प्रो. डा. दरबारीलालजी न्यायाचार्य द्वारा ग० अनु०। ७.०० न साहित्य और इतिहास पर विशव प्रकाश : पृष्ठ संख्या ७४, सजिल्द । कसायपाहडसुत्त : मूल ग्रन्थ की रचना माज से दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुणपराचार्य ने की, जिस पर श्री यतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चूणिसूत्र लिखे । सम्पादक पं हीरालालजी सिद्धान्त-शास्त्री। उपयोगी परिशिष्टो पोर हिन्दी अनुवाद के साथ बड़े साइज के १००० से भी अधिक पृष्ठों में । पुष्ट कागज और कपड़े की पक्की जिल्द । २०.०० Realitv : मा. पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि का अंग्रेजी मे मनुवाद । बरपाकार के ३.० १., पक्की जिल्द अन निबन्ध-रत्नावली : श्री मिलापचन्द्र तथा श्री रतनलाल कटारिया ५.०० ध्यानातक (ध्यानस्तव सहित) : संपादक पं० बालचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री १२-.. धावक धर्म संहिता :पी दरयावसिंह सोषिया न लक्षणावली (तीन भागों में): (तृतीय भाग मुद्रणाधीन) प्रथम भाग २५.००%, द्वितीय भाग २५.०० Jain Bibliography (Universal Encyclopaedia of Jain References) (Pages 2500) (Under print) प्रकाशक-वीर सेवा मन्दिर के लिए रूपवाणी प्रिटिंग हाउस, दरियागज, नई दिल्ली-२ से मुद्रित । Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैमासिक शोध-पत्रिका अनकान्त - - वर्ष ३१: किरण २ अप्रैल-जून १६७८ सम्पादन-मण्डल डा. ज्योतिप्रसाद जैन डा. प्रेमसागर जैन श्री गोकुलप्रसाद जैन विषयानुक्रमणिका क्र० विषय १. श्री महावीर स्तवन-श्री माशाधर २. नारी और जीवन-मूल्य : अपभ्रश साहित्य के संदर्भ मे-साध्वी साधना जैन, दिल्ली ३. देवपूजा मोर उसका माहात्म्य -प्रो. उदयचन्द्र जैन, एम. ए. ४. नियतिवाद नामा नियमवाद __--श्री महेन्द्रसेन जैनी, नई दिल्ली सम्पादक श्रो गोकुलप्रसाद जैन एम ए., एल-एल.बी., साहित्यरत्न ५. कबीर की वाणी में बीर-वाणी की गंज -श्रीमती कुसुम जैन सोरया, एम.ए., बी.एड. ४६ ६. देश के बौद्धिक जीवन में जनों का योगदान --डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल, जयपुर ५२ ७. स्याद्वाद या अनेकान्त : एक चिन्तन -पंडित वर्षमान पा० शास्त्री, सिद्धान्ताचायं ५५ ८. सन्तकवि रइधू और उनका साहित्य -डा. राजाराम जैन, एम. ए., पी-एच. डी. ५६ ६. 'जन' हरिवंश पुराणकालीन भारत की सांस्कृतिक ___झलक-डा० प्रमचन्द जैन, एम.ए., पी-एच. डी. ७३ वार्षिक मूल्य ६) रुपए इस किरण का मन्य: १ रुपया ५० पैसे प्रकाशक वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर सेवा मन्दिर के नए अध्यक्ष भार जैन धर्म और संस्कृति की सर्वतोमुखी उन्नति के लिए प्रयत्नशील रहना वह अपना कर्तव्य मानते हैं। भारतीय ज्ञानपीठ की साहित्यिक और सास्कृतिक प्रवृत्तियो के संवर्धन का दायित्व उन्होंने सामर्थ्य के साथ सभाला है। उनसे जैन समाज को ही नही अपित सारे देश के सास्कृतिक जीवन को अनेक-अनेक प्राशाएँ है। बनेट कोलमैन एण्ड कम्पनी के अध्यक्ष के नाते वह टाइम्स ग्राफ इण्डिया, धर्मयुग, नवभारत टाइम्स, इलस्ट्रेटेड वीकली तथा अन्य बीमियो पत्र-पत्रिकामो का संचालन करके देश की बौद्धिक अभिवृद्धि के लिए नये मानदंड स्थापित कर रहे है। श्रो अशोक जी के कुछ प्रमुख पद चेयरमन : बेनेट कोलमैन एण्ड कम्पनी लि. अग्रेजी और भारतीय भाषाओ में दैनिक एव सावधिक पत्रिकामों की देश की सबसे बडी पत्रशृखला के प्रकाशक । चयरमैन : न्यू सेन्ट्रल जूट मिल्स कम्पनी लि० पी एन.बी. फाइनेन्स लि; साह जैन सविसेज लि.भारत निधि लि.। प्रेसिडेन्ट : रोहताम इण्डस्ट्रीज लि.। डायरेक्टर : साहू जैन लि., प्रोरियेन्टल गैस क० लि. प्रेसिडेन्ट : सीमेन्ट मैन्यूफैक्चरर्स एमोसियेशन, प्रा. इ० मार्गेननि जेशन प्राफ एम्पलाए । कमेटी मेम्बर : फेडरेशन ग्राफ इण्डियन चेम्बर्स आफ कामर्स एण्ड इण्डस्ट्रीज, इण्डियन चेम्बर प्राफ कामर्स । भ० पू०प्रेसिडेन्ट : इडियन नेशनल कमेटी माफ द इंटर. नेशनल चेम्बर आफ कामर्स, इडियन चेम्बर प्राफ कामसं ; इडियन पेपर मिल्स एसोसियेशन; बिहार चेम्बर प्राफ कामर्स; बिहार इडस्ट्रीज एसोसियेशन । अध्यक्ष एवं मैनेजिंग ट्रस्टो : माहू जैन ट्रस्ट, नई दिल्ली। मैनेजिंग ट्रस्टी : भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली। साहू श्री अशोककुमार जैन अध्यक्ष : साह जन चैरिटेबल सोसाइटी। जन समाज के अग्रणी स्व० साह शान्तिप्रसाद जैन के ज्येष्ठ अध्यक्ष : माह जैन कालेज, नजीबाबाद । सपत्र श्री अशोक कुमार जैन का जन्म सन् १९३४ मे डालमिया. अध्यक्ष : वीर सेवा मन्दिर, दिल्ली। श्री १००८ दिगम्बर नगर (बिहार) मे हवा। उन्होने कलकत्ता विश्वविद्यालय से जैन अतिशय क्षेत्र एव विद्यालय, पपौरा, (टीकमगढ) उच्च शिक्षा प्राप्त की। मातृभाषा हिन्दी के अतिरिक्त अग्रेजी वाइस-प्रेसिडेन्ट : श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र कोनीजी तथा बगला भाषा का उन्हे ज्ञान है। जीर्णोद्धार ममिति पाटन, जबलपुर । देश के समकालीन साहित्य-सृजन के विकासोन्नयन एवं चेयरमैन : गोविन्दबल्लभ पन्त भवन ट्रस्ट, कलकत्ता। अर्थशास्त्र में उनकी सदा से गहरी रुचि रही है। दृस्टी: अखिल भारतीय अणुव्रत न्यास, नई दिल्ली। श्री अशोक कुमार जैन मे अपनी विशेष बौद्धिक प्रतिभा है गोविन्दबल्लभ पन्त भवन ट्रस्ट, कलकत्ता । जिसके कारण उन्होने भारतीय उद्योग जगत मे पाना महत्तापूर्ण स्थान बना लिया है। उद्योगपतियो की प्रधान सस्था फंडरेशन श्रीगणेश दिगम्बर जैन सस्कृत महाविद्यालम, सागर । पाफ इण्डियन चम्बर्स प्राफ कामसं की सचालक समिति के सदस्य सरक्षक : श्री शौरीपूर बटेश्वर दिगम्बर जैन सिद्धक्षेत्र वह वर्षों से है। उन प्रनेममिति के प्रत्यक्ष या मदम्प है जो कमेटी, बटेश्वर, प्रागरा; अखिल भ रतवर्षीय श्री दि. प्रथं व्यवस्था सम्बन्धी विशेष विशेष राष्ट्रीय नीतियो की समीक्षा जैन युवा महासमिति, मुजफ्फरनगर (उ०प्र०); करती है, सरकार को सुझाव देती है और विभिन्न प्रकार के श्री महावीर अन्य एकाडमी, जयपुर; श्री दि. जैन उद्योगों की समस्यामों को एक बकेन्द्रित रूप से देखती है। प्रयोध्या तीर्थक्षेत्र कमेटी, अयोध्या; श्री कुन्दकुन्द प्रशोक जी को अपने स्मीय पिता श्री साह शान्ति प्रसाद कहान दिल जैन तीर्थ सुरक्षा ट्रस्ट बम्बई; श्री गणेश जी और माता जी श्रीमती रमा जैन के गुण विरासत में मिले हैं। दि. जैन सस्कृत महाविद्यालय, सागर . Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोम् महम् নিকাণন परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ वीर-सेवा-मन्दिर, २१दरियागंज, नई दिल्ली-२ वीर-निर्वाण सवन् २५०४ वि०म० २०३४ वर्ष ३१ । किरण २ । प्रेल-जन १९७८ श्री महावीर-स्तवन सम्मति जिनपं सरसिजवदनं, संजनिताखिल-कर्मकमथनं । पद्मसरोवरमध्यगलेन्द्र, पावापुरि-महावीर-जिनेन्द्रं । वीर-भवोद धिपारोत्तारं, मुक्ति-स्त्री-वधु-नगर-बिहार। द्विादशकं तीर्थ-पवित्रं, जम्माभिपक्रत-निर्मलगा। वर्धमान-नामाख्य-विशालं, मानप्रमाण-लक्षण-दशतालं । शत्रुविमन्थन-विकट भटविर, इष्टश्वर्यधुरीकृतदूर । कंडलपुरि-सिद्धार्थ-भूपालं, तत्पत्नी-प्रियकारिणी-बालं । तत्कुलनलिन-विकासितहंस, चातपुरोघातिक-विध्वंसं । ज्ञानदिवाकर-लोकालोकं, निजित-कर्माराति-विशोकं । बालवयस्संयम-सुचालितं, मोहनहानम-मधन-विनीतं ।। .-माशाधरः अर्थ -- कमल जैसी मुख श्री वाले जिननाथ सन्मति ने समस्त कर्मों को पूर्णतया मथ डाला। पावापुरी में पद्म सरोवर के मध्य उन महावीर जिनेन्द्र ने निर्वाण लाभ किया । वह वीर प्रभु संमाररूपी सागर से पार उतारने वाले और मूक्ति रूपी लक्ष्मीवधु में सदा विलास करने वाले है। जन्माभिषक से हए निर्मल देह वाले वह भगवान चौबीसवे पवित्र तीर्थ के कर्ता हैं। उनका विशाल प्राशय वाला वर्षमान नाम है और उनके शरीर का मान दश ताल है । कमं शत्रुनो के उन्मूलन में वह अद्भुन सुभट वीर है. अोर सांसारिक वैभव की धरी को ही उन्होंने अपने से दूर कर दिया है। कुण्डलपुर के महाराज सिद्धार्थ की धर्मपत्नो प्रियकारिणी के वह लाडले पुत्र हैं। उनके कुलरूपी कमल का विकसित करने के लिए सूर्य के समान है तथा समस्त घात प्रतिघात के विश्वसक हैं। अपने ज्ञान सूर्य से लोकालोक को प्रकाशित करके तथा कर्म शत्रुनो को पराजित करके वह विशोक हुए हैं। बालवय से हो सयम का सम्यक् पालन करके तथा मोहरूपी महाअग्नि का शमन करके उक्न माह को उन्होंने विनोत बना दिया है। 000 Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नारी और जीवन-मल्य : अपभ्रश जैन साहित्य के संदर्भ में साध्वी साधना जैन, दिल्ली समाज में नारी का स्थान या नहीं, बल्कि यह भी कि मोक्षमार्ग मे नारी कितनी नारी की सज्ञा प्रर्धागिनी जैन सस्कृति में भी प्रचलित मागे बढ़ सकती है और किस प्रकार बढ़ सकती है, यह है। चतुर्विध संघ में श्राविकाओं को श्रावको के ही समान विषय भी विवादग्रस्त है। एक विधान तो यह है कि अधिकार प्राप्त है। दैनन्दिन जीवन मे भी नारी का नारी दो तीन जन्मो के पश्चात् पुरुष के रूप में जन्म कृत्य पुरुष के कृत्य के समकक्ष ही होता है । लकर ही मोक्षमार्ग पर चलती हुई मुक्त हो सकती है और नारी के रूप में वह पचम गुणस्थान तक ही बढ़ सकती प्रात्मिक उत्थान में नारी की सीमा है। इसके विपरीत जो विधान है उसके अनुसार नारी पात्मिक उत्थान में नारी किन्हीं अर्थों में पुरुष से तदभव मोक्षगामी हो सकती है, उसे जन्मातर को प्रतीक्षा भागे रहती है। इसका एक मुख्य कारण समाज को नही करनी होती और गुणस्थानों के प्रारोहण मे भी वह व्यवस्था और प्रकृति की देन है । जीवन के कुछ अनिवार्य स्वतन्त्र है। काम केवल पुरुष ही कर सकता है या उसके द्वारा किये नारी अवस्था मे मोक्ष के पक्ष मे तर्क है कि जन्मातर जाने पर ही वे सफल होते है। इससे नारी को जो समय की प्रतीक्षा किये बिना ही नारी मोक्ष प्राप्त कर सकती बच रहता है उसमें वह प्रात्मा की ओर उन्मुख हो लेती है क्योंकि नर और नारी में शक्ति, बुद्धि, चातुर्य, साधना है। यही कारण है कि धर्माचरण और घामिक उत्सवों प्रादि की दृष्टि से ऐगा कोई भी अन्तर न तो प्रकृति-दत्त मे नारियों की सख्या पुरुषों मे कही अधिक होती है। है और न ममाज-विहित या शास्त्र-विहित हो, जो मोक्षनारियां मात्मिक उत्थान में स्वय तो प्रवृत्त होती ही है, मार्ग में उन दोनो मे कोई अन्तर डालता हो; जो अन्तर पति पोर बन्धुनों को भी उसकी प्रेरणा देती है। तथापि अन्यत्र प्रदर्शित किये गये है वे निर्विकार और सहृदय उनकी कुछ सीमाएं है, इसीलिए अन्ततोगत्वा पुरुप ही भाव से शून्य प्रतीत होते है क्योकि पुरुष शास्त्रकारो द्वारा इस क्षेत्र मे मागे निकल जाता है। समाज और मस्कृति जब-तब ऐसे विधान प्रस्तुत किये जाते रहे हैं जिनमे नारी के विषय में जो जैन महिताएं है, उनमे नारी को को सीमाबद्ध, हीनतर, अक्षम प्रादि मिद्ध किया गया है। पुरुष के समकक्ष ही रखा गया है। वैदिक महितामो पौर शास्त्रो मे यदि नारी को मोक्ष न हो पाने के उदा. की भाति जैन सहितामो में नारी की पूजा का प्रतिफल हरण मिलते है तो मोक्ष होने के उदाहरण उनसे कही देवतामों का निवास घोषित नहीं किया गया, किन्तु नारी अधिक मिलते है। नारी अवस्था में मोक्ष के विपक्ष मे को किसी भी दृष्टि से हीन या अनधिकृत भी नही कहा गया। इतना अवश्य है कि वैराग्य, ब्रह्मचर्य प्रादि के तर्क है कि नारी तद्भव मोक्षगामी नही है : क्योकि शारीरिक संरचना भोर सामर्थ्य तथा मनोभूमि की सीमाएँ संदर्भ मे अन्य सासारिक वस्तुपों की भाति नारी को भी नारी के साधना के उस केन्द्र तक पहुंचने मे बाधक है, एक बाधा के रूप में लिया गया, पर यह बात वैदिक । और बौद्ध सहितानो मे भी ऐसी ही है। जो भी हो, यह जिस तक पुरुप अपेक्षाकृत सरलता से पहुंच सकता है, विचित्र बात है कि वैराग्य ब्रह्मचर्य आदि के प्रसग मे नारी की मोक्ष प्राप्ति का निषेध उसके तद्भव में ही पुरुष के लिए नारी तो बाधा बतायी गयो पर नारी के तो है, भवान्तर मे तो नही, और वह निषेध भी जिन्होंने किया, वे शास्त्रकार स्वयं नर थे या नारी यह तो ज्ञात लिए पुरुष को बाधा के रूप मे नही दिखाया गया। नहीं पर यह अवश्य ज्ञात है कि वे राग-द्वेष से परे थे, नारीप्रवस्था में मोक्ष का प्रश्न यदि वे राग-द्वेष से परे न रहे होते तो उनके इसी एक नारी को ये सीमाए' क्या हैं, यह एक विवादग्रस्त विधान पर ही नहीं अन्य भनेक विधानों पर भी भापत्ति विषय है। यही नहीं कि नारी मोक्ष प्राप्त कर सकती है उठायी जानी चाहिए थी; प्रकृति या स्वभाव से ही नारी Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नारी और जीवन-मूल्य : अपभ्रंश जैन साहित्य के संदर्भ में ३५ अवस्था ऐसी है जिसमें परम प्रकर्ष सम्भव नहीं, चाहे य; प्रश्न नही बल्कि एक प्रानुषंगिक प्रश्न ही कहा जाना पुण्यात्मक हो, चाहे पापात्मक, इमोलिा तो नारी एक चाहिए और फिर इा पश्न तक पहनने-पहनते जो अन्य पोर तो इतना घोर पाप नही कर सकती कि वह सप्तम प्रश्न उभरते है. ते यद्यपि विवादग्रस्त नही तथापि है नरक का बंध करे, दूमरी ओर वह भावों की शुद्धता के प्रत्यधिक विचारणीय ।। उस केन्द्र पर भी नही पहच सकती जहाँ मोक्ष का द्वार अपभ्रश के जैन साहित्य मे नारी अवस्था में मोक्ष उन्मुक्त होता है। जहां तक प्रागम ग्रन्थों में नारी-मोक्ष के उदाहरण अदृश्य हैं क्योकि वह अधिकतर दिगम्बर के उदाहरणों का प्रश्न है वे तथा कुछ अन्य सैद्धान्तिक साहित्यकारो की देन है। मान्यताएँ ही तो वह कारण है जिससे उन पागम ग्रन्थो नारी शिक्षा को एक समूचा वर्ग अमान्य करता है। शिक्षा का प्रचार जैन समाज में प्राचीन काल मे रहा नारी की मोक्ष-प्राप्ति के विषय में उपर्युक्त तर्क-वितर्क है। कन्याओं के लिए ललित व लानों की शिक्षा का विशेष का विश्लेषण अत्यन्त महज पौर तटस्थ भाव की अपेक्षा प्रावधान था। वे नत्य सगीत, वाद्य प्रादि मे न केवल पारंगत रखता है। इसमें सन्देह नही कि नारी-शरीर की मंरचना होती थीं प्रत्युत टमको प्रतियोगिताएं भी प्रायोजित पुरुप शरीर में कुछ ऐमी भिन्न है कि वह दुस्साध्य माधना करती थी। ये प्रतियोगिताएं मोद्देश्य की होती थी। प्रादि के लिए अनुकूल नहीं दिखती, तथापि जीवमात्र में काश्मीर की राजकुमारी त्रिभवनति ने नागकुमार का समान। के हामी मिद्वान्त मे मानवमात्र की समानता वरण इमलिए किया कि वह उममे वीणा-बावन म पराजित का थोड़ा भी प्रभाव तर्कसंगत प्रतीत नही होता। हो गयी। नागकुमार का एक अन्य विवाह मेपुर की नारी पोर पुरुष की इम असमानता के मूल मे जो गजकूमारी निलकामन्दरी से इमलिए हुमा कि उगने नृत्य तक छिपा है वह वस्तुतः किसी और ही मान्यता से मे उमके पदचाप गे मिला कर अपना मृदग बजाकर उसे सम्बन्ध रखता है, यह मान्यता तो उस मान्यता के फल- निरुत्तर कर दिया। उज्जयिनी के राजा प्रजापालन स्वरूप ही अस्तित्व में पायी दिखती है। वह मान्यता है अपनी गुणवती कन्या सुरसुन्दरी को पढ़ाने के लिए एक मवस्त्र मोक्ष के प्रभाव की। परिग्रहके प्रभाव को पराकाष्ठा द्विजवर के पाम भना और इन्द्राणी को जीतने वाली के रूप जो नग्नता पाती है वह मोक्ष का एक अनिवार्य दूसरी कन्या मदनसुन्दरी को भी इसी उद्देश्य से एक कारण है, ऐगी दिगम्बर जन मान्यता है श्वेताम्बर जैन मुनिवर के पास ले जाने का प्रादेश दिया। गुरमुन्दरी मान्यता मे नग्नता शब्द के बदले अचलत्व शब्द का प्रयोग इस प्रकार पढ़ती कि नगके सामने कोई भी विद्वान उत्तर हुपा है । अचेल शब्द के दो अर्थ सम्भव हैं, वस्त्र का नही दे पाता । वह इतनी निष्णात हो गयी जितना दृढ़प्रभाव और वस्त्र की यथामाध्य अल्पता। इनमें से दूसरे प्रतिज्ञ प्रौर अत्यन्त बुद्धिमान व्यक्ति निष्णात हो जाता अर्थ के प्राधार से श्वेताम्बर जैन मान्यता नारी की मोक्ष- है। उम- व्याकरण, छन्द प्रोर नाटक समझ लिये। प्राप्ति का अाधार लेती है । तात्पर्य यह कि नारी की मोक्ष- निघण्टु तर्कशास्त्र और लक्षणशास्त्र ममझ लिया और प्राप्ति के पक्ष या विपक्ष में और जितने भी तर्क दिये जाते अमरकोप तथा अलकार शोभा भी । उसने निस्मीम है वे या तो प्रानुषंगिक होते हैं या सामयिक या मापेक्षः प्रागम और ज्योतिष ग्रन्थ भी समझ लिये। मख्य वस्तुत: एक ही तक ऐसा है जो विचारणीय है। वह तर्क बहत्तर कलाये भी उसने जान लीं । उसी प्रकार है नग्नता का और वह तर्क चूकि एक अलग ही मान्यता से चौरासी खण्ड-विज्ञान भी। फिर उसने गाथा, दोहा और जड़ा है, इसलिए नारी की मोक्ष प्राप्ति का प्रश्न एक मौलिक छप्पय का स्वरूप जान लिया। उसने चौरामी बन्यो का १ पुष्पदन्त . णायकुमारचरिउ, नई दिल्ली, १६७२, १०८३, स० ५, १०६ । २ पुष्पदन्त : पूर्वोक्त, पृ०१३५, स. ८, क०८। ३. नरसेन : सिरिवालचरिउ, नई दिल्ली, १९७४, पृ० ७, स० १, क. ५। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६, वर्ष ३१, कि.२ अनेकान्त स्वरूप जान लिया तथा छत्तीस राग और सत्तर स्वरों नारी के प्रति जिन प्राक्रोशात्मक शब्दों का प्रयोग किया को भी । पांच शब्दों और चौंसठ कलानों को भी जान गया है उनकी पात्र वह उस सीमा तक निश्चित ही नहीं लिया। फिर गीत नृत्य और प्राकृत काव्य को भी जान रही; इतना अवश्य है कि पुरुष की भाति नारी ने भी लिया। उसने सब शास्त्र और पुराण जान लिये । अन्त मे जब तब प्रपनी विहित सीमायो का उल्लंघन किया । छह भाषाए और षड्दर्शन भी जान लिये । छियानवे विवाह संस्कार के अनुपालन के उदाहरण तो अधिकाश सम्प्रदायों को भी उसने जान लिया। उसने सामूहिक है किन्तु बहुत से उदारहण ऐसे भी है जिनमे या तो शास्त्र के लक्षणों को भी शीघ्र समझ लिया। उसने चौदह विवाह संस्कार का उपहास किया गया या उसे एक विद्यानो को पढ़-गुन लिया। पौषधियो मोर भावी घटनापो खिलवाह बना लिया गया। प्राश्चर्य तब होता है जब के समूह का भी ज्ञान उसे हो गया। छियानवे व्याधिया वह नागकुमार, श्रीपाल, करकड आदि जैसे असाधारण पुण्य उगलियों पर गिना सकती थी। बहुत से देशो की मुख्य पुरुषों ने जब, जहाँ और जैसे मन पाया तब वहा, वैसे भाषाएं उसने सीख लीं। उमने अठारह लिपियां भी जान ही कई-कई कन्यानो से विवाह रच डाले, और विडम्बना ली। नौ रसों और चार वर्गों को उसने जान लिया। यह कि जब-जैसे मन पाया तब-वसे उन्हें उन्ही के हाल जिन शासन के पनमार उमने चरित्र और निर्वद लिया। पर छोड़कर चल पडे। जिस पर मामक्ति हई वह चाहे दस्सह रति और कामार्थ में उसे कौन जीत सकता है ? विवाहिता रही हो चाहे अविवाहिता उसे प्राप्त करने के उसने म णक मुनि के पास जीवों के अट्ठानवे समासो लिए युद्ध किये, अपहरण किये, बलात्कार किये, यहाँ तक • का अध्ययन किया। समाधिगुप्त मुनि के पास उसने इन वि हत्याये भी की। इससे भी अधिक विचारणीय स्थिति समस्त शास्त्री को अच्छी तरह जान लिया। तब बन पड़ती है जब अपनी नवोढायो तक को, कभी कभी तो हजारों पत्नियो को यों ही छोड़ कर वे दीक्षा ले विवाहित जीवन का मूल्यांकन लेते । उदाहरण के रूप मे महस्रगति', नागकुमार', श्रीपाल', ब्रह्मचर्य की महिमा जैन प्राचार सहितानो में मामूल- करकड' प्रादि उल्लेखनीय है। चूत विद्यमान है । विशेष रूप से नारियो को इसके उपदेश ऐसे कार्य सम्राट से लेकर जनमाधारण तक में होते का पात्र बनाया गया। पुरुपो को ब्रह्मचर्य के जो उपदेश थे। इनमे श्रेणिक, चिलातपूत्र', हयग्रीव', सिंह नामक दिये गये उनमें भी नारी को इस व्रत के पालन में सबसे भिल्ल राजा, मधुरापुरी के एक राजा", रत्नशेखर" बड़ी बाधा के रूप में चित्रित किया गया। इस प्रसग मे नामक तथा मनोवेग१२ नामक विद्याधर, धवल सेठ १. नरसेन : पूर्वोक्त, पृ० ७-८, स० १, क०७। ८ विबुह सिरिहर : वढमाणचरिउ, नई दिल्ली १६७५, २. स्वयभू : पउमचरिउ, नई दिल्ली, १६७५, पृ० पृ०८५-६१, स०४, क० ५ । २४१, स० १५, ५०६। ___६. पुष्पदन्त : पूर्वोक्त, पृ० ६६, स०५, क. ४॥ ३. पुष्पदन्त . पूर्वोक्त, पृ० २४१, स०६, क० २४। १०. पुष्पदन्त : णायकुमार चरिउ, नई दिल्ली, १९६२, ४. नरसन पूर्वोत्त, पृ० १८५, स० २, क० ३६ । पृ०७३-७७, स० ५, क०२) ५. कन कामर : करकण्डचरिउ, नई दिल्ली, १९६४, ११. वीर कवि : जम्बूमामि चरिउ, नई दिल्ली, १९६८ पृ० १५७, स० १०, क० २३ । पृ. ६३-६४, स० ५, क० ३।। ६. पुष्पदन्त : वीरजिणिदचरिउ, नई दिल्ली १९७४. १२. पुष्पदन्त · वीरजिणिदचरिउ, नई दिल्ली, १९७४. पृ० ६५, स० ५, क. २ । पृ० ६७, स. ५, क. ३ । ७. उपर्युक्त, पृ० ७६, स०६, ०४। १३. नरसेन : पूर्वोक्त, पृ० ३६-४५, स० १, क० ३८.४४। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नारी और जीवन-मूल्य : पपभ्रंश जन साहित्य के संदर्भ में ३७ प्रादि के नाम उल्लेखनीय है। दूसरी ओर जिस पर अधिकांश विवाहों का निर्वाह प्राजीवन हुमा, यह प्रासक्ति हई उमे प्राप्त करने के लिए नारियों ने भी युद्ध। तब विशेष रूप से उल्लेखनीय हो जाता है जब एक ही करवाये, अपहरण कराये, पति के शत्रु तक का वरण व्यक्ति ने एक साथ सैकड़ों या हजारों कन्यामों से विवाह करना चाहा और पति तक की हत्या की । ऐसे उदाहरण किया हो। भूमितिलक नामक नगर के राजा रक्ष राज है सुरसुन्दर नामक गन्धर्व की छह हजार कन्याएर, की ५०० कन्यामो को बन्दीगृह से मुक्त कराकर नाग वाराणसी के राजा लोकपाल की गनी विभ्रमा५, नल- कुमार ने उनसे विवाह किया। मेघरव पर्वत पर पहुंचने कुबेर की रानी उपरम्भा", यशोधर की रानी अमृतमती पर रावण ने एक बावड़ी में स्नान करती गन्धर्वराज प्रादि । सुरसुन्दर की छह हजार कन्यामों का तत्काल वरण किया क्योंकि वे उसके रूप-यौवन पर मोहित हो गयी नारी पुरुष के सम्बन्धो या यौन जीवन में उपर्युक्त थी। कुण्डलपुर के राजा मकरकेतु की एक सो पुत्रियो की विषमताप्रो के अतिरिक्त कुछ और विकृतियों भी पायी प्रतिज्ञा थी कि नगाड़ा बजाकर तथा दूसरे प्रकार किन्तु उन सब से अधिक, ऐसे उदाहरण मिलते है जिनम के हाव विभाव से उन पर विजय पाने वाला ही उनका यौन जीवन के स्वस्थ और शास्त्र-विहित पक्ष का बोय वरण करेगा", श्रीपाल इसमें सफल हुआ। यही श्रीपाल होता है। मानव जीवन का यह पक्ष विवाह-सस्कार से कोकपद्वीप नगर के राजा यशोरा शिविजय को सोलह मुख्यतया जुड़ा है । विवाहो के जो उदाहरण अपभ्रंश के सौ कन्यानों के ममस्यामूलक प्रश्नो के उत्तर देकर भी जैन साहित्य म मिलते है उनमे और विवाहो के शास्त्रीय उस सभी के द्वारा वरण किया जाता है। इस सब के भेद-प्रभेदों में चाहे अन्तर दिखायी पड़े पर वे अधिकाश अतिरिक्त भी उसने कचनपुर के राजा वज्रसेन की एक युगानुकल थे और आज भी अनुकरणीय है। पुष्पात्तर सौ राजकुमारियो से भी विवाह किया । पच पाण्डवो के विद्याधर की पुत्री कमलावती और लका के राजा श्री. सुप्रदेश मे दो हजार, मल्लिवाड मे सात सौ, तेलग देश कण्ठ का", मथुरा के राजा पाण्ड्य राज की पुत्री कामरति में एक हजार, सौराष्ट्र की पाच सौ, महाराष्ट्र की पांच और उत्तर मथुरा के राजा जयवर्म के पुत्र व्यान भट सो, गुजरात की चार सौ और मेवाड़ की नौ सौ कन्यामो का", अपने मामा की पुत्री गुणवती" से नाग कुमार का का भी वरण किया। अपभ्रंश साहित्य में बहु-विवाह तथा नारायण त्रिपृष्ठ के पुत्र श्रीविजय का अपने बहनोई के इन उदाहरणो के अतिरिक्त भी अनेक विचारोत्तेजक पौर प्रकीति के पुत्र अमित तेज की बहिन सूतार से उदाहरण मिलते है । रानियों की ये सख्याए जो विवाह हुए वे ऐसे हैं। विवाह थे। द्रष्टव्य है। चक्रवर्ती भरत की छियानवे हजार, चक्रवर्ती १४. स्वयंभू : पृ० १६३-६५, स० १०, क० ५.६। २१ विबुह सिहिर : पूर्वोक्त, पृ० १४७-१४६, स० ६, १५. वीर : पूर्वोक्त, पृ. २०६.२०७, स० १०, क. क०६। २०. पुष्पदन्त : पूर्वोत, पृ० १३६, स. ८, क० १३. १६. स्वयंभू : पूर्वोक्त, पृ० २४५, स० १५, क० ११ । १७. पुष्पदन्त : जसहरचारउ, नई दिल्ली १६७२, पृ० २३. स्वयभू : पूर्वोक्त, पृ० १६३, स० १० क०५। ५६.६१, स० २, क० २४ । २४. नरसेन : पूर्वोक्त, पृ० ५६, स. २, क ८६। १८. स्वयभू : पूर्वोक्त,पृ० १६-१०१, स०६, क. २-४ । २५. नरसेन : पूर्वोक्त, पृ. ५६, स० २, क. ८.६ । १६. पुष्पदन्त : णायकुमारचरिउ, नई दिल्ली, १९७२, २६. नरसेन . पूर्वोक्त, पृ०६१.६३, स० २, ११-१२ । पृ० १२६, स० ८, क. २-४ । २७. नरसेन : पूर्वोक्त, पृ०६५, स०२, क. १२१३ । २०. उपयुक्त पृ० ११६, स०७, के ०६। २८. स्वयभू: पूर्वोक्त, प०६१, स० ४, क. १३ । Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८. वर्ष ३१, कि० २ भनेकान्त प्रियदत्त की छियानवे हजार", श्रीपाल कीनठारह हजार", अनुकरणीय उदाहरण है। पति का मादेश न मानने पर वासुदेव त्रिपृष्ठ की सोलह हजार", रावण की अठारह पृथ्वी देवी को अपने समस्त धन से हाथ धोना पड़ता है। हजार", सहस्रगति की सहस्राधिक", नागकुमार की सह- तो एक शबरी अपने पति को एक मुनि का वध करने से स्राधिक", करकण्ड की सहस्राधिक रानिया" थी। रोक लेती है। प्रवास पर जाते श्रीपाल का दामन पकड़ पति-पत्नी सम्बन्ध कर मनासुन्दरी कहती है कि पहले किसे छोड़ें । अपने प्राण या तुम्हारा दामन", समापन्न पति-विरह से पति-पत्नी सम्बन्धो का चित्रण अपभ्रंश साहित्य में उकी जो अकुलाहट इम वाक्य द्वारा व्यक्त होती है. उस सहज और व्यापक रूप में नही हुमा, जिस रूप गे ग्राज वह काव्यमात्र की वस्तु नही मानी जा सकती। के साहित्य मे हो रहा है। मनोविश्लेषण और चरित्र-चित्रण का प्रायः प्रभाव केवल अपम्रश ही नही, प्राकृत, संस्कृत, विरह-वर्णन और जीवन-मूल्य पुरानी हिन्दी और अन्य पुरानी भाषामो में भी रहा है। विरह, विशेषत पत्नी या प्रेमिका का काव्य मे एक फिर भी पति-पत्नी सम्बन्ध की कुछ झाकियाँ शोचनीय अत्यन्त व्यापक विषय रहा है किन्तु वह सदा ही जीवनमिलती है तो अधिकांश अनुकरणीय पौर विचारणीय भी। मूल्यों का सहगामी रहा है। विरह से व्याकूल और क्षीण राजा यशोवर की रानी अमतमती का एक कुबड़े पर", नारी के मुख से निकली गालिया और कराहें उसके राजा नलकबर की गनी उपरम्भा का रावण पर", ग्रान्तरिक विचारो और अनुभूति की हीनाधिकता की वाराणमी के राजा लोकपाल की रानी विभ्रमा" का एक द्योतक है। यही द्योगन जीवन-मूल्यो के निर्धारण में सहायक सनार पर मासक्त होना प्रवाछनीय है ता पतिव्रत या पति बनता है। दूसरी पार ध्यान देन की बात यह है कि विरह सेवा के देत सीता का राम के साथ १४ वर्ष का वनवाग की व्याकुलता और असह्य वेदना स्त्रियो के मत्थे अधिक मढी अजना का विवाह के तुरन्त पश्चात् अपने पति पवन जय गपी है। प्रेम के वेग की मात्रा स्त्रियो मे अधिक दिखायी से बारह वर्ष का वियोग४०, और सूर्य मेन की पत्नियो गयी है। नायक क. दिन-दिन क्षीण होने, विरहताप म जयभद्रा, सुभद्रा, धारिणी और यशामती द्वारा अपने भस्म होने, सूखकर ठठरी होने के वर्णन में कवियों का पति के सैकडो व्याधियो से ग्रस्त और अत्याचारी होने पर जी उतना नही लगा है। बात यह है कि स्त्रियों की भी उनकी मविनय सेवा", मनासुन्दरी द्वारा एक कोढ़ी के शृगार चेष्टा वर्णन करने मे पुरुषो को जो मानंद पाता साथ विवाहित होकर भी उसे कोढ़ से मुक्त कर लेना प्रादि है वह पुरुषो की दशा वर्णन करने में नही, इसी से स्त्रियो २६. विवह सिरिहर । पूर्वावत, नई दिल्ली, १६५५, पृ० ३८ वीर : पूर्वोक्त, पृ० २०७, स० १०, क० १५ । १८३, स० ८. क० ५ । ३६. स्वयभू : पूर्वोक्त, पृ० ३६, ख० २, स० २३, क०६ । ३०. नसेन : पूर्वोतत, पृ० ६७, स० २, क० १५। ४०. स्वयभू : पूर्वोक्त, पृ० २६६, ख १, स १८, क. ६ । ३१. विबुह मिरिहर : पूर्वोक्त, पृ. १४३, रा० ६. क. ० २। ४१. नरसेन : पूवोक्त, पृ० १७.२१, स० १ क. ३२. स्वयम् . पर्वोवत, पृ० ३५५, ख० २, स० ४१, ३० । ११। ४२ पुष्पदन्त : णायकुमारचरिउ, नई दिल्ली १९७२, ३३. स्वयभू : पूर्वोक्त, पृ० २२७, ५० १, स० १०, ५ ८ पृ० ४६, म० ३, क० ११ । ३४. पुष्पदन्न : पूर्वोवत, ० १७१, स० ६, ०२३।। ३५. कन कामर . पूर्वोवन, पृ० १५६, म० १० के० २४ ।। ४३ वीर : पूर्वोक्त, पृ० ५४ ५५, स० ३ क. १०.११ । २६. पदम्त सहर , दिल्ली, १९७२, पृ०८. पुरन्त वारजिणिदचरिउ, नई दिल्ली, १९७४. ४३, रा० २, क० ७८ । पृ० ५, स० प्रथम, क. ३। ६७ स्वयंभू . पूक्ति , पृ. २४५, रा. १५, क० ११। ४५. नरसन . पूर्वोक्त, पृ० २५, स० प्रथम, क. २३ । Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नारी और जीवन-मस्य : अपभ्रंशन साहित्य के संदर्भ में के विरह का वर्णन हिन्दी काव्य का एक प्रधान अंग ही बन उसकी इस प्रवृत्ति के कई उदाहरण प्रपदंश साहित्य में गया। ऋतु-वर्णन तो केवल इसी की बदौलत रह गया।" मिलते है । राजा जयन्धर की एक रानी पृथ्वीदेवी, अपभ्रंश में विरह के प्रसग उठाये गये है और सन्देशरासक दूसरी रानी विशालनेत्रा पर राजा का विशेष प्रेम देखकर तो एक बार कालिदास के मेघदूत, ऋतुसंहार आदि के जिन-दीक्षा को उद्यत हो जाती है। दूसरी पोर अपने समीप ही जा पड़ता है। जहाँ तक नख-शिख' के वर्णन पुत्र के पास जा रही पृथ्वी देवी पर विशालनेत्रा परका प्रश्न है वह अपभ्रश में भी पर्याप्त मिलता है और पुरुष गमन का आरोप लगाती है। अपनी पुत्री की भांति उसमे यदा-कदा मौलिकता भी दीम्व जाती है, किन्तु जीवन- चन्दना की रक्षा करते सेठ वृषभदत्त से कुछ न कहकर मूल्यो को वह कम ही प्रभावित करता है। उसकी सेठानी चन्दना पर घोर अत्याचार करती है। सेठ जिनदत्त की नवोढा अपनी सपत्नी की युवती कन्या सास-बहू सम्बन्ध तिल कमती से प्रबल ईष्य करती है। परिजनों के प्रति सास-बहू के सम्बन्ध अनुमानतः प्राज जैसे ही प्रा- सहज और सौम्य व्यवहार के मध्य नारियों में ईर्ष्या, भ्रंश काल मे भी हो रहे होंगे पर एक स्थान पर सासो जल्दबाजी प्रादि की भी कुछ प्रवृत्तियां दिख जाती है। की बहत क्ट पालोचना की गयी है : 'बिना परीक्षा सेठ जिनदत्त की पत्नी सौतेली पुत्री तिलकमती पर इसकिये कोई काम नहीं करना चाहिए, सामें बहुत बुरी लिए भी अत्याचार करती थी कि उसे विवाहेच्छर होती है, वे महासतियो को भी दोष लगा देती है। जिस मकी अपनी पुत्री तेजमती की अपेक्षा अधिक पसन्द करते प्रकार सकवि की कथा के लिए दुष्ट की मति और थे। ससुराल से निकाल दी गयी पवनंजय की पली कमलिनी के लिए हिमघन, उगी प्रकार अपनी बहनों अंजना सर्वथा निर्दोष होने पर भी अपने माता-पिता द्वारा के लिए दुष्ट मासे स्वभाव से शत्र होती है। लोगो में भी ठकरा दी जाती है। यह प्रसिद्ध है कि सामों और बहुमो का एक दूगरे के प्रति अपभ्रश में जब भी सामाजिक कार्यो, समारोह, वर अनादि निबद्ध है।' उथल-पुथल प्रादि के प्रसग पाये तभी नारी को समान रूप से भाग लेते दिखाया गया है। परदेश, युद्ध प्रादि परिजनों, सौत आदि के मध्य नारी के लिए प्रस्थान करते हुए पति को प्रोत्साहित करना" नारी अपनी सपली या सपत्नियों के प्रति शकालु उसकी धार्मिक प्रवृत्तियो मे सहयोग और मार्गदर्शन", और प्रसहिष्ण कदाचित् प्रादि-काल से रही होगी। तीर्थंकर के समवसरण में पहुचना, तीर्थयात्रा", बन१ शुक्ल : आचार्य रामचन्द्र : जायसी ग्रन्थावली ८. उदय चन्द्र . पूर्वोक्त, पृ० १६, स० २, क० २। (भूमिका), काशी, पृ० १२५.१२६ । ६ स्वयभू : पूर्वोक्त, पृ० ३०७-३०६, स० १६, क. २. अब्दुर रहमाण : सन्देश रासक, पृ० १५०-१५१, द्वि० ४-५ । गाथा ३३-३६ । ११. (क) वीर : उपर्युका, पृ० ११७, स. ६, क. ३ । ३. स्वयंभू : पूर्वोक्स, पृ० ३०७, स. १६, क. ४.५। (ख) स्वय भू : पूर्वोक्त, ख. ४. प. ३६ ४३, स. ५६, ४ पुष्पदन्त : णायकुमारचरिउ, नई दिल्ली, १९७२, क. ३-५। पृ० २१.२३, स० २, क. २३ । ११. वीर : उपर्या ,पृ. ३६.४०, स. २, क. १७१६ । ५. उपर्युक्त, पृ० ४५, स. ३ ० ८। १२. (क) वीर · पूर्वोक्त, पृ. ५६-५८, म. ३, क.१२-१३ ६. पुष्पदन्त : वीरजिणिदचरिउ, नई दिल्ली, १६७४, (ख) विबुह सिरिहर . पूर्वोक्त, पृ. १६५, स. ७, क ५। पृ०७१, स०५, क. ४-५ । (ग) स्वयंभू : पूर्वोक्त, पृ. १५, स० १, क०८। ७. उदयचन्द्र : सुगन्धदशमी कथा, नई दिल्ली, १९६६, (घ) स्वयभ : पूर्वोवत, स. ४, पृ. २७९-२८३, स. ७२, पृ० १८, स० २, क. २। क.५-७। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०, वर्ष ३१, कि०२ अनेकान्त विहार'.बसन्तोत्सव', जल-क्रीडा, प्रादिमे सम्मलित होना अग्रेसर दिखाया गया है। नारियों की यह प्रवृत्ति कुछ नारी के साधारण कार्य थे। इन और ऐसे ही अन्य कार्यों प्रकृति और कुछ परिस्थितियो के कारण अपेक्षाकृत के चित्रण मे अपभ्रंश साहित्यकारो ने भी प्रचलित परम्पर। अधिक ही रही है और इसका चित्रण मी समस्त भारतीय का ही अनुसरण किया है। इस विषय मे उनकी कुछ साहित्य मे समान रूप से हुआ है। अपम्रश के साहित्यमौलिकता यदि होगी तो वह काव्यगत ही होगी, जीवन- कारों ने भी इसके अनेक उदाहरण सजोये है। नारियों मूल्यो की दृष्टि से वह उल्लेखनीय नही दिखती। ने एक ओर तो क्रमश. अभ्यास करते हुए यथाविधि जिन दीक्षा ग्रहण की, दूसरी पोर समय-समय पर पर्वागधन, राजनीति और नारी तपश्चरण, माघ-भक्ति, देवताराधन प्रादि मे भी एकाकी पभ्रश में नारी के राजनीतिक पक्ष पर अधिक प्रकाश या सामूहिक रूप से भाग लिया। इस सबमे जो नही पडता। साधारणतः, यहाँ भी नारी के कारण युद्ध विचारणीय विषय है वह है इन प्रवृतियों के मूल में सोनिखाये गये है। कैकेयी का राजनीति में प्रसिद्ध विद्यमान या अविद्यमान विवेक । वस्तुतः होता यह था हस्तक्षेप' प्रसगवश पउमचरिउ भी मे अया है। विशाखभूति कि भावना के एक क्षणिक पावेग में प्राकर पुरुषों की ही की पत्नी ने अपने पुत्र के लिए विश्वनन्दी से नन्दन वन भाति नारिया भी दीक्षा के लिए चल परती थी। पति के छीनने का प्राग्रह करके एक राजनीतिक सपं को जन्म साथ उसकी सहस्राधिक नारियो के दीक्षित होने के पीछे दिया। राजकुमार नागकूमार पर राजा जयन्धर ने नगर विवेक की सम्भावना नगण्य ही हो सकती है। विपत्तियो परिभ्रमण पर इसलिए रोक लगा दी क्योकि नगर की मे वैराग्य महज सम्भव है पर उसकी परिणति दीक्षा मे यवतियाँ उस पर मोहित हो जाया करती थी; इस रोक ही होनी, अनिवार्य नही। दीक्षा की मानसिक तैयारी, पर आपत्ति कर के राजकुमार की माता पृथ्वीदेवी ने एक पूर्वाभ्यास प्रादि के स्पष्ट विधान है और वे कठोर तथा राजनीतिक सामाजिक उथल-पुथल पैदा कर दी। वज्रा- अनिवार्य भी है, जिनका अपवाद केवल ऐसे विरल कृती या की कन्या लंकासून्दरी ने हनुमान स भीषण युद्ध मो टा ही न करके रण-कुशलता का परिचय दिया। से मुनिपद के पूर्वाभ्यास मे व्यतीत हुआ होता है। दूसरी मोर, राजसी राग रग मे प्राकण्ठ डूबी हुई हजारों धर्मपालन और व्रताचरण रानियां उठकर वन की ओर चल पड़े', वह भी नारियों को साधारणतः धर्म-भीरु, व्रत-उपवास मे अचानक ही विरक्त हो रहे अपने पति के साथ प्रांखें तत्पर, देव-देवियो और साधु-साध्वियो की पाराधना में (शेष पृष्ठ ४७ पर) (च) नरसेन . पूर्वोक्त, पृ. ३७, स. १, क. ३६ । (छ) नरसेन वही, पृ. ७७, स. २, क. २६ ।। १ विबह सिरिहर : पर्वोक्त, प ११, स १, क ८ । २ (क) वीर : पूर्वोक्त, प. ५६-५७, स. ३, क १२ १३ । (ख) वीर : पूर्वोक्त, ७८.८४, स ४, क १६-१६ । (ग) उदयचन्द्र : पूर्वोक्त, स. १. क. ३.४ । (घ) स्वयभ : पूर्वोक्त, वं. ४, पृ. २४७-२५३ स. ७१, क. १.४ । (ड) उपपन, ग । २. पृ ६७ ६६, ग. २६, क. ५-७। ३ (क) उपयुक्त. ख १ पृ. ६३, न १, क. १४ । (ख) उपर्युक्त, ग्व. १, पृ. २२१-२२७, स. १४, क. ३८ । (ग) उपर्युक्त, खं. १, पृ. १०७, म. २६, क. १४ १५ । (घ) उपर्युक्त, ख. ५, पृ. ११५, स. ७६, क ११ । ४. उपयुक्त, पृ० २७, ख. २. स. २२, क. ८ । ५. विवुह मिरिहर : उपर्युक्त, पृ. ५३, स. ३, क. ६ । ६ पपदन्त : णायकुमारचरिउ, नई दिल्ली १६७२, पृ ४७ स. १०,६। ७ स्वयंभू : पूर्वोश्त पृ. १०१-७१०, ख. ३, स. ४८, ८ उपर्युक्त : पृ० ८७, ख. ५, स. ७८, क. ५। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवपूजा और उसका माहाम्त्य प्रो० उदयचन्द्र जैन, एम. ए., जैनधर्म ही नहीं किन्तु अन्य भारतीय धर्मों में भी प्रोः धावक दोनों के लिए समान रूप से प्रावश्यक है। प्राचीनकाल से ही पूजा का विशिष्ट स्थान रहा है। साथ साधु उक्त प्रकार का कृतिकर्म करके देवपूजा ही करता ही पूज्य का स्वरूप, पूजा की विधि और उसके उद्देश्य में है। यह बात पृथक है कि अपरिग्रही होने के कारण साधु भिन्नता भी रही है, जो कि अपने-अपने धर्म के अनुसार कृतिकर्म करते समय प्रक्षत प्रावि द्रव्य का उपयोग नहीं स्वाभाविक है। जब हम जैनधर्म में पूजा के विषय मे करता है और गहस्थ कृतिकर्म करते समय अक्षत प्रादि विचार करते है तो हम देखते है कि इस धर्म के दो मुख्य सामग्री का भी उपयोग करता है। स्तम्भ है-मुनि और गृहस्थ; और देवपूजा दोनों का यथार्थ बात यह है कि पूजा दो प्रकार से की जाती ही प्रावश्यक कर्तव्य है। यह अबश्य है कि दोनो की है- द्रव्य और भाव से। साधु जो पूजा करता है वह पूजा करने की विधि भिन्न-भिन्न है। भाव पूजा है। मूलाचार मे यह भी कहा गया है कि देवदेवपूजा का प्राचीन रूप पूजा अपने विभव के अनुसार करनी चाहिए। इस कथन का तात्पर्य गृहस्थ के द्वारा की गई द्रव्य पूजा से है। कृतिकर्म देवपूजा के अभिप्राय को प्रकट करने वाला मूलाचार की टीका में प्राचार्य वसुनन्दी ने कहा है कि एक प्राचीन शब्द है। यह एक व्यापक शब्द है जिसमे जिनेन्द्र देव की पूजा के लिए प्रक्षन, गन्ध, धूप मादि देवपूजा के अतिरिक्त कुछ अन्य बातें भी समाविष्ट हैं। जिस सामग्री का उपयोग किया जाय उसे प्रासुक और कृतिकर्म मुनि और गृहस्थ दोनो का प्रावश्यक कर्तव्य है। निदोष होना चाहिए। भोजन ग्रहण, गमनागमन प्रादि क्रियानों में प्रवृत्ति करते प्राचार्य अमितगति ने अपने श्रावकाचार में पूजा के समय लगे हुए दोषों का परिमार्जन करने के लिए साघु . दो भेद करके उनका लक्षण इस प्रकार बतलाया है :को कृतिकर्म करना चाहिए। गृहस्थ की प्रवृत्ति तो बचो विग्रहसंकोचो द्रव्यपूजा निगद्यते।। निरन्तर सदोष रहती ही है। अत: उसे भी कृतिकर्म तत्र मानससकोचो भावपूजा पुरातनै । करना प्रावश्यक है। मूलाचार के षडावश्यकाधिकार मे गन्धप्रसूनमान्नाह्य दीपघपाक्षतादिभिः । पूजाकर्म को कृतिकर्म का पर्यायवाची कहा गया है। कियमाणाऽथवा ज्ञेया द्रव्यपूजा विधानतः ।। कृतिकर्म के पर्यायवाची अन्य दो नाम हैं चितिकर्म और विनयकर्म । कृतिकर्म का अर्थ नित्यकरणीय कमें भी किया व्यापकाना विशुद्धानां जिनानामनुरागतः । गुणानां यदनुध्यानं भावपूजेयमुच्यते ॥ जा सकता है । मुनि के २८ मूल गुणो मे ६ अावश्यक अर्थात् पूर्वाचार्यों के अनुसार वचन और शरीर की क्रिया बतलाये गये हैं जिनके नाम इस प्रकार हैं-सामायिक, को रोकने का नाम द्रव्यपूजा है और मन की क्रिया को चतुविशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और रोकने का नाम भावपूजा है । किन्तु स्वयं अमितगति के कायोत्सर्ग । षट्खण्डागम मे बतलाया गया है कि कृतिकर्म मतानुसार गन्ध, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप और अक्षत तीनों सन्ध्या कालों मे करना चाहिए । तीनों सम्ध्या कालो प्रादि से पूजा करने का नाम द्रव्यपूजा है और जिनेन्द्र मे जो कृतिकम किया जाता है उसमे सामायिक, चतु. के गुणो के चिन्तन करने का नाम भावपूजा है। विशतिस्तव और बन्दना इन तीनो की मुख्यता रहती है। प्राचार्य जिनसेन ने महापुराण के ३८वें पर्व के पातीनों सन्ध्याकालों में किया जाने वाला कृतिकर्म साधु रम्भ में Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२, वर्ष ३१, कि०२ अनेकान्त इज्यां वातां च दत्ति च स्वाध्याय संयमं तपः। जिनेन्द्र देव का गुणानुवाद करते हुए अभिषेक विधि श्रुतोपासकसूत्रत्वात् स तेभ्यः समुपादिशत् ।। की प्रस्तावना करना प्रस्तावना है। पीठ के चारो कोणों इस लोक द्वारा षटकम -इज्या, वार्ता, दान, स्वाध्याय, पर जल से भरे हुए चार कलशों की स्थापना करना परा. संयम और तप का वर्णन करते हुए पूजा के चार भेद कम हो कर्म है। पीठ पर यथाविधि जिनेन्द्रदेव को स्थापित करना बतलाये हैं स्थापना है। ये जिनेन्द्रदेव है, यह पीठ मेरुपर्वत है, जल प्रोक्ता पूजार्हतामिज्या सा चतुर्धा सदार्चनम् । से पूर्ण ये कलश क्षीरोदधि से पूर्ण कलश है और मैं इन्द्र चतुर्मुखमहः कल्पद्रुमाश्चाष्टाह्निकोऽपि च ॥ हू जो इस समय अभिषेक के लिए उद्यत हा हं, ऐसा विचार करना सन्निधापन है। अभिषेक के बाद प्रष्टद्रव्य नित्यपूजा, चतुर्मुखपूजा, कल्पद्रुमपूना और प्राष्टाह्निकपूजा। ये सब द्रव्य पूजा के ही प्रकार है। प्रतिदिन से पूजा करना पूजा है, और सबके कल्याण की भावना अपने घर से गन्ध, पुष्प, अक्षत इत्यादि ले जाकर करना पूजा का फल है। जिनालय में श्री जिनेन्द्रदेव की पूजा करना सदार्चन प्राचार्य वसुनन्दी ने पूजा के ६ भेद बतलाये हैअर्थात् नित्य पूजा है। महा मुकूटबद्ध राजापो के द्वारा णामटूवणादब्वे खितं काले वियाण भावे य । जो पूजा की जाती है उसे चतुर्मुख पूजा कहते है। चक्र छविहया भणिया समास उ जिणवरि देहि ।। वर्ती राजापो के द्वारा किमिच्छिक दानपूर्वक जो पूजा की अर्थात्, नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव यह जाती है वह कल्पद्रुम पूजा है और प्राष्टाह्निक पर्व में छह प्रकार की पूजा जिनेन्द्र भगवान् ने सक्षेप मे कही है। महन्त प्रादि का नाम उच्चारण करके शुद्ध स्थान मे जो पूजा की जाती है वह पाष्टाह्निक पूजा है। इससे पूर्व के उपलब्ध साहित्य में पूजा के भेद नही मिलते है। पुष्प क्षेपण करना नामपूजा है। सद्भाव और प्रसद्भाव प्राचार्य सोमदेव ने पूजा के कोई भेद नही बतलाये। के भेद से दो प्रकार की स्थापना होती है। साकार वस्तु किन्तु पूजको के दो भेद अवश्य बतलाये है-एक पुष्पादि मे भगवान् के गुणो का प्रारोपण करना सद्भाव स्थापना में पूजा की स्थापना करके पूजन करने वाले और दूसरे है। प्रक्षत, कमल के बीज या किसी पुष्प में यह मंकल्प है। प्रतिमा (मूर्ति) का अवलम्बन लेकर पूजन करने वाले। करना कि यह अमुक देव है और वैसा उच्चारण करना प्रतिमा के प्रभाव मे पुष्पादि में महन्त, सिद्ध, प्राचार्य, असद्भाव स्थापना है। पं० माशाधर जी ने भी जिनउपाध्याय, साधु, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचा- प्रतिमा के न रहने पर अक्षत प्रादि में जिनेन्द्र की स्थापना रित्र की स्थापना करके प्रत्येक को अष्टद्रव्प से पूजा करने का विधान बतलाया है। जल, चन्दन, अक्षत मादि करना बतलाया गया है। उसके बाद क्रम से दर्शनभक्ति, द्रव्य से जो पूजा की जाती है उसे द्रव्यपूजा कहते हैं। ज्ञानभक्ति, चारित्रभक्ति, प्रहंद्भक्ति, सिद्धभक्ति, चैत्यभक्ति, जिनेन्द्रदेव की जन्मभूमि, दीक्षाभूमि, केवलज्ञानममि और पंचगुरुभक्ति, शान्ति भक्ति और प्राचार्यभक्ति करना बत- मोक्ष प्राप्त होने की भूमि मे जो पूजा की जाती है वह लाया है। इससे यह सिद्ध होता है कि प्रतिमा के प्रभाव क्षेत्रपूजा है। भगवान् के गर्भकल्याणक मादि के दिनों में में भी पूजा की जा सकती है। नन्दीश्वर पर्व के पाठ दिनो मे तथा अन्य पर्व के दिनों में सोमदेव ने यशस्तिलक मे पूजा की पद्धति या प्रकार जो पूजा की जाती है वह कालपूजा है और अनन्त को इस प्रकार बतलाया है लाभादि गुणो की स्तुति करके जो त्रिकाल बन्दना की प्रस्तावना पुराकर्म स्थापना सनिधारनम् । जाती है वह भावपूजा है। पूजा पूजाफलं चेति षड्विय देवसेवनम् ॥ उपर्युक्त विवेचन से यही तात्पर्य निकलता है कि पूजा अर्थात् प्रस्तावना, पूराकर्म, स्थापना, सन्निधापन, पूजा दो प्रकार से की जाती है-द्रव्य से पोर भाव से । जो पौर पूजा का फल, इस तरह छह प्रकार से देव की पूजा साधु है वह भावपूजा करता है। किन्तु श्रावक द्रव्यपूजा की जाती है। मौर भाव पूजा दोनो ही कर सकता है। पं० प्राशाधर Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवपूजा और उसका माहात्म्य जी ने सागारधर्मामृत मे श्रावक की दिनचर्या का वर्णन मूर्तिपूजा का प्रारम्भ मौर उपयोगिता करते हुए त्रिकाल देववन्दना के समय दोनों प्रकार से जैनधर्म में मूर्तिपूजन की परम्परा बहुत प्राचीनकाल पूजा करने का विधान किया है। से प्रचलित है। द्वितीय शताब्दी ई०पू० के सम्राट् खार. वर्तमान पूजा विधि वेल के शिलालेख मे ऋषभनाथ की मूर्ति का उल्लेख है वर्तमान पूजा विधि में वे सव गुण नही रह गये हैं जिसे मगध का राजा नन्द कलिंग विजय के बाद पाटलिजो षट्खण्डागम, मूलाचार प्रादि में प्रतिपादित है। पुत्र (पटना) ले गया था और जिसे खारवेल ने मगध पर त्रिकाल देववन्दना, प्रतिक्रमण और आलोचना की विधि चढाई करके पुनः प्राप्त किया था। इससे सिद्ध होता है समाप्तप्राय है । अब श्रावक का कृतिकर्म देवदर्शन और कि आज से लगभग २५०० वर्ष पूर्व राजघरानो तक से देवपूजा दो भागो मे विभक्त हो गया है। यद्यपि देव- जैनो के प्रथम तीर्थकर ऋषभदेब की मूर्ति की पूजा होती दर्शन भी पूजा का एक प्रकार ही है किन्तु उसे दर्शन ही थी। एक मौर्यकालीन मूर्ति पटना के संग्रहालय मे स्थित कहते है। जिन मन्दिर मे जाकर देव दर्शन करना प्रत्येक है। प्राचार्य कुन्दकुन्द ने पंचास्तिकाय मे प्ररहन्त. सिट श्रावक प्रौर श्राविका का नित्य कर्तव्य है। वह जिन चैत्य और प्रवचन भक्ति का उल्लेख किया है तथा मन्दिर में जाकर मूर्ति के समक्ष स्तुति पाठ करते हुए जिन प्रवचनसार मे देवता, यति मौर गुरु की पजा का विधान भगवान् को नमस्कार करके तीन प्रदक्षिणा देता है। यह किया है। उत्तरकाल में तो जिन प्रतिमा और जिन देवदर्शन है। पूजा करने के लिए पहले स्नान करके शुद्ध मन्दिरो का निर्माण अधिक संख्या मे हुप्रा है। इसी युग वस्त्र पहिनकर सबसे पहले मूर्ति का जल से अभिषेक में प्रतिष्ठापाठो प्रादि की रचनाएं हुई है। पजन सास्य किया जाता है । कही-कही दूध, दधि, घृत, इक्षुरस और भी इस युग मे विशेषरूप से लिखा गया है। सर्वोषधिरस से भी अभिषेक करने की पद्धति है। अभि- जैनधर्म में प्ररहन्त, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय और पेक के बाद पूजा के प्रारम्भ मे जिस देव की पूजा करते साधु ये पांच पद बहुत प्रतिष्ठित माने गये है। इन्हें पञ्च है उसका प्राह्वानन, स्णापन और सन्निधिकरण किया परमेष्ठी कहते है। इन पांच परमेष्टियो मे से परहन्त जाता है। उसके बाद क्रमशः जल मादि पाठ द्रव्यों से परमेष्ठी की मूर्ति जैन मन्दिरो में विराजमान रहती है। पूजन किया जाता है। अन्त मे पाठ द्रव्यो को मिलाकर ये मूर्तियां ४ तीथंकरों में से किसी न किसी तीर्थकर की प्रर्घ चढाया जाता है। प्रत्येक द्रव्य चढ़ाते समय उसका होती है किन्तु होती प्ररहन्त अवस्था की ही है, क्योंकि उद्देश्य बोलकर उसे चढ़ात है। जैस जल चढ़ाते समय भरहन्त अवस्था के बिना वर्म तीर्थ का प्रवर्तन नहीं हो कहते हैं ---जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति सकता है। अत धर्म तीर्थ के प्रवर्तक जैन तीकर्थरो की स्वाहा । अर्थात् जन्भ, जरा और मृत्यु के विनाश के लिए मूर्तियाँ जैन मन्दिरों में विशेषरूप से पायी जाती हैं। जल चढ़ाता हूं। पूजा के अन्त में सबके लिए शान्तिपाठ निराकार सिद्धों की मूर्तियां भी मन्दिर मे प्रायः रहती है। पढ़ा जाता है। प्राचार्य, उपाध्याय और साधु की मूर्तियां भी कहीं-कही शान्ति पाठ मे पायी जाती हैं। इनकी मृतियों में साधु के चिह्न पीछी क्षेमं सर्वप्रजाना प्रभवतु बलवान् धार्मिको भूमिपालः, और कमण्डलु अंकित रहते है। ये सभी मूर्तियां ध्यानस्थ काले काले च सम्यग्वर्षतु मघवा व्याधयो यान्तु नाशम् । अवस्था की होती है। प्रात्मध्यान मे लीन योगी की जैसी दुभिक्ष चौर-मारी क्षणमपि जगतां मास्म भूज्जीवलोके, प्राकृति होती है वैसी ही प्राकृति उन मूर्तियो की होती जैनेन्द्र धर्मचक्र प्रभवतु सततं सर्वसौख्यप्रदायि॥ है। उनके मख पर शान्ति, निर्भयता और निर्विकारता यह पद्य मुख्य है और इसमें सम्पूर्ण राष्ट्र की सब विद्यमान रहती है। उनके शरीर पर कोई प्राभरण नही प्रकार से भलाई की कामना की गई है। शान्तिपाठ के होता और न हाथ में कोई अस्त्र-शस्त्र । दिगम्बर जैन मन्त मे विसर्जन किया जाता है। मूर्ति निरावरण (नग्न) भोर मलकार रहित होती है। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४, वर्ष ३१, कि०२ भनेकान्त जो लोग सवस्त्र और सालकार मूर्ति की उपासना करते है। जिनदेव वीतराग होते हैं। प्रत: उनकी पूजा या स्तुति हैं उन्हें नग्न मूर्ति अश्लील प्रतीत हो सकती है। यहां करने से न तो वे प्रसन्न होते है और न प्रसन्न होकर कुछ प्रश्न यह है कि क्या नग्नता वास्तव मे अश्लीलता की देते है । अपरिग्रही और वीतराग होने से उनके पास देने प्रतीक है। इस विषय में प्रसिद्ध गान्धीवादी पाका को कुछ है ही नहीं। उनकी निन्दा करने से वे नाराज भी कालेलकर ने श्रवणबेलगोला (कर्णाटक) में स्थित भगवान नही होते है । तब उनकी पूजा से क्या लाभ है ? इसका बाहबलि की विश्वविख्यात नग्न मूति को देखकर जो भाव उत्तर यही है कि उनके पवित्र गुणो का स्मरण हमारे व्यक्त किये थे वे ध्यान देने योग्य है चित्त को पापो से बचाता है। इसी विषय में प्राचार्य "जब मैं कारकल के पास गोमटेश्वर की मति को समन्तभद्र ने बृहत्स्वयम्भू स्तोत्र में कहा हैदेखने गया उस समय हम स्त्री, पुरुष, बालक और वृद्ध न पूजयार्थस्त्वयि वीतराग न निन्दया नाथ विवान्तवरे । अनेक थे। हममे से किसी को भी इस मूर्ति का दर्शन तथापि तव पुण्य गुणस्मृतिर्नः पुनातु चित्त दुरिताञ्जनेभ्यः॥ करते समय सकोच जैसा कुछ भी मालूम नही हुमा । मैंने हे नाथ ! तुम वीतराग हो इसलिए तुम्हे अपनी पूजा अनेक नग्न मूर्तियाँ देखी है और मन विकारी होने के के से कोई प्रयोजन नही है, और वीत द्वेष होने के कारण बदले उल्टा इन दर्शनो के कारण ही निविकारी होने का निशाना निन्दा से भी कोई प्रयोजन नहीं है। फिर भी तुम्हारे अनुभव करता है। अत: हमारी नग्नता विषयक दृष्टि पवित्र गुणो की स्मृति हमारे चित्त को पापरूपी मल से और हमारा विकारो की पोर झुकाव दोनो बदर,ना बनाती चाहिए।" मूर्ति के द्वारा मूर्तिमान् की उपासना की जाती है तथा अभिषेक मूर्ति को देखते ही मूर्तिमान का स्मरण हो जाता है । मूर्ति पूजा के प्रारम्भ मे अभिषेक की परम्परा है। जिन मनुष्य के चचल चित्त को स्थिर रखने के लिए एक प्रतिमा का अभिषेक तीर्थकरो के जन्मकल्याण के समय मालम्बन है। उस पालम्बन के निमित्त से मनुष्य का सुमेरु पर्वत पर इन्द्र के द्वारा किये गये अभिषेक का ही चंचल चित्त कुछ क्षण के लिए पूज्य के गुण कीर्तन या प्रतिरूप है। इन्द्र ने केवल क्षीरसागर के जल से ही भगचितन मे लीन हो जाता है। मूर्ति पूजा उस प्रादर्श की वान का अभिषेक किया था। प्रत: शुद्ध पाम्नाय के अनुपूजा है जो प्राणिमात्र का सर्वोच्च लक्ष्य है । मूर्ति के द्वारा सार जल से अभिषेक करना ही ठीक है। फिर भी जैन हमे उस सूतिमान के स्वरूप को समझने में सहायता परम्परा मे कही-कही दूध, दधि, घृत मादि से भी अभिमिलती है। प्रतः वर्तमान काल में तो मूर्ति का होना षेक किया जाता है। यह परम्परा कब से चली? पञ्चाअत्यन्त प्रावश्यक है। ५० प्राशाधर जी ने मूर्ति की उप- मृत से सम्बन्ध रखने वाले दुग्ध, दधि, घृत इक्षरस पौर योगिता के विषय में सागारधर्मामृत में कहा है सौषधिरस का सर्वप्रथम स्पष्ट उल्लेख हरिवंश पुराण में मिलता है। किन्तु वरांगचरित्र में जो हरिवंशपुराण से धिक् दुःषमाकालरात्रि यत्र शास्त्रदशामपि । प्राचीन है, अभिषेक के समय दूध, दधि प्रादि से भरे हुए चंत्यालोकादृते न स्यात् प्रायो दवविशामतिः ।। कलशों का उल्लेख होते हुए भी उनसे अभिषेक किये जाने अर्थात् इस पंचमकाल मे शास्त्रवेत्तानो को भी मूर्ति के का उल्लेख नहीं है, केवल जल से ही अभिषेक का उल्लेख दर्शन के बिना देवबुद्धि नही होती है । है । पद्मपुराण में भी अभिषेक के लिए घृत, दूध मादि से जिनपूजा का उद्देश्य पुर्ण कलशों का उल्लेख है। किन्तु जिनसेन ने महापुराण जिनेन्द्र देव की पूजा किसी भौतिक सुख की कामना मे मोर उनके शिष्य गुणभद्र ने उत्तरपुराण मे जल से ही से नही की जाती है, किन्तु उसका उद्देश्य प्रात्मा मे अभिषेक करने का विधान किया है। सोमदेव ने उपानिर्मलता द्वारा प्राध्यात्मिक सुख और शान्ति को प्राप्ति सकाध्ययन में इक्षुरस, घृत, धारोष्ण दूध, दधि मोर पन्त Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवपूजा और उसका माहात्म्य ४५ में जल से अभिषेक करने के पश्चात् पूजा करने का यथार्थ मे यह विसर्जन इन्द्र प्रादि देवतामों के लि विधान किया है। है, जिनेन्द्र देव के लिए नहीं। माह्वानन और विसर्जन देवपूजा का माहात्म्य वर्तमान मे जो पजा की विधि प्रचलित है उसमें सातवी शताब्दी के प्राचार्य रविषेण ने पद्मचरित में जिसकी पजा की जाती है उसका पाह्वानन मोर विसर्जन मूर्ति निर्माण तथा उसकी पूजा के फल के विषय में किया जाता है। यह विषि कहाँ तक उचित है इस पर लिखा हैभी विचार करना आवश्यक है । जैन सिद्धान्त के अनुसार जिनविम्बं जिनाकारं जिनपूजां जिनस्तुतिम् । जिम देव की पूजा की जाती है वह न तो कही से प्राता यः करोति जनस्तस्य न किंचिद् दुर्लभ भवेत् ।। और न कही जाता है। मोमदेव ने पजन से पूर्व जो अर्थात जो व्यक्ति जिनदेव की प्राकृति के अनुरूप जिनस्थापन और सन्निधापन क्रियाये बतलाई है वे भाज के विम्ब बनवाता है तथा जिनदेव को पूजा और स्तुति करता प्रचलित प्राहानन, स्थापन और सन्निधिकरण से भिन्न है। है उसके लिए कुछ भी दुर्लभ नहीं है। उनकी विधि में प्राहानन तो है ही नहीं, विसर्जन भी नही है । विमर्जन का सम्बन्ध तो पाह्वानन के साथ है । इसी प्रकार, सातवी शताब्दी मे रचित अध्यात्म ग्रन्थ जब दिमी को बुलाया नही जाता है तो भेजने का प्रश्न परमात्म-प्रकाश में लिखा हैही नही उठता। ऐगा प्रतीत होता है कि प० याशावर दाण न दिण्ण उ मुणिवरहेण वि पुज्जिउ जिणणाहु । (वि० स० १३००) के बाद ही पूजा में उक्त प्रक्रिया । पच ण वदिय परमगुरु किम होसइ सिवलाहु ।। प समाविष्ट हुई है। धर्मसंग्रह श्रावकाचार (सोलहवी अर्थात् जिसने न तो मुनिवरो को दान दिया, न जिन शताब्दी) और लाटी महिता (सत्रहवीं शताब्दी) मे भगवान की पूजा की पोर न पच परमेष्ठी को नमस्कार प्राह्वानन, स्यापन, मन्निधिकरण, पूजन और विमर्जन ये किया उसको मोक्ष का लाभ कम होगा। पाँच प्रकार पूजा के बतलाये है। यथार्थ में बात यह है प्राचार्य अमितगति ने सुभाषितरत्नमन्दोह मे लिखा कि भगवान के पचकल्याणक मे देव पाते थे। अत: पंच- है.... कल्याणक प्रतिष्ठा मे देवों का प्राह्वानन पौर विसर्जन तो पेनागुष्ठप्रमाणाएं जैनेन्द्री क्रियतें गिना । ठोक प्रतीत होता है। इसी बात को ध्यान में रखकर तस्याऽप्यनश्वरी लक्ष्मीनं दूरे जात जायते ।। देवसेन कृत भावसंग्रह में इन्द्रादि देवतायो का प्राह्वानन अर्थात् जो मनुष्य जिनेन्द्र भगवान् की अगुष्ठ प्रमाण मूर्ति तथा उन्हे यज्ञ का भाग अर्पित करके पूजन के अन्त में बनवाता है वह भी अविनाशी लक्ष्मी को प्राप्त करता है। उन पाहत देवतापो का विमजन भी किया गया है । इस प्राचार्य पद्मनन्दि पचसंग्रह मे उनसे भी आगे बढ़कर प्रकार जो पहले पाह्वानन और विसर्जन इन्द्रादि देवतापो कहते हैं ... के लिए किया जाता था उसको उत्तर काल में पूजा का बिम्बावलोन्नतियवोन्नतिमेव भक्त्या ये मावश्यक प्रग मानकर जिनेन्द्र देव के लिए भी किया कारयन्ति जिनस जिनाकृति वा। जाने लगा। पूजन के अन्त में विसर्जन करते समय निम्न- पुण्यं तदीयमिह वागपि नेत्र शक्ता स्तोत लिखित श्लोक भी पढ़ा जाता है परस्य किमु कारयितुदयस्य । पाहूता ये पुरा देवा लब्धभागा यथाक्रमम् । मर्थात् जो बिम्बपत्र के प्रमाण जिनमन्दिर बनवाकर ते मयाऽचिता भक्त्या सर्व यान्तु यथास्थितिम् ॥ उसमे जो बराबर जिन प्रतिमा की भक्तिपूर्वक स्थापना इसको हिन्दी में इस प्रकार पढ़ते है: करते हैं उनके पुण्य का वर्णन सरस्वती भी नहीं कर माये जो जो देवगण पूजे भक्ति प्रमाण । सकती, फिर जो बड़ा मन्दिर और बड़ी प्रतिमा बनवायें ते सब जावह कृपाकर अपने अपने पान॥ उनका तो कहना ही क्या है। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६, वर्ष ३१, कि०२ अनेकान्त प्राचार्य बसुनन्दी ने अपने श्रावकाचार में पद्मनन्दि का पृथक्-पृथक् कोई फल नहीं बतलाया है किन्तु वसुसे भी मागे कहा है नन्दी ने पूजा के समय जल आदि चढाने का फल इस कथंभरिदलमेते जिणभवणे जो ठवेह जिणपडियं । प्रकार बतलाया है--- सरिसवमेत पि लहइ सो णरो तित्थर पुण्ण ।। पूजा के समय जलधारा छोड़ने से पापरूपी मल धुल अर्थात् जो कुथुरि के पत्र बराबर जिन मन्दिर बनवा जाता है और चन्दन चढ़ाने से पूजा करने वाला भगवान् कर उसमें सरसों के बराबर भी जिनप्रतिमा की स्थापना होता है । अक्षन से पूजा करने वालनिधि और १४ करता है वह मनुष्य तीथंकर पद के योग्य पुण्यबन्ध रत्नो का स्वामी होता है। पुष्प से पूजा करने वाला करता है। मनुष्य कामदेव तुल्य होता है। नैवेद्य को चढाने वाला मानव अति सुन्दर होता है। दीप से पूजा करने वाला मन्त मे कहते है मनुष्य केवलज्ञानी होता है । पूष मे पूजा करने वाला नर एयारसंगधारी जीहसहस्सेण सुरवरिदो वि । निर्मल कोनि को प्राप्त करता है, और फल गे गुना करने पूजाफलं ण सक्को णिस्सेस वणिउ जम्हा ।। वाला मनुष्य निर्वाण सुख को प्राप्त करता। अर्थात् ग्यारह अग के धारी मनि तथा देवन्द्र भी हजार प: प्राशावर नी ने इस विषय में सासार वर्मामृत । जिह्वा से पूजा के फल को पूरा वर्णन करने में समर्थ निखा है-- नही है। प्राचार्य समन्तभद्र ने रत्नकरण्डधावकाचार में पूजा वार्धारा रजम अगाय पदयो मम्यक् प्रयुवनातः, के माहात्म्य को इस प्रकार बतलाया है - सद्गन्ध. तनुमौ भाव विभवाच्छेदाय गत्यक्षाः । यष्टः स्रग्दिवि स्रजे चहरुमास्वाम्याय दीपस्त्यिप, महच्चरणसपर्यामहानुभाव महात्मनामवत् । भेक: प्रमोदमत्तः कुसुमेन्नैकेन राजगृहे ॥ धूपो विश्वदृगुत्सवाय फलमिष्टार्थाय चार्घाय सः ।। पनि राजगह नगर में हर्ष से पानन्दित मैंढक ने एक अर्थात् प्रहन्त देव के चरणों मे जल की धारा चढाने से पप के द्वारा भव्य जीवो को अरहन्त भगवान् के चरणो पापों का शमन होता है, चन्दन चढ़ाने मे शरीर सुगन्धित की पजा के माहात्म्य को बतलाया था। तात्पर्य यह है होता है, अक्षत स अविनाशी ऐश्वर्य प्राप्त होता है, पुष्पकि जिस समय भगवान महावीर का समवशरण राजगृह माला चढाने से स्वर्गीय पुष्पो की माला प्राप्त होती है. से प्राया हना था उस समय राजा श्रेणिक आदि नगर के नैवेद्य के अर्पण से पूजा करने वाला लक्ष्मी का स्वामी लोग भगवान की वन्दना के लिए गये। उस समय होता है, दीप से शरीर की कान्ति प्राप्त होती है, धूप से तक भी धर्म की भावना से प्रेरित होकर मुख मे परम सौभाग्य प्राप्त होता है, फल के चढ़ाने से इष्ट अर्थ एक कमलपण लेकर भगवान की पूजा के सिए चला। की प्राप्ति होती है और अर्घ के चढ़ाने से मूल्यवान पद इसी बीच वह मेढक राजा श्रेणिक के हाथोके पैर से कुचल प्राप्त होता है। भाव संग्रह में इसी प्रकार का फल बतकर मर गया और पूजा करने की पवित्र भावना के कारण लाया गया है। जितपण्य के प्रभाव स सौधर्म स्वर्ग मे ऋद्विधारी उपर्यक्त विवेचन से प्रतीत होता है कि प्राचार्य वसुदेव हमा, मोर तत्काल ही वह मुकुट के अग्रभाग मे नन्दी, प. प्राशाधर प्रादि के समय में जलादि द्रव्यों के मेंढक का चिह्न बनकर भगवान् के समवशरण मे पा चढ़ाने का फल प्रायः सौभाग्य-सूचक वस्तुनों की प्राप्ति गया। इस प्रकार उसने सबके समक्ष पूजन के माहात्म्य था। किन्तु दूसरे प्राचार्यों के मत से उस समय भी पूजा को प्रकट कर दिया। के फल मे पूर्ण माध्यात्मिकता रही होगी। उसी के अनुप्रष्ट द्रव्य से पूजन करने का पृथक्-पृथक् फल सार पं० माशाघर के बाद की पूजामों में जन्म, जरा सोमदेव ने बलादि प्रष्ट द्रव्य से पूजा करने मोर मृत्यु के विनाश के लिए जल, संसार ताप के विनाश Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवपूजा और उसका माहात्म्य के लिए चन्दन, अक्षय पद की प्राप्ति के लिए प्रक्षन, जिनेन्द्र देव की पूजा से भौतिक सुख की कामना करना काम बाण के विनाश के लिए पुष्प, क्षुधारोग के नाश के ठीक नही है। लिए नवेद्य, मोहान्धकार के नाश के लिए दीप, प्रष्ट कर्मों इस प्रकार जिनपूजा के माहात्म्य तथा फल को जानके नाश के लिए धूप और मोक्ष फल की प्राप्ति के लिए कर प्रत्येक गृहस्थ को यथाशक्ति देवदर्शन, पूजन पौर फल चढ़ाने का विधान किया गया है। पूजा करने का स्वाध्याय प्रवश्य करना चाहिए। इसी में मानव जीवन यही वास्तविक फल है जो पूर्णरूप से प्राध्यात्मिक है। की सफलता है। 400 (पृ० ४० का शेषांश) मीच कर । इसमे विवेक को सम्भावना तो कदाचित ही देव-देवियां न केवल राग-द्वेष से प्रोत-प्रोत होती है. हो, भावना भी अपर्याप्त ही दिखती है; और जो दिग्वता प्रत्युत किसी भी दशा में चतुर्थ गुणस्थान से प्रागे नहीं है वह है लोकलाज, प्रधानुकरण पोर अन्धकारमय बढ़ सकती उनकी उपासना चौदहवें गुणस्थान तक अर्थात भविष्य की विभीपिका । इसी प्रकार, व्रत, तप प्रादि के उसी पर्याय में मोक्ष तक प्राप्त करने का भधिकारी पाचरण में भी विवेक का पुट कम ही रहा दिखता है। मानव करे, यह शास्त्रीय दृष्टि से तो अवैध है ही व्यावकिसी वरदान, प्रमो, निधि आदि की प्राप्ति के लिए हारिक दृष्टि से भी प्रसगत है। साहित्य में उपयुक्त अनेक धर्मस्थान, श्मशान, वन प्रादि मे जाकर उपवास करना', विषम स्थितियों के जो चित्रण, अधिकांश यथोचित चित्रणो विभिन्न प्रकार के तप करना प्रादि धर्मविरुद्ध प्रनियों के मध्य बिम्बरे मिलते है उनका कारण किसी हद तक के पीछे विवेक का तो सर्वथा अभाव होता ही है, सहज माना जा सकता है, किन्तु उन्हे अनुकरणीय उदाव्यावहारिक या नैतिक मूल्यों से भी वे शन्य होती हैं। हरणो के रूप में प्रस्तुत नही किता जा सकता। देव-देवियों की उपासना' चाहे जिस उद्देश्य की जाए, जैन स्थानक, चीराखाना, जीवन के जैन मूल्यों की दृष्टि से मूलतः प्रशास्त्रीय है। जा वंदवाड़ा, दिल्ली 000 पृ० ११६, खं. ५, स. ७६, क. १३; पृ० १६६, खं. १०, क. २१, पुष्पदन्त : जसहरचरिउ, नई देहलो, ५, स. ६३, क. १८; पृ २७५, खं. ५. स. ८६, १९७२, पृ० १२५, स. ४, क.७। क. १८; पृ. २७७, ख. ५, स. ८६, क १६, पृ० १. स्वयंभ : पर्वोक्त पु. ८३.६५ ख० ३, स० ४७१, ३२५, ख. ५, स. ८८, क. ११, कनकामर : क. ३.६ । पूर्वोक्त, पृ० १५६, स. १०, क. २४; नरसेन : पूर्वोक्त, पृ. ८५, स. २, क. ३६; कवि वीर : २. कनकामर : पूर्वोक्त, पृ० ६६, स. ७, क. १२ पूर्वोक्त, पृ० ५८, स. ३. क. १३; पृ. २१२, स. पुष्पदन्त : पूर्वोक्त, पृ० ५१, स. २, क. १४ । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियतिवाद नामा नियमवाद 0 श्री महेन्द्रसेन जैन, नई दिल्ली जितनी उलझन और जितना वितण्डावाद भाग्य पोर जब नियमो को समझकर (शिक्षा-दीक्षा) उनके अनुकूल पुरुषार्थ, कर्म और नियति को लेकर है, शायद ही किसी सही पुरुषार्थ करे। नीला-पीला मिलकर हरा रग बन दूसरे विषय पर हो। अक्सर उदाहरण दिया जाता है कि जाता है, चित्रकार यह नियम जानता है । जब हरे रंग एक गिलास मे प्राधा पानी है भाग्यवादी कहता है की बाछा हो तो वह दोनों को मिला कर प्राप्त कर लेता कि मेग गिलाम प्राधा खाली है, गरे भाग्य में यही था। है, परन्तु उसके मिलाने का पूरुषार्थ किए बिना उसको कमवादी करता है कि मेरा गिलाम प्राधा भरा अपने पाप हरा रंग कभी भी नहीं मिलेगा । दूमी अोर, है और अपने पुरुषार्थ से बाकी प्राधा भी मैं भर लूगा। यदि पुरुषाथ नीले-पीन रग को तो कह नही पौर इमसे चाहे जो भी पर्थ निकले, एक बात तो बहुत स्पष्ट दुनिया भर के अन्य रगो का घोटा लगाता फिरे और कहे है कि भाग्यवादी का गिलास भरने की तो कोई सम्भावना कि मैं हरा रंग बनाकर छोडगा तो यह मिवार शमचिल्ली ही नहीं है क्योकि अन्य कोई ऐसी देवी शक्ति का प्रमाण के प्रकार के और कछ नही है। नही है जो प्राकर किसी का प्राधा खाली गिलास भर दे। इसके अतिरिक्त Afraitunita पुरुषार्थी यह कर सकता है ऐसा उसे विश्वास है, जिसके है। मानव चाहे कि मैं हाथी के बराबर बोझ उठा लू, तो बल पर वह धर्म में जुटा हुप्रा है। नही हो सकता। परन्तु उसमे इतनी बुद्धि जरूर है कि चास्तव में बात दोनो की अधरी है। जहाँ रह सच यत्र से हाथी की शक्ति पैदा करके उससे उठा ले । फिर है कि स्वयं मानव के अलावा और कोई शक्ति नहीं है जो भी इससे तो उसकी सीमा को ही पुष्टि होती है । दूसरी उसका कल्याण-अकल्याण कर सके या उसे प्रत्याशित- पोर, बुद्धि भी तो क्षमता ही है। चीटी की अपनी सीमाए अप्रत्याशित फल दिला सके, वहा यह भी स्पष्ट है कि व क्षमताए है, मानव को अपनी, पशु-पक्षी की अपनी. दुनिया का हर कार्य नियमो से बधा है और उनकी परिधि पेड़-पौधों की अपनी, इत्यादि-इत्यादि । इन सीमाओं और के अन्दर मानव की सीमाएँ है, सामाजिक नियम है, क्षमतामो को कान जी स्वामी ने संज्ञा दी है-'पर्याय यो. कानूनी नियम है और उसी प्रकार प्राकृतिक नियम है। ग्यता' अर्थात् जो जिप्त पर्याय मे है, उसकी कितनी क्षमता झूठ बोलना, न बोलना हमारे पुरुषार्थ के अधीन है, परन्तु है और उसकी क्या सीमाए है। पुरुषार्थ उन्ही की परिधि झूठ बोलकर झूठा कहलाना यह नियमबद्ध है, झूठ बोल.. न मे हो सकता है। उनके बाहर भी मैं चाहे जो करके दिखा कर मैं सच्चा ही कहलाऊँगा यह व्यर्थ का अहकार है। दूंगा, यह मात्र अहंकार है और उनके अनुरूप भी पुरुषार्थ न करके भाग्य मेरे खुले मुहे मे आसमान से बेर टपका हत्या की, नियम ने फामी चढा दी। हत्या करना, न देगा, यह महामूढ़ता है। वहाँ भी मुंह खोलकर रखने करना पुरुषार्थ के माधीन है, परन्तु हत्या करने का फल का पुरुषार्थ तो करना ही पड़ेगा। नियम के अनुसार मिलेगा । ग्राम का पेड़ बोएं या बबूल अब प्रश्न उठता है कि यह भाग्य नाम की चीज का, यह पुरुषार्थ हमारे अधीन है, परन्तु उसमे फल लगना पाई कहाँ से ? पुरुषार्थ तो स्पष्ट अनुभव में प्राता है नियम के अधीन है। माम मे नियम के अनुसार माम और प्रत्यक्ष है, परन्तु भाग्य के सम्बन्ध मे हम अक्ल से लगेगा और बबूल में कांटे । काम नहीं लेना चाहते । हम रोज देखते है कि हर कार्य दूसरे शब्दों में, पुरुषार्थ भी तभी वांछित फल देगा (शुष पृष्ठ ५१ पर) Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कबीर की वाणी में वीर-वाणो की गूज 0 श्रीमती कुसुम जैन सोरया, एम. ए., बी. एड. कान्तिद्रष्टा कबीर रहा है। जीवतत्त्व या चैतन्य शक्ति ही इस दृश्यमान मध्ययुगीन काव्य जगत में जिन कवियों ने जीवन को जगत् में वह पारस-निषि है, जिसके बिना संसार की बड़ी सूक्ष्मता और गहरे उतर कर देखा, उनमें सन्त कबीर अनन्त वस्तुयें निरर्थक पोर अनुपयोगी हैं। इस सन्दर्भ में का नाम प्रमुख है : इन्होंने रूपकों और जीवन के व्याव. कवीर को यह साखी कितनी युक्तिपुक्त है: हारिक प्रतीकों के माध्यम से अध्यात्म की अभिव्यक्ति पारस रूपी जीव है, लौह रूप संसार । वड़ी कुशलता से की है। गूढ़ रहस्यों और तत्त्वों को पारस से पारस भया, परख भया टकसार ॥ बोलचाल की भाषा मे रखकर साहित्य जगत को एक यह जीव पारस के समान अमूल्य है। इस जीव की व्यापउपलब्धि प्रदान की है। प्रस्तुत लेख में कबीर के ऐसे कता का ज्ञान कर लेने पर ही यह संसारी प्राणी (लोह) विचार प्रसून प्रस्तुत किये जा रहे हैं, जिनमें जैन-दर्शन के पारस की तरह प्रमूल्य बन जाता है। यहाँ 'परख' से सिद्धान्तों के पराग पूर्णरूपेण परिलक्षित है। ऐसा लगता तात्पर्य अपनी पहिचान करने से है, क्योंकि बिना पहिचान है कि महात्मा कबीर उस धर्म से ज्यादा प्रभावित रहे. के यह अपनी अनन्त शक्तियों को भला हमा है। जो बाह्य क्रियाकाण्डों, अन्धविश्वासों और रूढ़ मान्यतामों के पक्ष में अपनी प्रस्वीकृति का हाथ उठाये रहा। इसके जीवत्व में सिद्धत्व साथ नसे हो सच्चा धर्म माना, जिसमें प्रात्मा या जीव प्रत्येक जीव अपने में अनन्त सम्भावनायें समेटे हुए तत्त्व को परमात्मा तक पहुंचाने की घोषणा है। जो सत्य है। भ. महावीर ने कहा : शक्तिरूप तं सिदबद्ध वृष्टि, सद्ज्ञान और सदाचरण के ऐक्य पर जोर देता हैं। निरजन है। परन्तु इसकी अभिव्यक्ति प्रसुत्त है । जागति जनकल्याण से अभिभूत कबीर न तो किसी सम्प्रदाय के बिना सच्ची दृष्टि कैसे प्राप्त की जा सकती है? कबीरदलदल में ही पड़े और न ही पाखण्डों के पोषण में अपनी दास जी ने एक मार्मिक साखी के द्वारा इस तथ्य को जीवन साधना गंवाई। इसलिए वे निष्पक्ष रूप से एक उजागर करने का प्रयास किया है : समाज सुधारक और माध्यात्मिक भावनामों के समर्थक बूंद जो परा समुद्र मे, सो जानत सब कोय । कहे जा सकते हैं। समुद्र समाना बूंद में, सो जाने विरला कोय ।। वोर-वाणी के अनुगूंज-स्वर इस बात को सभी जानते हैं कि यह जीवात्मा शरीर १. स्वयं बोध धारण कर संसार में जन्म प्रोर मरण की प्रक्रिया कर रही है, लेकिन इसकी अनन्त शक्ति और योग्यता को भ. महावीर की वाणी वीतराग-वाणी है, जिसमें बिरला ही कोई जान पाता है। जिसमें इस सष्टि को जीव के परम कल्याण और प्रारम पुरुषार्थ की जीवन्तता जानने की योग्यता है, वह बंद हमारी प्रात्मा, अपने में है। भ. महावीर स्वामी ने किसी बात पर प्रमुख पोर समद्र अर्थात ससार को ही सोख लेती है, अर्थात् जीव मन्तिम रूप से जोर दिया तो वह है-स्वयं बोध ।' के सहज स्वरूप में संसार बिजित हो जाता है। जीव स्वयं से परिचय के कारण ही यह जीव दुःखमूलक की इस विलक्षणता को सब नहीं जान पाते। जैनदर्शन सम्पदामों को एकत्र कर उनसे तादात्म्य स्थापित कर की कितनी गहरी अनुमति कबीर में उपजी होगी, इस Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त इस साखी को लिखते समय । एक दूसरी साखी में कबीर में कहा तीन लोक भी पींजरा, पाप पुण्य भी जाल । हंसा तू तो सबल था, हलुकी अपनी चाल । सकल जीव सावज भये, एक महेरी काल ।। रग कुरगे रंगिया, ते किया पौर लगबार।। अर्थात् संसार की चौरासी लाख योनियों के कारागृह मे हे मानव ! तू तो शक्तिमान ईश्वर जैसा घवल पाप और पुण्य बेड़ियां है। सजा देने वाला कालचक्र स्वच्छ है, अर्थात कर्म-कालिमा से रहित है। फिर भी तुने अथवा मृत्यु इस जीव के पीछे प्रत्येक समय लगा रहता अपनी उस शक्ति पर एक दृष्टि नही दी और निकृष्ट है। प्राचरणों में गिरकर तया स्वयं को कम कालिमा से लिप्त । ४. शरणागत : एक से कर अपने को रग-विरंगा बना लिया है । इस प्रकार, स्वयं के प्रज्ञान ने तुझे स्वामी से दास बना दिया है। भ० महावीर ने ससारी जीवो को सम्बोधते हुए कहा है-'संसार में जरा और मरण के तीव्र प्रवाह में ३. कर्म-वेड़ियों का विनाश डूबते प्राणियों को धर्म ही एक शरण है, प्रतिष्ठा है, गति भ० महावीर ने इस कर्म-कालिमा का कारण जीव है। तुम स्वयं अपने दोपन हो। अपनी ही ज्योति में की बहिष्टि बताया है। जीव की प्रासक्तिपूर्ण या मूर्छा- अपने को देखो। स्व के प्रति जागो। स्वानुभति के अलावा सहित त्रियाये ही कमरूप सूक्ष्म शरीर मे परिणत होकर और कोई शरण नहीं। ससार मे ऐसा कोई प्रभु नहीं नये कर्मों से गठबन्धन करती रहती है । कबीर ने इसे उस है जो तुम्हारी अंगुली पकड़ कर तुम्हे भवसागर पार सचित बीज का रूप दिया जो योग्य भूमि और काल मे करा दे।' इन्ही भावो को कबीर ने बड़े सहज ढग से पड़कर कई गुनी फसल प्राप्त करके बढ़ता जाता है। कहा : परन्तु यदि यही जीव अन्तर्दृष्टि प्राप्त करके अपने चैतन्य जो तू चाहे मुझको, छोड़ सकल की मास । स्वभाव को मूर्छा से तोड़कर एक तटस्थ भाव में पा मुझ ही ऐसा होय रहो, सब सुख तेरे पास ॥ जाये तो वह अपने कर्मों को जजरित कर सकता है, पराश्रय बुद्धि से जीव अज्ञान के गहन अन्धकार में डूबा जैसे भुंजे हुए बीज मे उसकी मौलिकता समाप्त हो जाती। है। इस प्रज्ञान के घूघट को ऊपर उठाने के लिए एक है और वह नये अकुरण नही कर सकता। कबीर ने इसे । जगह महात्मा कबीर लिखते है : इस प्रकार कहा: तोहि पीय मिलेंगे, चूंघट का पट खोल री। एक कर्म है बावना, उपज बीज बहूत । घट घट में वहि स्वामी रमता, कटुक वचन मत बोल री। एक कर्म है भुंजना, उदय न अकुर सूत ।।। बाहर प्राप भूल गई सजनी, पियो विषय रस घोल री। इस प्रकार, जीव की बहिबुद्धि उसके ससार-भ्रमण घन यौवन को गर्व न कीजे, झूठो पचरंग चोल री। का कारण बनी हुई है। एक भोर जहां वह पुण्य के फल का भात्मविस्मृति के मूल्य पर भोग कर उन्हे अपना वस्तुतः मज्ञान पर्दे को हटाने से हो सम्यक् दृष्टि प्राप्त स्वरूप ही समझ बैठता है, वहीं दूसरी पोर दुखमूलक होती है और घट-घट में व्याप्य मात्मा के सहज दर्शन हो पापरूप सततियो से वह विपन्न होता है और उनसे उपरत सकते है। भ० महावीर ने विषय वासनामों को मीठा भी होना चाहता है। परन्तु शिवस्व की प्राप्ति मे कर्मों जहर कहा है जिसे पीकर जीव अपने कालिक स्वभाव की गुरुता से निर्धार होने के लिए ये दोनों जीव की को भला बैठा है और धन, यौवन जैसे बीच के क्षणिक मदृश्य बेड़िया है, जो जीव को कालचक्र के नीचे घसीट सयोगों में ही अपनत्व बुद्धि कर अपने ऊपर झूठे मुखौटे ले जाती है । इन्हीं भावों को कबीर ने कितने सरस रूप पोहए है। महावीर स्वामी का संदेश इस विषय राग Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कबीर को पानी में बार-बाणी की गूंज के रंग में रंगे चौले से उम्मुक्त होने का संदेश था जिसे 'अनेकान्त' के स्वामित्व सम्बन्धी विवरण कवीर ने 'संतो! जागत नींद न कीज' कहा। प्रकाशन स्थान-बीरसेवामन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली वैसे कबीर के प्रत्येक पद, दोहे और साखियों मे मुद्रक-प्रकाशक-वीर सेवा मन्दिर के निमित्त प्राध्यात्मिक पुट है। माया, मोह, भ्रम, प्रज्ञान, इच्छामों प्रकाशन प्रवधि-त्रैमासिक श्री मोमप्रकाश जैन मादि के बारे मे प्रतीकात्मक शैली में पद प्रोर साखिया | राष्ट्रिकता--भारतीय पता-२१, दरियागज, दिल्ली-२ है। परन्तु यहाँ एक दृष्टि में उनकी अन्तस् को छूती हुई | सम्पादक-श्री गोकुलप्रसाद जैन राट्रिकता-भारतीय उन भावनामों की झलक दिखाई गई है, जो लगती है कि पता-वीर सेवा मन्दिर २१, दरियागंज, नई दिल्ली-२ वह प्रभू वीर की ही वाणी है। सच है-एक सच्चे सत स्वामित्व-वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ का हश्य खले प्रकाश की भांति होता है। मैं, मोमप्रकाश जैन, एतद्वारा घोषित करता ह कि मेरी पूर्ण जानकारी एव विश्वास के अनुसार उपयुक्त 000 विवरण सत्य है। -पोमप्रकाश जैन, प्रकाशक (पृ० ४८ का शेषांश) का उद्देश्य पूर्ण होने में पुरुषार्थ करने पर और फल मिलने जो अन्तराल है, वही भाग्य का, नियति का भ्रम पैदा करता में कुछ अन्तराल होता है। किसान खेत बोता है और तीन- है। कभी-कभी तो वह अन्तराल इतना अधिक हो जाता है चार मास बाद फसल मिलती है। यदि किसी ने उसको खेत कि मादि-अन्त कल्पना मे ही नहीं प्रा पाता। तब प्रक्ल बोते नहीं देखा । तो फसल मिलने पर कहे उसका है कि काम नहीं करती कि यह जो हुमा सो क्यों हमा और किसके खाली जमीन मे से उसे गेहूं का भण्डार मिल गया। वह किए हुए हुा । तब वह मान कर बैठ जाता है कि प्रभ भण्डार किसी भगवान का, किसी देवी-देवता का, किसी के किए हुमा, मेरे भाग्य मे ऐसा ही था। परन्त बिना अन्य देवी शक्ति का दान नहीं है, कृपा नही है। उसके पुरुषार्थ के कुछ मिलता नही, कुछ होता नही, जो कुछ भी पूर्व कर्म (पुरुषार्थ) का फल है जो उसे भाग्यरूप मिला मिल रहा है, हो रहा है, किसी न किसी पूर्व पुरुषार्थ से है। खेत न बोता तो पर्चना-प्रार्थना, जप-तप, मंत्र-तत्र अवश्य जुड़ा है। प्रागे क्या चाहिए उसका उद्देश्य निर्धारित कोई भी उसे गेहं का भण्डार उपलब्ध कराने में समर्थ करो, उसको पाने के सहो पुरुषार्थ का अध्ययन करो और नही था। उसी में लगे रहो। फल तो नियम के अनुसार मिलेगा ही, भगवान कृष्ण के निष्काम कर्म के दर्शन का भी यही इसमें सन्देह नहीं है, परन्तु स्मरण रहे कि विपरीत पुरुषार्थ पर्थ होना चाहिए कि सही उद्देश्य निर्धारित करके, सही से भी सही फल कभी नही मिलेगा । यह उद्देश्य निर्धारण पुरुषार्थ करो, फल तो नियम के अनुसार मिलेगा ही। सम्मग्दर्शन, उसकी प्राप्ति के मार्ग का अध्ययन, सम्माज्ञान उसकी चिन्ता तुम्हे नही करनी पड़ेगी और उसके अलावा और उसे प्राप्त करने का पुरुषार्थ सम्यक चारित्र है। चाहे जितनी चिन्ता करते रहना कुछ मिलेगा ही नहीं, वीर सेवा मन्दिर कदापि नहीं। पुरुषार्थ करने तथा उद्देश्य को पूर्ति में २१, दरियागज, नई दिल्ली-२ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देश के बौद्धिक जीवन में जैनों का योगदान - डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल, जयपुर जैन धर्मानुयायी प्रारम्भ से ही देश के सबसे अधिक नयी क्रान्ति उपस्थित की। उन्होंने प्राकृत के मागम ग्रथो सुसंस्कृत, शिक्षित एवं विचारक रहे हैं। अपनी दार्शनिक में विकीर्ण जैन तत्त्वज्ञान को अपने तत्त्वार्थ-सूत्र में समेटबुद्धि के माध्यम से उन्होंने सभी क्षेत्रों में क्रान्तिकारी कर रख दिया।' उमास्वामी प्रथम जैनाचार्य थे जिन्होंने परिवर्तन किये और भगवान ऋषभदेव से लेकर भगवान् जैन तत्त्वज्ञान को योग, वैशेषिक प्रादि दार्शनिक पद्धतियों महावीर एवं उनके पश्चात होने वाले प्राचार्यों ने देश के के अनुरूप वैज्ञानिक ढंग से बद्धिजीवियों के समक्ष उपबौद्धिक विकास में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। स्थित किया। सूत्र रूप में लिखे इस ग्रन्थ में दर्शन, प्राचार मनि, प्रायिका, श्रावक एवं श्राविका इन चार भागो में एवं कर्मसिद्धान्त प्रादि का जी विवेचन हमा है वह प्रवर्णसमस्त जैन संघ को विभक्त करके भगवान् महावीर ने नीय है । जैन साहित्य के क्षेत्र मे यह इतना प्रभावशील सभी को बौद्धिक विकास का सुअवसर प्रदान किया। सिद्ध हुमा कि दिगम्बर एवं श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों मे कारण कि जैनाचार्यो, मनीषियों एव विचारकों ने यह ग्रन्थ समान रूप से समादत ही नही हमा, किन्तु अनेक अपने विचारो से, साहित्यिक एव दार्शनिक कृतियों से प्राचार्यों ने इस पर छोटी-बड़ी टीकाएँ लिखकर उसके देश के जनमानस को सदैव जाग्रत रखा । इसे परम्पराओं प्रचार को सर्वोच्च प्राथमिकता दी। से चिपटे रहने से बचाकर बुद्धिपूर्वक सोचने पर विवश दूसरी-तीसरी शताब्दी में होने वाले प्राचार्य समन्तकिया और स्याद्वाद एवं अनेकान्त जैसे दार्शनिक सिद्धान्तों भद का बदनिता को व्यावहारिक जीवन में खुलकर उतारा । अपरिग्रहवाद थे। शास्त्रार्थ मे अपने बिराधियो को परास्त करने मे के माध्यम से लोगों में संग्रह वृत्ति की भावना को उभा- अत्यधिक पारंगत थे। उन्होंने अपने पापको प्राचार्य, रने से बचाया और स्वाध्याय की प्रेरणा देकर जन-जन कवि, वादिराज, पडित, ज्योतियी, वैद्य, यात्रिक एवं को ज्ञानार्जन की दिशा में प्रवृत्त होने के मार्ग को प्रशस्त तांत्रिक प्रादि सभी की तो घोषणा की थी। शास्त्रार्थ करते. बनाया। करते उन्होंने पाटलिपुत्र, मालवा, सिन्धु, ढाका, कांचीपुर प्रमुख प्राचार्यों का योगदान एवं बिदिशा में अपनी विद्वत्ता एव ताकिकपने की दुन्दुभि भबवान महावीर के प्राचार में अहिंसा, विचारों मे बजायी। उन्होने प्राप्तमीमासा, युक्त्यनुशासन एब स्वअनेकान्त, वाणी मे स्थाद्वाद् और जीवन मे अपरिग्रह जैसे यम्भूस्तोत्र जैसे दार्शनिक ग्रन्थों तथा रत्नकरण्डश्राबकासिद्धान्तो से देशवासियों को बौद्धिक विकास की पीर चार जैसे प्राचार प्रधान ग्रन्थों की रचना करके जन साधा. प्रवृत्त होने की बिशेष प्रेरणा मिली। महावीर के पश्चात रण मे तार्किक बुद्धि के विकास में योग दिया। होने वाले प्राचार्यो एव साधुमो ने उक्त सभी सिद्धान्तों चतुर्थ शताब्दी में होने वाले प्राचार्य सिद्धसेन का को दढ़ता से अपने जीवन में उतारा और वे उन्ही के जैन दार्शनिको मे उल्लेखनीय स्थान है। वे बड़े ही ताकिक अनुसार श्रावकों एवं सामान्य जनता को इस पोर प्रवृत्त विद्वान् थे तथा उन्होने सन्मतिसूत्र एवं सिद्धसेनद्वात्रिंशिका होने की प्रेरणा देते रहे । सर्व प्रथम प्राचार्य उमास्वामी ने जैसे दार्शनिक ग्रन्थो की रचना करके देशके बौद्धिक चिन्तन तत्त्वार्थाधिगम की रचना करके चिन्तन के क्षेत्र में एक के विकास में महत्त्वपूर्ण गोगदान दिया।' इन दार्शनिको के १. जैन लक्षणा वली, प्रस्तावना, पृ. १६ । २. जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश, पृष्ठ १७२ । ३. जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश, पृ. ५०१ । Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देश के बौद्धिक बीवन में योगदान तर प्रकलंक. हरिभद्रमूरि, सिबसेन, अनन्तवार्य, गये पोर सर्वप्रथम इसीध्याकरण के सत्रों का अपभ्रंश रूप विद्यानन्द, अनन्तकीति, माणिक्यनन्दि, प्रभाचन्द्रदेव सूरि, करके पढ़ाया जाने लगा। 'मो नामा सीधम' (मोम नमः मलिषेण प्रादि दार्शनिकों ने देश के बौद्धिक धरातल को सिबेभ्यः), पंचोवरणा (पंचवरणाः), बऊ षिवारा (तो समन्नत बनामें में उल्लेखनीय योगदान किया और अपने स्वरो) जैसे सूत्रों के साथ मध्ययन प्रारम्भ किया जाने दार्शनिक विचारों से देश के वातावरण को चिन्तनशील लगा और छात्रों को याद कराया जाने लगा। एक पोर बनाया। १३वीं शताब्दी में होने वाले हेमचन्द्राचार्य बहु- वैदिक विद्वान जहां केवल संस्कृत में ही चिपके रहे, वहाँ जैनाचार्यों ने देश की सभी लौकिक भाषामों का मादर श्रुत विद्वान थे जिन्होंने समूचे भारत मे ज्ञान के प्रति जनजन मे अपूर्व श्रद्धा उत्पन्न की। उनकी लेखनी सशक्त किया और उनमे नयी-नयी कृतियों का निर्माण करके जनथी। वाणी मे अद्भुत प्राकर्षण था एवं वे चुम्बकीय जन में ज्ञान प्रसार का विशेष प्रयास किया। व्यक्तित्व के धनी थे । ज्ञान के किसी भी प्रग को उन्होंने जैनाचार्यों ने बौद्धिक क्षेत्र में पोर भी पनेक क्रान्तिअछता नही छोड़ा। काव्य लिखे। पुराण, उमाकरण, छन्द, कारी प्रयोग किये। उन्होंने भाषा विशेष से चिपके रहने ज्योतिष कोष ग्रादि सभी पर तो उन्होंने लिखा और देश की नीति को छोड़कर उन सभी भाषामों में साहित्य में हजारों-लाखों को बुद्धिजीवी बनाने में अपना योग निर्माण किया जो जनभाषायें थी। इनमें अपभ्रंश हिन्दी दिया । गुजराती, राजस्थानी एवं मराठी भाषामों के नाम विशे. व्याकरणों का योगदान षत: उल्लेखनीय हैं। वैयाकरणो ने दार्शनिकों के समान ही देश के बौद्धिक अपभ्रंश में साहित्य निर्माण विकास में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। मेधा थक्ति अपभ्रंश भाषा के महाकवि स्वयम्भ ने लौकिक एवं के स्वतंत्र विकास और चिन्तन की परमोच्च स्थिति का प्रादेशिक भाषामों को समान प्रादर देकर देश के बौद्धिक निर्माण करने में व्याकरण का पहला स्थान रहा है। विकास में जबरदस्त योग दिया। उन्होंने उन सभी तत्वों पूज्यपाद प्रथम जैनाचार्य थे जिन्होंने प्रष्टाध्यायी पर को शपना लिया जो तत्कालीन समाज मे अत्यधिक लोकटीका लिखी और जनेन्द्र-व्याकरण की रचना की। इस प्रिय थे। इसलिए एक तो जन सामान्य में उनकी कृतियों पर अभयनन्दि (८वी शताब्दी) एव सोमदेव (११वी को पढ़ने में मभिरुचि जाग्रत हुई; दुसरे, इन प्राचार्यों एवं शताब्दी) ने टीकाएं लिखकर वे उसके प्रचार में सहायक विद्वानों को अपनी कृतियो के माध्यम से अपने क्रान्तिकारी बने । नवमी शताब्दी मे होने वाले शाकटायन ने शब्दानु- विचारों को जनसाधारण तक पहुंचाने में सहायता मिली। शासन की रचना की। इस कृति की टीका भी स्वयं ने इस दृष्टि से पुष्पदन्त, धनपाल, वीर, नयनन्दि, नरसेन, ही लिखी जिसका नाम अमोघवृत्ति है। यह व्याकरण यश:कीति एव रइधू के नाम विशेषत: उल्लेखनीय है। शाकटायन के नाम से ही प्रसिद्ध हो गया। ११वी शताब्दी यशःकीति को छोड़कर शेष सभी श्रावक थे, लेकिन समी में प्राचार्य हेमचन्द्र ने शब्दानुशासन लिखकर इस क्षेत्र मे बुद्धिजीवी थे। अपभ्रंश काव्यों एवं पुराणों के माध्यम से एक क्रान्तिकारी परिवर्तन किया। इसी तरह शिववर्मा ने ज्ञान के प्रसार का जितना कार्य कवियों ने किया, वह एक नये कातन्त्र व्याकरण को जन्म दिया। यह व्याकरण साहित्यिक इतिहास का एक शानदार प्रध्याय है । इनकी प्रत्यधिक सरल एवं संक्षिप्त है। इसके प्रारम्भिक संधि सशक्त लेखनी के द्वारा जनप्रिय काव्यों के निर्माण के के सूत्र जन-जन के जीवन में उतर गये थे और जैन कारण कुछ समय तक तो पाठक प्राकृत एवं संस्कृत काव्यों विद्यालयों के अतिरिक्त ब्राह्मण पंडितों द्वारा भी अपनाये को भूला बैठे और चारों मोर अपभ्रंश काव्यो की मांग १. राजस्थान के जैन सन्त, व्यक्तित्व एवं कृतित्व, प्रस्तावना ४. महावीर दौलगय नामावली-व्यक्तित्व एवं कृतित्व, २. जैन लक्षणावली, प्रस्तावना, पृ. १८ । प्रस्तावना, पृ.२। ३. जैन ग्रंथ भण्डासं इन राजस्थान, पृ. १६८ । ५. प्राकृत पौर अपभ्रंश साहित्य, पृ.१.२ । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४, वर्ष ३१, कि०२ होने लगी। इस भाषा में प्रमुखतः काव्य, चरित्र, पुराण साधारण द्वारा रस लेना बौद्धिक जायति का एक प्रमतपूर्व एवं कथाएं ही लिखी गयीं, इसने स्पष्ट है कि उनकी लक्षण है। देश में छोटे-छोटे स्वाध्याय-मंडल खोले भये । रचना जनरुचि को देखकर ही होती थी। महाकवि स्व. प्राध्यात्मिक शैलियां चलायी गयीं जिनमें विभिन्न श्रावक यम्भू एवं पुष्पदन्त दक्षिण भारत के कवि थे, लेकिन उनके श्राविकायें भाग लेकर चर्चा करते थे। यही नहीं, गुणकाव्यों का मबसे अधिक प्रचार उत्तर भारत में हमा। स्थान, मार्गणा, प्रष्टकर्म एवं उनकी प्रकृतियों पर विस्तृत अपभ्रंश के सभी कवियों ने काव्यों की रचना स्वाध्याय चर्चा ग्रंथ लिखे गये। मागरा में इसी प्रकार की एक प्रेमी श्रावकों के प्राग्रह से की, जिनकी प्रशस्तियां काव्यों आध्यात्मिक शैली थी जिसका महाकवि बनारसीदास ने के अन्त मे लिखी हई मिलती हैं जो उन कवियो की लोक- उल्लेख किया है। प्रियता की मोर स्पष्ट संकेत है। प्राध्यात्मिक चर्चा अपभ्रश ग्रन्थों की प्रशस्तियों के प्राधार पर तत्काल जैनाचार्यों ने प्राध्यात्मिक साहित्य का निर्माण करके लीन समाज की साहित्यिक अभिरुचि का पता लगता है। जनजीवन को जाग्रत बनाने का प्रयास किया। "पुनरपि उस समय श्रावकगण विद्वामों से ग्रन्थ निर्माण की प्रार्थना जननं पुनरपि मरणं" के भलावे से बचाने के लिए उन्होंने करते थे। अपभ्रंश एवं हिन्दी साहित्य के निर्माण में ऐसे प्राध्यात्मिक ग्रंथों की रचना की। मात्मा की सच्ची मनुही श्रावकों की विशेष प्रेरणा रही थी। कविवर बुलाकी- भति के लिए उन क्रियानों पर जोर दिया जिनमें भेद दास को तो उनकी माता जैनी ने पाण्डवपुराण एव प्रश्नो- विज्ञान की चर्चा की गई है। ईश्वर के प्रभाव से बचने, तरोपासकाचार के निर्माण में प्रेरणा दी थी जिसका उसमे प्रास्था रखकर स्वयं निष्क्रिय बनने से बचाने के कवि ने पाण्डवपुराण मे स्पष्ट उल्लेख किया है। महाकवि लिए स्वयं परमात्मा बनाने की कल्पना अनूठो है तथा राधु का सारा साहित्य ऐसी ही प्रेरणा देने वाले व्यक्तियों इससे उसमें स्वय ही एक कर्तत्व शक्ति पैदा होती है। के परिचय से भरा पड़ा है। आध्यात्मिक साहित्य के रचयितामों मे भाचार्य कुन्दकुन्द' हिन्दी को प्रोत्साहन का नाम सर्वोपरि है जिन्होने प्राकृत भाषा में प्रवचनसार, अपभ्रश के पश्चात् जैन कवियो ने प्रादेशिक भाषामो समयसार जैसी कृतियां लिखकर बुद्धिजीवियों का महान में ऐसे काव्य-साहित्य का निर्माण किया जिसे जन साधा उपकार किया। हमारे मागम साहित्य मे तो मध्यात्म का रण भी बड़े चाव से पढ़ सके। उन्होने चरित्र काव्यों की अनठा वर्णन मिलता ही है। लेकिन उनके पश्चात् लिखे रचना की। रास काव्य लिखे। वेलि फागु के नाम से जाने वाले प्राकृत, अपभ्रश, सस्कृत ग्रन्थों में प्रात्मा, उनमें कुछ नवीनता दिखलाई । बारहमासा लिखकर । परमात्मा, जन्म-मरण मादि की जो चर्चायें मिलतो हैं उन घटना वर्णन के साथ-साथ प्रकृति वर्णन किया। सतसई, सबसे बौद्धिक जीवन पर गहरी छाप पड़ी तथा उसने शतक, पंचासिका, चौबीसी नाम देकर पाठको में संख्या- वैचारिक कान्ति करने में अपना विशेष योग दिया।' वाचक कृतियो के प्रति अभिरुचि पैदा की। विभिन्न प्रकार शास्त्रार्थ परम्परा के स्तवन लिखे और उनमे भक्ति का अलग-अलग पुट भी शास्त्रार्थों की परम्परा ने भी बौद्धिक विकास में दिया। इन काव्यों में तत्कालीन समाज की माथिक दशा, विशेष योग दिया। शंकराचार्य ने शास्त्रार्थों द्वारा ही बौद्ध व्यापार, व्यापार के तरीके, रहन-सहन, खान-पान प्रादि धर्म को देश से बाहर जाने को मजबूर किया था। लेकिन का अच्छा परिचय मिल सकता है। साहित्य निर्माण के जैनाचार्य शकराचार्य की प्रांषी मे भी प्रभावित रहे भोर अतिरिक्त तात्विक एव दार्शनिक मर्थ मे विद्वानों एवं जन (शेष पृष्ठ ५८ पर) १. अपभ्रश साहित्य, प्रो० हरिवश कोछड़, पृ० ५१। ३. अर्धकथानक-नाथूराम प्रेमी, पृ. ३५। २. देखिये, राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों की ग्रंथ ४. जैन लक्षणावली, असाखना, पृ. ५। सूची, भाग ३, पृ. ६४ । ५. अपभ्रश साहित्य, पृ. २६५। - Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद या अनेकान्त : एक चिन्तन 0 पंडित वर्धमान पा० शास्त्री, सिद्धान्ताचार्य परमागमस्यबीज मिषिद्धगत्यंश सिंदुरविधानम् । यह स्यावाद किसी प्रकार का कोई विघ्न उपस्थित नहीं सकलनविलसिताना विरोधमथन नमाम्यनेकांतम् ॥ करता । -अमृतचन्द्व अनेकांत-प्रनेके घेता धर्म जिसमें हों उसे भनेकांत भनेक अधों ने हाथी कभी नही देखा था। हाथी कहते है। स्याद्वाद का वही अर्थ है। किसी ने पूछा कि देखने चले गये । किसी अन्धे ने कहा कि हाथी खम्भे के क्या पदार्थ नित्य है ? अनेकांतवादी यह नही कहेगा कि समान है। किसी अन्धे ने कहा कि हाथी पंखे के समान पदार्थ नित्य ही है। वह कहेगा कि स्यात्, होगा, अर्थात है। किसी ने कहा कि हाथी केले के खूट के समान है। नित्य होगा। इसमे यह भी अर्थ गभित है कि भनित्य किसी ने कहा कि ढोल के समान है। किसी ने हड भी होगा। समान बताया। साथ ही इन अन्धों ने अपनी-अपनी बात फिर तो लोग कहेंगे कि यह सशय है, किसी विषय का समर्मन करते हुए दूसरे के विरोधी कथन को अस्वी का निर्णीत रूप से कथन नहीं करता है। तो यह सशय कार करते हुए मापस में झगड़ा भी किया। झगड़ा , नही है। बढ़ता ही जा रहा था। कोई आँखों वाला बुद्धिमान जा विरुद्धानेककोटिस्पशिज्ञानं संशयः। रहा था। उसने देखा कि ये प्रापस में लड़ रहे है, वास्तव विरुद्ध अनेक कोटि को स्पर्श करने वाला ज्ञान सशय है । में झगड़ा क्या है ? सो उसकी समझ मे पाया। उसने यह सांप होगा? या रस्सी होगी? क्या और कुछ है ? सोचा कि इन्होने हाथी के एक-एक अग को हाथ लगाया इस प्रकार बिचार करने वाला संशय है । सशय में किसी है; अपनी-अपनी अपेक्षा से हाथी का वर्णन करते है। यह भी विषय का निर्णय नही हो पाता है, परन्तु इस स्यात हाथी का सम्पूर्ण वर्णन नही है। हाथी तो सभी अवयवों अथवा अपेक्षावाद के ज्ञान मे निश्चितता है, ममक अपेक्षा का पिण्डरूप है। प्रस्तु इनका प्राग्स का झगड़ा मिटाना ' भगडा मिटाना से पदार्थ नित्य है, अमुक अपेक्षा से पदार्थ अनित्य है, चाहिए, किमी नय की अपेक्षा एक-एक का कथन भी का कथन भी अमुक अपक्ष अमुक अपेक्षा से उसमे वस्तुत्व है, अमक अपेक्षा से उसमें सत्य है । पतः उसने कहा कि तुम्हारा कहना भी सत्य है, प्रमेयत्व है, इत्यादि अनन्त धर्म होने पर भी अपेक्षावाद तुम्हारा कहना भी सत्य है। सभी अन्धो को प्रानन्द से वह निश्चित है । सो यह सशय, विपरीत व प्रमध्यवहमा। झगड़ा मिट गया, 'भी' से झगड़ा मिटा, 'ही' से साय मादिक ज्ञानाभास नही हो सकता है। प्रतः स्याद्वाद विरोध नहीं मिटता। इस 'ही' और 'भी'का प्रन्तर प्रने सम्यग्ज्ञान है। कान्त है। इसे ही स्याद्वान् कहते हैं । दूसरी बात, इसका कथन वस्तुस्वरूप के अनुसार है। मैं कहता हूं सो सत्य ही है, ऐसा कहने वाला सत्य कोई भी कृत्रिमता या वनावटी बात यहां नहीं है, क्योंकि से बहुत दूर है। माप जो कहते हैं वह भी सत्य हो । पदार्थ उसी प्रकार मौजूद है। उसका कथन उसी प्रकार सकता है, यह कहने से विरोध हो ही नहीं सकता है। किया जा रहा है। इसमें कृत्रिमता क्या है? पदार्थों में मनन्त धर्म विद्यमान, है उसे अपेक्षावाद से ही हम समझ इसलिए यह अनेकान्त या स्यावाद नयों के द्वारा सकते है। अपेक्षावाद को छोड़ दिया जाय तो उसका उत्पन्न विरोष को मिटा। वस्तुस्थिति के साध्य में कथन हम नहीं कर सकते हैं। मतः प्रपेक्षावाद की प्रत्यन्त Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ बर्ष ३१, क.. अनेकान्त पावश्यकता है। प्रपेक्षावाद के बिना एक पत्ता भी हिल स्थाद्वादो विद्यते यत्र, पक्षपातो न विद्यते । नहीं सकता है, जीम तो कैसे हिले ? जहाँ स्यावाद है वहां पक्षपात नहीं। प्राचार्य हेमचन्द्र ने पदार्थ जिस प्रकार अस्तित्व में हो, उसका उसी प्रकार इससे भी भागे बढ़कर कहा किकथन करना चाहिए। उस प्रकार कथन न करें तो उसका पक्षपातो न मे वीरे, न द्वेष: कपिलादियु । कथन ही प्रयथार्थ होगा, अर्थात् वह ज्ञान सत्य ज्ञान नहीं है। युक्तिमद्वचन यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः।। अनेकान्त या स्यावाद हमें प्रपेक्षावाद को सिखाता है। मुझे भगवान महावीर में भी पक्षपात नही है, और यह भी कहता है कि पदार्थ जिस प्रकार है, उसे उसी कपिलवादिकों के प्रति द्वेष भी नहीं है, जिनका कथन प्रकार कथन करने का अभ्यास करो। युक्तियुक्त है उसे स्वीकार मैं करता हूं। जहां मनेकान्त है वहां पर कोई विवाद उत्पन्न नहीं स्याथाद की उत्पत्ति क्यों? होता है। अनेक समस्यायें इस अनेकान्त के कारण अपने नय दो प्रकार के है । नय दो प्रकार के कहने की पाप सुलझ जाती हैं। प्रतः प्रत्येक पदार्थ को समझने के अपेक्षा, अपेक्षावाद दो प्रकार का है यह कहने से काम चल लिए इस अपेक्षावाद का उपयोग प्रावश्यक है, इसमें पर सकता है। अपेक्षावाद दो प्रकार का है यह कहने की स्पर कोई विरोध भी नहीं है। अपेक्षा पदार्थ उमी प्रकार से है यह कह दिया जाय तो प्रकाश-प्रन्धकार, शत्र-मित्र, गुरु-शिष्य, पति-पत्नी, अधिक समजस दिख सकेगा। बैठना-उठना, सोना-जागना, गेहूं-चावल, घी तेल, नमक ___नय विवक्षा दो प्रकार से है-द्रव्याथिक और पर्यामिर्च मादि सर्व व्यवहार अपेक्षावाद से युक्त है, अपेक्षा यायिक । वाद को छोड़कर हम इन शब्द प्रयोगों को नही कर । द्रव्य की अपेक्षा रखने वाला, द्रव्य ही जिसका प्रयोसकते हैं। जन हो, द्रव्य की दृष्टि को रखकर कथन करने वाला नय एक ही व्यक्ति में पितृस्व, पुत्रत्व, भ्रातृत्व, कनिष्ठ द्रव्याथिक है। पर्याय की दृष्टि को रखकर पदार्थ का भ्रातृत्व, ज्येष्ठ भ्रातृत्व, मामापना, भानजापना, प्रादि विचार करने वाला, पर्याय की अपेक्षा रखकर विचार सम्बन्ध विद्यमान हैं। इन सबको अपेक्षावाद से जानना करने वाला, पर्याय ही जिसका प्रयोजन हो वह पर्यायाथिक चाहिए। अपेक्षावाद के बिना हम पदार्थों को समझने मे नय है। नयों का समुदाय ही प्रमाण है। अत: यह असमर्थ रहेंगे, मज्ञानी बने रहेंगे। नय भी प्रमाण का एकदेश होने से प्रमाण-स्वरूप है। पदार्य को जैसा है वैसा समझना ही सम्यग्शान है। इसे महर्षि पूज्यपाद ने 'क्षीरार्णवजल घटगृहीतमिव', सम्यग्ज्ञान के बिना वस्तु के निश्चित स्वरूप का ज्ञान नहीं क्षीरसमुद्र के पास से एक घड़े मे जैसा लेवें तो वह क्षीर. हो सकता है। वस्तु के निश्चित स्वरूप के बिना अपना भी मान नहीं हो सकता है। प्रतः वह निरपेक्षवादी सर्व ज्ञानों समुद्र है क्या-नहीं, क्षीरसमुद्र का जल है क्या ? है, से वंचित रहता है। स्यावाद समन्वयवाद है, पदार्थ को। इस प्रकार प्रमाण एकदेश प्रमाणात्मक उत्तर मिलेगा, इसी प्रकार नय में प्रमाण का एकदेशत्व है। सर्वथा स्वीकार नही करना है, उसमें कथंचित् अर्थ मभिप्रेत है। कथंचित् पर्थ जहां अभिप्रेत हो वहां पर कोई फिर द्रव्य-पर्याय दृष्टि क्या है ? विवाद उत्पन्न नहीं हो सकता है। प्राचार्य उमास्वामी ने द्रव्य का लक्षण करते हुए जहां पक्षपात है वहीं विवाद उत्पन्न होता है, पक्ष- कहा कि 'सत द्रव्यलक्षणम्', सत् द्रव्य का लक्षण है। सत् पात रहित स्वाभाविक कथन में विवाद ही उत्पन्न नहीं क्या है। इसका उत्तर देते हुए प्राचार्य ने कहा हैं कि हो सकता है। इसीलिए कहा गया है कि 'उत्पादध्ययध्रौव्ययुक्तं सत्'; उत्पत्ति, विनाश और ध्रुवता Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्यावावया अनेकान्त : एक चिन्तन ५७ सत कहलाता है, अर्थात ये तीनों बातें उस द्रव्य में है। स्यादस्ति नास्ति-कथचित् वह पदार्थ उभयरूप पूर्व पर्याय का विनाश. वर्तमान पर्याय की उत्पत्ति, यह है, क्योंकि कम से दोनो की अपेक्षा है। जिस प्रकार पर्याय में होती है उसी प्रकार ध्रुवता द्रव्यत्व स्यादवक्तव्य- - कथचित् वह प्रवक्तव्य है क्योकि मे रहती है। उदाहरण के लिए, एक मनुष्य जीव को दोनों की एक साथ विवक्षा होने से कथन नहीं किया जा लीजिए । वह पहले तिर्यञ्च योनि मे था। अब पर्याय की सकता है । अतः प्रवक्तव्य है। दृष्टि से मनुष्य योनि मे उसकी उत्पत्ति हुई, तिर्यञ्च प्रवक्तव्य होने पर उसका अस्तित्व कसे माना नावे? योनि का विनाश हमा, अर्थात् तिर्यञ्च भी उसका पर्याय तब पाचवां भंग उदय में पाया। था, मनुष्य गति भी एक पर्याय है। अतः पर्याय की दष्टि स्यादस्ति प्रवक्तव्य---पदार्थ मौजूद है परन्तु से उसकी उत्पत्ति व विनाश हुमा । परन्तु द्रव्य दृष्टि से प्रवक्तव्य है। अपने स्वचतुष्टय की अपेक्षा से वह अस्तित्व वह जीव था, अभी भी जीव है, प्रागे भी जीव रहेगा। मे है तथापि हम उसका कथन नहीं कर सकते है। जीवत्व का विनाश कभी नही होगा, उसमे ध्रुवता है । स्यान्नास्ति प्रवक्तव्य परचतुष्टय का उमम इस दृष्टि से उसका नाश कभी नही होगा। अतः नित्य है, पर्याय अनित्य है। प्रभाव है । प्रतः कथचित् नास्ति वक्तव्य है। यहा पर चतुष्टय की अपेक्षा नही होने पर भी प्रवक्तव्य है। इन दोनो नयो का विचार करने पर स्याद्वाद की स्यादस्तिनास्ति अवक्तव्य-दानो विवक्षा से उत्पत्ति होती है। इन दोनो नयों की अपेक्षा पदार्थ को अस्तित्व नास्तित्व धर्म के एक काल मे होने पर भी मर्वथा नित्य, सर्वथा अनित्य नही कह सकते है। स्यात् । प्रवक्तव्य है। नित्य, स्यात् अनित्य कह सकते है। इन सब भंगों में उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य की अपेक्षा कर मानवीय प्राणी की शक्ति, बद्धि प्रादि सीमित होने लेनी चाहिए। इसे स्वामी समन्तभद्र ने एक सुन्दर उदा. के कारण अनन्त धर्मों से युक्त पदार्थ का अनन्त धर्मों से हरण देकर समझाया है-- उल्लेख नही किया जा सकता है, इसलिए सात विवक्षानो घटमौलिसुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिध्वयम् । मे उन सभी धर्मों का अन्तर्भाव कर कह दिया जाता है। शोकप्रमोदमाध्यस्थां जनो याति सहेतुकम् ॥ उसे सप्तभंगी कहते है, इस प्रकार का अर्थ भग है, सात प्राप्तमीमासा, ५६. प्रकारो से युक्त है । प्रतः वह स्याद्वाद सप्तभंगी कहलाता एक मनुष्य को सोने के घड़े की जरूरत थी, दूसर को सोने के मकुट की जरूरत थी, तीसरे को सोने की जरूरत सप्तभंगी क्या है ? थी। तीनों सराफ की दुकान मे गये। जिसको घड़े की जरूरत थी वह निराश हुमा, क्योंकि सगफ ने कहा कि __ पदार्थ का स्वचतुष्टय-परचतुष्टय की दृष्टि से विचार मेरे पास सोने का घड़ा था, परन्तु उसके लिए कोई ग्राहक किया जाता है । द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव वे चतुष्टय है, न होने से उसे तुड़वाया एवं सोने का मकुट बनवाया; अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाष स्वचतुष्टय हैं, दूसरों के द्रव्य, मकूट को लेने वाले को हर्ष हुमा, क्योकि वह मकुट क्षेत्र, काल, भाव परचतुष्टय है । चाहता था, परन्तु जो केवल मोना चाहता था उसे नहर स्यादस्ति-अपने चतुष्टय (स्वचतष्टय) की अपेक्षा न विपाद, मध्यस्थ भाव है, क्योंकि घड़े में भी सोना है, पदार्थ मौजूद है। ___ मुकुट मे भी सोना है। इसलिए उसे तोड़ने का न विपाद स्थान्नास्ति-परचतुष्टय की अपेक्षा से पदार्थ नहीं है और न बनाने का हर्ष। है, अर्थात् पदार्थ में अस्तित्व नास्तित्व दोनों धर्म प्राये । यहां पर प्राचार्य ने द्रव्य और भाव दोनों में उत्पाद, Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८, वर्ष ३१, कि०२ अनेकान्त व्यय, प्रौव्य का निरूपण किया है। बड़े का विनाश व से कोई भेद नहीं है। श्रुतज्ञान परोक्ष है, केवलज्ञान प्रत्यक्ष मकट की उत्पत्ति, ये सोने में दो पर्याय दृष्टिगोचर होते है, इतना ही अन्तर है। है। उसके साथ ही एक में शोक की उत्पत्ति और हर्ष का इस प्रकार समझकर स्वाद्वादरूपी श्रुतकेवलज्ञान से नाश दीख रहा है, तो दूसरे में विषाद का नाश व हर्ष की जो पदार्थों का ज्ञान करता है वह न भूलता है, वस्तू स्वउत्पत्ति दीख रही है, तथा तीसरे उदाहरण मे जिस प्रकार रूप के समझने में न धोका खाता है, और न वहा पर सोने में सर्वत्र ध्रुवता है उसी प्रकार परिणाम मे भी विवाद उत्पन्न होता है । परस्पर वैषम्य को वह अनेकांत माध्यस्थ या ध्रुवता है। न हर्ष है और न विषाद है। दूर कर हर एक मे समन्वय दृष्टि को निर्माण करता है। परिणाम ध्रुवता है। यही कारण है कि स्याद्वाद लोक मे शांति को उत्पन्न इउ प्रकार सर्व तत्त्वों को प्रकाशित करने वाले स्या- करने के लिए कारण है। दाद का प्राचार्य ने केवलज्ञान के रूप में वर्णन किया है- नयचक्र पारंगत प्राचार्य अमृतचन्द्र स्पष्टत: निर्देश स्याद्वादकेवलज्ञाने सर्वतत्त्वप्रकाशके । करते हैं किभेद: साक्षादसाक्षाच्च वस्त्वन्यतम भवेत् ॥ इति विविधभंगगहने सुदुस्तरे मार्गमूढदृष्टीनाम् । -प्राप्तमीमांसा १०५ गुरवो भवन्ति शरण प्रबुद्धनयचक्रसंचाराः ॥ सर्व तत्त्व को प्रकाशित करने वाला स्याद्वाद भी -पुरुषार्थसिध्युपाय, ५८. केवलज्ञान के समान ही है। भेद सिर्फ इतना ही है कि इस प्रकार विभिन्न नय के प्रयोग में अनेक भंग हैं, केवलज्ञान प्रत्यक्ष रूप से जानता है । स्याद्वाद परोक्ष रूप से और कठिन है । मिथ्यादृष्टि जीव इस भवकानन मे चलते जानता है। दोनो में ज्ञान की दृष्टि से कोई भेद नही है। हुए कभी-कभी मार्ग भूल जाता है, इधर-उधर भटकता एक केवल है, दूसरा श्रुतकेवल है। एक प्रत्यक्ष है, दूसरा रहता है । भटकना भी चाहिए ससार में भटकना या परोक्ष है। इस बात का समर्थन नेमिचन्द्र सिद्धान्त-चक्र- परिभ्रमण करना ही ससार का वास्तविक लक्षण है। वर्ती ने भी किया है। जो इस नयचक्र का ठीक-ठीक प्रकार से प्रयोग नहीं कर सूदकेवलं च णाण दोणिवि सरिसाणि होति बोहादो।। सकें और नयचक्र में चक्कर खाकर भटकते रहे, वे इसे सुदणाणं तु परोक्ख पच्चय केवल णाणम् ॥ समझने के लिए, इस नयचक्र में संचार करने में प्रवीण, -गोम्मटसार जीवकाड सदा निश्शक विचरण करने वाले सद्गुरुप्रो की शरण अर्थात् श्रुतज्ञान मे और केवलज्ञान में ज्ञान की अपेक्षा जावें । अपने पाप उसका परिज्ञान हो जायगा।ne (पृष्ठ ५४ का शेषांश) प्रकलंक, विद्यामन्दि, हरिभद्र सुरि, समन्तभद्र जैसे प्राचार्यों जन सामान्य के बौद्धिक विकास के लिए शिक्षणने अपने शास्त्रार्थों द्वारा देश में एक नयी लहर पंदा की। सस्थान स्थापित किये गये। देश के प्राचीनतम नगरों में प्राचार्य समन्तभद्र के ये दो पद्य तत्कालीन बौद्धिक जीवन ऐसे ही विद्यालय थे, जिनमे प्राइमरी शिक्षा के पश्चात पर अच्छा प्रकाश डालते है : विद्यार्थियों को दार्शनिक, साहित्यिक एवं धार्मिक शिक्षा 'पूर्व पाटलिपुत्र मध्यनगरे भरी मया ताडिता, दी जाती थी। नालन्दा के समान अन्य शिक्षण सस्थाये भी पश्चामालसिन्धु ठक्कविषये काचीपुरे वैदिशे। थी जिनमे गुरुकुलों के रूप में विद्यार्थियो को शिक्षा दी प्राप्तोऽह करहाटकं बहुभटं विद्योत्कटं सकट, बादार्थी विच राम्यह नरपते शार्दूलविक्रीडितम् । जाती थी। १०वी शताब्दी मे बांरा मे और १५वीं 'प्राचार्योऽह कविरहमहं वादिगट पडितोऽह, शताब्दी में नणवा' (राज.) मे ऐसी ही शिक्षण संस्थायें देवोऽहं भिषगहमहं मांत्रिकस्तान्त्रिकोऽहम् । थी। इनके अतिरिक्त, राजस्थान मे ही भामेर, अजमेर, राजन्नस्या जलविलयामेखलायामिलापामाज्ञा- जैसलमेर, नागौर, सागवाडा में विद्याथियों को पढ़ाने के सिद्धः किमिति बहुना सिद्धसारस्वनोऽहम् ।। लिए शिक्षण संस्थान थे।' १. जैन साहित्य मोर इतिहास पर विशद प्रकाश, पृ. १७ । २. वही, पृ. २४२। ३. जैन ग्रन्थ भण्डार इन राजस्थान, पृ. २२७। ४. वही, पृ. २३१। ७. वही, पृ. २०२। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्तकवि रइधू और उनका साहित्य D डा. राजाराम जैन, एम. ए , पी-एच. डी. भारतीय वाडमय के उन्नयन मैं जिन बरेण्य साधकों सारयरु अणु पुण बच्छ भाउ, ने अनवरत श्रम एवं अथक साधना करके अपना उल्लेख्य ज जं दीस इणाणा सहाज । तं त जि एत्थु पावियइ सव्वु, योगदान किया है, उनमे महाकवि रइधु अपना प्रमुख लब्भइप कव्व-मणिक्कु भन्नु । स्थान रखते हैं। उन्होने पपने जीवन काल के सीमित समय एत्थु जि वह बुह णि वसहिउ किट्ट, मे २३ स भी अधिक विशाल अपभ्रश, प्राकृत ग्रन्थो की णउ सुकउ को वि दीराइ मणि? । रचना करके साहित्य जगत् को आश्चर्यचकित किया है। भो णिसुणि वियक्खण कहामि तुझ, रचनायो का विषय वैविध्य, सस्कृत, प्राकृत, अपभ्रश एवं 'क्खमि ण किपि णियचितगुज्झ । हिम्दी प्रादि भाषामो का असाधारण पाण्डित्य, इतिहास पत्ताएव संस्कृति का तलस्पर्शी ज्ञान, समाज एव राष्ट्र को तह पुणुकवरयण रयणायरु बालमित्त प्रम्हहं हाउस। साहित्य, संगीत एवं कला के प्रति जागरूक कराने की तुहु महु सच्च उ पुण्ण सहायउ महु मणिच्छ पूरण प्रण रायउ॥ क्षमता जैसी उक्त कवि मे दिखाई पड़ती है, वैसी अन्यत्र --सम्मत० १७१-७ तथा १३१४१८-६ कठिनाई से ही प्राप्त हो सकेगी। अर्थात् "हे कविवर, शयनासन, हाथी, घोड़े, ध्वजा, कवि की कवित्व-शक्ति उसके वर्ण्य विषय मे तो छत्र, चमर, सुन्दर रानियां, रथ, सेना, सोना, धन-धान्य, स्पष्ट दिखती ही है, किन्तु समाज एव राजन्यवर्ग के लोगो भवन, सम्पत्ति, कोष, नगर, देश, ग्राम, बन्धु-बान्धव, को भी उसने माहित्य एव कलाप्रेमी बना दिया था। यह सुन्दर सन्तान, पुत्र, भाई ग्रादि सभी मुझे उपलब्ध हैं। महाकवि र इध की अद्वितीय देन है। ऐसी लोकोक्ति मौभाग्य से किमी भी प्रकार की भौतिक सामग्री की मझ प्रसिद्ध है कि लक्ष्मी एवं सरस्वती का सदा से बैरभाव कमी नही है। किन्तु इतना सब होने पर भी मुझे एक चला पाया है। कई जगह यह उक्ति सत्य भी सिद्ध हुई वस्तु का अभाव सदैव खटकता रहता है, घोर वह यह कि है. लेकिन कवि ने उनका जैसा समन्वय किया-कराया, मेरे पास काव्यरूपी एक भी सुन्दर मणि नहीं है। इसके वही उसकी विशिष्ट एवं अद्भुत मौलिकता है। उदाहर- बिना मेरा सारा ऐश्वर्य फीका-फीका लगता है। हे कामणार्थ कवि की प्रशस्तितों में से एक प्र-यन्त मार्मिक प्रसग रूपी रत्नों के रत्नाकर, तुम तो मेरे स्नेही वालमित्र हो, उपस्थित किया जाता है, जिससे कवि प्रतिभा का चमत्कार तुम्ही हमारे सच्चे पुण्य-सहायक हो, मेरे मन की इच्छा स्पष्ट देखने को मिल जाता है। परिपूर्ण करने वाले हो । इस नगर मे बहुत से विद्वज्जन महाकवि र इध की साधना-भूमि गोपाचल (ग्वालियर) निवास करते है, किन्तु मुझे प्राप जैसा कोई भी भन्य मे तत्कालीन तोमरवंशी राजा डूगरसिह के मन्त्री सबबी सुकवि नहीं दिखता। अतः हे कवि श्रेष्ठ, मैं अपने हृदय कमलसिंह निवास करते थे, जो स्थितिपालक एव उदार- की ग्रन्थि खोलकर सच-सच अपने मन की बात प्राप से मना थे । राज्यपदाधिकारी होने से वे राज्यकार्यों में बड़े कहता हूं कि प्राप एक काव्य की रचना करके मुझ पर व्यस्त रहते थे। एक दिन वे उससे घबराकर रइध से अपनी महती कृपा कीजिए।" कमलसिंह के उक्त निवदन भेंट करते है तथा निवेदन करते है पर कविने 'सम्मत्तगुणणिहाण कन्व' नामक एक अध्यात्म सयणासण तबेर तुरग, एवं दर्शन के ग्रन्थ की रचना की। धय-छत-चमर-भामिणि-रहग । उक्त महाकवि का काल अन्तर्वाह्य साक्ष्यो के प्राचार कंचण-घण-कण-घर-दविण-कोस, पर वि. स. १४४०-१५३० सिद्ध होता है। पिछले १५ जाणइ जपाइ जणिय तोस । तह पुण णयरायर-देस-गाम, वर्षों के निरन्तर प्रयासो से उक्त कवि के २१ प्रन्थ इन बंधव णंदण णयणाहिराम । पक्तियो के लेखक को भारत के विविध शास्त्रभण्डारो से Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०, वर्ष ३१, कि०२ अनेकान्त उपलब्ध अथवा ज्ञात हो सके है, जिनकी वर्गीकृत सूची उनके पुत्र राजा कीतिसिंह ने राज्य की कोटि-कोटि मद्राएं इस प्रकार है व्यय करके तैतीस वर्षों तक लगातार अगणित जैन मूर्तियों चरित साहित्य का निर्माण गोपाचल दुर्ग में कराया था। उनमे से कई (१) महेसर चरिउ (मेघेश्वरचरित), (२) बलहद्दचरिउ (वलभद्रचरित), (३) जिम धरचरिउ (जीमन्धर. मूत्तियां विशाल है। एक मूर्ति तो ५७ फुट ऊँची है। चरित), (४) सिरि सिरिवालचरिउ (श्री श्रीपालचरित), सख्या, विशालता एवं कला वैभव में वे अनुपम है। (५) जसहरचरिउ (यशोधरचरित), (६) सम्मइजिण इसी प्रकार चन्द्रवाडपट्टन (अाधुनिक चन्दुवार, जिला चरिउ (सन्मतिजिनचरित), (७) हरिवंशचरिउ (हरि फिरोजाबाद, उ० प्र०) निवासी श्री कुन्थुदास नगरसेठ वशचरित), (4) सुक्कोसलचरिउ (सुकौशलचरित), ने भी कवि की प्रेरणा से हीरे, मोती, माणिक्य की अनेक (६) धण्णकुमारचरिउ (धन्य कुमारचरित), (१०) सति- मूत्तियो का निर्माण कराकर पचकल्याणक प्रतिष्ठाएं की णाहचरिउ (शान्तिनाथचरित), (११) पासणाहचरिउ थीं। उपलब्ध भारतीय इतिहास मे मतिकला सम्बन्धी (पाश्वनाथचरित)। उक्त घटनामो की चर्चा नहीं की गई। ऐसा क्यों हमा? प्राचार, दर्शन एव सिद्धान्त साहित्य यह कारण अज्ञात है। किन्तु अब रइध-साहित्य-प्रशस्तियो पासवकहा पिण्याश्रवकथा), (१३) साव- के प्राधार पर मध्यकालीन भारतीय इतिहास के पूनर्लेखन यचरिउ (धावकचरित), (१४) सम्मतगुणणिहाणकव्व की आवश्यकता है। मम्यक्त्वगणनिधान काव्य), (१५) अप्पसबोहकव्व प्रशस्तियो की दूसरी विशेषयता यह है कि उनमें सम्बोध काव्य), (१६) अणथमिउकहा (अनस्त. काष्ठासघ, माथुर गच्छकी पुष्करगण शाखा के अनेक त कथा), (१७) सिद्धतत्थसार (सिद्धान्तार्थसार), भट्टारको को श्रमबद्ध परम्परा प्राप्त है । कवि ने देवसेन, एवं (१८) वित्तसार (वृत्तसार)। विमलसेन, धर्मसेन, भावसेन, सहस्रकीत्ति, गुणकीत्ति, यश:अध्यात्म साहित्य कोत्ति, श्रीपाल ब्रह्म, खेमचन्द्र, मलयकीर्ति, गुणभद्र, विजय(१६) बारा भावना, (२०) सोलह कारण जयमाला, सेन, क्षेमकीति, हेमकीत्ति, कमलकोत्ति, शुभचन्द्र एवं (२१) दशलक्षणधर्म जयमाला । कुमारसेन के उल्लेख किये है। यद्यपि ये उल्लेख सक्षिप्त उक्त ग्रन्थो के अतिरिक्त कवि द्वारा विरचित महा एवं प्रसंगप्राप्त है, किन्तु उनके क्रम एवं समय निर्धारण पुराण, सुदसणचरिउ (सुदर्शनचरित), पज्जुणचरिउ तथा उनके साधनापूर्ण कार्यों को समझने के लिए वे (प्रद्युम्नचरित), भविसयत्तचरिउ (भविष्यदत्तचरित), महत्त्वपूर्ण सन्दर्भ सामग्री प्रस्तुत करते है । करकडचरिउ (करकडुचरित) प्रभृत्ति ग्रन्थ अनुपलब्ध है, रइघू ने पूर्ववर्ती अपभ्रश कवियो में चउमुह (चतुकिन्तु उनका अन्वेषण कार्य जारी है। मख) द्रोण, ईशान, स्वयम्भ, पुष्पदन्त, धनपाल, वीर, रइधु साहित्य की विशेषताएँ धवल, धीरसेन, पविषेण, सुरसेन तथा दिनकरसेन तथा साहित्य की सर्वप्रथम विशेषता है उसकी विस्तृत सस्कृत कवियो में देवनन्दि, जिनसेन (प्रथम और द्विती) स्तियां। कवि ने अपने प्राय: सभी ग्रन्थो के एवं रविषेण के उल्लेख किये है। अपभ्रश एव हिन्दी के प्राति एवं अन्त में प्रशस्तियों का अकन किया है, जिनके अनुसन्धित्सुमो के लिए धीरसेन, पविषेण, सुरसेन एव माध्यम से कवि ने समकालीन साहित्यिक, धार्मिक, दिनकरसेन इन चार कवियो के नाम नवीन है। रइध ने प्राधिक, राजनैतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिस्थि- उनकी क्रमश. प्रमाण, नय प्रमाण, नेहेसरचरित एवं तियो पर मस्टर प्रकाश डाला है। इन प्रशस्तियो से अणगचरिउ नाम की कृतियो के उल्लेख किये हैं। इन विदित होता है कि तोमरवशी राजा डूंगरसिंह एव कात्ति- ग्रन्थों के अन्वेषण एव प्रकाशन से निश्चय ही साहित्यिक सिंह तथा चौहानवशी राजा रुद्रप्रताप कवि के परमभक्त इतिहास के पुननिर्माण में कई दष्टियो से सहायता तथा साहित्य एव कथा रसिक थे। राजा डूगरसिंह तथा मिलेगी। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्तकवि समोर उनका साहित्य महाकवि र इधु ने अपने प्राश्रयदातामों की ११-११ निक, सैद्धान्तिक एव प्राध्यात्मिक ग्रन्थों का भी प्रणयन पीढ़ियों तक की कुल परम्पराएं एवं उनके द्वारा किए गये किया है। यद्यपि उक्त ग्रन्थों में निरूपित बिषय कुन्दकुन्द साहित्य, धर्म, तीर्थ, मूत्ति-निर्माण, मन्दिर निर्माण, दान प्राभत पूर्वाचार्यों से ही परम्परा-प्राप्त है, इस कारण एवं राज्य सेवा सम्बन्धी कार्यों पर अच्छा प्रकाश डाला उनमें मौलिकता भले ही न हो, तो भी 'नद्या नवघटे है। इन सन्दर्भो के आधार पर मालवा के मध्यकालीन जलम्' वाली उक्ति के अनुसार विषप के प्रस्तुतीकरण में समाज के सांस्कृतिक इतिहास का प्रामाणिक लेखा- अवश्य ही निम्न प्रकार के वैशिष्ट्य दृष्टिगोचर होते हैजोखा तैयार हो सकता है। इस विषय में सक्षेप म यह १. सिद्धान्त प्रस्फोटन के लिए प्राख्यान का प्रस्तुतीकहा जा सकता है कि रइधु-साहित्य मध्यकालीन परि- करण । स्थितियों का एक प्रतिनिधि साहित्य है। उसमे राजतन्त्र २. बहुमखी प्रतिभा द्वारा सिद्धान्तों का सरल रूप में प्रस्तुतीकरण । एवं शासन व्यवस्था, मामाजिक-जीवन, परिवार-गठन एव ३. विषयो का क्रम-नियोजन । परिवार के घटक, वाणिज्य-प्रकार, आयात-निर्यात की ४. दार्शनिक विषयो का काव्य के परिवेश में प्रस्तुतीसामग्रियो की सूची, समुद्र-यात्रायें, प्राचार-व्यवहार, मनो. करण । रजन, शिक्षा-पद्धति सम्बन्धी बहुमूल्य सामग्री प्राप्त ५ प्राचार के क्षेत्र मे मौलिकता का प्रवेश। होती है। महाकवि रइघ ने अपने समस्त वाङ्मय मे चार प्राचीन एव मध्यकालीन भारतीय भूगोल की दष्टि भाषामो का प्रयोग किया है--मस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश से भी रइधू साहित्य कम महत्त्वपूर्ण नही। भारतवर्ष की एव हिन्दी। मस्कृत में कवि ने कोई स्वतन्त्र रचना नही मध्यकालीन राजनैतिक सीमाएँ; विविध नगर, देश, ग्राम, की, किन्तु ग्रन्थों की सन्धियो के ग्रादि एव अन्त में आदि पत्तन, पर्वत, नदियां, वनस्पतियाँ, जीव-जन्तु, आदिम मंगल या आशीर्वादात्मक विचार संस्कृत के प्रार्या, वसन्त. जातिया, खनिज पदार्थ, यातायात के साधन प्रादि सम्बन्धी तिलका, मालिनी, इन्द्रवज्रा, उपेन्द्रवना, मन्दाक्रान्ता, सामग्री इसमे प्रस्तुत है। शिखरिणी, स्रग्धरा, शार्दूलविक्रीडित जैसे विविध श्लोकों साहित्यिक दृष्टि से रइघु के प्रबन्धात्मक प्राख्यानों के माध्यम से व्यक्त किये है। उपलब्ध ग्रन्थो मे ऐसे का गम्भीर अध्ययन करने से उनकी निम्नलिखित विशेष- श्लोको की संख्या १२० के लगभग है। इलोको की ताएँ परिलक्षित होती है सम्कृत भाषा पाणिनी-सम्मत ही है, किन्तु कही-कही उस १. पौराणिक पात्रों पर युग-प्रभाव । पर प्राकृत, अपभ्रंश का प्रभाव भी दृष्टिगोचर होता है। २. प्रबन्धो की अन्तरात्मा मे पौराणिकता का पूर्ण रइधू की प्राकृत रचनाओं में शौरसेनी प्राकृत का समावेश रहने पर भी कवि द्वारा प्रबन्धों का स्वेच्छया प्रयोग मिलता है। उसमें क्वचित् प्रर्धमागधी एव महा गष्ट्री के शब्द प्रयोग भी दृष्टिगोचर होते हैं। ३. चरित-वैविध्य । ___ कवि की एक रचना हिन्दी में भी उपलब्ध है। ४. पौराणिक प्रबन्धो में काव्यत्व का मयोजन । यद्यपि वह अत्यन्त लघकृति है, जिसमे मात्र ३६ पद्य है, ५. प्रबन्धावयवों का सन्तुलन । किन्तु भाषा, विधा एव छादरूपो की दृष्टि से वह महत्त्व. ६. मर्मस्थलों का संयोजन । पूर्ण कृति है । उस रचना का नाम है-'बारा भावना' । ७. उद्देश्य की दृष्टि से सभी प्रबन्ध काव्यो का सा- इसमे दोहा, चौपाई, मिश्रित गीता छन्द मे द्वादशानुदृश्य, किन्तु जीवन की प्राद्यन्त अन्वितिका पृथक्त्व- प्रेक्षापो का बडा ही मार्मिक वर्णन किया गया है। इस निरूपण । रचना की हिन्दी अपभ्रंश से प्रभावित है और उसके प्रबन्ध पाख्यानों के अतिरिक्त कवि ने 'सम्मत्तगुण- 'करउ', 'केरो' जैसे परसगों के प्रयोग उपलब्ध है। उसमे णिहाणकव्व', 'वित्तसार', 'सिद्धान्तार्थसार', जैसे दार्श- राजस्थानी ब्रज, बुन्देली एव बघेली, शब्दों के प्रयोग भी पुनर्गठन । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२, वर्ष ३१, कि०२ अनेकान्त प्राप्त होते है। वस्तुतः कवि की इस लघुकृति में प्राचीन कवि या साहित्यकार के अस्तित्व की सम्भावना नहीं की हिन्दी के विकास की एक निश्चित परम्परा वतमान है। जा सकती। रस की अमत स्रोतस्विनी प्रवाहित करने के महाकवि रइधू मूलतया अपभ्रश के कवि है। प्रतः के कवि है। अतः साथ मध्यकालीन भारतीय संस्कृति के चिरन्तन प्रावों उनकी तीन कृतियां छोड़कर शेष सभी अपभ्रश भाषा मे भाषा म की प्रतिष्ठा करने वाला यह प्रथम सारस्वत है, जिसके ही निबद्ध है। उनकी अपभ्रंश परिनिष्ठित अपम्रश है, पर व्यक्तित्व में एक साथ इतिहासकार, दार्शनिक, प्राचार. उसमे कही कही ऐसी शब्दावलियों भी प्रयुक्त है, जो शास्त्र-प्रणेता एवं क्रान्ति द्रष्टा का समन्वय हुअा है। प्राधनिक भारतीय भाषामो की शब्दावली से समकक्षता कवि की उपलब्ध समस्त रचनायो का परिशीलन रखती है। उदाहरणार्थ कुछ शब्द यहा प्रस्तुत है- बिहार सरकार के शिक्षा विभाग की ओर से 'अपभ्रंश के टोपी, मुग्गदालि (मूग की दाल), लदगउ (ले महाकवि रइघ की रचनामों का पालोचनात्मक परि. गया), साली (पत्नी की बहिन), पटवारी, बक्कल बोली का बाहन), पटवारा, बक्कल शीलन' नामक शोधग्रन्थ के रूप मे शीघ्र ही प्रकाशित हो (बन्देली, बकला-छिलका), ढोर, जगल, पोदलु, (पोटली), रहा है तथा 'जीवराज ग्रन्थमाला', शोलापुर (महाराष्ट्र) खट (खाट), गाली, झड़प्प, खोज (खाजना), लकड़ी, की पोर से 'रइघ-ग्रन्थावली' के रूप में समग्र रइधुपीट्टि (पीट कर), ढिल्ल (ढीला) आदि । साहित्य १६ भागों में सर्वप्रथम सम्पादित होकर प्रकाशित बहुमुखी प्रतिभा के धनी महाकवि रइधू निस्सन्देह होने जा रहा है। उसका प्रथम भाग प्रकाशित है तथा ही भारतीय वाङ्मय के इतिहास के एक जाज्वल्यमान द्वितीय एवं तृतीय भाग यन्त्रस्थ है। इनके प्रकाशन से नक्षत्र है । बिपुल एव विविध साहित्य रचनामो की दष्टि। श्रा को दृष्टि कई नवीन तथ्यों पर प्रकाश पड़ने की सम्भावनाएं है। से उनकी तुलना में ठहरने वाले किसी अन्य प्रतिस्पर्धी 000 (पावरण पृ. ३ का शेषाष). हरिवशपुराण का समस्त वजन किसी न किसी प्रयथार्थ है। नंगम, मग्रह, व्यवहार ऋजुसूत्र, शब्द, समभि प्रकार से मुक्ति प्रादि कार्यों से सम्बद्ध है । तीर्थंकरो, पच रूढ प्रौर एवमभत- ये सात नय है। पूर्व तीन तो द्रव्यापरमेष्ठियो के स्तवन के साथ-साथ विभिन्न प्राचारो और शिक के भेद है और प्रवशिष्ट चार पर्यायाथिक के भेद है। व्यवहारो का वर्णन किया गया है । पुराण म सर्वतोभद्र,३२ पापो की पाच प्रणालिया है --हिंसा, असत्य, स्तेय, महासर्वतोभद्र,"चान्द्रायण' मादि अनेक व्रतो, उपवासो की कुशील और परिग्रह । इनसे विरक्त होना चारित्र है।३६ विधियो एवं उनके फलो का विस्तृत विवेचन किया गया है। उक्त पाचों पापो से पूर्णत: विरक्ति का नाम सम्यक् दर्शन के प्रमुख तीन अग है--(१) सम्यग्दर्शन चारित्र है। व्यवहार नय और निश्चय नय को क्रमशः (२) सम्यग्ज्ञान और (३) सम्यक्चारित । जैनागम मे श्रावक और मुनि पालन करते है। जीव, जीव, भास्रव, बन्ध, सवर, निर्जरा, मोक्ष, पाप व्रत, उपवास, तप आदि का धार्मिक साधना से और पूण्य ये नौ तत्त्व कहे गये है। इन जीवाजीवादि अभिन्न सम्बन्ध है। इस देश में लोग नाना प्रकार के तत्वार्थों की सच्ची श्रद्धा का नाम गम्यग्दर्शन है।५ व्रतोपवास आदि धर्म भावना से करते रहे है। जैनेतर वस्तु अनन्तधर्मात्मक होती है। उनमें से किसी एक सम्प्रदायों में चान्द्रायण व्रत करने का प्रचलन रहा है। निश्चित धर्म का ग्रहण करने वाला ज्ञान नय कहलाता स्वय चन्द्रमा के द्वारा चान्द्रायण व्रत किये जाने के व्याज है । इसके द्रव्याथिक और पर्यायाथिक के भेद से दो भेद से हरिवंशकार ने इस व्रत के प्रचलन का उल्लेख किया हैं--इनमे द्रव्याथिक नय यथार्थ है और पर्यायाथिक तय है। (३४वा सर्ग)। ३२. हरिव शपुराण, ३४३५२-५५। ३३. हरिवशपुराण, ३४१५७-५८। ३४. हरिवशपुराण, ३४१६० । ३५. तत्वार्थश्रद्धानम् सम्यग्दर्शनम्, तत्वार्थसूत्र, ११२ ३६. हिसानृतचौर्यम्यो मैथुनसेवापरिग्रहाम्या च । पाप प्रणाणिकाम्या विरति: संज्ञस्य चारिज्ञम् ।। ३७ हरिवशपुराण, १०७ । -रत्नकरण्डश्रावकाचार ।। ४६ ।। ३८. इस व्रतमे कृष्ण प्रतिपदा के दिनसे चन्द्रमा घटने के साथ-साथ प्रतिदिन एक-एक ग्रास भोजन घटाते हुए ममावस्या के दिन पूर्ण निराहार रहा जाता है, और शुक्ल प्रतिपदा को एक ग्रास भोजन लेकर प्रतिदिन एक-एक ग्रास बढ़ाते हुए पूर्णिमा के दिन केवल १५ ग्रास माहार लिया जाता है। इस प्रकार यह व्रत एक मास मे पूर्ण होता है। श्रावकाचार । ५ ग्रास माहार शुक्ल प्रतिपदा को प्रतिदिन एक-एक Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'जन' हरिवंशपुराण कालीन भारत को सांस्कृतिक झलक एस. प्रेमचन्द जैन एम. ए., पी-एच. डी. प्रत्येक युग का सच्चा साहित्यकार, कवि या महाकवि हरिवंशपुराण के ११वें सगं में वणित भगवान ऋषभदेव स्वयं अपने समय की भौगोलिक, सामाजिक, राजनैतिक और को दीक्षा के प्रकरण में चारों दिशामों के अनेक नगरो के ऐतिहासिक परिस्थितियो के परिप्रेक्ष्य मे एवं पृष्ठभूमि के उल्लिखित होने से होती है---कुरूजागल, पांचाल, सुरसेन, पट पर ही अपने वर्ण्य विषय के काल को प्रमक स्थिति पटंचर, यवन, अभीर और भद्रक, क्वाथतोय, तुलिगं, के चित्र की रेखाए अक्ति करता है। चाहे वह किसी भी काशी, कोशल्य, भद्राकार, वृकार्थक, सोल्व, ग्रावष्ट, त्रिगर्त, काल की स्थितियो का वर्णन करे, परन्तु उसके अनुमान कुशाग्र, प्रात्रेय, काम्बोज, शूर, बाटवाना, कैकय, गान्धार, का प्राधार तो उसका वर्तमान ही होता है। इसी वर्तमान सिन्धु. सौवीर, भारद्वाज, दशरूक, प्रास्थाल भोर तीर्णके तट पर, उसकी कल्पना रूपी तूलिका मन-माने रग कर्ण ये देश उत्तर दिशा की पोर थे। मग, अंगारक, भर-भरकर नये-नये चित्र बनाती है । उसका सजागरूक पोण्ड, मल्ल, युवक, मस्तक, प्राग्ज्योतिष, वग, मगध, यत्न रहता है कि वह पाठक को वर्तमान से उठाकर, मानवतिक, मलद और भागर्व ये देश पूर्व सीमा मे स्थित उसके मानस को अपने वर्ण्य काल के स्तर पर ले जाये थे। वाणमुक्त, वेदर्भमाणव, सक्कापिर, भूलक, अश्मक, और इस यत्न में उसे जितनी सफलता मिलती है, वहीं दाण्डिक, कलिंगं, पाशिक, कुन्तल, नवराष्ट्र, माहिस्क, उसके साहित्य साफल्य का मापदण्ड बनती है । पर सम- परूष. और भौगवर्दन ये दक्षिण दिशा के देश थे । माल्य, सामयिक युग की स्थितियों का सही-सही चित्रण भी कल्लीवनोपान्त, दुर्ग, सुपार्ट, कवुक, काशि, नासारिक, उसके साफल्य की उतनी ही महत्त्वपूर्ण कसौटी है जितनी प्रगत, सारस्वत, तापम, महिम, भरूकच्छ, सुराष्ट्र और कथा-वस्तुगत वर्ण्य काल के चित्रण की। इस दृष्टि से नर्मद ये पश्चिम दिशाके देश थे । दशार्णक, किष्किन्ध, त्रिपुर, जिनसेनाचार्य ने तत्कालीन भारत की भौगोलिक स्थिति, पावत, नषध, नेपाल, उत्तमवर्ण, वैदिश, अन्तप, कौशल, देश, प्रान्त और प्रमुख पर्वत, नगर, नदिया, वृक्ष, वन- पत्तन और विनिहार ये देश विन्ध्याचल के ऊपर स्थित थे। स्पतिया, पशु-पक्षी, दक्षिण से लगाकर उत्तरपूर्व और उत्तर. भद्र, वत्स, विदेश, कुश, भग, संगव और वञ्चखण्डिक ये पश्चिम के दक्षिण पथ के मार्ग और विंध्य के उत्तर म देश मध्यदेश के प्राधित थे । इनमे वत्स, अवन्ती, कौशल उत्तर के प्रमुख महाजनपों के सम्बन्ध मे प्रभूत व और मगध मे राजतन्त्र था, बाकी गणतान्त्रात्मक थे। प्रामाणिक जानकारी प्रदान की है। देश के तत्कालीन राजतन्त्रों का राजा निरंकुश नहीं होता था, यह सामाजिक जीवन, व्यापार, कृषि, शिक्षा, साहित्य, मंत्रिपरिषद की राय से कार्य करता था और प्रजा की सामाजिक रीतिरिवाज एव धार्मिक विश्वासो तथा भावना का समादर करता था। गणतन्त्र में कहीं एक प्रामीण व नागरिक जीवन का सटीक परिचय प्राप्त करने मुख्य राजा होता था, कहीं गणराजापो की परिषद् थी, की दृष्टि से भी यहां प्रचुर सामग्री उपलब्ध होती है। कही मुख्य राजा होते हुए भी गणपरिषद प्रधान थी और देश की राजनैतिक अवस्था के सम्बन्ध मे कवि ने प्रत्यक्ष कही मुख्य-गण बारी-बारी से राज्य करते थे। कुछेक तो नहीं परन्तु अप्रत्यक्ष रूप से जो सकेत दिये है उनसे महत्त्वाकाक्षी विस्तार-लोलुप सम्राट भो थे । गणतन्त्री से तत्कालीन समय की राजनैतिक अवस्था का अच्छा वोष इनके सम्बन्ध अच्छे नहीं थे और कभी-कभी वे युद्ध तक हो जाता है। कर बैठते थे । गणतन्त्रों के सम्बन्ध आपस में प्रायः पच्छे भौगोलिक स्थिति थे। कारण विशेष में कभी कभी कुछ विवाद भी उठते भारतवर्ष के भौगोलिक विभाजनों का कवि का ज्ञान रहते थे। नदी, जल, परिवहन, ग्राम प्रादि के कारणों से विशद पौर प्रामाणिक था । इसकी अनुभूति हमें विवाद उठना ही इनमे मुख्य था। कभी-कभी किसी १. हरिवशपुराण, १११५७-७४ । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४, वर्ष ३१, कि०२ अनेकान्त कन्या को लेकर भी झगड़े खड़े हो जाते थे। वैश्य और शूद्र) की स्थिति ज्ञात होती है, पर उनके घेरे राजा का पद परम्परागत होता था। राजा के अप- कठिन नही थे। चारों वर्गों के अतिरिक्त भी समाज में दस्थ होने पर उसका ज्येष्ठ पुत्र राज्याधिकारी होता व्यावसायिक और प्रौद्योगिक वर्ग थे, इनमे राजक, था।' पुत्र-विहीन राजा का उत्तराधिकारी उसकी पुत्री चाण्डाल, चर्मकार, स्वर्णकार, दारुशिल्पी प्रादि प्रमुख थे। का पुत्र होता था। राज्यासन पर पदारूढ़ होने से पूर्व प्राचीन काल से ही विवाह जीवन की सर्वोत्कृष्ट अभिषेक होने की परम्परा थी। घटना मानी जाती है। उसका इस काल में ह्रास देखने इस काल का भारतीय समाज युद्ध-विज्ञान में प्रर्याप्त को मिलता है । विवाह अब दैविक विधान न रह कर, उन्नति कर चुका था। स्वार्थ सिद्धि के लिये देव, असुर, योग्यता, पराक्रम और शक्ति का मापदण्ड रह गया था। मानव और पशु सबका चरम साधन एकमात्र युद्ध ही इस काल में स्मृतियों में प्रतिपादित पाठ प्रकार के विवाहों था। पशुप्रो और मनुष्यों में भी युद्ध होने के उदाहरण मे से ब्राह्म, प्राजापत्य और पार्ष को ही धर्मसम्मत माना दृष्टिगत होते है। जाता था। अन्य विवाहों के प्रकार (पासु, गान्धर्व, इस काल मे रथयुद्ध, पदातियुद्ध, मल्लयुद्ध, दृष्टियुद्ध राक्षस और पंशाच) को निन्दनीय या परित्याज्य माना जलयुद्ध, प्रभृत्ति विविध प्रकार के युद्धो के उदाहरण जाता था।" मिलते है। युद्ध में प्रमुखत: हाथी, घोड़, रथ, पैदल इम काल मे उक्त पाठ विवाह विधियों में से कोई भी सैनिक, बैल, गान्धर्व और नर्तकी ये सात अंग होते थे। एक विशुद्ध रूप में प्रचलित नही थी। समाज में ऊंचे व्पूहों मे क्रौच, गरुड़, चक्रादि के उल्लेख प्राप्त होते है। आदर्शों के बीच स्थान न मिलने पर भी गान्धर्व व राक्षस मसि, उलखल, कायत्राण, कार्मूक, कोमुदगदा, खग, खुर, विधि का प्रसार था ।" अन्य विवाहों में वाग्दान से, गदा, गाण्डिव, चक्र जानु, तल, तोमर, त्रिशूल, दण्ड, भविष्यवाणी से, साटे से विवाह," विधवा विवाह एवं वाणादि अनेक प्रकार के शस्त्रास्त्र थे । कतिपय शस्त्रास्त्री विधुर विवाह आदि भी प्रचलित थे। समाज मे बहपत्नी में अद्भुत चमत्कृतिपूर्ण अलौकिक शक्ति भी विद्यमान प्रथा" प्रचलित थी। मातुल कन्या से विवाह सम्भव थी। गज, घोड़े, रथ, ऊँट, खच्चर प्रादि भी युद्ध की था।" चारुदत्त का विवाह उसके मामा की लडकी से सवारियां थी। राजमहिषियां भी रण-कौशल मे निष्णात किया गया था (२१/३८)। अर्जुन और सुभद्रा का सम्बन्ध होती थी और प्रावश्यकता पड़ने पर युद्ध भी करती थीं। भी ऐसा ही था। विवादो विकसित व्यक्तियों का कभी-कभी अपने पतियो की सहायतार्थ भी युद्ध मे साथ सम्बन्ध था। कन्याएं पिता के घरमे ही युवा हो जाया करती साथ जाती थीं।" थीं। प्रथानों में दहेज प्रथा का भी उल्लेख है। यद्यपि सामाजिक जीवन स्पष्ट रूप से 'दहेज' शब्द का न नाम माता है और न हरिवंशपुराण मे एक सगठित समाज का स्वरूप उसकी मांग की जाती थी। खुशी से लड़की बाला लड़के मिलता है। समाज मे चारों वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, को यथाशक्ति मौर यथेच्छानुसार कुछ दे देता था। २. हरिवंशपुराण, २७१५४, २११११२ । ३. हरिवंशपुराण, २७१४७-६०। ४. लेखक का शोध प्रबन्ध, पृ०८६ । ५. हरिवशपुराण, ४२१८०, ५०१०३-१०४,४२१८१६ हरिवंशपुराण, ३६।३०-३४, २४१८, ११२९४,३६४१. ४३, ३६।४५। ७. हरिवंशपुराण, १११८०-८२। ८. हरिवंशपुराण, ११३८३ । ६. हरिवंशपुराण, ५०११०२-११०। १०. हरिवंशपुराण ५२१५। ११. हरिवंशपुराण, ६।३६ । १२. पाटील, डा० के०के०, कल्चरल हिस्ट्री फोम वायुपुराण-पूना, १६६४, पृष्ठ १५६ । १३. हरिवंशपुराण, ४४१२१-२५, ४३३१७१-१७६, ४४।२६-३२, ४२१७४-६७, ४४१६-१६ । १४. हरिवशपुराण, ३३।१०.२६ । १५. (1) नारद स्मृति, १२०६७ । (1) बाल्वलकर, हिन्दू सोशल इंस्टिट्यूशन्स, बम्बई, १९३९ । (m) विवाह सम्बन्धी अध्याय-मल्टेकर : पोजीशन माफ वुमन इन ऐनशियन्ट इण्डिया, पृष्ठ १८१-१८३ । १६. हरिवंशपुराण, १२॥३२, २४१६, ४४॥३-५०, ५६।११६ । १७. हरिवंशपुराण, ३३०११-२४, ३३॥१३६, २११३८ । Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस समय स्त्री जाति का समाज में कोई स्वतन्त्र प्रचलित हो रहा है, वह पाश्चात्य देशों की देन नही है। स्थान नहीं था। स्त्रियां पुरुषों की इच्छा के अनुसार हमारे देश मे प्राचीन काल मे मुष्टियुद्ध का माम रिवाज उनके उपभोग के लिए उपकरण मात्र थी। स्त्रियों को था। श्री कृष्ण प्रौर बलभद्र ने चाणर और मष्टिक पहल. वान को मुष्टियुद्ध से ही पराजित किया था (३६/४५)। हरिवंशकालीन व्यक्ति का जीवन सभ्य और सुसज्जित प्राथिक जीवन था। वह विविध परिधानो द्वारा शरीर का प्रलकरण पाथिक दृष्टि से भी भारतवर्ष सम्पन्न था। कृषि, करता था। उसके वस्त्रो मे वासस, उपवासस नीवि, पशुपालन, व्यापार, वाणिज्य मोर कला-कौशल में भी यह कम्बल आदि प्रमख थे।" प्राभूषणों मे मुकुट, कुण्डल, देश काफी प्रगति कर चुका था। पान्तरिक व्यापार केयुर, चूडामणि, कटक, कंकण, मुद्रिका, हार, मेखला, के साथ ही विदेशो से जलपोतो के द्वारा व्यापार होता कटिमूत्र, कटक, रत्नावली, नपुर प्रादि का प्रचलन था था। यहा से कपास और बहुमूल्य रत्नादि का व्यापार (८/२६), प्रसाधन सामग्रियो भी अनेक थी। साधारण किया जाता था। दूर देशों या विदेशों से व्यापार के लिए से लेकर बहुमूल्य सामग्रिया व्यवहुत होती थी । चन्दन," कई व्यापारी समूह मे जाते थे और मार्ग दिखाने के लिए ककुम, अंगराग, पालक्त क, प्रजन, शतपाक, तेल, गध, सार्थ होते थे। सार्थों को मार्ग का पूरा ज्ञान होता था। प्रादि अनेक सुगन्धित द्रव्य मिश्रित लेप सिन्दूर, कस्तूरी, सार्थ सम्पन्न भी होते थे। वे व्यापारियों को निश्चित शुल्क माला, ताम्बल प्रादि के प्रयोग का उल्लेख मिलता है या भागीदारी के पाभार पर ऋण भी देते थे। सायों के (८वा मर्ग)। वृद्धाय प्राय: त्रिपुण्डाकार तिलक लगाती प्रपने पान, वाहन, चालक, वाहक, रक्षक मादि भी होते थी (२२/४७)। थे । प्राचीन भारत में सार्थों की भूमिका की विशेष जान. समाज में शाकाहारी और मासाहारी दोनो ही तरह के कारी डा. मोतीचन्द्र की पुस्तक 'सार्थवाह' से मिलती है। भोजन भोज्य होते थे। शाकाहारी भोजन मे जो, धान, व्यापार मे लेने देने के लिए निष्क, शतमान, गेहू, तेल, शाक, उडद, मूग आदि मुख्य थे ।" पशुओं का कार्षापण प्रादि का व्यापार था। मुद्रापों पर जनपद मास मांसाहारियो के लिए भोजन में सम्मिलित होता श्रेणी प्रथवा धार्मिक चिह्न हुमा करते थे । वाणिज्यथा। पेय पदार्थों मे दूध, सुरा, मधु" आदि उल्लेखनीय व्यापार पर राजकीय नियत्रण नही था । कर भाग भी माय है। भोजन करने के बाद सुगन्धि द्रव्यों से मिश्रित पानी के दसवे से छठे भाग तक सीमित था। विशेष परिस्थिसे कूरला किया जाता था। बाद मे पान-सुपारी तियो मे युद्ध, दुभिक्ष प्रादि" के समय यह अवश्य ध्यान खिलाई जाती थी। पान को थकने के लिये पीकदान भी रखा जाता था कि कोई अनुचित लाभ न ले सके । जंगलों, रखा रहता था। महाकवि वाण को कादम्बरी और हर्ष चरित में भी इनके उल्लेख प्राप्त होते है। दुर्गम स्थानो मे कही-कही दस्युदल भी सक्रिय होते थे। प्रोर अपराध बहुत कम होते थे। विधाम के लिए शय्या (प्रासन्दी), उपधान, पर्यकादि धामिक जीवन हुप्रा करते थे । मनोरंजन के लिए नाटक, गीत, वाय, यदि धर्म मौर विश्वास जाति या समाज की चित्रकला, द्यत-क्रोडा", वनविहार"जलको डा" प्रादि का उत्कृष्टता का द्योतक है तो हरिवशपूराण एक ऐसे व्यक्ति प्रमखता से प्रचलन था। विशेष अवसरों पर अनेक के धार्मिक जीवन का चित्र प्रस्तुत करता है जो तपः सामूहिक महोत्सव भी होते थे। प्रधान था। इस युग में प्राचीन धार्मिक परम्पगये टूट उन दिनों भी व्यायाम करने की प्रक्रिया प्राज जैसी रही थी। बलि, यज्ञादि क्रियाकाण्डों का स्थान भक्ति, ही थी। गोलाकार अवाडा होता था जिममे पहलवान उपासना, सत्कर्म और सदाचार ने लिया था। जैन, बौद्ध लोग अपने-अपने दावपेंच दिग्वाते थे । इस ग्रन्थ को देखने और वैदिक तीनो सस्कृतिया साथ-साथ चल रही थी। से यह भी पता चलता है कि प्राजकल जो यह मुष्टियुद्ध (शेष पृ० ६२ पर) १८. हरिवशपुराण, २६७ १७, ५॥१८-३८ । १६. हरिवशपुराण, २५।३०। २०. हरिवंशपुराण, ४७४२ । २१ हरिवशपुराण, १८११७१, १११११६, ३६।२७-२८, १८।१६१-१६३ । २२. हरिवंशपुराण, २१११०४.११० । २३. हग्विशपुगण, १८११७१।। २४. हरिवशपुराण, ६१.२३, ६१.५१, ६११३६, ६११२५ । २५ हरिवशपुगण, ३६.२७-२८ । २६. हरिवशपुराण, ८.५० । २७ - हरिवशपुराण, ४८।१४, ४६३, २११५४-६२ । २६. हरिवणपुराण. ५२।२६, १४॥१॥ २६ हरिवश गण, ५॥५१-५५ । ३० हरियापुराण, २४१८, ११ , ३६४१-४३ । ३१. हरिवशपुराण, २११७६। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R. N. 10591/82 वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन परातन नवाक्य-सची : प्राकृत के प्राचीन ४६ मूल-ग्रन्थों की पद्यानुक्रमणी, जिसके साथ ४८ टीकादि ग्रन्थों में उदधुत दूसरे पद्यो की भी अनुक्रमणी लगी हुई है । सब मिलाकर २५३५३ पद्य-वाक्यों की सूची । संपादक : मुख्तार श्री जगलकिशोर जी की गवेषणापूर्ण महत्त्व की ७ पृष्ठ की प्रस्तावना से अलंकृत, डा. कालीदास नाग, एम. ए., डी. लिट. के प्राक्कथन (Foreword) और डा० ए. एन. उपाध्ये, एम. ए.,डी. लिट. की भूमिका (Introduction) से भूपित है। शोध-खोज के विद्वानो के लिए प्रतीव उपयोगी, बडा साइज, मजिल्द । १५.०० प्राप्तपरीक्षा : श्री विद्यानन्दाचार्य की स्वोपज्ञ सटीक अपूर्व कृति, प्राप्तों की परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषयक सुन्दर विवेचन को लिए हए, न्यायाचार्य पं दरबारीलालजी के हिन्दी अनुवाद से युक्त, सजिल्द । स्वयम्भू स्तोत्र : समन्तभद्र भारती का अपूर्व ग्रन्थ, मुख्तार श्री जुगलकिशोरजी के हिन्दी अनुवाद तथा महत्त्व की गवेषणापूर्ण प्रस्तावना से सुशोभित । स्तुतिविद्या : स्वामी समन्तभद्र की अनोखी कृति, पापो के जीतने की कला, सटीक, सानुवाद मोर श्री जुगलकिशोर मुख्तार की महत्त्व की प्रस्तावनादि से. अलकृत, सुन्दर, जिल्द-सहित । १.५० मण्यात्मकमलमार्तण्ड : पंचाध्यायीकार कवि गजमल की सुन्दर प्राध्यात्मिक रचना, हिन्दी-अनुवाद-सहित। १.५० पुक्त्यनुशासन : तत्त्वज्ञान से परिपूर्ण, समन्तभद्र की अमाधारण कृति, जिसका अभी तक हिन्दी अनुवाद नही हुमा था। मुख्तार श्री के हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादि से अलकृत, सजिल्द । ... १-२५ समीचीन धर्मशास्त्र : स्वामी समन्तभद्र का गृहस्थाचार-विषयक प्रत्युत्तम प्राचीन ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोर जी के विवेचनात्मक हिन्दी भाष्य और गवेषणात्मक प्रस्तावना से युक्त, सजिल्द । ... ३.०० अनग्रन्थ-प्रशस्ति संग्रह, भाग १: सस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रन्थो की प्रशस्तियो का मगलाचरण सहित अपूर्व संग्रह, उपयोगी ११ परिशिष्टो और ५०परमानन्द शास्त्रो की इतिहास-विषयक माहित्य परिचयात्मक प्रस्तावना मे अलकृत, सजिल्द । ... समाधितन्त्र और हष्टोपदेश : अध्यात्मकृति, प० परमानन्द शास्त्री की हिन्दी टीका सहित ४.०० भवणबेलगोल और दक्षिण के अन्य जैन तीर्थ : श्री राजकृष्ण जैन अध्यात्म रहस्य : पं. प्राशाधर की सुन्दर कृति, मुख्तार श्री के हिन्दी अनुवाद सहित । १०० जनप्रन्य-प्रशस्ति संग्रह, भाग २ : अपभ्रश के १२२ अप्रकाशित ग्रन्थो की प्रशस्तियो का महत्त्वपूर्ण सग्रह। पचपन प्रन्थकारो के ऐतिहासिक प्रथ-परिचय और परिशिष्टों सहित। स. प. परमानन्द शास्त्री । सजिल्द। १२.०० ग्याय-दीपिका : मा अभिनव धर्मभूषण की कृति का प्रो. डा० दरबारीलालजी न्यायाचार्य द्वारा स० अनु०। ७.०० न साहित्य पोर इतिहास पर विशद प्रकाश : पष्ठ संख्या ७४, सजिल्द । ५-०० कसायपाहडसुत्त : मूल प्रन्थ की रचना प्राज से दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुणधराचार्य ने की, जिस पर श्री पतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चूर्णिसूत्र लिखे । सम्पादक पं हीरालालजी सिद्धान्त-शास्त्री। उपयोगी परिशिष्टो और हिन्दी अनुवाद के साथ बड़े साइज के १००० से भी अधिक पष्ठों मे। पृष्ट कागज और कपडे की पक्की जिल्द । २०.०० Reality : प्रा० पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि का अंग्रेजी मे पनुवाद । बडे माकार के ३०० पृ., परको जिल्द भन निबन्ध-रत्नावली : श्री मिलापचन्द्र तथा श्री रतनलाल कटारिया ०-५० ध्यानशतक (ध्यानस्तव सहित) : सपादक पं० बालचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री १२.०० भाषक धर्म संहिता : श्री दरयावसिंह सोषिया जैन लागावली (तीन भागों में): (तृतीय भाग मुद्रणाधीन.) प्रथम भाग २५.००%, द्वितीय भाग २५.०० Jain Bibliography (Universal Encyclopaedya of Jain References) (Pagcs 2506) (Under print) प्रकाशक-वीर सेवा मन्दिर के लिए रूपवाणी प्रिटिंग हाउस, दरियागज, नई दिल्ली-२ से मुद्रित । ४.०० ६.०० Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैमासिक शोध-पत्रिका अनेकान्त साहू शान्तिप्रसाद जैन स्मृति अंक FREE । सम्पादन-मण्डल हान्योतिप्रसाद जैन डा.प्रेमसागर जैन श्री गोकुलप्रसाद जैन . सम्पादक श्री गोकुलप्रसाद जैन एम.ए., एल-एल. बी., साहित्य रत्न RE s APR वर्ष ३१ : किरण ३-४ जनवरी-दिसम्बर १९७८ वार्षिक मूल्य ६) रुपये इस अंक का मूल्य: ६ रुपये वारमना श्री साह शातिप्रसाद जैन Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर-सेवा-मन्दिर के यशस्वी संरक्षक वीर-सेवा-मन्दिर के यशस्वी संरक्षक बम्बई, के सुप्रमिद्ध उद्योगपति श्री माह श्रेयामप्रमाद जैन का जन्म नजीबाबाद (जिला बिजनौर) के प्रतिष्ठित जमीन्दार घराने मे ३ नवम्बर, १९०८ को हना था। साह जी बड़े उदारमना, दानवीर, राष्ट्रमेवी एव धर्मनिष्ठ है तथा समाज सेवा, नागरिक सेवा, शैक्षिक एवं माहित्यिक सेवा के प्रति समर्पित है। मापने अल्पायु मे ही अपने परिवार के दायित्व को सम्भाल लिया था। प्रापको नजीबाबाद म्युनिमिपल्टी का उपाध्यक्ष एवं बिजनौर एजुकेशन समिति का अध्यक्ष चुना गया । इसके पश्चात् प्रापका जीवन क्रान्तिकारी प्रवृत्तियों की प्रार हो गया जिससे मापने देश की प्राजादी के लिए राष्ट्रीय प्रांदोलन मे सत्रिय भाग लिया। सन् १९४३ मे प्रारको "भारत छोड़ो" माम्दोलन में भाग लेने के कारण गिरपतार कर लिया गया और लाहौर जेल में दो माह तक रखा गया। उद्योग के क्षेत्र में प्रापको प्रशमनीय पोर सराहनीय सेवाग्रो के कारण प्रापका सदा उच्च स्थान रहा है जिमसे विगत वर्षों में प्राप देश को विभिन्न व्यावसायिक संस्थानो के अध्यक्ष रहे है । इनमे प्रमुख है : फेडरेशन ग्राफ इण्डियन चैम्बर्स आफ कामर्म एण्ड इण्डस्ट्रीज, नई दिल्ली; इण्डियन नेशनल कमेटी-इण्टरनेशनल चैम्बर्म प्राफ कामसं, ऐल्कली मैन्युफैक्चरर्स एसोसियेशन माफ इण्डिया, बम्बई; आर्थिक सहयोगार्थ ऐको-एशियन मार्ग नाइजेशन । इसके साथ-साथ प्रापका क्षेत्र इतना व्यापक बनता गया कि श्री साह श्रेयास प्रसाद जैन प्राप इन्जीनियरिंग, वस्त्र, रबड़, पाटोमोबाइन, रासायनिक और विद्युत् मादि की वस्तुग्रो के निमाताप्रो की परिषद् के डाइरेक्टर हुए । प्रापका जैन ममदाय से मुविशिष्ट स्थान है जिससे पाप अनेको मामाजिक, धार्मिक और साहित्यिक संस्थाओं के सरक्षक है और माथ ही अनेको सगठनो के ट्रस्टी है। प्राप अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन परिषद् और भारत जंन महामण्डल के भी अध्यक्ष रहे। प्राप महावीर कल्याण केन्द्र, बम्बई के अध्यक्ष है जिसके माध्यम से प्रापने अकाल व बाढ़-पीडिनो के कार्यों में अभिरुचि लेकर पूर्ण सहयोग दिया। प्रापको मेवानो के मम्मानस्वरूप प्रापको महाराष्ट्र सरकार ने स्पेशल एग्जीक्यूटिव मैजिस्टेट नियुक्त किया। भाप जस्टिम प्राफ पीस रहे तथा छह वर्ष तक मंसद् सदस्य रहे। साहू जी महाराष्ट्र के महानगर बम्बई के 'बम्बई हास्पिटल ट्रस्ट' के ट्रम्टो एव अध्यक्ष है। प्रापने १६५७ में भारतीय प्रौद्योगिक प्रतिनिधि मण्डल के सदस्य के रूप मे अमेरिका व रूस की यात्रा की . जिममे भारत के अन्य देशो के साथ व्यापार में वृद्धि हुई। मापने सितम्बर १६६७ व १६७० मे जापान-भारत प्रति. निधि मण्डल के सदस्य के रूप मे जापान यात्रा को । प्रापकी भारतीय धर्म दर्शन, इतिहास तथा सास्कृतिक विषयो के अध्ययन में भी प्रान्तरिक प्रभिरुचि है। भारतीय कला एवं पूगतत्व के क्षेत्र में भी प्रापने महत्वपूर्ण कार्य किया। भारतीय भाषाप्रो की शिरोमणि सस्था भारतीय ज्ञानपीठ के प्राप अध्यक्ष है। पाप भारतवर्षीय दिगम्बर जैन तीर्थ क्षेत्र कमेटी के कोषाध्यक्ष तथा वैशाली प्राकृत, जैन धर्म वसा शोध संस्थान के अध्यक्ष हैं। भगवान महावीर के २५००वें निर्वाण महोत्सव के कार्यक्रमों को सफल बनाने से प्रापका बड़ा योगदान रहा है। ग्राप चागे सम्प्रदायों की प्रोर से गठिन "भगवान महावीर मेमोरियल समिति" के कार्याध्यक्ष है । पापको दिगम्बर जैन समाज को उत्कट प्राकांक्षा के अनुरूप, आपके कनिष्ठ भ्राता म्व० साह शान्ति प्रमाद जी द्वारा स्थापित, दिगम्बर जैन महाममिति के अध्यक्ष का, उनके निधन पर, दायित्व भार सौपा गया। 200 Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय स्वनामधन्य स्व० साह शान्तिप्रसाद जैन वर्तमान युगीन जैन जगत की अप्रतिम विभूति थे। सन् १९११ मे नजीबाबाद (जिला बिजनौर, उत्तर प्रदेश) के साहू घराने मे, प्रसिद्ध साहू सलेखचन्द्र जी के पौत्र और साहू दीवानसिंह के कनिष्ठ पुत्र के रूप मे माता मूतिदेवी को कुक्षि से इउ महाभाग का जन्म हुमा था। लगभग २३-२४ वर्ष की मायु मे विद्यार्थी जीवन समाप्त करके मोर सेठ रामकृष्ण डालमिया की सुपुत्री स्व. रमारानी के साथ विवाहित होकर वह कर्मक्षेत्र मे उतरे। पुण्य और पुरुषार्थ का कुछ ऐसा सुखद सयोग हुमा कि वह लौकिक प्रभ्युदय मे द्रुतवेग से उत्तरोत्तर वृद्धि करते गये, यहां तक कि दो दशको के भीतर ही वह चोटी के भारतीय उद्योगपतियो मे परिगणित होने लगे। साथ ही, धर्म, संस्कृति, समाज एव भारतीय जन सामान्य की सेवा को ऐसी विलक्षण लगन थी कि इन क्षेत्रो मे उन्होने अनगिनत श्रेष्ठ उपलब्धिया प्राप्त की, जो उनके जीवनोपरान्त भी उनकी स्मृति को सजीव बनाये हुए है और बनाये रक्खेगी। स्वभावतः उन्हे यश, मान और प्रतिष्ठा भी प्रभूत मिले; सत्कार्यो के करने मे जो प्रानन्द और प्रात्मसन्तोष मिलता है, वह तो मिला ही। लगभग ६६ वर्ष की प्रायु में दिनाक २७ अक्तूबर, १९७७ को कालकवलित होने तक, लगभग चार दशक साह शान्तिप्रसाद जैन, जैन समाज के तो सर्वमान्य सर्वोपरि नेता एवं प्रायः एकच्छत्र सम्राट बने रहे। निश्चय ही उनका शील, सौजन्य, उदाराशयता, दानशीलता, सामाजिक चेतना, उत्साह और लगन इस मान-प्रतिष्ठा के कारण थे । अनेक धर्म एव सम्प्रदाय-निरपेक्ष लोकहितकारी प्रवत्तियो के अतिरिक्त प्रायः सभी जैन तीर्थों को, अनगिनत जैन सस्थानों, संगठनो एव प्रवृत्तियों को तथा दर्जनों सास्कृतिक एवं शिक्षा संस्थानो को उनसे उदार सरक्षण एवं पोषण प्राप्त हुआ। मखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन परिषद तो उनके जीवनकाल मे प्रायः उन्ही के अवलम्बन पर जीवित रही। कम से कम पूरे दिगम्बर जैन समाज में एकता, एकसूत्रता स्थापित करने के उद्देश्यो से, अपने निधन से कुछ ही पूर्व उन्होने दिगम्बर जैन महासमिति की स्थापना के लिए सफल प्रेरणा दी। स्व०प० जुगलकिशोर जी मुख्तार के साहूजी प्रारम्भ से ही बड़े प्रशंसक थे। प्रतः वह मुख्तार साहब द्वारा सस्थापित वीर-सेवा-मन्दिर और 'अनेकान्त' पत्रिका को सदैव सरक्षण प्रदान करते रहे। मुख्तार साहब द्वारा चलाये गये 'वीर-शासन-जयन्ती' अभियान को साहजी का पूरा समर्थन प्राप्त हुमा, और उनके तथा स्व. बाबू छोटेलाल जी के सत्प्रयत्नो एव सहयोग से ही सन् १९४४ को श्रावण कृष्ण प्रतिपदा के प्रातःकाल राजगह के विपुलाचल पर वीरशासन का २५००वी जयन्ती ससमारोह मनाई गई। भगवान के उक्त पुनीत प्रथम देशना स्थल पर शिलालेखाकित स्मारक स्थापित किया गया और 'वीरशासन सघ' के नाम से दस लाख रुपये का एक विशाल योजना बनी। कतिपय कारणो से वह योजना सफल न हो सकी, जिसका साहजी भोर छोटेलाल जी, उसके उक्त दोनो ही कर्णधारोको दुःख हमा। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रब विकल्प हप मे उन्होने निश्चय किया कि वीर-सेवा-मन्दिर को सरसावा जैसे छोटे-से कस्बे से हटाकर राजधानी दिल्ली में लाया जाय और अधिक व्यवस्थित रूप से चलाया जाय । अतएव दिल्ली के दरियागंज मे भूमि लेकर एक चौम जिला विशाल भवन 'धोर-सेवा-मन्दिर' के नाम से निर्माणित हुमा, और संस्था एव उसके मधिष्ठाता महतार साहब भी वहा स्थानान्तरित हो गये। संस्था की नई सोसाइटी, ट्रस्ट, विधान प्रादि भी बन गये और कार्य होने लगा। यह बात दूसरी है कि कतिपय मतभेदों के कारण कुछ समय बाद मुख्तार साहब ने स्वयं को सस्था से प्रत्यक्ष रूप मे पृथक् कर लिया, किन्तु सस्था चलती रही मोर साहूजी उसका संरक्षण बराबर करते रहे। 'अनेकान्त' जब सरसावा से प्रकाशित होता था तब भी साहूजी ने उसके मुद्रण-प्रकाशन की बेहतरी एवं सुविधा के लिए उसे अपने भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित कराना प्रारम्भ कर दिवा था। यह व्यवस्था भी कुछ ही वर्ष चल पायी। तथापि वीर-सेवामन्दिर मोर 'मनेकान्त' पर उनका प्रेम बराबर बना रहा, और ये दोनो माज भी जो जीवित एव सक्रिय है, उसका बहुत-कुछ श्रेय साहूजी को है। प्रस्तु, वीर-सेवा-मन्दिर एवं 'भनेकान्त' के लिए यह उचित ही था कि वे अपने उस परमोपकारी महानुभाव के स्वर्गस्थ हो जाने पर उनकी स्मृति में कम से कम एक उपयुक्त विशेषांक तो निकाल ही दें। इसी प्राशय से इस विशेषांक की योजना बनी, और भले ही कुछ विलम्ब से, यह अपने पाठको के हाथ में है । विशेषांक की तैयारी में उसके सम्पादक श्री गोकुलप्रसाद जैन ने जो मोत्साह श्रम किया वह सराहनीय है। वीर-सेवा-मन्दिर के महासचिव श्री महेन्द्रसेन जनो का भी पूरा सहयोग प्राप्त हुना। संस्था एवं पत्र के अन्य प्रेमियों, विद्वान लेखको प्रोर स्व० साहजी के प्रशसको के अमूल्य सहयोग के लिए भी सम्पादक-मण्डल माभारी है। अन्त मे, हम प्रबुद्ध समाजचेतना एव सस्कृति-सेवी तथा अपने चिरस्मरणीय महामना स्व० साहू शान्तिप्रसाद जैन की स्मृति में अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। ज्योतिप्रसाद जैन ज्योति निकुञ्ज, चारबाग, लखनऊ-१ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका विषय विषय १. श्री वर्द्धमान स्तधन १७. अनुपम मादर्श जीवन-स. प्रेमचन्द रावका २६ व्यक्तित्व और कृतित्व १८. उन्हे श्रमण दीक्षा को प्राकाक्षा थी २. नररत्न साहू जी और जैन सस्कृति का उद्धार -श्री गणेश ललवानी २७ - श्री प्रगरचण्द नाहटा, बीकानेर २ १६. उनको लगन और दृष्टि-मनिश्री यशोविजयजी २६ ३. साहू जी घोर भावी समाजोत्थान योजना २०. सामाजिक इतिहास का एक युगात -डा० विद्याधर जोहरापुरकर, जबलपुर ३ -~ी चन्दन मन ४. जैन समाज के शिरोमणि-श्री भगतराम जैन, २१. उनके नेतृत्व का फल-श्री मिश्रीलाल पाटनी ३२ दिल्ली २२. प्रादर्श व प्रभूतपूर्द व्यक्तित्व ५. सौजन्य-मूर्ति साहू जी : कुछ सस्मरण -श्री ममतप्रकाश जैन, दिल्ली -प० पन्नालाल साहित्याचार्य, सागर २३. जैनत्व के जीवन्त प्रतीक ६. प्रादर्श समाज नेता--श्री वशीघर शास्त्री, -डा. राजेन्द्र कुमार बमल, शहडोल जयपुर ७. ज्यातिमय व्यक्तित्व-श्री मिश्रीलाल जैन, गना २४. अनम् को सालती स्मृति ८. संगत श्री-सरस्वत्योः - डा. हरीन्द्रभूषण जैन, -डा. शोभनाथ पाठक, मेघनगर ___ एम. ए., पी.एच. डी, उज्जैन . २५. समाज और राष्ट्र की सेवा के लिए समर्पित ६. साह शान्तिप्रसाद . सेठ और साधु व्यक्तित्व-श्री सत्यधर कुमार सेठी, उज्जैन ३६ -डा० प्रेमसागर जैन, बडौत ११ ३६ पुरातत्व के प्रमर प्रेमी-डा. सुरेन्द्र कुमार पायं, १०. बीसवीं सदी के भोज-श्री कुन्दनलाल जैन, उज्जन दिल्ली २७. महाप्रभावक श्रावक शिरोमणि ११. उदारमना सदाशय व्यक्तित्व -१० सुमेरचन्द्र जैन दिल्ली -डा० देवेन्द्रकुमार शास्त्री, नीमच २८. युग के भामाशाह-श्री लक्ष्मीचन्द्र 'सरोज', १२. पुण्यश्लोक प्रेरणाप्रद व्यक्तित्व जावरा -डा. रमेशचन्द जैन, बिजनौर २६. सरस्वती के पुजारी-श्रीमती रूपवती 'किरण' १३. माधुनिक भामाशाह- विद्यावारिधि हा. महेन्द्रसागर प्रचंडिया, अलीगढ़ जबलपुर १४. सरस्वती के परम उपासक ३०. दानवीर श्रावक शिरोमणि डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल, जयपुर -श्री महेन्द्रकुमार जैन, दिल्ली १५. महान् कर्मयोगी की जीवन-साधना ३१. सरस्वती के परम उपासक -पं० परमानन्द शास्त्री, दिल्ली २१ . -डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल, जयपुर १६. यशस्वी सरस्वती पुत्र-श्रीमती ३२. प्राधुनिक खारवेल-श्री विशनचन्द जैन, जयवन्ती देवी जैन, नई दिल्ली शिकारपुर Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सौजन्य-मूति श्री साहूजी गरिमाङ्कन : अटूट निष्ठा पोर धर्म-वत्सलता , JECr श्री साहजी के सान्निध्य में एक अविस्मरणीय सांस्कृतिक प्रायोजन Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोम् प्रहम् Bকান . परमागमस्य बीजं निषिखजात्यन्ध सिन्पुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमयनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ वीर-निर्वाण संवत् २५०५, वि० सं० २०३५ वर्ष ३१ किरण ३-४ जुलाई-दिसम्बर १६७८ श्री वर्द्धमान स्तवन श्रियं त्रिलोकीतिलकायमानामात्यन्तिकी ज्ञातसमस्ततत्वाम् । उपागतं सन्मतिमुज्ज्वलोक्ति वन्दे जिनेन्द्रं हतमोहमन्द्रम् ॥ श्रीवीर यथथ वचोरुचिरं न ते स्याद् भव्यात्मनां खलु कुतो भुवितत्त्वबोधः । तेजो बिना दिनकरस्य विभातकाले पमा विकासमपयान्ति किमात्मनैव ।। प्रस्नेहसंयतवशो जगदेकवीयश्चिन्तामणिः कठिनतारहितान्तरात्मा। अध्यालवृत्तिसहितो हरिचन्दनागस्तेजोनिधिस्त्वमसि नाथ निराकृतोष्मा । -वर्धमानचरिते असगः श्री वर्धमान-वचसा पर-मा-करण, रत्नत्रयोत्तम-निधेः परमाऽऽकरेण । कुर्वन्ति यानि मुनयोऽजनता हि तानि, वृत्तानि सन्तु सततं जनता हितानि ।। -सिद्धप्रियस्तोत्रे देवनंदिः जो तीनों लोकों में श्रेष्ठ, अविनाशी सर्वज्ञत्वलक्ष्मी को प्राप्त थे, जिनके वचन निर्दोष (पूर्वापर विरोष रहित) थे, और जिन्होंने मोहरूपी तन्द्रा को नष्ट कर दिया था, उन सन्मति जिनेन्द्र महावीर की मैं वन्दना करता हूँ। हे वीर जिनेन्द्र ! यदि प्रापके मनोहारी वचन न होते तो निश्चय से इस भूतल पर भव्य जीवों को तत्त्व-बोध कैसे होता? प्रभातकाल में सूर्य के तेज के बिना क्या कमल प्राप से प्राप विक सित हो जाते हैं ? हे नाथ ! पाप जगत के ऐसे द्वितीय दीपक हैं कि जिसकी दशा (बाती) स्नेह (तेल) रहित है (अर्थात् प्राप वीतराग दशा में स्थित हैं), प्राप चिन्तामणि (मनवांछित देने वाले रत्न) हैं, किन्तु प्रापकी अन्तरात्मा कठोरता (निर्दयता) से शन्य है. अाप हरिचन्दनतरु हैं किन्तु वहाँ सपो का प्रभाष है (अर्थात् आप परोपकारी दयालु चेष्टानों से युक्त हैं), पाप तेज के निधि है किन्तु (मन की) अम्मा (गर्व) का निराकरण करने वाले हैं। उत्कृष्ट लक्ष्मी के कारण, सम्यग्दर्शन-शान-चरित्ररूप रत्नत्रय के भडार, श्री बद्धपान के वचनों के पाश्रय से मुनिजन प्रात्महित माधन करते हैं और सामान्य जन प' प्रविकारी मन न करते हैं। उन भगवान का ऐसा वृत्त समस्त जनों के लिए सतत हितकारी हो ! 000 Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नररत्न साहू जी और जैन संस्कृति का उद्धार 0 श्री अगरचन्द नाहटा, वीकानेर मानव मानव में बहुत अन्तर है जैसे कि हीरे व एक मोर साहू जी ने माता के नाम से मूर्तिदेवी ग्रन्थमाला कांकरे में । एक मनुष्य दूसरो का हृदय सम्राट् बन जाता चालू को जिसमें बहुत से उत्कृष्ट जैन ग्रन्थों का प्रकाशन है, दूसरा दूसरों के लिए प्राफत बन जाता है। अपनी हपा व हो रहा है। दूसरो पोर, सर्वजनोपयोगी विविध प्रवृत्तियों से ही मनुष्य नर नारायण बन सकता है और प्रकार का उच्च स्तर का साहित्य प्रकाशित किया जा रहा अपनी दुष्प्रवृत्तियों मे पशु व नारकीय भी बन जाता है। है । साहित्य के क्षेत्र में इस प्रकार का व इतना बड़ा काम इसलिए जो जो व्यक्ति अपने गुणो का उत्थान करते है तथा जैन समाज मे तो दूसरे किसी ने नही किया। दूसरो के उत्थान में सहयोगी बनते है, वे सभी का आदर जैन तीर्थों के उद्वार में भी साहू जी ने मुक्तहस्त एवं पाते है व स्वय का भी कल्याण करते है। परन्तु अधिकतर उदार भाव से लाखों रुपये खर्च किये और अब भी लोग स्वार्थी होते है, परमार्थी बहुत ही कम । माहू जी उनके फण्ड से वह काम चाल है, निससे अनेको जैन तीर्थों, का जीवन हमारे मामने है। उन्होने अपनी खवं उन्नति मन्दिरो और मूर्तियों का संरक्षण हो सका । जैन शास्त्रानुकी। खूब धन कमाया, पर साथ ही अच्छे कामों में खूब सार नये मन्दिर व मूनि निर्माण की अपेक्षा जीर्णोद्धार मे लगाया भी। सभी से मदव्यवहार रखा। धन का मद माठ गुना फल माना गया है । साहू जी ने इस कार्य द्वारा नही किया। विलामिता म ये नही। अपने व्यवहार को बहुत बड़ा पुण्य अर्जन किया। साथ ही, नाम की भी बहुत संतुलित रखा, इसीलिए मभी के प्रिय भाजन हुए। कामना नहीं की। काम को ही महत्त्व दिया। यह विशेष हजारो हजारों मखो से उनकी प्रशसा के गीत गाये जाते रूप से उल्लेखनीय है । है भोर वे अपनी सुकृतियों से मर कर भी अमर बन गये। देवगढ के जैन कला धाम तीर्थ का दर्शन-वदन करने उनका कीर्तिध्वज बडी ही ऊँचाई पर लहरा रहा है। मै गया तो वहा देखा कि साहू जी ने वहां एक संग्रहालय उनकी सहृदयता सबके दिल मे घर कर गई है। भवन भी बना रखा है, जिसमे बहुत सी कलापूर्ण भव्य मूर्तियो का महत्त्वपूर्ण संग्रह है। इस संग्रहालय द्वारा नष्ट साहू जी ने थोड़े वर्षों में जितनी अधिक उन्नति की, होती हई उत्कृष्ट जैन कला कृतियों का सरक्षण हुमा देख उतनी बहुत ही कम व्यक्ति कर पाते है। उनकी नम्रता व उनके कलानुराग के प्रति सद्भावना जगी। सरलता, सज्जनता और उदारता से जो भी उनके सम्पर्क वैसे तो साह जी से हमारा परिचय काफी पहले से मे पाये, प्रभावित हुए । सौभाग्य से रमा देवी जैसी वि. था। कलकत्ते में उनके भवन मे जाने व उनसे बातचीत लक्षण और सुलक्षण वाली धर्मपत्नी उन्हे मिली। इससे करने का प्रसंग मिलता रहा है । पर भगवान महावीर के उनकी सुकृतियों को बढ़ावा मिला मौर चार पाद लग २५००वें निर्वाण महोत्सव के प्रसग से हमारी घनिष्ठता गये । भारतवर्ष में एक लाख रुपये का प्रतिवर्ष साहित्यिक बढ़ी। वे उस महोत्सव के कार्याध्यक्ष थे। अतः सदस्य पुरस्कार देने की योजना अभूतपूर्व थी। यद्यपि विदेशो में होने के नाते मेरा कई मीटिंगों में उनसे मिलना होता यह परम्परा भारत से पहले प्रारम्भ हो चुकी थी, पर रहा। मेरी साहित्य साधना और जैन धर्म की गहरी पैठ भारत में किसी का भी ध्यान इस ओर नही गया। अतः से वे भली भाति परिचित थे। मतः समय-समय पर वे मेरे साहू दम्पत्ति ने इसमे पहल की तथा सदा के लिए एक सामने अपनी जिज्ञासायें व प्रश्न रखते एवं परामर्श भी कीर्तिमान स्थापित कर दिया। भारतीय ज्ञानपीठ की लेते । उनके दिल्ली के व्यावसायिक कार्यालय एवं उनके स्थापना और इतने बड़े साहित्य के प्रकाशन का काम निवास स्थान पर भी जाने व बातचीत करने का अवसर भी जैन समाज के लिए अपने ढग का एक ही कार्य है। (शेष पृष्ठ ४ पेर) Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहू जी और भावी समाजोत्थान योजना डा. विद्याधर जोहरापुरकर, जबलपुर स्वर्गीय साह शान्तिप्रसाद जी से व्यक्तिगत प्रत्यक्ष दिखाई देती है। अब समय प्रा गया है कि हम पन: संपर्क होने का सौभाग्य हमे प्राप्त नही हुमा। फिर समीक्षात्मक अध्ययन पद्धति को अपनायें भोर सत्यान्वेषण भी उनके द्वारा वितित पौर संरक्षित साहित्यिक कार्यों को प्रादरभाव का बाधक न समझे। इस दृष्टि से विचार. में यत्किचित भाग लेन का अवसर अवश्य मिला। अतः णीय कुछ विषयों को सक्षिप्त चर्चा प्रस्तुत है। उनकी स्मृति मे पादराजलि के रूप में कुछ विचार प्रकट पुरातत्त्व : करना अपना कर्तव्य समझ कर यह लेख प्रस्तुत किया जा रहा है। भारतीय पुरातत्त्वज्ञों द्वारा खोजे गये सहस्रों शिलास्वर्गीय साहू जी के बहुविध यशस्वी कार्यों गे अन्तिम, लेखों से जैन समाज के प्रतीत के विषय मे बहुमूल्य जानभगवान महावीर के निर्वाण की पच्चीसवी शताब्दी के कारी मिली है और महावीरोत्तर युग का इतिहास पूर्ण होने पर प्रायोजित विशाल समारोह था। चार-पाच निश्चित करने मे जैन पण्डितो ने भी इस सामग्री से लाभ वर्षों तक चले इन विविध प्रायोजनों मे जैन समाज ने उठाया है। किन्तु महावीर पूर्व युग के विषय मे पुरातत्त्व अपने अतीत प्रौर वर्तमान के गौरव का विस्तृत अनुभव का उपलब्धिया के प्रान जन पण्डित उदासीन प्रतीत होते किया। दर्शन, साहित्य र कला के क्षेत्रो मे जैनी के है। भारत के शताधिक स्थानीक वैज्ञानिक उत्खनन योगदान पर विश्व के जन-जनेतर मनोपियो ने प्रशसा के परिणामो का सार संक्षेप पालचिन दपति के महत्त्वपूर्ण फल बरसाये। महावीर निर्वाण सबन की छब्धीसवी ग्रन्थ 'दि बर्थ प्राफ सिव्हिलाइझेशन इन इन्डिया' म 31. शताब्दी का प्रारम्भ अत्यन्त उत्माहवर्धक रूप मे हया। लब्ध है । इसम ज्ञात होता है कि ईसवी सन् पूर्व तइसवी इसमे सन्देह नही कि इस छब्बीसवी शताब्दी में भी हमारे शताब्दी तक भारतीय पाषाणयुग में ही थे। ई० पू० गौरव को अधिकाधिक उजागर करने वाले कार्यक्रम चलत तेईसवी शताब्दी मे कृषि पर पाधारित सभ्य जीवन के रहेगे । इसके साथ ही यह मावश्यक प्रतीत होता है कि साथ ताम्रयुग का प्रारम्भ हुमा जो लगभग एक सहनामो जन विचारक मात्मगौरव के कोष में लिपटे न रहें तथा तक चला मोर फिर ईवी सन् पूर्व दसवी-ग्यारहवी माधुनिक युग में प्राप्त नवीन ज्ञान-विज्ञान के प्रकाश में शताब्दी मे लोहयुग का प्रारम्भ हुप्रा। यहा ध्यान रखना प्रतीत की उपलब्धियों का यथार्थपरक मूल्यांकन भी होगा कि समयनिर्धारण के ये निष्कर्ष रडियाकाबंन विधिकरते चलें। इसी दृष्टि से कुछ विचार यहा प्रस्तत किये पर प्राधारित है --इन्हे भौतिक पदार्थ विज्ञान का ठोस प्राधार प्राप्त है -प्रतः कवल अनुमानात्मक कह कर विगत डेढ़ शताब्दी मे विकसित समीक्षात्मक अध्ययन इनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। इनके प्रकाश में भारत पद्धति का प्रयोग जन विद्या के क्षेत्र में स्व०५० मुख्तार में प्रार्य सम्पता के इतिहास का प्रारम्भ प्रब हम ईसवी जी, प्रेमी जी, जिनविजय जी प्रादि मनीषियों ने किया सन् पूर्व बाईसवी शताब्दी से करना होगा तथा हमारे है। इनके प्रयलों से विक्रम की दूसरी सहस्राब्दी के जैन पुराण पुरुषो की कथानो में वर्णित लाखो-करोड़ो वर्षों को साहित्य मे व्याप्त संकीर्णता और भ्रान्तियो को समझने में कालगणना को छोड़ना होगा। इस दृष्टि से वैदिक काफी सफलता मिली है। किन्तु इस पद्धात का प्रयोग पुराण कथापो के अध्ययन का उत्तम प्रयत्न १० द्वारका विक्रम की प्रथम सहस्राब्दी के साहित्य के विषय म प्रायः प्रसाद मिश्र के ग्रन्थ 'स्ट डीज इन दि प्राटा हिस्टरी ग्राफ नही हुमा है । इसके विपरीत, प्रतिक्रिया के रूप में इस युग इन्डिया' में मिलता है। जैन पुगण व.थायो क विषय म के प्राचार्यों के विषय मे पूजा की भावना अधिक बढ़ती ऐसे प्रयल अपेक्षित है। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, वर्ष ३१, कि० ३-४ अनेकान्त अन्तरिक्ष युग: संक्षेप में, जिस प्रकार स्वर्गीय साह जी ने उद्योग पृथ्वी और ग्रह-नक्षत्रों के प्राकार मोर गति के विषय के क्षेत्र में नवीन प्रवृत्तियों को प्रात्मसात् करने में सफलता में विभिन्न विचार-धारायें पुरातन समय में प्रचलित थीं। पाई, उसी प्रकार जन विचारकों को विद्या के क्षेत्र में वे प्रायः स्थूल निरीक्षण पर प्राधारित थी। प्रत' उनकी नवीन प्रवृत्तियों को प्रात्मसात् करना होगा। हमारा ग्राह्यता के विषय मे तर्क-वितर्क सम्भव थे। रूसी और विश्वास है कि नई पीढ़ी के अधिकतर जैन विद्वान यही अमरीकी वैज्ञानिकों द्वारा प्रवर्तित अन्तरिक्ष यात्रामों के चाहते हैं। किन्तु इस समय उनके विचार मापसी बतफलस्वरूप यह विषय प्रब प्रत्यक्ष ज्ञान की कक्षा में प्रा चीत या सीमित विद्वद्गोष्ठियों तक ही सीमित है। गया है तथा चन्द्र के धरातल पर खड़े होकर मानव द्वारा सामाजिक मंचों पर पुरातन के दोहराव की ही प्रवृत्ति लिए गए पृथ्वी के फोटो प्राप्त हो चुके है। इस नये ज्ञान लक्षित होती है। इस स्थिति में सुधार होकर, विद्वज्जन के प्रकाश में हमारे त्रिलोक वर्णन सम्बन्धी परम्परागत खले मन से विचार व्यक्त करें तो जैन विद्या को बड़ा विवरण परीक्षणीय है। खेद की बात है कि अधिकाश लाभ होगा। कार केवल प्रथमानुयोग और करणानुयोग जन पण्डित केवल श्रद्धा के बल पर पुराने विवरणों से केही विचारणीय विषयों की पोर सकेत किया गया है। चिपके रहना चाहते हैं। इसके अपवाद स्वरूप जैनेन्द्र- इसी प्रकार, प्राधनिक प्राणिशास्त्र प्रादि की उपलब्धियों सिद्धान्तकोश में क्ष० जिनेन्द्र वर्णी जी का यह अभिमत से हमारे चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग भी लाभान्वित पढ़कर हमे सुखद पाश्चर्य हुआ (भा० ३, पृ० ४५२) कि हो सकते है। श्रद्धालु समाज और विचारक इन दो वर्गों वर्तमान के भगोल की, जिसका प्राधार इन्द्रियप्रत्यक्ष है, में वर्तमान समय मे जो अन्तर पड़ा हप्रा दिखता है उसे अवहेलना करना या उसे विश्वासयोग्य न मानना युक्त यथासम्भव कम करना तो इसी दिशा में प्रयत्नों से सम्भव नही। इस दृष्टि का विस्तार अपेक्षित है। होगा। (पृष्ठ २ का शेषांश) मझे मिला है। इससे उनकी जैन धर्म के प्रति श्रद्धा और मिला व जो भी अच्छी बात उनके ध्यान मेश्रा गई, तुरंत धर्म की अधिक से अधिक सेवा करने की भावना, साहित्य कार्य रूप में परिणत की। यदि वे और कुछ वर्ष जीते तो कलानुराग एवं अनेक मानवोचित्र सद्गुणों का परिचय जो काम प्रघरे रह गये वे काफी हद तक पूरे हो जाते। पाकर उनके प्रति मेरी सद्भावना में वृद्धि होती रही है। जैन समाज के चारों सम्प्रदायों मे एकता लाने व बम्बई मे निर्वाण महोत्सव की मीटिंग थी और मैं दद करने के लिए उन्होने बहुत बड़ा प्रयत्न किया। भी उसमे गया था। वहां जन कला मर्मज्ञ पूज्य मुनि श्री अपनी प्रोर से पूर्ण सावधान रहे कि सभी सम्प्रदायों के यशोविजय जी के साथ जैन चित्रकला, मूर्तिकला मादि प्रमख मनियों व व्यक्तियों का अधिकाधिक सहयोग प्राप्त के सम्बन्ध में मैंने बहुत जिज्ञासा व अनुगग साहू जी किया जाय व किसी को भी ऐसा न लगे कि वे दिगम्बर मे पाया। दो दिन तक कई घण्टे वे मुनि जी के सम्पर्क मे का कुछ भी पक्षपात कर रहे है। दिगम्बर सम्प्रदाय की रहे प्रो काफी प्रेरणा प्राप्त की, इसका मै साक्षी हूं। एकताके लिए भी, अन्तिम समय मे भी, उन्होने बहुत अच्छा निर्वाण महोत्सव को अच्छा से अच्छा और अधिक से प्रयास किया। खेद है कि हम उन की भावना, कार्यक्षमता, अधिक प्रभावकारी रूप मे मनाने के लिए साहू जी मे तत्परता उदारता से जितना अधिक लाभ उठाना चाहिए जितना उत्साह देखा, उना और किसी में नही। वास्तव था, नही उठा पाये और निर्वाण महोत्सव के बाद मे जितना का- उन्होन किया उतना दूसरे किसी ने नही हमारी एकता व जागति मे बहुत कमी मा गयी। अतः किया । अपने विशाल व्यापार पर बहुत कम ध्यान देकर ऐसे समय में उनका प्राकस्मिक चला जाना बहुत ही वे निर्वाण महोत्सव की सफलता के लिए पूर्ण रूप से जुट प्रखरता है। उनके प्रभाव की पूर्ति असंभव सी हो गई गये। जिससे भी, जहां से भी, जो अच्छा सुझाव उन्हे है । एक नररत्न को हम खो बैठे हैं। 00D Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहू जी के ज्येष्ठ पुत्र श्री साहू प्रशोक कुमार जैन वोर सेवा-मन्दिर के वर्तमान अध्यक्ष E तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री मोरारजी देसाई के साथ परिवार के सदस्य [यें से बाय : श्री प्रशोक कुमार जैन, श्री साहजी, श्रीमती इन्दु जैन (पुत्र) एवं बीमासोक प्रकाश जंग] Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानपीठ पुरस्कार समारोह : श्री साहूजी तत्कालीन राष्ट्रपति श्री वी. वी. गिरि के साथ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन समाज के शिरोमणि श्री भगतराम जैन, दिल्ली उत्तर प्रदेश के अन्तर्गत नजीबाबाद के पुराने घरानों ही प्रत्यन्त प्रास्थावान रहे । मे साह जैन धराना बहुत प्रतिष्ठित रहा है । शान्तिप्रसाद साहू साहब ने अपने इन उद्देश्यों की पूर्ति को ष्टि जी का जन्म इसी नगर और घराने में सन् १९१२ मे मे रखते हुए प्रावश्यकता के अनुरूप अन्यान्य देशों हुधा था। उनके पितामह साह सलेकचन्द जैन थे। पिता ___ का भ्रमण-पर्यटन भी किया। सर्वप्रथम १९३६ मे वह श्री दीवान चन्द जी और माता श्रीमती मूर्तिदेवी जी थी। डच-ईस्ट इंडीज गये, फिर १९४५ में प्रास्ट्रेलिया और मापकी प्रारम्भिक शिक्षा नजीबाबाद के शिक्षा केन्द्रों १९५४ म सोवियत रूरा । ये तीनों यात्रायें उन्होंने भार. में हुई। हाई स्कूल करने के बाद प्रापने काशी विश्व- तीय प्रौद्योगिक प्रतिनिधि के रूप में की थी भोर परि. विद्यालय में प्रवेश किया। वहां से फिर प्रागरा विश्व- णामो की दृष्टि से ये प्रत्यन्त उल्लेखनीय मानी जाती विद्यालय में प्रा गये। प्रागरा विश्वविद्यालय से ही बी. है। ब्रिटेन, अमरीका, जमनी तथा अन्य कई योरोपीय एस-सी. परीक्षा प्रथम श्रेणी मे पास की। वस्तुतः देशो का भी प्रापने परिभ्रमण किया और अनुभवों के प्रापका समूचा विद्यार्थी जीवन प्रथम श्रेणी का रहा ममावेशन द्वारा साहु जैन उद्योगों को अधिकाधिक समद्ध और यह केवल अध्ययन और ज्ञानोपार्जन को दष्टि से ही किया । नही, वरन् अन्य दृष्टियों से भी। वे सभी सद्गुण मचमुच जिस सहजता के साथ उद्योग एव व्यवसाय पौर सद्वृत्तियां प्राप में विकसित हुई जो सफलता के के क्षेत्र में साहू जी ने मफलता प्राप्त की, वह उनकी शिखर तक पहुंचने के लिए प्रावश्यक है। स्वभावगत प्रतिमा और सूझबूझ, संगठन क्षमता तथा उद्योग के क्षेत्र में मापने तीसरे दशक में पदार्पण प्रध्यवमाय और सहनशीलता की सम्मिलित देन है। किया था और प्रारम्भ से ही अपनी दृष्टि इस पोर पिछले लगभग ४५ वर्षों में प्रापने विभिन्न प्रकार और केन्द्रित की कि न केवल देश के उद्योग ब व्यवसाय का प्रकृति क उद्योग धन्धा को एक सुविस्तृत श्रेणी की स्थाविकास और अभिवन हो बल्कि सचालन प्रणालियों पना एवं संचालना करके देश के प्रौद्योगिक विकास में योगमें भी नये-से-नये प्राविधिक रूपों का अन्वयन हो। दान किया मोर अनेक उद्योगों का नेतृत्व किया । इस श्रेणी इसके लिए प्रापने स्वयं विभिन्न प्राधुनिक पद्धतियों का क न के अन्तर्गत जहां एक ओर कागज, चीनी, वनस्पति, सीमेंट, गम्भीर अध्ययन किया तथा विविध विषय-क्षेत्र में निरंतर एस्बेस्टस प्रोक्ट्स, पार्ट निर्मित वस्तुयें, भारी रसायन, गवेषणायें कराई। अर्थशास्त्र और वित्तीय सिद्धान्तों और नाइट्रोजन खाद, पावर एल्कोहल, प्लाइवुड, साइकिल, पत्तियों का मापका बड़ा व्यापक और विशद मध्ययन कोयले की खाने, लाइट रेलवे व इंजीनियरिंग वर्क्स प्राते था और प्रत्येक विषय से सम्बद्ध पांक हों एवं विवरण की। हैं वहाँ दूसरी ओर हिन्दी, प्रजी, मराठी पोर गुजराती के जानकारी उन्हें इस प्रकार हृदयगम थी कि वह देश-विदेश दैनिक पत्र और भावधिक पत्रिकायें भोर महत्वपूर्ण सास्कृ. के पार्थिक मामलों के तथ्य को पूरे परिप्रेक्ष्य मे देखकर सही ' तिक साहित्यिक शोध एवं प्रकाशन के कार्य भी माते हैं। निष्कर्ष निकालते थे और अपनी प्रतिभा से सबको चकित विगत वर्षों में देश की विभिन्न शीर्ष व्यवसायकर देते थे। विशेष रूप से भारतीय उद्यम और भारतीय संस्थानों के माप अध्यक्ष रहे हैं। इनमें प्रमुख है-फंडक्षमता के प्रति माप अपने प्रौद्योगिक जीवन के प्रारम्भ से रेशन ग्राफ इंडियन चेम्बर प्राफ कामर्स एण्ड इन्डस्ट्री, Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. कि० ३.४, वर्ष १ अनेका इंडियन चेम्बर माफ कामर्स, इंडियन शुगर मिल्स एसो- दान दिया है। माप अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन तीर्थसिएशन, इंडियन पेपर मिस्स एसोसिएकस, बिहार चेम्बर क्षेत्र कमेटी, बम्बई तथा पहिसा प्रचार समिति, कलकत्ता, माफ कामर्स एण्ड इन्डस्ट्री, राजस्थान चेम्बर माफ कामर्स अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन परिषद् एवं मारवाड़ी एण्ड इन्डस्ट्री, ईस्टर्न यू० पी० चेम्बर आफ कामर्स एण्ड रिलीफ सोसायटी तथा भारत जैन महामंडल के अध्यक्ष इन्डस्ट्री। चार वर्ष तक लगातार पाप माल इंडिया प्रार्गे- रह चुके थे। नाइजेशन माफ इंडस्ट्रियल एम्पलायर्स के भी अध्यक्ष रहे भगवान महावीर के २५००वें निर्वाण महोत्सव के और इसी अवधि में, भारतीय श्रमव्यवस्था सम्बन्धी नियम कार्यक्रमों को सफल बनाने में प्रापका सर्वाधिक योगदान बनते समय प्रापने उद्योय-धन्धों का व्यावहारिक दृष्टि- रहा है। जैन समाज के चारों सम्प्रदायों की मोर से कोण उपस्थित किया। गठित भगवान महावीर २५००वां निर्वाण महोत्सव महाअपनी विशिष्ट प्रतिभा-सम्पन्नता तथा व्यापक प्रन- समिति के प्राप कार्याध्यक्ष थे। भारत की सम्पूर्ण दि. भव के कारण साहू जी देश के उद्योग एवं व्यवसाय वर्ग जैन समाज की प्रोर से गठित पाल इडिया दिगम्बर द्वारा अनेक अवसरों पर सम्मानित किये गये । स्वर्गीय प. भगवान महावीर २५००वां निर्वाण महोत्सव सोसाजवाहरलाल जी ने देश की प्रौद्योगिक प्रगति की बैज्ञानिक यटी एवं बगाल प्रदेश क्षेत्रीय समिति के अध्यक्ष के रूप परिकल्पना को कार्यान्वित करने के लिए जो प्रथम राष्ट्रीय में प्रापने देश-व्यापी सांस्कृतिक चेतना को जागति किया। समिति बनाई थी उसमें देश के तरूण प्रौद्योगिक वर्ग का भारत सरकार द्वारा गठित राष्ट्रीय समिति और बिहार प्रतिनिधित्व करने के लिए प्रापको इसका सदस्य बनाया तथा बंगाल की समितियों में भी मापने महत्वपूर्ण पदों था । का दायित्व तन्मयता से सम्भाला। निर्वाण महोत्सव के साह साहब को भारतीय धर्म दर्शन और इतिहास तथा बहुमुखी कार्यक्रमों को मापने चिन्तन, उत्साहपूर्ण नेतृत्व सांस्कतिक विषयो के अध्ययन में भी अतिरिक्त रुचि थी। पौर मुखर श्रद्धा के प्रत्यक्ष प्रभाव से उपलब्धियों का जो भारतीय कला एवं पुरातत्त्व के क्षेत्र में भी वे साधिकार वरदान दिया है वह जैन समाज के इतिहास में चिरचर्चा किया करते थे। धार्मिक श्रद्धा मे वे अडिग थे । भार- स्मरणीय रहेगा। तीय भाषामों एवं साहित्य के विकासोन्नयन की दिशा में समाज ने अपनी श्रद्धा स्वरूप प्रापको 'दानवीर' तथा पापका पति विशिष्ट योगदान रहा। मापके द्वारा सन् 'श्रावक-शिरोमणि' की उपाधियों से सम्मानित किया। १९४४ मे भारतीय ज्ञानपीठ की स्थापना एवं अपनी सह- उनके निधन से श्री साहूजी के बड़े भाई श्री श्रेयांसप्रसाद धमिणी स्वर्गीया श्रीमती रमा जैन के साथ उसकी कार्य जैन को, साहू जी के बड़े पुत्र श्री अशोककुमार जैन, मंझले प्रवृत्तियां, विशेषकर उसके द्वारा प्रवर्तित भारतीय भाषामों पुत्र श्री पालोकप्रकाश जैन एवं कनिष्ठ पुत्र श्री मनोजकी सर्वश्रेष्ठ सृजनात्मक साहित्यिक कृति पर प्रतिवर्ष कुमार जैन को, उनकी पुत्री श्रीमती अलका जालान एवं एक लाख रुपये की पुरस्कार योजना की परिकल्पना मोर सारे परिवार को जो मर्मान्तक प्राघात पहुंचा है उसके अब तक ११ पुरस्कारों के निर्णायों को कार्यविधि मे मन- प्रति समाज की सहज सम्वेदना उत्प्रेरित है। वास्तव में, वरत रुचि एवं मार्गदर्शन, उनकी दूरदर्शिता एव क्षमता उनका देहान्त सामाजिक इतिहास का एक युगान्त है। के बहुप्रशंसित प्रमर प्रतीक हैं। ज्ञानपीठ के अतिरिक्त मेरा उनका साय लगभग सन् १९५० से था। जैन मापने साहू जैन ट्रस्ट, साहू जैन चैरिटेबल सोसायटी तथा समाज की गतिविधियो मे मुझे उनके साथ कार्य करने का अनेक शिक्षण संस्थानो की भी स्थापना की। वैशाली, बहुत अधिक अवसर मिला। उनके निधन से मुझे तो प्राकृत, जैन धर्म एव पहिसा शोष-सस्थान को तथा प्राचीन अपार क्षति हुई है। मैं उनके चरणो अपने श्रद्धा के सुमन तीर्थों एव मन्दिरो मादि के जीर्णोद्धार मे मापने प्रचुर मथ- अपित करता हूं। C00 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सौजन्य-मूर्ति साहू जी: कुछ संस्मरण पं० पन्नालाल साहित्याचार्य, सागर दानवीर सर सेठ श्री हकमचन्द जी के बाद श्री साहू हुए, उससे समाज को बड़ा हर्ष हुमा और कितने ही ग्रन्थों शान्ति प्रमाद जी ने दिगम्बर जैन समाज का नेतृत्व जिस के द्वितीय संस्करण छप चुके है। स्तर से संभाला उससे समाज के गौरव की चौमुखी वृद्धि तीर्थ क्षेत्रों सम्बन्धी जो विशाल सचित्र ग्रन्थ प्रभी हाल हुई। या तीर्थ क्षेत्र, क्या शिक्षा, क्या प्रकाशन, क्या सामा. ही में प्रकाशित हुए है उनसे दिगम्बर जैन क्षेत्रों के पुरा. जिक सेवा, सभी कार्यों को प्रापने जिस तत्परता से सभाला तत्त्व पर पर्याप्त प्रकाश पडा है । जनेन्द्र सिद्धान्त कोश के वह सबके समक्ष है । समस्त तीर्थ क्षेत्रो पर नया निर्माण न ४ भाग एक बडी निधि के रूप में माने गये है। करा कर जीर्णोद्धार मे बापने जो द्रव्य खर्च किया है और प्रकाशन के प्रतिरिक्त, ग्राप देश की सभी भाषामों नहीं अपने निरीक्षको को भेज कर उनको देख के मर्वोतम लेखक की कृति को एक लाख रुपये के नगद रेख मे, स्थायी काम कराया है जो उमसे अनेक क्षेत्रों का पुरस्कार से सम्मानित करते है। इसे लेखक को जो कायाकल्प हो गया है। पपौरा का भोयरों का मन्दिर पोर सहकार और प्रोत्साहन प्राप्त होता है उसकी सर्वत्र सराप्रहारजी का शान्तिनाथ मन्दिर इसके ज्वलन्त उदाहरण हना हो रही है।। है। बिहार प्रान्त ही नहीं, भारत के सभी प्रान्तीय क्षेत्र भगवान महावीर के २५००वें निर्वाण महोत्सव के आपके द्वारा उपकृत हुए है। सम्बन्ध में माननीय साहूजी को तत्परता से ही उसे गौरव शिक्षा के क्षेत्र में कार्य करने वाली संस्थानों का प्रापने के साथ सफलता प्राप्त हुई है। समाज में होने वाले भरपूर पोषण किया है। बनारस के स्यावाद विद्यालय विशिष्ट प्रायोजनों में प्राप स्वय पहुचते रहे है और अपने मोर सागर के गणेश दिगम्बर जैन विद्यालय को मापने सामयिक सम्बोधनो से उमाज को सबोधित करते रहे है। पर्याप्त सहायता देवर स्थायी बनाया है। मापके द्वारा पिछले वर्ष अस्वस्थता के रहते हए भी प्राप द्रोणगिरि क्षेत्र स्थापित छात्रवसि कोष से अनेक प्रसहाय छात्र, छात्रवृत्ति पर होने वाले गजरथ महोत्सव में शामिल हुए थे। मापके पाकर अपना जीवन सुसम्पन्न कर रहे है। सानिध्य तथा सामयिक सम्बोधन से वहां की विशाल प्रकाशन की दिशा में भारतीय ज्ञानपीठ की स्थापना जनता बहुत ही प्रभावित हुई थी। कर मापने जो काम किया है, वह देश में ही नहीं विदेशो पूज्य गणेशप्रसादजी बर्णीजी के माप विनम्र भक्त थे। में भी गणनीय माना गया है। ज्ञानपीठ की मूर्ति देवी जब तक वे ईसरी में विद्यमान रहे, तब तक उनके जयन्ती , प्रन्थमाला के माध्यम से दिगम्बर जैन प्राचीन ग्रन्थों के समारोहों में पहुंचते रहे है। उन्ही समारोहो, मे बिहार जो माधुनिक संस्करण प्रकाशित हुए है तथा लोकोदय प्रान्त में फैले हुए सराक जाति के उद्धार की योजना बनी ग्रन्थमाला के माध्यम से जो विपुल हिन्दी साहित्य सामने पो मोर उस योजना के पुरस्कर्ता माननीय साहजी थे। भाया है उसे देखते हुए हृदय मे बड़ा सन्तोष होता है। साहजी प्रत्यन्त विनम्र व्यक्ति थे। कई वार उनसे महापुराण एक-दो भाग, उत्तर पुराण, पमपुराण, साक्षात्कार हमा। कोई न कोई नयी बात उनके साक्षात्१.२.३ भाग, हरिवश पुराण, गद्य चिन्तामणि, पुरुदेव कार से प्राप्त होती थी। एक बार वे अतिशय क्षेत्र महाचम्पू, जीवघर चम्पू और धर्मशर्माभ्युदय मादि अन्य बीर जी मे बन रहे कीतिस्तम्भ का शिलान्यास करने जिस साज सच्चा और विविध सामग्री के साथ प्रकाशित गये थे। उसका विधि-विधान मैंने कराया था। विषि. Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कब ११ कि. ३-४ अनेकान विधान के बाद भगवान महावीर ९५००वां निर्वाण समा- एक बार प्राप महार जी तथा पपौरा जी गये थे। रोह के विविध प्रायोजनों पर विचार होता रहा। जाते साथ में रमा जी तथा छोटा पुत्र भी था। उस समय में समय स्टेशन पर मेरी पत्नी ने मुझसे पूछा कि साहूजी भी वहां गया था। शान्तिनाथ मन्दिर का जीर्णोद्धार देख कौन है? मैंने कहा कि वे खड़े हैं काला कोट पहने। ये कर उन्होंने बडी प्रसन्नता प्रगट की थी। शन उन्होंने सुन लिये। सुनते ही पत्नी के पास खड़े ___ सागर विद्यालय का स्वर्ण जयन्ती उत्सव सम्मेदशिखर होकर कहने लगे-माता जी जय जिनेन्द्र। जी मे करने की स्वीकृति लेने के लिए एक बार हम और द्रोणगिरि के गजरथ महोत्सव में पास-पास ठहरने संगोरिया जी कलकत्ता गये थे। तब पापने स्वीकृति देते में अधिक सम्पर्क रहा। मैंने कहा कि प्राप यहां तक पा हए बड़ी प्रसन्नता प्रकट की थी। इसके एक वर्ष पूर्व बनागये हैं, प्रतः सागर चलकर पूज्य वर्णी जी का विद्यालय भी रस के स्याद्वाद विद्यालय का स्वर्णजयन्ती उत्सव सम्मेदपापको देखना है। वे बोले कि मागर चलने की इच्छा तो शिखर जी मे सम्पन्न हुअा था और उसकी अध्यक्षता बहुत समय से है, पर शरीर इतनी लम्बी यात्रा करने मे स्वयं साहजी ने की थी। सागर विद्यालय के उत्सव के समय समर्थ नहीं है। प्रापका प्राग्रह हो तो मागर चलूं या नना- सम्मेदशिखर जी नही पहुंच सके। परन्तु बाद में पूज्य गिरि जी के दर्शन कर पाऊ। दो जगह में से एक ही जगह वर्णी जी के पास गिरीडीह में प्राकर, न पा सकने पर खेद जा सकता है। उनके शरीर की स्थिति को देखते हुए मैं प्रकट किया और मागर विद्यालय को प्रति वर्ष ५०००) चप हो गया। वे नैनागिरि जी के दर्शन कर द्रोणगिरि की सहायता देना स्वीकृत कर गये । वह सहायता बराबर जी वापिस पा गये। वहा उनके हाथ से छात्रावाम का प्राती रही। अब दो वर्ष पूर्व ५०००० के शेयस देकर शिलान्यास कराया गया। रात्रि को विशाल जन समूह मे उस महायता को स्थगित किया है। ईमरी मे पूज्य वर्णी प्रापका सारमित भाषण हुमा । धार्मिक भाषण के बाद जी का स्मारक बनाया गया है । उसके उद्घाटन के समय उन्होंने समाज की प्राथिक स्थिति को सुधारने के सन्दर्भ साहजी स्वयं पधारे थे। मझे भी पहुंचने का अवसर में भी अनेक उपाय बतलाये। उन्होंने कहा कि एक व्यक्ति मिला था। उस समय वे पूज्य वर्णी जी का गुणगान करते बड़े उद्योगों की क्षमता नहीं रखता है, यह ठीक है, परन्तु हए गदगद हो गये; बोले कि मझपर कोई आपत्ति माती अनेक लोग मिलकर परस्पर के सहयोग से बड़े-बड़े कार्य है और सपने में वर्णी जी के दर्शन हो जाते है तो सब कर सकते हैं। प्रौद्योगिक कार्यों में लगन और धर्य को प्रापत्ति टल जाती है। मेरी उनके प्रति बहुत भारी पावश्यकता होती है। अन्त मे कहा कि पूज्य वर्णी जी प्रास्था है। की साधना भूमि बुन्देलखण्ड का प्रतीत गौरवशाली वे एक सौजन्य-मूर्ति थे। उनके प्रति स्मृति अंक का रहा है। तभी तो यहां भनेक जिन मन्दिरों का निर्माण प्रकाशन करना कृतज्ञता प्रकाशन का एक प्रशस्त रूप है। हुमा है। 000 प्राचीन काल में जैन धर्म महा सम्राट बनगुप्त के दरबार में सेल्युकस के राजदूत मेगास्थनीज ने अपने 'भारतवर्षीय वर्णन' में लिखा कि-"भारतीयों के दो सम्प्रदाय है.-एक 'सरमनाई' (Sarmanai) (अर्थात श्रमण) और दूसरा पाचमनाई (Brachmanai) (अर्थात् बाह्मण)। सरमनाई होके अन्तर्गत वे दार्शनिक है जो 'हाइलोण्योह' कहलाते हैं। वे नगरों और घरों में नहीं रहते, वृक्ष की छाल से अपने को ढकते हैं मोर बस अपने हाथों से मुंह तकलेजाकर पीते है। विवाह करते हैं, सन्तानोत्पावन ।" मौलाना सुलेमान मरवी द्वारा लिखित 'परमौर भारत के सम्बन्ध' नामक ग्रन्थ में लिखा है किसंसार में पहले दो ही धर्म ये-एक सममियन और दूसरा कैरियम । 'समनियन'लोग पूर्व वेशों में रा. सानवाले इनको बावचन में 'शमनान' और एकवचन में 'दमन' कहते हैं। चीनी यात्री सांग ने भी 'भमरस' (Sramaneras) नाम से 'मम' का उल्लेख अपनी यात्रा प्रसंग में किया। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श समाज नेता श्री वंशीधर शास्त्री एम. ए., जयपुर मादरणीय साह शान्तिप्रमाद जी की स्मृति हमे उस वोतराग दिगम्बर धर्म का प्रश्न है, भले ही जलम न महान मात्मा का स्मरण कराती है जिन्होंने अपने प्रथक निकले, किन्तु दिगम्बर साधुप्रो के प्रवेश की निषेधाज्ञा को श्रम व दूरदर्शिता से बड़े-बड़े उद्योगों का संचानन ही हमें स्वीकार नहीं करना चाहिए। पुलिस अधिकारियों नहीं किया, अपितु भारतीय साहित्य, संस्कृति के गौरव ने ऐसी निषेधाज्ञा बिना जलस के लिए स्वीकृति देने से को बढ़ाने में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया । वे कोटपा- इन्कार कर दिया। अन्त मे साह जी के व्यक्तिगत उच्चघीश होते हुए भी समाज, संस्कृति एवं धर्म सस्थानों के स्तरीय प्रयत्नों से मुनिप्रवेश के निषेध बिना ही रथयात्रा लिए साधारण कार्यकर्ता बन जाते थे। की स्वीकृति मिल गई। वे समाज के उत्थान के लिए सतत जागरूक रहते साह जी ने साहित्य के सरक्षण, संवर्द्धन के लिए थे। वे समाज की मान-मर्यादा को उच्च स्तर पर रखना भारतीय ज्ञानपीठ की स्थापना तो की ही, साथ ही साहिचाहते थे । सन १९६० में कलकत्ता पुलिस ने वहाँ के त्यकारी को प्रोत्साहित करने के लिए भारत का नोबिल प्रसिद्ध रथ यात्रा जलस के लिए नग्न साधु के प्रवेश की पुरस्कार-'ज्ञानपीठ पुरस्कार-की स्थायी योजना बनाई। निषेधाज्ञा युक्त स्वीकृति देनी चाही थी। समाज के अनेक मेरा ज्ञानपीठ के वर्तमान पदाधिकारियों से निवेदन है प्रमख व्यक्तियों ने यह कह कर ऐसी स्वीकृति के लिए कि वे इस पुरस्कार का नाम 'शातिप्रमाद जैन पुरस्कार' हाँ करना चाहा था कि अभी वहा मुनि नही है, अतः घोषित कर उनकी स्मृति को चिरस्थायी बनावे । ऐसी निषेधाज्ञा मान कर जुलूस की स्वीकृति ले लेनी साहू जी जैन तीर्थों के जीर्णोद्धार के लिए सर्वदा चाहिए। लेकिन साह जी जैसे स्वाभिमानी के लिए ऐसा चिन्तित रहे। उन्होंने अनेक तीर्थो के विकास के लिए सब तकं स्वीकार्य नही था । उन्होने स्पष्ट कहा कि यह किसी प्रका• का सहयोग दिया। उनकी यह विशेषता अनुकरव्यक्ति के भी होने या न होने का प्रश्न नहीं है, यह णीय है कि उन्होने हजारों, लाखो रुपए का दान कर भी ज्योतिर्मय व्यक्तित्व कभी अपना नाम लिखाने छपाने की चिन्ता नही की। वे समाज की फूट एवं संघर्ष में व्यथित रहते थे। संस्कृति क्षितिज का ज्योतिर्मय, उनका हमेशा यही प्रयास रहना था कि ममाज मे एकता एक नखत ज्यों टूट गया। रहे, ताकि समाज अपने धानिक प्रायतनो की रक्षा करता संस्कृति सरगम का ज्यों कोई, हमा राष्ट्र की गतिविधियो में अपना समुचित स्थान ___ मरिम स्वर ज्यों टूट गया ।। प्राप्त कर सके। समाज में एकता का स्थायी रूप बना साहित्य, संस्कृति को जिसने -- रहे, इसके लिए हम सब प्रयत्न करें यही हमारी उनके प्रति क्षण सजीवनी दी: प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी। एकता होने से ही गमाज वह दानी कर्ण, श्रमण - अपनी सर्वतोमवी प्रगति कर सकेगा, अन्यथा नही। संस्कृति का, असमय रूठ गया। --श्री मिश्रीलाल जैन, एडवोकेट ११५. चाणक्य मार्ग, सुभाष चौक, पृथ्वीराज मार्ग, गुना (म० प्र०) | जयपुर (राजस्थान) Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगतं श्री-सरस्वत्योः डा० हरीन्द्र भूषण जैन एम. ए., पी-एच. डी., उज्जन विश्ववन्द्य महाकवि कालिदास ने अपने विक्रमोर्वशीय साहजी की जैन धर्म और दर्शन के प्रति प्रट श्रद्धा नाटक के भरतवाक्य में लिखा है : गे। वे प्राकृत भाषा और उसके साहित्य के उन्नयन में परस्परविरोधिन्योरेकसंश्रयदुर्लभम् । विशेष रुचि लेते थे। इस विशेष प्रयोजन की सिद्धि के सङ्गतं श्रीसरस्वत्योभूतयेऽस्तु सदा सताम् ॥ लिए उन्होंने 'अखिल भारतीय प्राच्य विद्या सम्मेलन' के प्रर्थात्-परस्पर विरोधिनी श्री एवं सरस्वती का भूतपूर्व प्रधान अध्यक्ष यश.शेष डा ए. एन. उपाध्ये, एक स्थान पर समागम यद्यपि दर्लभ है, फिर भी सज्जनों प्राकृत एवं जैनोलाजी विभाग के भूतपूर्व अध्यक्ष स्वर्गीय की समृद्धि के लिए इन दोनो का ममागम हो। डा. हीरालालजी, प. कैलाशचन्द्रजी शास्त्री प्रादि के ऐसा लगता है कि महाकवि को उपर्युक्त कामना को परामर्श एवं सहयोग से स्व. पुण्यश्लोका माता मूर्तिदेवी साकार करने के लिए ही भारत के गौरव एवं जैन समाज की पवित्र स्मृति में, भारतीय ज्ञानपीठ के अन्तर्गत 'मूर्ति के अनभिषिक्त सम्राट् साहू शान्तिप्रसाद जन ने इस भारत देवी जैन ग्रंथमाला' की स्थापना की। इस ग्रंथमाला के भ को अलंकृत किया था । माध्यम से प्राकृत, सस्कृत, अपभ्रश, हिन्दी, कन्नड़, तमिल 'साह' शब्द जैन संस्कृति का महत्वपूर्ण शब्द है। आदि प्राचीन भाषाम्रो मे उपलब्ध प्रागमिक, दार्शनिक अनादि-निधन मन्त्र मे हम सभी पढते हैं-"णमो लोए सव्व पौराणिक, साहित्यिक, ऐतिहासिक प्रादि विविध विषयक साहूण" । 'साहू' का अर्थ है माधु अर्थात् सरल, निश्छल, जैन-साहित्य का अनुसन्धान-पूर्ण सम्पादन, अनुवाद एवं विनीत, सेवाभावी, स्वपर-कल्याणी प्रादि । दूसरे शब्दों में, प्रकाशन हो रहा है। जैन भंडारों की सूचियां, जैन मानवता के जितने विभूषण इस वसुन्धरा पर सम्भव है, शिलालेख संग्रह और लोक-हितकारी जैन साहित्य भी 'साहू' ने उन सबको समेट लिया है। यदि हम व हे कि इसी ग्रंथमाला में प्रकाशित हो रहा है। श्रद्धेय साहू जी का नामाप्र 'सार' न केवल सार्थक है, साह जी ने भगवान महावीर के २५ सोवें निर्वाण प्रत्युत वह उनके समग्र जीवन के लक्ष्य, आदर्श एव चितन महोत्सव को, सभी सम्प्रदायों के द्वारा मिल कर सफल को प्रतिबिम्बित करता है, तो यह कोई प्रत्युक्ति न होगी। बनाने मे जो अभूतपूर्व योगदान दिया, वह अविस्मरणीय है। मन्तिम क्षणो में उनकी प्रभिलाषा हस्तिनापुर में मुनिश्री इस अवसर पर यदि भारतीय ज्ञानपीठ ने अपने महत्वपूर्ण शांतिसागर महाराज के निकट साध जीवन व्यतीत करने प्रकाशन न किए होते तो महावीर परिनिर्वाण महोत्सव की थी। केवल उत्सवो और भाषणो में ही उलझ कर रह जाता। साहूजी ने अपने जीवन में, विशेषतः उद्योग-व्यवसाय साहूजी ने प्राचीन जैन तीर्थों और मन्दिरों के जीर्णोद्धार के क्षेत्र में जो अनेक लक्ष्य प्राप्त किए, वे नि.सन्देह में प्रचर अर्थदान किया। उन्होंने साह जन कालेज, नजीबाप्रसाधारण है। पर हम जिस बात को अत्यन्त महनीय बाद जैसी अनेक शैक्षणिक संस्थानो की भी स्थापना की। मानते हैं वह उनका राष्ट्र की सास्कृतिक, साहित्यिक एवं जैन शिक्षा के क्षेत्र में साहजी का जो अविस्मरणीय शैक्षणिक प्रगति में प्रदृष्टपूर्व योगदान । योगदान है, वह है वैशाली में 'प्राकृत, जैन धर्म एवं ___ माहू जी भारतीय धर्म एव दर्शन, इतिहास तथा अहिंसा शोध संस्थान' तथा मैसूर विश्वविद्यालय में 'साह संस्कृति और पुरातत्व एवं कला के अध्ययन मे विशेष जैन चेयर इन जैनालाजी' की स्थापना । रुचि रखते थे। उनके मन में भारतीय भाषामो पौर इस प्रकार, दानवीर एव श्रावक शिरोमणि साह साहित्य के विकास का दढ़ सकल्प था। इस उद्दश्य की श्री शान्तिप्रसाद जी ने अपने जीवन के ६५ यशस्वी वर्ष पूर्ति के लिए उन्होने भारतीय ज्ञानपीठ की स्थापना की मानवता की सेवा में व्यतीत किए। भारत माता के इस और भारतीय भाषामो को सर्वश्रेष्ठ सृजनात्मक साहि- सच्चे सपूत को मेरा सादर प्रणाम । 000 त्यिक कृति पर प्रतिवर्ष एक लाख रुपए के पुरस्कार की रीडर, संस्कृत विभाग, विक्रम विश्वविद्यालय, घोषणा की। उज्जैन (म० प्र०) Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहू शान्तिप्रसाद : सेठ और साधु 0 डा. प्रेमसागर जैन, एम. ए., पी-एच. डी, बड़ौत साह शान्तिप्रसाद जैन सेठ थे तो साधु भी थे, ऐसा मैं अथवा समारोह वाले दिन प्रात:काल । मझे समीप से जाना अनेक वर्षों के सम्पर्क से जान सका हं। जब शान्तिप्रसाद जैन होता था, प्रत. निश्चिन्त रहता था और किसी-किसी वर्ष अ नोखलन रहते थे। शाम के चार बजे तक पहुच पाता था। इस बीच साह शान्तिप्रमाद कम-से-कम पाच बार टेलीफोन कर मालम छत्ता लगा हुआ था। कुछ छात्र उसे तोड़ने का प्रयत्न करते थे कि प्रेमसागर अभी तक प्राये या नही। भाजी करते थे, तो शान्ति जी नाना उपायो से उन्हे रोके रहते के समय वे सदैव मुझे अपने पास बटाल कर खिलाते थे। थे। एक दिन वे शहर गये हुए थे कि कुछ छात्रो ने उस बडे-बडे लोगो से मेरा परिचय बहुत अच्छे शब्दो में कर. छत्ते को तोड डाला। मक्खियो को मार दिया । जव वाते थे और मैं सकुचित होकर रह जाता था। मेरे पास शान्ति भाई लौट कर पाये और उन्होने ऐसा देपा तो जो इन्फीरियर्टी है वह दिल्ली के उस उच्च वर्ग में रोने लगे ! उस समय उनका रो पड़ना छागे के मध्य । स्पष्ट हो उठती थी। शायद वह यह सब कुछ समझते बडी चर्चा का विषय रहा। इससे उनके मावा दिल भीर थे, इसीलिए मुझे अधिकाधिक प्रोत्साहन भोर प्रेरणा देत अहिंसक भाव का परिचय मिलता है। वे एक पुराने जैन थे प्रोर मेरा ऐसा चित्र खीचत थे, जैसा कि मैं नही। उनकी इस सदाशयता का मै सदैव ऋणी रहगा। सरकारो से युक्त खानदान में जन्मे थे। साह जी की सहृदयता जन्म-जात थी। उनका स्व___मैंने ऐसा अनेक अवसरो पर देखा कि दीन-दुखी को । भाव ही ऐसा था। जो कुछ उठता, भीतर से । दिखावे देख कर उनका दिल दया-द्रवित हो उठना था। उन्होंने । वाली बात ही नहीं थी। भाज की उदारता के पीछे प्रागे चलकर, गरीब छात्रो की भलाई के लिए ही ' साहू दिखावे के न जाने कितन मुखोटे चढ़े हुए है। उनमे ऐसा जैन ट्रस्ट" की स्थापना की, जिसकी सहायता से अनेक जैन नही था। उन्होने जो कुछ किया, दिल से किया। 'महापौर प्रजन छात्र विद्याध्ययन कर सके और प्राज बड़े वीर निर्वाणोत्सव' के साल से पहले ही उन्हे एक ऐसा बड़े पदो पर प्रतिष्ठित है। यह ट्रस्ट अब भी चल रहा उच्च सहज वातावरण मिला था, जिसमें उनकी उदारता है और अनेक नवयुवा उससे लाभान्वित हो रहे है। को उन्मुक्त अवकाश मिला। फिर तो, कही उन्होन तीर्थो साह जी की एक सबसे बड़ी विशेषता है-अनहकार । को दिया, कही मन्दिरों को, कही मुनिसघो को, कही उन्होने छोटे-बड़े का भेद किये बिना समान भाव से ग्रन्थागारो को, वही विश्वविद्यालयो को, कही उत्सवो गुणियों का समादर किया। मैं उन दिनो भारतीय ज्ञान को और कही विद्वद्पुरस्कारो को। उनको श्रद्धा का काशन समिति' का सदस्य था। एक लाख के पोर छोर नही था-मनाडम्बरित श्रद्धा। वे महामन। पुरस्कार समारोह के अवसर पर 'प्रकाशन समिति' की थे। बैठक हुमा करती थी। डा. ए. एन. उपाध्ये, डा. उन्हे अपनी जाति से प्रेम था, किन्तु उनमें जातिवाद नेमिचन्द्र शास्त्री और प० कैलाशचन्द जी भी सदस्य थे। का विष नही था। उन्होन अथक प्रयत्न किया कि चागे हमारे ठहरने का प्रबन्ध प्रायः साहू श्रेयांमप्रसाद गैस्ट सम्प्रदाय मिल कर महावीर निर्वाणोत्मव मनाये। हमा हाउस', गोल्फलिक गेड पर किया जाता था। तीन सदस्य भी ऐसे ही, किन्तु जो पाघाये भाई, वे अननुभूत और दूर के थे। वे पहले ही पा जाते थे-एक दिन पहले अकल्पनीय थी। साहू जी का स्वास्थ्य बिगड़ता गया Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२, वर्ष ३१, कि० ३.४ अमेकात पौर पटना में ऐसा "हार्ट अटेक" हुप्रा कि जीने की प्राशा माह शान्तिप्रसाद चुपचाप बैठे थे और उस चर्चा को ही धमिल पड गई। किन्तु प्रकृति को उनका जाना ध्यानपूर्वक सुन रहे थे । एकाएक उन्होंने पूछा कि एक अभीष्ट नही था। अभी उनसे कुछ काम लेना था और शोध अथ मे अधिक से अधिक दो-चार मान्यताएं स्थापित वे बच गये। श्रीमती रमा रानी की दिन-रात की मेवा की जाती है. फिर ग्रथ इतना मोटा क्यों हो जाता है ! का प्रच्छा फल प्राप्त हुप्रा और साहू जी मृत्यु के उन मान्यताप्रो को संस्थापित करने, प्रमाणिक बनाने पोर कराल जबड़ो मे जाकर भी निकल आये । पूष्ट करने के लिए सामग्री को इर्द-गिर्द लगाना ही होता इस बीच, सम्प्रदायों का सन्तुलन बिगड़ गया। माहू है, ऐमा मैने उत्तर दिया। माहूजी ने कहा कि यदि ऐसा जी के बीमार हो जाने से, कोई अन्य योग्य निर्देशन न भी है तो कुछ सम्बन्धित सामग्री के साथ मान्यतामों के मिल सका, तो सन्तुलन बिगडना था, वह बिगड़ा । दूसरी प्रस्तुतीकरण मे साठ या सत्तर पृष्ठ से अधिक न हो पोर, दिगम्बरों मे एक नगा मत 'काजी स्वामी" के पायेंग। इतना प्रावश्यक है कि सामग्री "ट दि प्वाइट' हो। नाम पर जोर पकडने लगा। यह मत केवल 'निश्चय' पर मैं ऐमा समझता हूँ कि व्यर्थ के भार से ही शोध ग्रंथ का बल देता है, 'व्यवहार' को नितान्त हेय और बर्जनीय कलेवर बढ़ जाता है। मैं चप हो गया। इसके बाद इतने कहता है । इसने जन-साधारण में प्रचलित "भक्ति'' को वर्षों तक मैं निरन्तर यह सोचता रहा हूं कि साहू साहव मिटा देने की बात कही। उन्होंने जैनों में प्रचलित देव. का कथन नितात मरय और अनुसन्धित्सु तथा उनके शास्त्र-गुरु की भक्ति को कार दिया। मासारिक जन को निदेशको के लिए खरी चेनावनी भी थी। यह सत्य है कि होना याज के शोध ग्रय प्राय व्यर्थ के बोझ से बोझिल होते (उनका काजी स्वामीका) पुरजोर बडन किया। उनके ग्रथा इतना ही नहीं समम-समय पर सस्कृत, प्राकृत, को जलाया अथवा नदी में बहा दिया। बहिष्कार की बात अपभ्रश, हिन्दी, कन्नड आदि मे कंस प्रथों की रचना हो, भी जोर पकड़ने लगी। साह जी ने इसको सन्तुलित ऐमा दिशा-निर्देश भी वे देते रहते थे। उन्ही की सूझ-बूझ मस्तिष्क से नापा-जोमा और परखा। उन्होन दखा कि का परिणाम था नि महावीर निर्वाणांमत्व" के वर्ष में, दिगम्बर विखण्डित हो जायेगे। शायद इसी कारण उन्हान भारतीय ज्ञानपीठ "जैन स्थापत्य और कला" जैसे ग्रथों 'दिगम्बर जैन महासमिति' की रचना की। उन्होने कहा की रचना करवा कर प्रकाशित करने में समर्थ हपा। जैन कि दिगम्बरो के सभी मत और सम्प्रदाय इसमे सम्मि ग्रंथ भंडारो मे प्राचीन महत्वपूर्ण ग्रंथ हस्तलिखित रूप में लित हों। हमें खुली विचारधारागों का अधिकार है, सुरक्षित है। साहजी चाहते थे कि उन सब को बाहर केवल मत-वभिन्य के कारण हम पृथक न होगे। मरते निकाला जाये, उनका सम्पादन और प्रकाशन हो। वे इस मरते एकता का यह अाह्वान जितना शानदार था, उतना । दिशा में बढ़ रहे थे। भरमक सहायता भी करते थे। जैन ही उनकी भाव-गरिमा का द्योतक भी। हिन्दी की प्राचीन और मध्यकालीन रचनामों को वह साह शान्तिप्रसाद पण्डित थे। भारतीय जैन पुरातत्व भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित करना चाहते थे। उन्होंने का उनको विशिष्ट ज्ञान था। मन्त्र-तन्त्र में उनको गति अपना यह विचार एकाधिक बार मुझ पर प्रकट किया किसी भी साधारण कोटि के विद्वान से अधिक थी। सबस था। एतदर्थ कुछ वर्ष पूर्व "भारतीय ज्ञानपीठ" की बड़ी बात थी -- उनकी मौलिक प्रतिभा और नव-नवोन्म- प्रकाशन समिति में मुझे दो ग्रंथ सौंपे गये थेशालिनी बद्धि । एक दृष्टात दे रहा हू:--मारतीय ज्ञानपीठ मध्यकालीन हिन्दी पदों के आधार पर 'भक्ति और भाव' की प्रकाशन समिति की बैठक थी। शोध प्रवन्ध के तथा जैन हिन्दी का मादि काल' । मुझे दुख है कि उनके प्रकाशन पर चर्चा चल रहो थी। शोध ग्रथ के प्रका- जीवन काल में मैं इन्हें तैयार न कर सका। प्रव, पहला शन में पर्याप्त व्यय करना होता है। इस दृष्टि से इनकम ग्रंथ ज्ञानपीठ को सौंपा है और दूसरा भी तैयार ही है। नही हो पाती। एक प्रकार से घाटे का सौदा रहता है। कुछ पिछड़ गया । माज के जीवन की घनीभूत व्यस्तता Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहशान्सिार: सेठ मोरा और सतत मानसिक तनाव, मनुष्य को जड़-मूल से तोड़ते इच्छा थी कि जैन साधु माधुनिक युग को ठीक से समझे, जा रहे हैं। मैं भी उससे पृथक् नही हूं। लेखन कार्य से मध्ययनशील बनें, मौलिक ग्रन्थों का निर्माण करें। कुछ उदासीनता-सी होती जा रही है। जैन ग्रथों के समाज को ठीक से समझे बिना साधु उसमे प्रतिष्ठालिखने में प्रत्यधिक श्रम करना होता है । यह श्रम निष्ठा पूर्वक विचरण नहीं कर सकता । साधु को ऐहिक लोके. के बिना संभव नहीं है। किंतु निष्ठावान को न षणाम्रो से दूर रहना ही चाहिए, ऐसा वे चाहते थे। इस प्रतिष्ठा मिलती है और न जीवन यापन की सुविधाए। बात के वे सस्त खिलाफ थे कि कम उम्र की लड़कियों डा. एम. विण्टरनित्स सात समन्दर पार हिन्दुस्तान में है और लहको को दीक्षा दी जाए। यदि दी जाये तो सत्र कर 'हिस्ट्री आफ इंडियन लिटरेचर' लिख सके, का ण और संघाचार्यों को सशक्त होना ही चाहिए । साधु या था ऊंची से ऊंची जीवन सुविधाए, जो उनकी सरकार साध्वी का चरित्र एक मादर्श चरित्र होना अनिवार्य है। ने उन्हे दी थी। दूसरी पोर एक जैन धनाढ्य व्यक्ति उससे समाज और राष्ट्र एक दिशा ग्रहण करता है । अपने बेटे की शादी के निमन्त्रण-पत्र को खबसूरत बनाने साहू शान्ति प्रसाद मूलत व्यापारी थे। उन्होने अपने में जितना खर्च कर सकता है, जैन ग्रंथ के प्रकाशन मे छोटे व्यापार को समृद्ध बनाया। उनमे प्रतिभा थी और नहीं। जैन लेखक की कृति यदि वह प्रकाशित भी करता रिस्क झेलने की अभूतपूर्व क्षमता। वढ़ते-बढ़ते उनका है, तो यह जैन लेखक पर उसका प्रहमान ही है। डा.॥ व्यापार भारत के लोडिग ३५ व्यापारो में गिना जाने एन. उपाध्ये ने मुझे बताया था कि एक जैन लेखक ने लगा। उन्होने कोटिशः सम्पत्ति कमाई। यह वही कर अपना पथ प्रकाशित करवाने के लिए प्राधा व्यय दिया था। सकता है. जिसमे व्यापारिक सूझ-बझ हो-ऐमी वैसी इस सबके होते हुए भी साहू शान्तिप्रसाद ने भार- नही, जिमने अन्नर-राष्ट्रीय अर्थ तन्त्र को भली-भाति तीय ज्ञानपीठ से जो भी प्रकाशित किया, लेखक का भर. समझा हो। उतार चढाव पाये, अच्छाइया-बुराइयां भी पूर मेहनताना दिया। हिसाब-किताब मे कभी गड़बड मिली, किन्तु वे वहते गये और उनका व्यापार प्रासमनही हुई। ज्ञानपीट लेखक के प्रति पूरी ईमानदाने द्रान्त ही नहीं, उसे भी पार कर विस्तत हो गया। किन्तु बरतता है, यह सभी जानते है। यही कारण है कि हर मानव-मन विचित्र होता है। उसकी अन्तर परतों को लेखक अपनी रचना ज्ञानपीठ को देना चाहता है। इसके कौन समझ पाता है। साहु साहब का मन शन:-शन: अतिरिक्त, साहु शान्ति प्रसाद प्रत्येक रचना को ऊँचे स्तर मुमुक्ष हो उठा। वे प्रात्मवान् बन उठे। व्यापार और से प्रकाशित करते थे। क्या कागज, क्या गेटमप, क्या पैसे से नितांत निरासक्त मन लिए वे समूचे भारत में प्रप रीडिंग सभी कुछ उत्तम होता था। उनकी रुचियां दौड़ते फिरे । कुछ ने उन्हें समझा और कुछ ने नहीं । वे परिमार्जित मोर सुसंस्कृत थी। उन्मुक्त-हस्त विश्वविद्यालयो मे "जैन धेयर्स", शोध जीवन के अन्तिम वर्षों में साह शान्ति प्रसाद और संस्थान, कालेज, तीर्थक्षेत्र और मन्दिरों को देते रहेएक वीतरागी साधु मे कोई अन्तर नही रह गया था। देते गये, जब तक उनका दिवावसान न हुमा । मेरी दृष्टि उनका हृदय निर्मल दर्पणवत् हो गया था। उन्हें अध्यात्म मे वे इस दुनिया के एक क्षमतावान व्यक्ति थे। जब मन का गहरा ज्ञान था। वे चलते-फिरते, उठते-बैठते सदंव महा, तो उनकी क्षमता, परलोक को दिव्य अनुभूतियों मात्म-लीन से रहते थे। साधुओ की अधिक-से-अधिक को भी सहज ही सहेजने में समर्थ हुई। सेवा-सुश्रुषा और विनय करते थे। उन पर, उनके सघों माज वे नहीं है। उनकी स्मृति-भर है। सब चले पर, उनकी कृतियों पर धन व्यय करने में वे कभी हिचके जाते हैं । जो पाया है वह जायेगा। वे भी गए, किन्तु वे नहीं। यदि उन पर कभी उपसर्ग प्राया, तो उसे दूर अमर-पुत्र थे, यह कहने में मुझे कोई संकोच नही। 00 करने में उन्होने भरसक प्रयत्न किया। समूचे भारत में अध्यक्ष हिन्दी विभाग. जैन साधुनों के वे एकमात्र संरक्षक थे। उनकी तीव्र दि. जैन कालेज, बड़ौत (मेरठ) Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीसवीं सदी के भोज 0 श्री कुन्दनलाल जैन, दिल्ली दसवीं सदी में परमारवंशी धारा नरेश महाराज भोज- या चापलूस साहित्यकार ले उड़ेंगे, कोई कहता था राजराज देव जिस तरह लक्ष्मी और सरस्वती के अपूर्व संगम नैतिक दबाव या सिफारिश पर यह पुरस्कार दिया जाया थे, उसी तरह हजार वर्ष बाद इस बीसवीं सदी मे उत्तर करेगा। पर पिछली दस-बारह पुरस्कृत कृतियों को चयन प्रदेश के नजीबाबाद नामक एक छोटे से कस्बे के साहू पद्धति को देखकर सभी की प्राशंकाएं एवं प्रविश्वास परिवार में श्री शान्ति प्रसाद जी जन्मे थे। उन्हें यदि कपूर की भांति गल गए हैं। जिस निष्पक्षता, सचाई और इस सदी का भोज कहा जावे तो कोई प्रत्युक्ति न होगी। ईमानदारी एवं गहन छानबीन के बाद प्रति वर्ष ___ साह शान्ति प्रसाद जी ने अपनी प्रतिभा, बुद्धि-कोशल रचना पुरस्कार के लिए चुनी जाती है, उसके पीछे स्व. एवं सतत अध्यवसाय से महाराज भोज की भाति लक्ष्मी श्री साह जी एव स्व. सौ. रमा जी की विशुद्ध साहित्यिक पौर सरस्वती का अद्भुत संगम स्थापित किया था । वे उदात्तभावना एवं निष्पक्ष दृढ सकल्प ही कार्य कर रहे हैं। हिन्दू विश्वविद्यालय काशी, के साइम ग्रेजुएट थे, पर स्व० साहू जी जहां जैन सस्कृति और जन वाङ्गमय उन्होंने अपने वैज्ञानिक अध्ययन एव तकनीकी स्वाध्याय के प्रबल उद्धारक, प्रचारक एवं प्रसारक थे, वहां सम्पूर्ण से अपना ज्ञान बहुत विस्तृत कर लिया था। भारतीय संस्कृति, साहित्य और वाङ्गमय एवं भारतीय सौ० रमा जैसी पत्नी को पाकर उनका दाम्पत्य भाषामो के प्रति उनका दष्टिकोण बड़ा उदार, सहानुभूतिजीवन मणि काचन संयोग की भाति दमक उठा था । वे पूर्ण एव तीव्र अनुरागमय था। वे सभी भारतीय भाषाम्रो जहां ज्ञान के सच्चे प्राराधक और पुजारी थे, वहा लक्ष्मी के सपूर्ण साहित्य को समुन्नत एव समृद्ध दशा मे देखना उनके चरण चम्बन किया करती थी, पर उन्होने लक्ष्मी में चाहते थे और इसके लिए मनसा-वाचा-कर्मणा प्रयत्नशील कभी प्रासक्ति नहीं दिखाई। वे तो ज्ञान की ज्योति को भी थे। मालोकित करने में ही अपना तन मन धन लगाते रहे। एक वार स्व. डा. ए. एन. उपाध्ये मोर स्व. डा. साह जी ने अमेरिका के श्री काडं की भाति अपने हीरा लाल जी एवं स्व. बा. छोटेलाल जी ने स्व० साह व्यावसायिक साम्राज्य का विस्तार किया था। पर वे जी के समक्ष एक योजना रखी कि जहा-जहां जो-जो उससे 'जलते भिन्न कमल' की भांति सर्वथा निरासक्त प्राचीन हस्त लिखित पांडलिपियां एव प्रथागारों में प्राचीन रहे। उधर दूसरी ओर मि. नोबिल की भांति अपनी साहित्य जीर्ण-शीर्ण या अव्यवस्थित दशा मे पड़ा हो, उसे कीति पताका को चिरस्थाई रखने के लिए उन्होने ज्ञानपीठ एकत्रित कर एक केन्द्रीय पुस्तकालय में वैज्ञानिक दृष्टि से पुरस्कार का मायोजन किया। महाराज भोज भले ही सगहीत एवं सुरक्षित किया जावे भोर महत्वपूर्ण एक श्लोक पर 'लक्ष ददों की उक्ति से इतिहास मे प्रसिद्ध पांडलिपियों की माइकोफिल्मिग करा ली जावे जीर्ण-शीर्ण हों, पर ज्ञानपीठ का प्रतिवर्ष एक सर्वश्रेष्ठ कृति पर एक ग्रन्थों का रखरखाव वैज्ञानिक दृष्टि से किया जावे जिससे लाख रु०का पुरस्कार तो इस सदी के सभी लोगो ने देखा प्रागे पाने वाले मनुसंधिस्सुमों को साहित्यान्वेषण के लिए सूना है। इस सारी सूझ-बूझ एवं क्रियान्वयन के पीछे कारण ही भटकना न पड़े तथा शोध की सुविधाएं सरस्व. श्री साहू जी एव स्व. सो. रमा जी का ही हाथ था। लता से प्राप्त हो सके। जब ज्ञानपीठ के पुरस्कार का प्रायोजन चल रहा था स्व० साहू जी इस पुनीत साहित्यिक एवं सांस्कृतिक और इसकी भूमिका एवं विधि-विधान तैयार किए जा श्रेष्ठ कार्य मे तन-मन-धन से पूरा-पूरा सहयोग देने को रहे थे तब लोगो ने इसकी निष्पक्षता पर बड़े-बड़े प्रश्न तत्पर थे । एक बार जब उनसे भेंट हई और मैंने उपर्यक्त चिन्ह लगाए थे। कोई कहता था यह पुरस्कार तो केवल योजना के सम्बन्ध मे उनके विचार और प्रगति जानना जैनियों को ही मिलेगा, कोई कहता था कि इसे चाटुकार चाही तो उन्होंने बड़े पीड़ा भरे स्वर में कहा था कि "चौष. Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीसवी सदी के मौज धरियों को चौधराहट का क्या होगा ?" क्तिनी मर्मान्तक सेवा-सुश्रुषा एवं उपचार से साहू जी को बचा लिया और व्यथा थी उनके इन शब्दो मे? वे प्राचीन जैन साहित्य को अपने पातिवृत्य एवं सतीत्व को सार्थक कर दिखाया, पूर्णतया सुरक्षित एवं प्रकाशित देखना चाहते थे। और कुछ समय बाद उन्हें अकेला छोड़ स्वयं स्वर्गवासिनी मैं विगत भट्रारह वर्षों से दिल्लीके जैन अथ भंडारों में हो गई, रमाजी ऐसी श्रेष्ठ और सती महिला रत्न थीं। रमा स्थित प्राचीन हस्तलिखित ग्रन्धों का सर्वेक्षण एवं विस्तृत जी के चले जाने पर साहू जी सर्वथा टुट गए थे। वे प्रायः केटालाग (सूची) का काम करता पा रहा है। जब उदास रहते थे फिर भी समाज सेवा पौर साहित्यिक कार्यों इसके प्रकाशन की बाधा व्यवधान को प्रोर उनका ध्यान मे उनकी रुचि कम नही हो पाई थी । यद्यपि उनका बामांग प्राकर्षित किया गया तो उन्होंने तुरन्त ही इसकी व्यवस्था चला गया था फिर भी वे धार्मिक, सामाजिक एवं साहित्यिक करा दी और अब यह दिल्ली जिन-ग्रन्थ रत्नावली' के कार्यों में सदा ही सक्रिय और सजग बने रहे। इस तरह नाम से जानीठ से प्रक शित हो रही है। इसी तरह, उन्होंने कभी भी शिथिलता नहीं प्राने दो! स्व. साहू (जैन आर्ट एण्ड प्राकिटेक्चर) नाम बृहत् ग्रन्थ के प्रकाशन जी जैसा सरल और सात्त्विक जीवन विरले ही लक्ष्मी. मे भी उन्होंने अपार धन व्यय किया। जैन तीर्थ क्षेत्रों पति जी पाते है। वे पूज्य क्षुल्लक प. गणेशप्रसाद जी वर्णी और मंदिरों का इतिहास एवं उनकी डायरेक्टरी तयार के परम भक्त थे । वे नित्य नियम से पूजन करते थे। उनके कराने में भी साहू दम्पत्ति सदा ही तत्पर रहते थे। उठ जाने से प्राज जैन समाज का ही नहीं अपितु संपूर्ण निधन छात्रो के उच्च अध्ययन एव वैज्ञानिक और भारत राष्ट्र का जाज्वल्यमान नक्षत्र प्रस्त हो गया है तकनीकी प्रशिक्षण के लिए स्व. साह जी ने अपनी परम जिसकी क्षतिपूर्ति निकट भविष्य मे होना असंभव प्रतीत पूज्या मातेश्वरी मति देवी के नाम से 'मूर्ति देवी छात्रवृत्ति होता है। फड' की स्थापना की थी जिससे हजारो प्रतिभावान् छात्रो आज जब मै स्व० साहू जी को 'बीसवी सदी का भोज' ने लाभ उठाया मोर प्राज देश और समाज की सर्वांगीण लिख रहा है तो मेरे मष्तिस्क में अचानक ही धारा नरेश रूप से सेवा कर रहे है। महाराज भोज की पाठशाला की उस वाग्देबी को प्रतिमा लिखने का तात्पर्य यह है कि साह दम्पति बडे उदार का सहज पुण्य स्मरण हो रहा है जिसे महाराज भोज प्रौर उच्च चरित्र के धनी थे । लक्ष्मी की विपुलता एवं ने निमित और प्रतिष्ठित कराया था और वह प्राजकल बलता के कारण प्राय: व्यक्ति में अनेकों दुर्गुण पंदा हो लदन के इपीरियल म्यूजियम मे सुरक्षित है, जिसकी प्रनुजाते है पर स्व. साहू जी इसके सर्वथा अपवाद थे। ये बड़े कृतियां ज्ञानपीठ तयार करा कर पुरस्कृत साहित्यकार मितभाषी एवं उच्च विचारक थे। समाज सुधार और को प्रतिवर्ष भेट करती है। इस तरह स्व. साहू जी का उत्थान एवं साहित्य के बहुमुखी विकास के लिए वे सदा वाग्देवा को प्र वाग्देवी की प्रतिमा के माध्यम से महाराज भोज से ही प्रयत्नशील बने रहे। भ० महावीर के २५००वें सामञ्जस्य बठाना काइ सामजस्य बैठाना कोई चाटुकारिता या कल्पना नही है, निर्वाणोत्सव पर वे यद्यपि बहत ही अस्वस्थ थे, फिर भी अपितु सहज ही हृदय मे घुणाकर न्याय से उत्पन्न यथाइस शुभ अवसर पर उन्होंने जैन एकता के लिए जो प्र- र्थता है । 'बीसवीं सदी के इस भोज' को मैं धारा नरेश थक परिश्रम किया वह इतिहास मे सदा स्वर्णाक्षरो में से किसी भी दृष्टि से कम नही समझता हूं। अकित रहेगा। परमप्रभु से प्रार्थना है कि उनकी प्रात्मा जहां कहीं जब पटना मे साह जी को हृदय रोग का दौरा पड़ा भी हो, शान्ति और सद्गति प्राप्त करे। हम इस सदी के तो सौ. रमा जी ने बड़ी दढ़ता और पूर्ण विश्वास के शोधार्थी और सरस्वती के सेवक उनके प्रति अपने हार्दिक साथ कहा था कि मेरे रहते उन्हें कुछ नही हो सकता श्रद्धा सुमन समर्पित करते हैं और प्रार्थना करते है कि उनके और तुरन्त ही एक व्यक्ति को मुनिश्री विद्यानब जी के द्वारा निर्देशित पथ पर हमें चलते रहने की प्रेरणा पौर पास भेज कर उनका शुभाशीर्वाद मगाया पौर स्वयं शक्ति मिलती रहे। 100 श्रुत कुटीर हवाई जहाज द्वारा तुरन्त ही पटना पहुंची और अपनी ६८, कुन्तीमार्ग, विश्वासनगर, शाहदरा, दिल्ली-३२ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदारमना सदाशय व्यक्तित्व डा. देवेन्द्रकुमार शास्त्री, नीमच जैन समाज के ही नहीं, भारतीय संस्कृति एव पाती । साहित्य के क्षेत्र में एक लाख का पुरस्कार प्रवर्तित सदीय जीवन के अभ्युदय मे साह-परिवार का अत्यन्त कर, राष्ट्र के साहित्यकारों में विशेष अभिरुचि का उन्नयन मरखपणं योगदान रहा है। स्व० शान्तिप्रसाद जी कभी कर, एक एसे साहित्यिक व सांस्कृतिक वातावरण का सीमित संक्रमित दायरो तथा सकाणं विचार- निर्माण कर, दक्षिण तथा उत्तर. पवं वं पनि न म कर सदा उस राजमार्ग मे रहे जा क्षितिजों की दूरी समाप्त कर, सभी भारतीय भाषानों बीयता एवं सार कृतिक गौरव गरिमा के प्रादर्श के के साहित्य को ज्ञानपीठ (वस्तुतः ज्ञानपीठ) के मंच से अनुरूप हो। इसलिए उनके व्यक्तित्व में जिस उदारता, प्रकाशमान किया है। इधर दक्षिण की भाषाप्रो के प्राचीन विशालता का परिचय मिलता है वह सहज व स्वाभाविक साहित्य को प्रकाशित करने की ज्ञानपीठ की अभिनव हजनकी वत्ति का परिचय इससे भी मिलता है कि योजना ने यह भली भाति प्रकट कर दिया है कि प्राचीन सदा प्राशावादी तथा प्रादर्शवादी रहे है। व्यक्तिगत साहित्य व अभिनव उत्कृष्ट साहित्य किसी क्षेत्र का तथा सामाजिक संघर्षों में उनकी भूमिका उस नेता की व किसी भी भाषा का हो, चाहे वह पुराना हो, चाहे नया भांति रही जो सदा अपनी सदाशयता से क्षुद्रता को प्रव हो, उसमे साहित्यिक सर्जना व प्रतिभा का यदि कोई भी हेलना कर उदारता को प्रशस्त करने वाला हो। यही महत्वपूर्ण पायाम लक्षित होता है, तो वह ज्ञानपीठ स्तर कारण है कि जैन समाज ने उनको माना व सराहा और के अनुरूप प्रकाशित हो सकती है । इस सस्था का निर्माण उनके नेतृत्व को सदा प्राप्त करते रहने की अभिलाषा करने मे स्व० साहू जी अग्रणी रहे है और इसके संचालन प्रकट की। किन्तु समाज का दुर्दैव ! ऐसे श्रीमान, धीमान, का समस्त श्रेय स्व० रमादेवी तथा श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन को निःस्वार्थ समाजसेवी का नेतत्व अधिक समय तक नही रहा है । यह कहने मे कोई संकोच नही है कि भारतीय मिल सका। नियति के कालचक्र ने सदा-सदा के लिए संस्कृति की गौरव-गरिमा को प्रकाशित करने में भारतीय उनका अपहरण कर लिया। ज्ञानपीठ का विलक्षण स्थान रहा है। हिन्दी साहित्य यों तो स्व० साह जी के कीर्तिमान को प्रकट करने तथा इतर भाषामों के साहित्यकार इस संस्था से अपने को के लिए एक भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन ही पर्याप्त है, गौरवान्वित मानते रहे है। जिसने न केवल सास्कृतिक प्रकाशनों का कीर्तिमान स्था- इस छोटे से लेख मे स्व० साह जी के उन शत-शत पित किया, वरन् विलुप्त होने वाली ऐसी पाण्डुलिपियो उपकारोंका स्मरण करना सम्भव नही है जो उन्होंने व्यक्तिको भी पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया। जो भारतीयता गत रूप से तथा सामाजिक रूप से व्यक्ति तथा समाज के की अक्षुण्ण धरोहर है और जिनसे भारतीय भाषामों का निर्माण के लिए किए थे। इन सबके अतिरिक्त मेरे मन विशाल भण्डार समद हमा है। संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रश की अन्तछवि में उनका वह सरल, सहृदय एव उज्ज्वल पौर हिन्दी भाषा के साहित्य को अभिनव, सुरुचिपूर्ण तथा व्यक्तित्व बार-बार प्रतिबिम्बित लक्षित होता है जो सांस्कृतिक स्तर के अनुरूप रम्य एव भव्य रूप में प्रकाशित अपने निर्णय मे उदारता व स्वतन्त्रता को प्रकट करने कर ज्ञानपीठ ने एक संस्था के रूप में जो कार्य किया है, वाला है । जो भी एक बार उनके सम्पर्क में पहुंचा है वह कई संस्थाएं मिल कर भी सा कार्य सम्भवतः न कर (शेष पृष्ठ १८ पर) Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्यश्लोक प्रेरणाप्रद व्यक्तित्व डा. रमेशचन्द जैन, बिजनौर पुण्यलोक श्रद्धय गाह शानि प्रसाद जी के दर्शन का एवं विशेष रूप मे कनिष्ठ छत्रों के प्रति जो स्नेह और प्रयम मुप्रवसा वागणपी में प्राच्यविद्या पम्मेलन के पाशीर्वाद की अभिनी , यह मेरे लिए तथा अन्य शुभानसर पर जैन साहित्य सगोष्ठी के शुभ प्रायोजन के छात्रों के लिए अविस्मरणीय है। इतने बड़े व्यक्ति का मध्ध हुमा। इससे पहले माज पौरम.हित्य के क्षेत्र में समाज के छोटे छोटे बच्चों से मिलना तथा इस प्रकार उनके द्वारा की गयी मेवानो की चर्चा अनेक श्रीमानो, आत्मीयता प्रदर्शित करना अन्यत्र दुर्लभ है। धीमानों और ममाजसेवियो के मूह से सुनी थी, किन्तु भारतवर्षीय दि. जैन परिषद के स्वर्ण जयन्ती अधि. माक्षात्कार का सुअनमर प्राप्त नहीं हुआ था। प्रथम दर्शन वेशन पर श्रद्धेय रतनलाल जी बिजनौर के साथ कोटा के समय उनकी सादगी, विनम्रता मोर समाज तथा धर्म. जाने तथा अधिवेशन में भाग लेने का सुअवसर प्राप्त गंव की उत्कट अभिलाषा को देखकर मेरा मन उनके हया । उक्त प्रधिवेशन के प्रमुख नायक स्वर्गीय साहू सा. प्रति द्वा में अभिभूत हो गया। उस दिन के अपने होथे। परिषद के सभी गमागन कार्यकर्तापो का जब परिभगण ग म्हाने पहा था कि माग कुछ वर्षों में भगवान जय दिया गया और मेरे परिवय का जब श्रम प्राया तो के निर्माण की २५००वी पुण्यतिथि भा रही या बीन में ही उठकर धय बार रतनलाल जी ने स्नहा. इस यिपर ममाज को वृहद् प्रायोजन करना चाहिए तथा तिरेक के कारण उपग्थिन जनपमदाय के मध्य मेरा परेवग्यान-स्थान पर बड़े समारोह क साथ उत्सव विटोप परिचा दिया. इमे सनकर साह सा ने अपना किा जाना चाहिए। वह समय एमा था, जब समाज ग्नेह प्रदशित किया और मेरे गोष प्रबन्ध, पचवरित प्रार कविमा व्यक्तियो की दृष्टि भगवान महावीर के उमगे प्रतिपादित भारतीय सम्कृति' के विषय में अनेक ५५००वे निर्वाण दिवम को पार नहीं थी, माहू सा. के जिज्ञामायें की तथा उनका समाधान प्राप्त कर अपना उक्त वक्तव्य के बाद सबसे पहन समाज का ध्यान इस सतोष प्रगट किया एवं उक्त अथ भारतीय ज्ञानपीठ स पर गया और बाद में ममाज ने जिम उत्साह और प्रकाशित कराने के लिए प्रेरित किया। परिषद् के सभा म्फति के माघ २५सौवा भगवान महावीर निर्वाण महोत्सव कार्यक्रमों में उन्होने भाग लिया तथा निरन्तर अपना मार्गमनाया वह किसी भी अन्य समाज के लिए स्मृहा की वस्तु दर्शन देते रहे। हो सकता है। इसके मूल में श्रद्धय माहू सा. की प्रेरणा अपने से बडे व्यक्तियो के प्रति साहू सा. के मन में और धर्मकार्य के प्रति श्रद्धा और तत्परता ही थी। प्रमीम थदा थी। परिषद् ने जब अपने कार्यकर्तामा का एक बार साहू सा. भारतीय ज्ञानपीठ के मंत्री श्री ताम्रपत्र प्रदान कर हादिक स्वागत किया, उस अवसर पर लक्ष्मी चन्द्र जी के साथ स्यावाद महाविद्यालय के भदैनी- ताम्रात्र प्रदान करने का कार्य सर्वप्रथम साहू जी ने घाट स्थित वाराणसी के जैन मदिर के दर्शनार्थ यात हुए मम्पन्न किया। सबसे पहले उन्होने परिषद् के सस्थापक थे। पाकर उन्होने श्रदेय पंडित कैलाशचद जी के विषय मामिद्ध स्वतंत्रता मैनानी बाबू रतनलाल जी के कर. मे पूछा । किसी विद्यार्थी से ज्ञात हुमा कि साह सा पाए कमलो मे ताम्रपत्र भेंट किया, तत्पश्चात् अन्य व्यक्तियों की हए है। यकायक माह सा. के भागमन की बात सुनकर ताम्रपत्र भेंट करने हेतु बाब जनताल जी से निवेदन कानो को विश्वास नही हुमा । तत्काल ही उनके दर्शनार्थ किया । बाब जी ने उनके निवेदन को पार किया, गया। अन्य विद्यार्थी के साथ उनमे बातचीत करने का तत्पश्चात् सारे ताम्रपत्र बाबू रतनलाल जी क करकमलो मुअवसर प्राप्त हुप्रा । अनौपचारिक रूप से पूज्य माहू जी द्वारा ही परिषद के अन्य कार्यकर्नाप्रो को भंट किए यए । ने प्रत्येक छात्र का जिम प्रकार परिषर प्राप्त किया तथा साहित्य और सस्कृति ममन्नय हेतु महू जी सनन छात्रों की समस्यानो के निराकरण हेतु अनेक सुझाव दिए प्रयत्नशील रहे। भारतीय ज्ञानपीठ, स्याद्वाद महाविद्यालय, Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ वर्ष ३१, कि० ३-४ वाराणसी, प्राकृत तथा अहिंसा शोध संस्थान, वैशाली, पसन है । साहू जी ने समाज में मुक्तहस्त से दान दिया। साह जैन कालेज, नजीब बाद, मूर्ति देवी कन्या इण्टर उनकी उदारता का लाभ उठाकर लोगो ने कुछ ऐसे कालज, नजीबाबाद, मूर्तिदेवी सरस्वती इटर कालेज, स्थानो के लिए भी उनस धन प्राप्त कर लिया जहा धन नजीबाबाद, भारतवर्षीय दि. जैन परिषद्, दिगम्बर जैन की आवश्यकता नहीं थी। एक बार परम पूज्य १०५ महासमिति, सराकोद्धार समिति, दि जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी, क्षुल्लक गणेश प्रसाद जी वर्णी ने साहू साहब को एक वीर संवा भांदर, देहली, जैन विद्या तथा प्राकृत विभाग, इलोक लिखकर दिया था, जिसका भाव यह थामसूर विश्वविद्यालय, मंसूर, दि. जैन प्रनाथ रक्षक सोसा- "हे वारिद ! तुम स्थल में भी बरसते हो, जल मे यटी दिल्ली, भा. दि. जैन विद्वत् परिषद्, समाज के भी बरसते हो, पहाड़ो पर भी बरसते हो, हिमशिलामो प्रमुख तीर्थक्षेत्र तथा अन्याय सैकड़ों सामाजिक धार्मिक पर भी बरसते हो। तुम्हें कहां बरसना चाहिए, इसका संस्थायें उनका वरद हस्त पाकर फली फली और उनमे बोध नहीं।" पूज्य वर्णी जी से प्रेरणा पाकर वे योग्य स्थान पर अपूर्व उत्माह का सचार हुमा। प्रायः धनी व्यक्तियो के विषय में कहा जाता है कि घन का सदुपयोग करने में सचेष्ट रहे। जीवन की सध्या में धन और भोग के प्रति उनके मन में निरासक्ति की धन की वृद्धि के साथ-साथ उनकी लोभवृत्ति भी बढ़ती जाती है। माननीय साहू शान्ति प्रसाद जी इसके अपवाद भावना उत्पन्न हो गई थी और उन्होने हस्तिनापुर में रह कर मं साधन करने की अपनी हादिक अभिलाषा व्यक्त थे। धन के साथ-साथ उनकी उदारता भी वृद्धिंगत होती की थी। काल दुरति क्रम है, साहू जी की उक्त भावना गयी। धन वत्ता और उदारता का मणि काञ्चन सयोग उनके मन में ही रह गई और प्रसमय में उन्होन अपना उनके जीवन मे था। एक बार पूज्य पं. कैलाशचन्द्र जी देहत्याग कर दिया। यद्यपि वे स्वर्गस्थ हो गए, किन्तु से चर्चा करते समय उन्होंने कहा था कि अधिकाधिक उनका यशस्वी जीवन युगों-युगो तके समाज को प्रेरणादायी धन कमाने और उस पच्छे कामो में व्यय करने का उन्हें रहेगा। जैन मन्निर के पास, बिजनौर (उत्तर प्रदेश) 400 (पृष्ठ १३ का शेषांश) उनकी सरलता से अभिभूत हुए बिना नही रहा है। दान देने लिए उत्सुक बने रहे। उन जैमी ज्ञान के प्रति ललक वालो और धन खर्च करने वालों की समाज व देश में कभी वास्तव में अंष्ठिजनों में लक्षित नहीं होती। लगता है कि नहीं है, किन्तु सरस्वती व सरस्वती के वरद पुत्रो के पाद- जीवन का सार वे पहचान गए थे, वर्तमान परिस्थिति में पदमों में कमलाकर लक्ष्मी को न्योछावर कर अपनी तथा सघर्ष की भूमिकानों को मार चुके थे, केवल शुद्ध श्री शोभा को सार्थक बनाने का गुण वास्तव में स्व. ज्ञानामत का पान करना ही अशिष्ट रहा था, जिसे शान्तिप्रसार जी मे ही था। पान करने के लिए उनका उद्यम जागृत हो गया था। उनमे एक गुण पौर था। वे सुनते सब की थे पर काश ! वे प्राज की परिस्थितियों में होते । इस अध्यात्म निर्णय उनका अपना होता था। सभी सन्त महात्माप्रो के युग की सरस धारा से उनका अनन्य सम्बन्ध प्रगाढ़ता पाम वे बिना किमी हिचक के पहुंच जान थे। पूज्य वर्णी को प्राप्त होना तो वह उनके लिए भी और हमारे लिए जी के अनन्य संस्कारों से प्रभावित होकर ही वे किसी भी श्रेयस्कर होता। परन्तु काल पर किसी का वश नही। भी प्रभाव का अपनो सुमति-निष्कर्ष पर क से बिना ग्रहण हम केवल भावना ही भा सकते है। और इसालए यह करने के लिए तैयार नही होते थे। केवल सत्साहित्य से भी कह सकते है कि भले ही प्राज हमारे बीच साह नहीं, विद्वज्जनो के प्रति उनके मन में प्रगाध अनुराग शान्ति प्रसाद जी सदेह रूप से न हो, पर उनके अनगिनत व श्रद्धा का भाव था। वीतराग विज्ञान वाणी से ही लौकिक कार्य भली भाति पुकारु कर यह कह रहे है कि वे उसे शान्ति का गनुभव होता था। अप। अन्तिम समय मजर है, अमर हैं 1000 २४३, शिक्षक कालोनी, तक वे उसे एक सच्चे श्रोता की भोति श्रवण करने के नीमच (मध्यप्रदेश) Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माधुनिक भामाशाह विद्यावारिधि डा. महेन्द्र सागर प्रचंडिया, मलोगढ जिस प्रकार वाणी चरित्र की प्रतिध्वनि होती है, उसी तीय सांस्कृतिक सम्पदा को सुरक्षित रखने को प्रति प्रकार व्यक्ति के क्रिया-कलाप उसके व्यक्तित्व के परिचा. का परिचायक है। यक हप्रा करते है। साइजी मनसा, वाचा और कर्मणा शुद्ध उनके द्वारा भारतीय जन समाज गर्वित है पौर महू जी थे । साकार प्रनन्वय प्रलंकार । गौरवान्वित है जनेतर समाज । राष्ट्रीय भावना कोई दिन-दिनांक ठीक से स्मरण नहीं. परन्तु परेड ग्राउड उनसे सीखता, वे विशुद्ध राष्ट्रवादी थे। वे मात्र मानव दिल्ली मे जैन मित्र मंडल के तत्वावधान में पायोजित ही नही थे अपितु मानवता के सच्चे समर्थक भी थे । था। महावीर जयती महोत्सव के अवसर पर श्री सत साहू राष्ट्रीय सकटकाल में उन्होने उदारतापूर्वक प्राधिक जो उस विशाल सभा के सम्माननीय सभापति थे और सहयोग देने वालो में अपना स्थान सुरक्षित रखा। वे अन्य पनेक वक्तामों की भाति मझे भी प्रामन्त्रित किया पर बीस वस्तुत माधुनिक भामाशाह थे। मया था। पैतालीस मिनट उन्होंने मुझे पूरी तन्म पच्चीससौदें भ. महावीर निर्वाण महोत्सव में उन्होंने यता के थाथ सुना था भोर तब मुझे महसूस हा कि सम्पूर्ण भारतीय जैन बन्धुषों को एक संगठन में व्यववे प्रवचन सुनकर प्रानन्दित हुए थे। उन्होने साघवाद स्थित किया । श्वेताम्बर पोर दिगम्बर सम्प्रदायों को एकदेते हए मेरी पीठ पर अपना वरदहस्त रखा हा कदाचिन सूत्र मधिने का श्रेय साह जी का मिला था। ये साम्यउनसे मेरा यह प्रथम निकटतम सम्पर्क था। वे धार्मिक वादी दृष्टिकोण के उन्नायक थे। थे और धर्म के मर्म को सामाजिक शैली में व्यक्त करने जैन परिवार के अगणित होनहार युवकको वेजोड क्षमता रखते थे। युवतियो ने उच्च शिक्षा प्राप्त कर समाज, समुदाय विशाल भारत का प्रौद्योगिक उत्कर्ष दशाब्दियों पर्यन्त और देश प्रदेश को गौरवान्वित किया है। उनके द्वारा कल ता में समलंकृत रहा और साहू जी का वहाँ अपना देश के अनेक साहित्यकार निगकुल हुए है। देश को पत्र. स्थान था। उनके द्वारा अनेक प्रौद्योगिक प्रतिष्ठानो कारिता के उन्नयन में साहू जी का सहयाग सर्व या उल्ले की स्थापना हुई। फलस्वरूप वे स्वयं बने और खनीय रहा है। इस प्रकार, साहू जी की सामाजिक, देश का बनाने के निखित निमित्त बने । उन्होंने राष्ट्रीय तथा धार्मिक सेवाभो पे मारा समुदाय और ममान साहित्यिक क्षेत्र में 7 अद्वितीय उद्योग किया। भारतीय उकृत रहेगा। ज्ञानपीठ प्रकशा इम दृष्टि से प्रकाशन प्रतिष्ठानो मे प्राज शारीरिक रूप में साह जी वाहे हमारे बीच में उल्लेखनीय है। भारत का नोबुल पुरस्कार --भारतीय उठ गए हो किन्तु वे पाने काम काज म, नी । नपुप ये, ज्ञानपीठ पुकार साहू जी की बेन नीर प्रेरणा है। धर्म-कर्म से प्राज हो नही प्रन पग्नियो तक बैठे रहेगे। भारतीय मामानिक मास्कृतिक तथा धार्मिक निर्माण योज. उनकी सेवाये उनका शाश्वत स्मारक बन गई है। उनकी नामो की पाधा नक्तियों में साहू जी की सहयोगी भूमिका मामाजिक सेवापों ने मन्मार्ग का माहल म्योन स्थापित किग उल्लेखनीय रही है । तीर्थोद्वार, जिन मंदिरों की संरच. है । माहू जी साधारणत. मसाधारण व्यक्तित्व के महापुरुष नाए, विद्या-केन्द्रों की स्थापना मानो साहू जी की भार- थे, महान थे। un Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरस्वती के परम उपासक डा. कस्तूर चद कासलीवाल, जयपुर साह शान्तिप्रसाद जी जैन देश और समाज के उन भेंट हई थी। देहली में भी उन्हो ने प्रदर्शनी के प्रायोजन श्रेष्ठिरनो मे से थे जिनकी सेवायें मदा अविस्मरणीय म पूरी रुचि ली थी तथा वहां प्रदर्शित प्रत्येक वस्तु का रहेगी तथा जिनका नाम भविष्य मे उदाहरण के रूप में उन्होंने बारीकी से अध्ययन किया था। उन्होंने उस समय लिया जाता रहेगा। साहू जी समाज के गौरव थे। जयपुर के प्राचीन भक्तामर स्तोत्र को सचित्र पाण्डुलिपि उनके प्राश्रय मे समस्त जैन समाज निश्चिन्त था । वे को अपनी ओर से छपाने का प्रस्ताव रखा था, लेकिन एक महान व्यक्ति थे जिनके हृदय में समाज का दर्द छिपा जयपुर के मन्दिर के व्यवस्थापको ने उसे स्वीकार नही हमा था। इसलिए साहित्यिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक किया और वह बहुमूल्य ग्रन्थ प्रकाशित होने से रह गया। सभी गतिविधियों के विकास मे उनका वरद हस्त रहता जयपूर में भगवान महावीर के २५सौवी निर्वाण था। समाज मे उनकी उपस्थिति ही कार्यकर्तामो मे महोत्सव की मीटिंग में सम्मिनित होने के लिए वे कितनी उत्साह पैदा करने के लिए पर्याप्त मानी जाती थी। ही बार पाए । जयपुर मे उनका अन्तिम प्रागमन उनको साह जी समस्त दि० जैन समाज के एकमात्र प्रतिनिधि मृत्यु के कुछ ही समय पहिले हुमा था। वे भाद्रपद मास थे, इसलिए जिस भी उत्सव, मेले एवं कार्यक्रम में साहू मे बापू नगर के पार्श्वनाथ जैन मण्डल द्वारा प्रायोजित जी सम्मिलित हो गये तो ऐसा माना जाता था कि मानो युवा सम्मेलन में कुछ समय के लिए पाए थे और युवको उसको पूरे समाज का ही जैसे समर्थन मिल गया हो। को मामाजिक सेवा मे जट जाने की प्रेरणा दे गए थे। साह शान्तिप्रसाद जी ने समस्त जैन समाज पर ३०. वह सम्भवतः उनका अन्तिम सदेश था। ४० वर्षों तक एकछत्र शासन किया। उन्होंने समाज साह जी को साहित्य से कितना प्यार था, उसके को नई दिशा प्रदत्त की, कार्य करने की शक्ति दी तथा प्रकाशन मे उनकी कितनी रुचि घी, इसका प्रत्यक्ष संकट के समय उसका जिम प्रकार साथ दिया वह सब उदाहरण उनका भारतीय ज्ञानपीठ जैसे सस्था का इतिहास की प्राज अमूल्य धरोहर हो गयी है। उनके सचालन है। उन्होने सेकडो जैन ग्रन्यो के उद्धार का निधन से समाज ने वास्तव में अपना बहुमूल्य रत्न खो महान पुण्य प्रर्जन किया। वे जीवन भर जिनवाणी के दिया है जिसकी पति निकट भविष्य मे सम्भव नही प्रकाशन एव उसके प्रचार के प्रमार प्रति समर्पित रहे। लगती। यदि सामाजिक इतिहास के पष्ठों को खोलकर वास्तव मे गत सैकड़ों वषो मे उन जैमा जिनवाणी का देखा जाए तो हमें मालूम पडेगा कि ऐसा उदार हृदय प्रचारको तयार समाज सेवी व्यक्तित्व सैकड़ों वर्षों में नहीं हुमा । उन्होने भारतीय ज्ञानपीठ के माध्यम से ही साहित्य साह जी से मेरी प्रथम भेट कलकत्ता महानगरी में सेवा नही की. किन्तु सन्य प्रकाशन सस्थायो को उम्होने बेलगचिउपा मे पागोजित जैन साहित्य एव कला प्रदर्शनी खब आशिक सहायता दी। वीर संवा मन्दिर द्वारा में कोई २८.३० वर्ष पूर्व हुई थी। उस ममय उन्होन। प्रकाशित जैन लक्षणावली के प्रकाशन में भी उनका जिम तन्मयता में जैन ग्रन्थों में रुचि ली थी तथा अपने पर्याप्त प्राथिक योगदान रहा । मैंने स्वय ने समस्त हिन्दी भाषण में उनके महत्व पर प्रकाश डाला था, उससे मेरे साहित्य के प्रकाशन के लिए जयपुर में श्री महावीर मन पर गहरी छाप पटी थी। उसके पश्चात् वैशाली में प्रन्थ प्रकादमी की स्थापना की तथा उसकी योजना एवं मायोजित एक वृहद् जैन प्रदर्शनी के अवसर पर उनसे . (शेष पृष्ठ २४ पर)। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महान कर्मयोगी की जीवन-साधना D० परमानन्द शास्त्री, बिल्ली साह शान्ति प्रसाद जी का जन्म नजीबाबाद के प्रति की पोर उनमा पाकर्षण था। ष्ठिन साहू पाने मे सन् १९१२ में हुपा था। इनके शान्ति प्रसाद का विवाह डालमिया की यपुत्री रमा पितामह का नाम साहू सलेकचन्द और पिता का नाम जी के गाय सम्पन्न हपा । रमारानी विदुषी, कर्तव्यारादीवानचन्द था और माता का नाम मूति देवी य । यण, व्यवहार मे चतूर पौर परोपकारनिरत महिला घों। साह सलेकचन्द अपने समय के श्रीसम्पन्न और प्रतिष्ठित वेसाह जी के कामों में प्राना सहयोग प्रदान करती थी। व्यक्तित्व वाले पुरुष थे। उनके यश और कीति को अच्छो भारतीय ज्ञानपीठ को स्थापवा काल सन् १९४४ से ही वे ख्याति थी । एक बार जो उनके सम्पर्क में प्रा गया, वह उसकी अध्यक्ष थी। उन्होंने अपने अन्तिम समय तक उन से प्रभावित हए बिना नहीं रहा । पिता दीवान चन्द । अपना मातृस्नेह दिया और अपनी प्रेरणा से उसे इस सौम्य प्रकृति और शालीन स्वभाव के थे। समाज में योग्य बनाया जिसमे कि वह स्थायी साम जिक-सास्कृतिक उनकी प्रतिष्ठा और सम्मान था और माता श्रीमती महत्व के कार्यदायित्वों को उठा सके। इन दायित्वों के मूति देवी प्रत्यन्त सरल स्वभावी और धार्मिक प्रकृति की अन्तर्गत जहां एक पोर भारतीय विचार-दर्शन की उपे. महिला थीं। वे ऐमी सहृदया और लक्ष्मी स्वरूर थीकि क्षित निधियों का अनुसंधान, प्रकाशन पोर पाषुनिक भार. उन्होंने दूसरों की चिन्ता को भी अपनी बना लिया था। तीय भाषानों में मौलिक साहित्य सृजन के कार्य हैं। वहीं वे एक सुयोग्य माता थी । उन्होंने शान्ति प्रसाद को योग्य दमरी मोर भारतीय भाषामों की सर्वोत्कृष्ट कृति पर एक बनने के सभी साधन सुलभ कर दिए ताकि भविष्य मे वे लाख रुपये की पुरस्कार योजना, तथा प्राचीन स्थापत्य एवं सफ्नी चिन्तामों को स्वयं वहन कर सकें। कलानी की सयोजना भी है। शान्ति प्रसाद जैन की प्रारम्भिक शिक्षा नजीबाबाद साह जी मे मोद्योगिक कार्यों को सम्पन्न करने की में हुई। तत्पश्चात् उन्होंने बनारस विश्वविद्यालय और बहन बड़ी रुचि और क्षमता थी। बुद्धि कुशाग्र थो, प्रत. प्रागरा विश्वविद्यालय में अध्ययन किया । इन महा- एवं उन्होने उद्योगों और व्यवसायों के सम्बन्ध मे अपनी विद्यालयो में उनका समूचा विद्यार्थी जीवन प्रथम श्रेणी गवेषणा और प्रध्ययन शुरू कर दिया। देश के उद्योगका रहा । साहू शांति प्रमाद ने मात्र ज्ञानार्जन की दृष्टि व्यवमायों मे अभिवृद्धि पोर संचालन प्रणाली मे नये में से ही प्रध्ययन नहीं किया, प्रत्युत अन्य दृष्टियों से भी। नये प्राविधिक रु का समावेश हो सके, इसके लिए उनमे वे वे सभी गुण और सद्वत्तियां थी, जो माता-पिता उन्होंने उन पद्धतियो का गंभीर अध्ययन किया तथा और अपने पूर्व पुरुषों के रूप में उन्हें प्राप्त हुई थी। विविध क्षेत्रो में मवेषणायें पराई। साहू जी ने अपने उहउन्होंने प्रागरा विश्वविद्यालय से बी. एस.सी. की परीक्षा इयों की पू को दृष्टि-ला में रखते हुए प्राव. 'प्रथम श्रेणी में पास की। उनका विद्यार्थी जीवन प्राने श्यकता के अनुरूप महत्वपूर्ण स्थानो मे स्वय परिभ्रपण सहपाठियों से कुछ भिन्न था, हृदय कामन और प्रकृति किया । सबम पहले सन् १९३६ मडच ईस्ट इण्डीज गए। उदार थी। क्षयोपशम विशिष्ट था, अतएव जो भी सन १९८५ मे प्रास्ट्रेलिया तथा सन् १९५४ मे सोवियत मध्ययन किया, उसमे उनकी योग्यता की झलक स्पष्ट रूस गए। य तीनी यात्राए उन्होन भारतीय प्रौद्यागि दिखाई देती थी। मध्ययनकाल में उद्योग और व्यवसाय प्रतिनिधि के रूप में की थी, जो परिणाम को दृष्टि से Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२, ३१, कि०.४ अनेकान्त प्रत्यन्त महत्वपूर्ण मानी जाती हैं। उसके बाद उन्होंने अंग्रेजी, मराठी और गुजराती के दैनिक पत्र और सावधिक ब्रिटेन, अमेरिका, जर्मनी तथा अन्य योरोपीय देशों में भी पत्र पोर पत्रिकाए, तथा साहित्यिक, सांस्कृतिक और शोषपरिभ्रमण किया और उससे जो अनुभव प्राप्त किया, उन पूर्ण प्रकाशन उनके महत्वपूर्ण कार्य हैं। उपलब्धियों के समावेशन द्वारा साहू जैन उद्योग को साहू जी विगत वर्षों में देश को विभिन्न शीर्ष व्यवअधिकाधिक समृद्ध बनाया। इससे जहां साहू उद्योग मे साय संस्थानों के अध्यक्ष रहे हैं। इनमें प्रमुख हैं फेडरेशन विशिष्टता पाई, वहां साह जी का व्यक्तित्व उजागर हमा। माफ इण्डियन चेम्बसं माफ कामर्स ए णस्ट्री, उनके व्यक्तित्व की सबसे बड़ी महत्ता विनम्रता थी। जिस इण्डियन चेम्बर्स माफ कामर्स, इण्डियन शुगर मिल्स एसो. तरह के व्यापारादि में भागे बढ़ उमी तरह उनका व्यक्ति सिएशन, विहार चेम्बर्स माफ कामर्स एण्ड इणस्ट्री, स्व भी प्रतिभाशाली होता गया। राजस्थान चम्वसं घाफ कामर्स एण्ड इण्डस्ट्री तथा ईस्टनं यू. व्यक्तित्व पी. चेम्बस पाफ क पसं एण्ड इण्डस्ट्री । उनकी गणना भारत के महान प्रौद्योगिक चार वर्ष तक लगातार ग्राप प्राल इण्डिया प्रा. पौर प्रतिष्ठित परिवारों में की जाने लगी। इतना ही नहीं नाइजेशन माफ इण्डस्ट्रियल एम्प्लायर्स के भी अध्यक्ष यह किन्त उनकी उदारता, सौजन्य पौर कर्तव्यनिष्ठा और इसी अवधि में जब भारतीय श्रम व्यवस्था सम्बन्धी ने व्यक्तित्व की महत्ता में चार चांद लगा दिये । जिस नियम बने, तब पापने अपने उद्योग धन्वों का रिक सहजता के साथ प्रौद्योगिक और पवसायिक क्षेत्रो मे दृष्टिकोण उपस्थित किया। साहजी ने जो सफलता प्राप्त की, वह उनकी स्वभाव- सामाजिक जीवन गत प्रतिभा, सूझ-बूझ, संगठन क्षमता पौर अध्यवसाय प्रपनी विशिष्ट प्रतिभा सम्पन्नता तथा व्यापक की सम्मिलित देन है। उनका प्रतिभाशाली व्यक्तित्व, अनुभव के कारण साहूजी देश के उद्योग एवं व्यवसाय वर्ग कार्यदक्षता, विवेक पटुता, साहस और ग्रावाय उनकी द्वारा अनेक अवसरों पर सम्मानित किए गए। स्वर्गीय इस कार्य प्रणाली में सहायक थे। उद्योग धन्यों को पं. जवाहर लाल नेहरू ने देश की प्रौद्योगिक प्रगति की स्थापना कुशल नेतृत्व के बिना नहीं हो सकती। देश पे वैज्ञानिक परिकल्पना को कार्यान्वित करने के लिए जो अनेक उद्योगो के विकास मे उनका महत्वपूर्ण योगदान प्रथम राष्ट्रीय समिति गठित की, उसमे देश के तरुण मौद्योगिक वर्ग का प्रतिनिधित्व करने के लिए पापको जहां उनमे भारतीय धर्म, दर्शन, संस्कृति, इतिहास उपका सवस्य बनाया था। पौर पुरातत्त्व के अध्ययन के प्रति प्रान्तरिक रुचि थी, इन सब कार्यों पोर व्यवसाय में संलग्न होते हुए भी उनके धार्मिक विचार काकी दव पौर गहरे थे। उनके उन्हें जैन धर्म और संस्कृति से गहरा प्रेम था। वे जैन माथिक एवं व्यावसायिक समस्याग्रो के सुलभ समाधान धर्म के प्रति प्रगाढ़ श्रद्धालु और दयालु थे। जैन धर्म का खोज निकालने की क्षमता भी थी। महत्व उनकी रग-रग मे समाया हुअा था । उद्योगपति और साह शान्ति प्रमाद जी सहूँ जैन उद्योगों के बनी होते हैं। भी उनमें अभिमान नहीं था। वे कभी प्रधिष्ठाता थे पोर देश के महान उद्योगपतियों को प्रथम दूमरों को नीचा दिखाने की दृष्टि से कोई कार्य नहीं श्रेणी में थे। उनके कुशन व व्यापक निर्देशन के परि. करते थे । जहां उनका व्यक्तित्व महान था. वहां उनका णामस्वरूप साह जैन उद्योग वर्ग अत्यन्त मुनियाजित कृतित्व भी कम महत्वपूर्ण नही था। वे श्रावक धर्म का रूप मे संगठित है। उनमे कागज, चीनी, वनस्पति, सीमेंट, यथाशक्ति पालन करते थे। उनके हम धर्मानुराग के कारण एसवेस्टम प्रोडक्टम, पाट निपिलवस्त्र, भारी रसायन, ही जैन समाज ने उन्हें श्रावकशिरोमणि की उपालिसे नाइट्रोजन खाद, प वर मल्कोहल, प्लाईवर, कोयले की लंकृत किया था। खाने, लाइट रेलवे व इजीनियरिंग वस माते है । हिन्दी, साह साहब ने अपने जीवन में जो धार्मिक, सांसति Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महान् कर्मयोगी की बीवन-साधना मौर लोक हितकारी ठोस कार्य सम्पन्न किए हैं। उन्हें (बिहार में) रिसर्च इंस्टिट्यूट पाफ प्राकृत जैनालोनी मौर देखते हुए ऐसा लगता है कि साह जी ने जैन सस्कृति को महिसा शोध संस्थान बिल्डिग के निर्माण के लिए पांच लाख पचास हजार रुपये की राशि अनुदान स्वरूप दी गई। इस ऊंचा उठाने के लिए विविध संस्थापो का निर्माण और । सस्था का सच लन विहार सरकार की भोर से हो उनके संचालन के रूप मे भारी योगदान दिया है और अपनी उदारता एवं सौजन्य से उनकी संचालन व्यवस्था मे इसी ट्रस्ट द्वारा देवगढ, गैरा, माहार, वानपुर, अभाव के कारण शिपिनता नही माने दी। उस समय पचराई, द्रोणगिरि, अयोध्या, खजुराहो और चित्तौड़गढ़ जो भी सस्थाधिकारी उनके पास पहुंचा, वह कभी खाली प्रादि स्थानों के मदिरों और तीर्थ स्थानों का जीणों हाथ नही लौटा। उन्होंने उनकी तत्काल अर्थपूर्ति की। द्वार किया गया और देवगड़ मे समहालय की भी वे समाज के घामिक एवं सास्कृतिक उत्सवो पीर सामाजिक स्थापना की गई। गोष्ठियो मे रस लेने लगे । वे कई सस्थानों के अध्यक्ष पोर दो लाखक यो का अनुदान मंसूर विश्वविद्यालय को मंत्री चुने गए। समाज में उनकी महती प्रतिष्ठा बढी प्राकृत परिशीलन पोठ की स्थापना के लिए प्रदान किया मौर उनके कृतित्व की महत्ता जैन समाज म छा गई। गया । स्वर्गीय डा. ए. एन. पाध्ये ने पीठ पर सबसे पहले उन्होने जैन तीर्थों की महती सेवा की और अपन ग्रास ग्रहण किया। व्यक्तित्व के अनुसार उनके ममुद्धार में अपना योगदान इनके अतिरिक्त, दो इण्टरमीडिएट कालेज दिया। उन्होंने तीर्थ क्षेत्र कमेटी का व्यवस्थित कराया। वे नजीबाबाद मे बोले गए और चनाये जाते हैं। समाज संगठन की अावश्यकता को भी महसूस करते थे। उनके द्वारा सम्थापित अन्य सस्थाए है : मूर्तिदेवी जब मध्यप्रदेश मादि में प्राचीन जैन कलात्मक कन्या विद्यालय, नजीबाबाद, शान्ति प्रमाद न काजेज, मूतियो के तस्कर गिरोहो द्वारा पुरातात्त्विक बहुमूल्य सासाराम (बिहार) या रगागनी जैन बालिका विद्यालय, सामग्री विदेशो मे बेचकर अर्थाजन किया जान लगा तब डेहरी प्रोन-मोन, बिहार, अशोक कुमार जैन हाई स्कूल, इससे जैन समाज में क्षोभ बढ़ गया पोर समाज के दरीहाट (बिहार); राजेन्द्र छात्र भवन, कलकत्ता; गोविन्द धार्मिक पुरुषो और साहू जो को इससे बड़ा वेद और दुख बल्लभ पत छात्रभवन, कलकत्ता; श्री दिगम्बर जैन हमा । परिणामस्वरूप उसके सरक्षण का भी विचार किया विद्यालय, कलकत्ता; श्री दिगम्बर बालिका विद्यालय, गया। माहू जी ने इस सम्बन्ध मे यह नश्चय किया कि कलकत्ता; मा वाडी रिलीफ सोसायटी हस्पताल, कलकत्ता इसके लिए एक ट्रस्ट की स्थापना की जाय। प्रतएव अहिंसा प्रचार समिति, कलकत्ता; वीर सेवा मदिर, दिल्ली: उन्होंमे सन् १९५१ मे एक ट्रस्ट की स्थापना की, जिसका गणेश वर्णी संस्कृत महाविद्यालय, मागर, स्यावाद महाउद्देश्य सास्कृतिक सस्थामो को प्रोत्साहन देना, प्राचीन विद्यालय बनारस । मन्दिरों और तीर्थों का जीणोद्वार करना, देश में सर्वा- भारतीय ज्ञानपीठ के अतिरिक्तपन्य दम्टो की भी उन्होने गीण सग्रहालय स्थापित करना प्रौर विद्याथियो को स्थापना की है। इनमें प्रमुख है साह जैन दृस्टोर साह प्रारम्भिक श्रेणी से लेकर विश्वविद्यालय के स्तर तक जैन चंरिटेबल सोसाइटी । भारतीय ज्ञानपीठ, एक महत्वपूर्ण शिक्षा कार्य मे प्राधिक सहयोग प्रदान करना है। साहित्य प्रकाशक सस्था है, जिसके द्वारः प्राकृत, संस्कृत इस ट्रस्ट द्वारा पिछले कुछ वर्षों में देश के विभिन्न प्रजी, कन्नड़ प्रादि भाषामो मे विपुल साहित्य प्रकाशिक्षा केन्द्रो के ५६०० विद्यार्थियों को सत्रह लाख तेईस शित किया जा रहा है। इसमे अन्य कई प्रथमालाए हजार रुपये की सहायता दी गई और विदेशों में शिक्षा है जिनमे हिन्दी साहित्य प्रादि का प्रकाशन होता है। अंन करने वाले ७५ स्नातकों को दो लाख की सहायता इसकी सबसे बड़ी महत्ता विविध भाषामो की सर्वोत्कृष्ट राशि अतिरिक्त दी गई। रचनामों पर प्रति वर्ष एक लाख रुपये का पुरस्कार वितरण इसी ट्रस्ट द्वारा महावीर की जन्म स्थली वैशाली मे है। अब तक १२ पुरस्कार दिये जा चुके है । माणिक बन्द Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५, ३१, कि०४ ग्रंथमाला से भी कई ग्रन्थ प्रकाशित किए गए हैं। चाहते थे, यद्यपि वे उसे पूरा नही कर पाए । तदपि पर्व २५००वा निर्वाण महोत्सव समाज का कर्तव्य है कि वह अपने दायित्व को समझकर भगवान महावीर के २५०० वें निर्वाण महोत्सव महासमिति के कार्य को प्राग बढ़ाने का प्रयत्न करे। मे साह शान्ति प्रसाद जी ने कार्याध्यक्ष होकर जो ऊपर दिखलाए गए धामिक और सांस्कृतिक ठोस महत्वपूर्ण कार्य किया वह मद्वितीय है। प्रापने उसे गति कार्यों मे स ह जी का जो सह्योग मिला, वह अनुकरणीय प्रदान करते हुए भगवान महावीर और उनके सिद्धान्तो है। इन ठोस कार्यो मे द्रव्य विनिमय कर वे सच्चे अर्थों को घर-घर में पहुंचाने का प्रयत्न किया है पोर धर्मचक्र मे दानवीर है। विभिन्न कार्यक्रमो, योजनामो मे उनका द्वारा सारे भारतवर्ष में उनकी वाणी और चरित को चिन्तन एवं नेतृत्व द्वारा जो विशिष्ट दिशादार साह पहंचाने का अनुक्रम अनूठा था । दिनो मे जो उसका साहब ने दिया है वह चिरस्मरणीय रहेगा। विगट जलूम निकना बह प्रदर्शनोग्य को आकर्षण को अन्तिम क्षणों में साहू जी के परिणाम इतने निर्मल बस्त था । इसका प्रमुख श्रेय साहूशालि प्रसाद जी को है हो गए थे कि उन्होन प्रपन पुत्र प्रशोक कुमार जैन से दिल्ली जैन समाज और अखिन भारतीय जैन समाज इच्छा व्यक्त की थी कि वह स्वस्थ होने के उपनि को है। भूतपूर्व प्रधान मन्त्री श्रीमती इन्दिरा गानी के हस्तिनापुर में मुनि श्री शान्तिमागर जी के निर्देश में सौजन्य से सरकार से भी पूर्ण सहयोग मिना, इसके लिए शेष जीवन व्यतीन करेंगे तथा महाराज श्री जब जमी सभी धन्यवाद के पात्र है। उचित समझेगे, दे देगे। दिगम्बर जैन समाज में संगठन और एकता बनी इममे स्पष्ट है कि साहू जी की धार्मिक भावना रहे तथा समन्वय की भावना को बल मिले, इसके लिए अन्तिम समय तक सजीव रही है। यद्यपि यहा उनका साहू जी ने महाममिति का निर्माण किगा। सौतिक शरीर अब नही है। किन्तु महत्वपूर्ण कार्यों में वे महासमिति की स्थापना द्वारा जो कार्य व निष्पन्न करना अमर है। 0 .0 (पृष्ठ २० का शेषांश) नियम जब साहू जी को भेजे पोर उनसे तरथा का संर- देश का एकबार ही नहीं, कितनी ही बार दौरा किया क्षक बनने के लिए निवेदन किया तो उन्होने साहित्य तथा गरीब स लेकर प्रगीर तक मे जन सेवा के भाव-भरे प्रकाशन की योजना की प्रशा करते हुए तत्काल उमका वह सब उनके महान् व्यक्तित्व का परिचायक है । जयपुर संरक्षक बनना स्वीकार कर लिया। इमलिए पता नही मे प्रायोजित एक सभा में वे इसने द्रवीभूत हो गये कि उन्होंने कितनी प्रकाशन संस्थानों को जैन साहित्य के सारी सभा के ही प्रासू बह निकले थे। प्रचार प्रसार में योग दिया था। साह जी पुरातत्व के प्रेमी थे प्राचीन मंदिरों के जैन साहित्य एवं जैन समाज की सेवा के लिए जीर्णोद्धार मे उन्होंने विशेष रुचि ली। दक्षिण भारत उनके हृदय में गहरे भाव थे। भगवान महावीर की एव बुन्देलखण्ड के कितने ही मन्दिरों का उन्होने जीणों२५..वीं निर्वाण शताब्दी महोत्सव का जिस कुशलता द्वार करवा कर मन्दिरों की कला एव सम्पत्ति को नष्ट एवं सजगता से सचालन किया तथा समस्त जैन समाज को होने से बचा लिया। एकसूत्र में बांधने का जो प्रशसनीय कार्य किया वह साहू जी साहू जी के कार्यों का वर्णन करने के लिए किसी जैसे व्यक्ति के लिए ही सम्भव या पौर वह सब उनकी एक बड़े ग्रन्थ की पावश्यकता है, जिसमें उनके जन्म से वर्षों की साधना का फल था। स्वास्थ्य खराब होने एवं लेकर मृत्यु पर्यन्त उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर सांगोधर्मपत्नी श्रीमती रमा जी का वियोग होने पर भी उन्होंने पांग वर्णन रहे । तभी जाकर हम उनके पूरे कार्यो सेसमाज जिस प्रसाधारण साहस एवं सूझबूझ से काम लिया, सारे को एवं मागे माने वाली पीढ़ी को परिचित करा सकेंगे। 000 Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्वी सरस्वती पुत्र श्रीमती जयवन्ती देवी जैन, नई दिल्ली स जातो येन जातेन, याति वंशः समुन्नतिम् । घन्य है उस मां को, जिसने ऐसे यशस्वी सरस्वती परिवर्तिनि संसारे, मृतः कोऽवा न जायते ॥ यों तो ससार में हजारों जीव जन्म लेते हैं तथा मरण ज्ञान को भागीरथी को बहाने, पौर प्रज्ञान के अन्धकार करते हैं लेकिन जीना उन्हीं का सफल है जो अपना जीवन को नष्ट करने के लिए साह जी ने 'भारतीय ज्ञानपीठ' की समाज सेवा में लगा देते हैं तथा अपने कार्यों द्वारा मर- स्थापना की। उनकी स्वनामधन्य पत्नी स्व. श्रीमती कर भी जीवित रहते है। रमा जैन ने इस भारतीय ज्ञानपीठ की अध्यक्षा के रूप में साह जी की जीवनी त्याग और परोपकार की जोती. साहजी के यश को पमर किया। देश-विदेश का सम्पूर्ण जागती मिसाल है। साहू जी कहा करते थे कि देश के वाङ्मय ज्ञानपीठ के द्वारा मादर एवं प्रतिष्ठा का पात्र इन छोटे-छोटे बच्चों में महावीर, बुद्ध, गांधी और जवाहर बनाया। विद्यमान है। इसलिए साह जी ने देश के साधनहीन छात्रों श्रेष्ठ बावक :प्रायः देखा जाता है कि विपुल धनराशि की सहायता हेतु "साहू जैन ट्रस्ट" स्थापित किया। कया। मनुष्य को मदांध बना देती है किन्तु साहू जी इसके अपप्रब तक हमारो छात्र इस ट्रस्ट से लाभान्वित होकर तथा वाद थे। श्रावक के षट कर्तव्यों के पालन में उनकी रुचि अपनी शिक्षा पूरी कर प्रतिष्ठित पदो पर प्रासीन है। थी। उनका विनम्र स्वभाव, निश्छल व्यवहार, गुरुभक्ति, मेधावी छात्रो को विदेशों में विद्याध्ययन हेतु प्राथिक स्वदार संतोष व्रत, ममाज प्रेम एवं प्रभीषण ज्ञानानुराग सहायता देकर सैकड़ो छात्र इंजीनियर, डाक्टर बनकर मां उनके यश:काय को अमरत्व प्रदान करता है। भारती की सेवा कर रहे हैं। अपनी प्रशंसा सुनकर साह जी नतमस्तक हो जाते एक बार डा. ए. एन. उपाध्ये ने श्री दि० जैन थे। महाराज विद्यानन्द जी की उपस्थिति में अपने ६०वें लाल मदिर मे प्रायोजित एक सभा मे ठीक ही कहा था कि जन्म दिवस समारोह के अवसर पर अपनी प्रशंसा सुनकर "साहजी ने विपुल धनराशि अजित करने में जितनी साव. साहजी रोने लगे। उपस्थित समाज को सम्बोधित करते धानी बरती है, उतनी ही सावधानी उसके सदुपयोग में हए वे बोले कि "जयन्ती तो उन महापुरुषों की मनाते है की है।" साहजी धन के सदुपयोग मे ज्ञान प्रचार को जिनका पूनः जन्म नहीं होगा। मुझे तोससारचक्र में भ्रमण प्राथमिकता देते थे। इसीलिए उन्होंने देश की सैकड़ों करना है। विद्यानन्द महाराज ने जो कुछ मेरे विषय मे शिक्षा संस्थानों को विपुल धनराशि प्रदान की। कहा है, मैं उसके योग्य नही हूं।" और गद्गद् कण्ठ होकर श्री दि. जैन महिलाश्रम, दरियागज, दिल्ली भी उन्ही मंच पर बैठकर रोने लगे। संस्थानों में से एक है जो उनकी उदारता के लिए चिर उक्त घटना साहजी की प्रान्तरिक महानता एवं नर. ऋणी है। जन्म को सार्थक बनाने की तड़फन को व्यक्त करती मातृ भक्त : अपनी माता स्व० मूर्ति देवी को स्मृति है। जीवित रखने के लिए मापने 'मूर्ति देवी ग्रंथमाला' का शुभा- तीर्थ भक्त : जिस प्रकार साहू जी मुनिभक्त थे उसी रम्भ किया। इस ग्रंथमाला के अन्तर्गत प्रकाशित ग्रंथों से प्रकार तीर्थ भक्त भी थे। तीर्थों की रक्षा करने, मन्दिरों का भगवान महावीर की देशना का घर-घर मे प्रचार हुमा है। (शेष पृष्ठ २८ पर) Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुपम प्रादर्श जीवन डा. प्रेमचंद रांवका स्व. मा शान्तिप्रसाद जी जैन का स्मरण होते ही के थे, जिमका परिणाम प्राज भारतीय ज्ञानपीठ है। एक अनुपम मादशं जीवन्त प्रतिमा हमारे सामने साकार हो वस्तुनः धर्म और मस्कृति के क्षेत्र मे इस संस्था के माध्यम उठती है। उनका सम्पूर्ण जीवन भारतीय साहित्य, संस्कृति, मे माहू दम्पति ने जो कुछ किया वह सब स्वर्णाक्षरों में उद्योग एवं ज्ञान-विज्ञान को समर्पित जीवन था। उनकी उल्लेखनीय है। मद्वितीय प्रतिभा लक्ष्मी एवं सरस्वती के सम्यक् उपयोग स्व० माहूजी के गहन अध्ययन का पता ममें प्रत्यक्ष एवं सेवा मे संलग्न थी। भारतीय जन-जीवन के प्रमुख में उस समय देखने को मिला, जब मन् १९७२ में भारत क्षेत्र मे धर्म. समाज, साहित्य, उद्योग और यत्किचित राज- वर्षीय दिगम्बर जैन परिषद का अधिवेशन कोटा (राज) नीति में भी उनका अपना प्रभाव एवं योगदान था । वे मे प्रायोजित किया गया था। उन्ही दिनों हमे उनके साथ वस्तुन. एक प्रेरणादायी दीपस्तम्भ थे। साहित्य एव चम्बल नदी पार केशोराव पाटन के दि. जैन मन्दिर सस्कृति के वे सच्चे उपासको मे से थे। भी ले जाया गया। मन्दिर एव मूर्तियां बड़ी प्राचीन इसमे कोई प्रतिशयोक्ति नहीं कि स्व. साहू सा० पोर थी। हमे मन्दिर मे भ-गर्म में सुरक्षित प्रतिमात्री के भी उनकी सहधर्मचारिणी स्व० रमा जी दोनों के कधो पर दर्शन कराए गए। मन्दिर मे विगजमान सभी मूर्तिया लक्ष्मी एवं सरस्वती को जोड़ने वाला विज्ञान सेतु प्राधा. प्राचीन है। श्री मनिसवत नाथ की मति, जो कृष्ण fत था। भारतीय ज्ञानपीठ की स्थापना, उसके माध्यम पाषाण की थी, प्रत्यधिक प्राचीन के स. १३वी शताब्ची के से भारतीय साहित्य का प्रकाशन पोर इससे भी महनीय भासपास महमूद गजनवी के प्राक्रमण चिन्ह उस पर पायं जो भारत सरकार भी नहीं कर सकी, अक्ति थे। साह जी उस प्रतिमा की पोर काफी समय प्रत्येक वर्ष भारत की विभिन्न भाषामों के उच्चकोटि निहारते रहे। पास एक अन्य मूर्ति की जिसको केवल साहूजी के सनन पर एक लाख का पुरस्कार उनकी चिरस्थायी ही पहचान सके। उन्होने बताया कि वह मल्लिनाथ की यशोगाथा है । लक्ष्मी एवं सरस्वती का ऐसा सुन्दर सम प्रतिमा है। उन प्राचीन प्रतिमानो को देखकर उन्होन जो वाय बिरला ही दृष्टिगोचर होता है। चर्चा की, उससे उनकी गहन अध्ययन, रूचि एव मननस्व. माहजी के जीवन की महत्वपूर्ण विशेषता शालता का पता चला उनकी धर्मपत्नी रमा जी की धर्मनिष्ठा है। रमा जी की भारतीय ज्ञानपीठ के रूप मे साहू-दम्पत्ति का यश उदात्त धर्म भाव भावना ने साह जी को साहित्य एवं सस्कृति चिरस्थायी रहेगा। उनकी स्मृति को यह सस्थान सदा के प्रति प्रतिक रेवानिष्ठ बनाया। लक्ष्मी का मोह और ताजा एवं शाश्वत बनाये रखेखा। उस दम्पत्ति का वह मह साहू जी को प्रभीष्ट नही था, अपितु धन पर विजय अनुपम जीवनादर्श समाज के धनी-मानी, सेठों, नेतामो, प्राप्त कर उसका धर्म, समाज, सेवा, संस्कृति । व साहित्य समाजसेवियो, उद्योग पतियो के लिए निश्चित ही अनुकर. वे सरक्षण, सम्पोषण एवं संवर्द्धन में सम्यक उपयोग ही णीय है । ऐसे धर्मनिष्ठ साहित्य, संस्कृति एव राष्ट्रसेवी उनके पर्योपार्जन का अभीष्ट था। वे उदार विचारों दिवगत साह-दम्पति को शतशत वन्दन ! 000 Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्हें श्रमण-दीक्षा की प्राकांक्षा थी! भी गणेश ललवानी साह शान्ति प्रसादजी के नाम से हम सभी म्यूनाधिक सिद्धान्त ग्रहण करना इसकी सहमा प्रतिभा भी उनमें रुप में परिचित हैं। उनके निधन से भारत ने अपना एक थी। पतः उनमा व्यवसायी वर्ग में प्रमुख बनना सा. ख्यातिमान उद्योगपति ही नही खोया, खो दिया एक भाविक ही था। जिस प्रकार वे 'फेडरेशन प्रामाण्डियन सहृदय साहित्य एवं कलाप्रेमी को भी। भारतीय वाङ्मय चेम्बर प्राफ कामर्स' जैसी उच्च सस्थानों के अध्यक्ष बने के क्षेत्र में यह क्षति सहज ही पूर्ण होने वाली नहीं, क्योंकि गए, उपी प्रकार उनके द्वाग सम्मानित भी हए । वह भी भारतीय ज्ञानपीठ की प्रतिष्ठा से लेकर पाज तक, मर्थात् एक बार नहीं अनेक बार । देश की प्रौद्योगिक प्रगति को १९४४ से अब तक, साहजी ने भारतीय साहित्य पोर कार्यान्वित करने के लिए स्वर्गीय प. जवाहरलालजी ने सस्कृति के विकास, प्रचार व प्रसारण में जो सहयोग दिया जिस प्रथम राष्ट्रीय समिति का गठन किया, उसमें देश के वह अनायास ही दृष्टिगत नहीं होता। तरुण प्रौद्योगिक वर्ग का प्रतिनिधित्व करने के लिए साह जी को ही चुना था। गत ४५ वर्षों से वे जिन उद्योंगो से उत्तर प्रदेश के अन्तर्गत नजीबाबाद के प्रख्यात् साहू सम्बन्धित थे, वे थे कागज, चीनी, सिमेट, बनस्पति, ऐम. परिवार में उनका जन्म हवा । उनके पिता का नाम बेस्टस, पाट निर्मित वस्तुए", भारी रसायन, नाइट्रोजन दीवानचन्द व मातुश्री का मूर्तिदेवी था। उनकी प्राथमिक खाद, पावर मल्कोहल, प्लाईबोर्ड, सायकिल कोयले की शिक्षा नजीबाबाद में ही हुई । तदुपरान्त काशी विश्व खाने, लाइट-रेलवे प्रादि के साथ साथ हिन्दी, अग्रेजी, विद्यालय एव अन्तत. पागरा विश्वविद्यालय में । यहाँ से मराठी. गजराती के दैनिक पत्र एवं पत्रिकाएं। उन्होंने प्रथम श्रेणी मे बो. एस.सी. की परीक्षा उत्तीर्ण को। इसी शताब्दी के तीसरे दशक में उन्होंने उद्योग एव यह एक पहल थी साहनी के व्यक्तित्व की; पोर व्यवसाय के क्षेत्र में प्रवेश किया एव सतत मध्यवसाय, दुमरी पहल जिमने उन्हें हमारे सन्निकट कर दिया, यह परिश्रम पोर लगन के बल पर थोड़े ही दिनों में महतो थी भारतीय साहित्य एव सस्कृति के प्रति सहज प्रान्तरिक सफलता भी अजित की। इस क्षेत्र में वे परम्परागत प्रथा अनुराग की । इसी पनुराग ने उन्हें भारतीय ज्ञानपीठ की अनुसरण के पक्षपाती नही थे। वे थे विभिन्न पाश्चात्य स्थापना के लिये उरित किया था । अवश्य ही इस देश व्यवसाय संचालन पद्धति मे, जो दिन प्रतिदिन नए- कार्य में उन्हें पानी सह मिमी रमाजी का पूर्ण सहयोग नए प्रयोग कर रहे थे, उसके मूल्याकन एवं प्रयोग के पक्ष- प्राप्त था। (खेद है कि रमात्री भी पान इस धरती पर नही पाती । प्रत उन्होने पाधुनिक प्रयोग पद्धति के विषय में रहीं। उनका देहान्त भी २२ जनाई, १९७५ को हो विभिन्न ग्रन्थों का अध्ययन ही नहीं किया, बल्कि पूर्ण गया) प्राज १९४४ को १८ फरवरी का वह दिन याद जानकारी के लिए पश्चिम यूरोप के अतिरिक्त सोवियत पा रहा है जिस दिन वाराणसी में पाल इण्डिया पोरियूनियन, उच वेष्ट इण्डीज एव प्रास्ट्रेलिया प्रादि देशों यन्टल कान्फ न्स के अधिवेशन में साहूजी ने ज्ञानपीठ के उद्योगक्षेत्रों का निरीक्षण भी किया। विज्ञान के छात्र प्रतिष्ठा को उबोषणाको शी। इस कार्य के लिए उन्हें होते हुए भी उन्होंने अर्थशास्त्र के माधुनिकतम सिद्धान्तों जिन्होने प्रेरणा दी थे मुनि जिनविजयजी, पं० सुखका अध्ययन किया। तथ्य संग्रह में भी उनकी विशेष लालजी, डा.हीरालालजी बा. उपाध्ये । उन लोगों का अभिरुचि थी। साथ ही कौन-सी स्थिति में कौन-सा लक्ष्य का प्राय पिता की उपेशिन शाबा जन विद्या को Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८, वर्ष ३१, कि. ३-४ अनेकान्त प्रमूल्य प्राचीन ग्रन्यराशि का उद्धार, संपादन व प्रकाशन । शित 'जैन कला एवं स्थापत्य का इतिहास' भी इसी एतदथं वे लोग थे 'भारतीय ज्ञानपीठ' के स्थान पर जैन साहित्य के अन्तर्गत है। ज्ञानपीठ' नाम के प्रधान पक्षपाती। किन्तु, साहजी विशे- अपने व्यक्तिगत जीवन में साहूजी जिस प्रकार निरषतः रमाजी इससे सहमत नहीं हुई। इनका लक्ष्य था भिमानी, हँसमुख व मिलनसार थे, उसी प्रकार वे थे धर्मऔर अधिक व्यापक भीर अधिक विशाल । निष्ठ और चरित्र-सम्पन्न । धर्म एवं तीर्थक्षेत्र मे तो प्राप भारतीय प्रकाशन के क्षेत्र में ज्ञानपीठ एक स्मरणीय मक्तहस्त से दान देते ही थे, सामाजिक उत्थान व सगीन नाम है। मूतिदेवी पौर लोकोदय दो ग्रन्थमाखानो के आर्थिक परिस्थितिवालो को सहायता भी प्रकृपण भाव से अतिरिक्त भारतीय ज्ञानपीठ 'माणिकचद ग्रन्थमाला' मे करते थे। शिक्षालय, प्रतिष्ठान, सराक जाति उन्नयन प्रादि प्राचीन दुर्लभ साहित्य का पुनर्मुद्रण, 'रमा जैन तामिल कार्यों में भी वे कम अर्थव्यय नहीं करते थे । वे मात्र प्रोपएवं कन्तड ग्रंथमाला मे प्राचीन तामिल व कन्नड ग्रंथो का चारिक अर्थ में ही धार्मिक नही थे, धार्मिक संस्कार प्रकाशन रमा जैन सास्कृतिक ग्रंथमाला' में विचारपरक उनकी रगो में इस प्रकार व्याप्त हो गया था कि मृत्यु के शोधमूलक, साहित्य प्रकाशन प्रादि विभिन्न परिकल्पनामो कुछ पूर्व उन्होने यह अभिमत व्यक्त किया था कि 'पारोग्य को भनवरत रूपायित किया जा रहा है । विगत भगवान लाभ के बाद मैं हस्तिनापुर जाकर मनिश्री शान्तिसागरजी महावीर की २५वीं निर्वाण शताब्दी के उपलक्ष में से श्रमण दीक्षा ग्रहण करूँगा।' उनकी वह इच्छा अवश्य प्रकाशित महावीर सम्बन्धी ग्रंथों की संख्या भी ही पूरी नही हैई, पर वह उन्हें उच्च लोक ले जाने मे कम नहीं है। १५०० चित्र सबलित तीन भागो मे प्रका- अवश्य सहायक बनी होगी। 000 (पृष्ठ २५ का शेषांश) जीर्णोद्धार कराने, पुरानी कलाकृतियो के सरक्षण प्रादि समाज की प्रापसी फूट को मिटाकर वात्सल्य भाव की मे साहजी ने विशाल धनराशि व्यय की । अपने जीवन क अभिवृद्धि करने मे साहूजी ने एक युगपुरुष का कार्य किया पन्तिम दिनों में साहजी हिक्षत्र के जीर्णोद्धार तथा नव- है। ऐसे महापुरुष के बारे में जितना भी लिखा जाय वह निर्माण के मांगलिक कार्य में व्यस्त रहे। कम है। परम विवेकी : साहजी की प्रत्येक क्रिया उनके प्रौढ़ असमय में ऐसी ज्योति का हमारे बीच से भदश्य विवेक की परिचायक थी। उनकी श्रद्धा एवं सतुलित हो जाना राष्ट्र एव समाज की एक अपूरणीय क्षति है। विवेक समन्वित प्राचार-व्यवहार रत्नत्रय को सार्थकता जिस महापुरुष ने प्रचुर विभूति पाकर भी भरत के समान को प्रकट करता है। जल मे कमलवत् प्रादर्श प्रस्तुत किया है उन्हें मैं विनत भगवान महावीर के २५०० वें निर्वाणोत्सव पर श्रद्धा सुमन चढ़ाती हूं। दिगम्बर-श्वेताम्बर सभी को एक झण्डे के नीचे लाने तथा Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनकी लगन और दृष्टि D मुनिश्री यशोविजयजी जैन धर्म के प्रभावक श्री साहूजी को मैं परोक्ष रीति संपुट को छापनी पडेगी, विश्व के कोने कोने मे जाने के से जानता था किन्तु प्रत्यक्ष परिचय के बाद विशेष रूप लिए। भगवान महावीर के चित्र के प्रचार के बारे मे से जानकारी मिली। उनमें कितनी लगन थी, यह दिखाई पड़ता है। प्रशांत स्वभाव सुश्रावक श्री श्रेयासप्रसादजी जैन जो उसी समय मेरे पास स्वनिर्मित होता मेरे प्रति हार्दिक भाव रखते हैं, उनके कहने से साहूजी भगवान का कमल था। वह देख कर वे बहुत ही प्रसन्न भगवान श्री महावीर के प्रगट होनेवाले चित्र सपूट की है। प्रार सामने से माग की, तो बरे प्रेम से भेंट किया। जानकारी और कुछ प्रस्ताव रजू करने के लिए बम्बई निवाण महोत्सव बड़े उत्साह से प्रभावपूर्ण ढंग से पाये। पूर्व निश्चित समय पर वे श्री श्रेपासप्रसादजी के सम्मान हुमा । जैन धर्म और भगवान श्री महावीर की साथ भुझसे मिलने के लिये वालकेश्वर उपाश्रय में पाये । जानकारी सबको मिले, इसके लिए उनमें जो लगन देखी साथ थे मे श्री लक्ष्मीचन्दजी जैन और श्री प्रगरचन्दना और अस्वस्थ होते हुए भी वे कार्य करते रहे तदर्थ साहजी नाहटा भी। दो दिन मिले, घटो विविध विषयों पर चर्चा का शतशः धन्यवाद है । तदनतर सेठश्री कस्तूरभाई का वार्तालाप हुमा। चित्रों को देखकर, सपुट का कार्य देखकर नाम भी उल्लेखनीय है । दोनो की विशिष्ट दृष्टि, पति, बोले-'जैन कला मर गई है, ऐसा ही माना जाता था। शक्ति और प्रभाव से निर्वाण महोत्सव जय-जयकार रूप लेकिन सचमुच प्रापने जैन कला जीवत कर दी है, में अविस्मरणीय बन गया। मापने साधु होकर जो काम किया है, उससे साश्चर्य गौरव अनुभव करता हू ।' निर्वाण महोत्सव के बारे मे उनको उपस्थिति मे तीथों का विवाद समाप्त हो भी विविध स्तर पर वार्तालाप हुमा था। जाता तो कितना सुन्दर हो जाता ? अन्त मे, यहो क मना है कि उनका परिवार उन्ही के उन्होंने यह भी कहा कि दिगंबरीय चार-पांच चित्र. मार्ग पर चले, साप्रदायिक दृष्टि से विमुक्त बनकर जैन संपुट में सम्मिलित किये जायें, तो २५ हजार प्रतियो धर्म और समाज सेवा करता रहे। 000 Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाजिक इतिहास का एक युगांत श्री चन्दनमल थी। श्री साह शान्तिप्रमाद जैन के २७ अक्तूबर, १९७७ णाए कराई। प्रर्थशास्त्र और वित्तीय सिद्धान्तों और पद्ध को प्रात: ११ बजे दिल्ली मे देहावमन होने पर समस्त तियों का प्रापका बड़ा व्यापक प्रौर विशद् अध्ययन था, जैन समाज एवं देश. प्रौद्योगिक, मास्कृतिक साहित्यिक और प्रत्येक विषय से सम्बद्ध पाकड़ों एव विवरण की जानक्षेत्र शोकमग्न हो गए। श्री माह जी को दिल का दौरा कारी इस प्रकार हृदयगम थी कि वह देश-विदेश के एक सप्ताह पूर्व लडा था और उन्हें तत्काल स्थानीय सर माथिक मामलो के तथ्यों का पूरे परिप्रेक्ष्य में देखक : सही गंगाराम अस्पताल के नसिंग होम में ले जाया गया था। निष्कर्ष निकालत थे और अपनी प्रतिभा से सबको चकित तबियत काफी कुछ संभल गई थी, किन्तु फिर एक दो कर देते थे। विशेष रूप से, भारतीय उद्यम और भारतीय हल्के दौरे पीर पड़ गये और उनका देह वमन हो गया। क्षमता के प्रति पार अपने प्रौद्योगिक जीवन के प्रारम्भ उत्तर प्रदेश के अन्तर्गत नजीबाबाद के पुगने घरानों में दो या पायावान रहे। में साह जैन घराना बहुत प्रष्टिन रहा है। श्री शान्ति साह साहब ने अपने इन उद्देश्यो को पूनि को दष्टिप्रसादजी का जन्म इसी नगर और घराने में सन् १९१२ लक्ष्य में रखते हुए प्रावश्यकता के अनुरूप अन्यान्य देशों में हमा था। उनके पितामह साहू सकचन्द जैन थे. का भ्रमण-पर्यटन भी किया। सर्वप्रथम १९३६ मे वह च. पिताजी दीवानचादजी और माता श्रीमती मूर्तिदेवीजी ईस्ट-इडीज गये, फिर १९४५ में प्रास्ट्रलिया और फिर १९५४ में मोवियत रूस । ये तीन पात्राए उन्हाने भार पापको प्रारम्भिक शिक्षा नजीबाबाद के शिक्षा केन्द्रों तीय प्रौद्योगिक प्रतिनिधि के रूप में की थी पोर परिणामो में ह। हाई स्कूल करने के बाद प्रापने काशो विविद्या- कोटि सेवे BIHA लेत. लय में प्रवेश किया। वहां से फिर पागरा विश्वविद्यालय प्रमरीका, जर्मनी तथा अन्य वई योगेपीय देशो का भी में मा गये । पागरा विश्वविद्यालय से ही बी. एम.सी. a मापने परिभ्रमण किया और अनुभवो के समावेशन द्वारा n t परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास की। वस्तुतः प्रापका ममूवा साह जैन उद्योगो को अधिकाधिक समृद्ध किया। ही विद्यार्थी जीवन प्रथम श्रेणी का रहा और यह केवल सचमुच जिस सहजता के साथ उद्योग एवं व्यवसाय के प्रध्ययन और ज्ञानोपार्जन की दृष्टि से ही न हो, वरन् क्षेत्र में साहू जी ने सफलता प्राप्त की, वह उनको स्वभाव रियों से भी। वे सभी सद्गुण भोर सदद्वात्तया प्राप गत प्रतिभा और सूझबूझ, सगठन क्षमता तथा अध्यवसाय में विकसित हां,जो सफलता के शिखर तक पहुंचने के और मनमोलता को माला लिए पावश्यक है। ४५ वर्षों में पापने विभिन्न प्रकार और प्रकृति के उद्योग उद्योग के क्षेत्र में पापने तीसरे दशक में पदार्पण धन्धों की एक विस्तृत श्रेणी की स्थापना एवं सचालना किया था और प्रारम्भ से ही अपनी दृष्टि इस भोर करके देश के प्रौद्योगिक विकास में योगदान किया,व भनेक केन्द्रित की किन केवल देश के उद्योग, व्यवसाय का उद्योगो का नेतृत्व किया । इस अंणी के अन्तर्गत जहा एक. विकास और पभिवर्द्धन हो बल्कि सबालनप्रणालियों में मोर कागज, चीनी, वनस्पति, सीमेंट, एसबेस्ट्स प्रोडक्ट्स भी नये-से-नये प्राविधिकको का मन्वयन हो। इसके पाट निर्मित वस्तुए, भारी रसायन, नाइट्रोजन खाद, लिए मारने स्वय विभिन्न माधुनिक पद्धतियों का गम्भीर पावर पस्कोहल, नाईवुड, साइकिल, कोयल को खाने, अध्ययन किया तथा विविध विषय क्षेत्रों में निरन्तर गवेष- लाईट रेलवे इजीनियरिंग वसं पाते है, वहाँ दूसरी पोर Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाधिक इतिहास का एक मात हिन्दी, अंग्रेजी, मराठी, गुजराती के दैनिक पत्र और पीठ के अतिरिक्त मापने साह जन ट्रस्ट, साह जैमरीसावधिक पत्रिकाए' तथा महत्वपूर्ण सांस्कृतिक-साहित्यिक टेबल सोसायटी तथा मध्य भनेक शिक्षण सस्थानों की भी शोध एवं प्रकाशन के कार्य भी पाते हैं। संस्थापना की। वैशाली प्राकृत, जैन धर्म एवं पहिंसा शोषविगत वर्षों पे देश की विभिन्न शीर्ष व्यवसाय- संस्थान को तथा प्राचीन तीपों एवं मन्दिर मावि के जीर्णोसंस्थानों के पाप अध्यक्ष रहे हैं । इनमे प्रमुख है : फेड द्वार में प्रचुर मर्यदान दिया है। पाप अखिल भारतवर्षीय रेशन प्राफ इंडियन चेम्बर प्राफ कामर्स एण्ड इण्डस्ट्री, दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी, बम्बई तथा महिसा प्रचार इण्डियन चेम्बर माफ कामर्स, इण्डियन शुगर मिल्स एसो. समिति, कलकत्ता अखिल भारतवर्षीय दिगबर जैन परिमिएशन, इण्डियन पेपर मिल्प एसोसिएशन, बिहार चेम्बर षद् एवं मारवाडी रिलीफ सोसायटी के पक्ष रह चुके थे। प्राफ कामर्स एण्ड इण्डस्ट्री, राजस्थान चेम्बर प्राफ कामर्स भगवान महावीर के २५००वें निर्वाण महोत्सव के एण्ड इण्डस्ट्री, ईस्टनं यू० पी. चेम्बर प्राफ कामर्स एण्ड कार्यक्रमों को सफल बनाने में भापका सर्वाधिक योगदान इडस्ट्री । चार वर्षों तक लगातार प्राप पाल इण्डिया रहा है। जैन समाज के चारों सम्प्रदायों की मोर से प्रार्गनाइजेशन आफ इण्डस्ट्रियल एम्पलायसं के भी प्रध्यक्ष गठिन भगवान महावीर २५००वा निर्माण महोत्सव महा. हे गौर इसी अवधि में भारतीय श्रमव्यवस्था सम्बन्धी समिति के प्राप कार्याध्यक्ष थे । भारत की संपूर्ण दिगंबर निगम बनाते समय प्रापने उद्योग धन्धों का व्यावहारिक जैन समाज की प्रोर से गठित पाल इण्डिया दिगवर भग. दष्टिकोण उपस्थित किया। वान महावीर २५००वां निर्वाण महोत्सव सोसायटी एवं अपनी विशिष्ट प्रतिभा सम्पन्नता तथा व्यापक अनु- बंगलाप्रदेश क्षेत्रीय समिति के अध्यक्ष के रूप मे पापने भव के कारण साहनी देश के उद्योग एव व्यवमाय द्वारा देश व्यापी सास्कृतिक चेतना को जागत किया। भारत प्रतेक अवसरों पर सम्मानित किए गए। स्वर्गीय पं० सरकार द्वारा गठित राष्ट्रीय समिति और बिहार तथा जवाहरलालजी ने देश की पौद्योयिक प्रगति की वैज्ञानिक बंगला की समितियों में भी प्रापने महत्वपूर्ण पदो का परेकल्पना को कार्यान्वित करने के लिए जो प्रथम राष्ट्रीय दायित्व तन्मयता से सम्भाला । निर्वाण महोत्सव के बहसमिति गठित की थी, उमरे देश के तरुण प्रौद्योगिक वर्ग मखी कार्यक्रमों को प्रापने चिन्तन, उत्साहपूर्ण नेतत्व पौर का प्रतिनिधित्व करने के लिए पापको इसका सदस्य मखर श्रद्धा के प्रत्यक्ष प्रभाव से उपलब्धियों का जो वरदान बनाया था। दिया है, वह जैन ममाज के इतिहास मे चिरस्मरणीय रहेगा। साह साहब की भारतीय धर्म-दर्शन और इतिहास ममाज ने अपनी श्रद्धा स्वरूप पापको दानवीर', तथा संस्कृति विषयो के अध्ययन में भी प्रांतरिक रुवि तथा 'श्रावक शिरोमणि' की उपाधियों से सम्मानित किया। थी। भारतीय कला एव पुरातत्व के क्षेत्र में भी वे साधिकार चर्चा किया करते थे। धार्मिक श्रद्धा मे वह मडग पन्तिम क्षणों में साहू नी के परिणाम इतने निर्मल हो गए थे कि उन्होंने अपने पुत्र श्री अशोक कुमार जैन से इच्छा थे । भारतीय भाषामों एवं साहित्य के विकास-उन्नयन व्यक्त की थी कि स्वस्थ होने के उपरान्त हस्तिनापुर मे मनि की दिशा में पापका अति विशिष्ट योगदान रहा। प्रापके श्री शान्तिसागरजी के निर्देशन मे शेष जीवन व्यतीत करेंगे। द्वारा सन् १९४४ मे भारतीय ज्ञानपीठ की मंस्थापना एव महाराज श्री जब जमी दीक्षा उचित समझेंगे, दे देंगे। अपनी सहमिणी स्वर्गीया श्रीमती रमा जैन के साथ श्री माहूजी के बड़े भाई श्री श्रेयांसप्रसाद जैन को, उसकी कार्य प्रवृत्तियां, विशेषकर उसके द्वारा प्रवर्तित ___ साहूजी के बड़े पुत्र श्री अशोक कुमार जैन, मझले पुत्र श्री भारतीय भाषामों की सर्वश्रेष्ठ सृजनात्मक साहित्यिक भालोकप्रसाद जैन एव कनिष्ठ पुत्र श्री मनोज कुमार जैन कृति को प्रतिवर्ष एक लाख रुपये की पुरस्कार योजना की को; उसकी पुत्री श्रीमती अलका जालान एव सारे परि. परिकल्पना और पब तक ११ पुरस्कारों के निर्णयों की वार को एवं समाज को जो मर्मान्तक पाघात पहचा है उसके कार्यविधि मे अनवरत रुचि एवं मार्गदर्शन, उनकी दूर. प्रति समाज की सहा सवेदना उत्प्रेरित है। उनका देहान्त दशिता एवं क्षमता के बहप्रशंसित अमर प्रतीक है। ज्ञान- सामाजिक इतिहास का एक यूगांत है। 000 Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनके नेतृत्व का फल श्री मिश्रीलाल पाटनी साहू शान्तिप्रसादजी का जन्म उत्तर प्रदेश के नजीबा जाबा. बहुत व्यापक अनुभवों के कारण प्रापको पं. जवाहरलाल बाद नगर मे सन् १९११ मे अग्रवाल जैन परिवार में र म नेहरू द्वारा गठिन पहली राष्ट्रीय सीमित मे देश के तरुण हमा । मारके पिताजी का नाम श्री साह दीवान चन्दजी प्रौद्योगिक वर्ग का प्रतिनिधित्व करने के लिए सदस्य तथा माता का नाप श्रीमती मूनिदेवीजी था। प्रापने मनोनीत किया गया। देश में अनेक प्रौद्योगिक सस्थानों प्रारभिक शिक्षा वही प्राप्त की थी। तत्पश्चात् उच्च की व्यवस्था हेतु अध्यक्षपद पर रहकर, उत्तम व्यवस्था शिक्षा प्राप्त करने हेतु कार्श. विश्वविद्यालय एवं पागरा करके कार्य संचालन करते रहे, जिनमें से कुछ वरिष्ठ विश्वविद्यालय में गये । वहा प्रत्येक विषय की शिक्षा संस्थानों के नाम उल्लेखित किये जाते है : भारतीय प्राप्त की। प्रत्येक शिक्षा में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होत वाणिज्य उद्योग मण्डल संघ, इण्डियन चेम्बर प्राफ कामर्स, इण्डियन शुगर मिल्स एसोसिएशन, इण्डियन पेपर प्राविधिक विषय क्षेत्र में विदेशो मे गवेषणाएँ शा म गवषणाए मिल्स एसोसिएशन, बिहार चेम्बर प्राफ कामर्स; एवं वगके ब्रिटन, प्रमेरिका जर्मनी, रूस प्रादि देशो में प्रापने लगातार चार वर्ष तक प्राल इण्डिया प्रारगेनाइजेशन परिभ्रमण कर वहा से प्रौद्योगिक व्यवसायी कारखानो में साफ इण्डस्ट्रियल एम्पलाईयर्स के भी अध्यक्ष रहे। जाकर वहां के कार्यों को दृष्टिगोचर कर मनन करते प्रतिवर्ष सैकड़ों इजीनियरिंग विद्यार्थी तथा वाणिज्य रहे। भारतीय प्रौद्योगिक प्रतिनिधि के रूप मे प्राप सन् विद्यार्थी, पत्रकार संपादन कला शिक्षा एव अनेक शिक्षाओं १६३६ मे डच इण्डस्ट्रीज, सन् १९४५ मे मास्ट्रेलिया, के गरीब इच्छक घिद्याथियो के पठन-पाठन कार्य हेतु अपने सन् १९५४ में सोवियत रूस गये। वहां मे पाने पर भारत उपाजित द्रव्य मे से रुपये देकर सहयोग प्रदान करते रहे। मे पापने विभिन्न प्रकार के उद्योग-धन्धो के कारखाने साह जैन संस्थानों के माध्यम से व्यावहारिक प्रशिक्षण, निर्माण किये और कुशल नेतृत्व कर उनमे निरन्तर कार्य अनेक व्याधि, शारीरिक रक्षा, विवाह शादी खर्च हेतु निर्धन वृद्धि करके वस्तुप्रो का उत्पादन कर वाणिज्य-व्यवसाय महानुभावों की माग पर अथवा स्वय दष्टिगोचर होने पर करने मे अग्रसर होते रहे। प्रापका विज्ञान प्रत्यन्त विशाल उनको द्रव्य देकर उनकी सहायता करते रहते थे। तथा व्यापक दृष्टि में था। मापने कागज, चीनी, वन- अनेक प्राचीन जैन तीथों के जैन मन्दिरों का जीर्णोस्पति, सीमेन्ट, एमबेस्टाज निमित वस्तुएं', भारी द्वार करने हेतु लाखो रुपयो का दान देकर तीर्थ सुरक्षित रसायन, कृषि उपयोग मे मानेवाला माईट्रोजन खाद, पावर कराये । भारतवर्षीय दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी, एलकोहल, प्लाईवुड, साइकिल, कोयले की खाने, लाईट बम्बई व महिमा प्रचार समिति, कलकत्ता के अध्यक्ष पद रेल्वे, इंजीनियरिंग कारखाने, हिन्दी, प्रग्रेजी, गुजराती, पर राकर अनेक छात्रावासों की स्थापना अनेक स्थानों मराठी भाषा मे दैनिक नवभारत टाइम्स व साप्ताहिक पर करके, कई लाख का दान देकर उन्हें सचालित कराया। पत्र प्रकाशन, सास्कृतिक तथा साहित्यिक एवं धार्मिक वैशाली के स्नातकोचर प्राकृत जैन एवं पहिसा शोष पुस्तक प्रकाशन कार्य हेतु ज्ञानपीठ सस्था स्थापित की जो संस्थान की स्थापना के लिए प्रापने लाखो रुपये देकर एक लाख रुपया उच्च विद्वानो को प्रतिवर्ष पुरस्कार भेट मटकी। अनेक शिक्षण सस्थामों को अनेक स्थानों पर रूप में प्रदान करती हैं। प्रापकी विशिष्ट प्रतिभा तथा (शेष पृष्ठ ३४ पर) Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रादर्श एवं अभूतपूर्व व्यक्तित्व श्री सुमत प्रकाश जैन, दिल्ली वैसे तो परम श्रद्धेय, श्रावक-शिरोमणि, तीर्थभक्त, विमर्श करने के बाद उन्होंने न केवल मन्दिर जी के जीर्णोदानवीर स्वर्गीय साह शान्तिप्रसादजी से मेरा परिचय द्वार बल्कि कुछ नवीनीकरण की योजना के लिए अपनी काफी समय से था परन्तु ढाई वर्ष पूर्व तीन दिन तक इच्छा व्यक्त की तथा उसको पूरा कराने के लिए प्रावश्यलगातार उनके साथ रहकर कई तीर्थक्षेत्रों की यात्रा करने कतानुसार धनराशि की अपनी ओर से स्वीकृति भी का जो सौभाग्य मझे प्राप्त हया उनमे मैंने उनको नज- तुरन्त दे दी। उनकी योजनानुसार कमेटी द्वारा वह कार्य दीक से देखा तथा उनके अभूतपूर्व पक्तित्व से बहुत ही कुछ ही दिनों बाद प्रारम्भ कर दिया गया। हमें बड़ा दू.ख प्रभावित हपा । दिनांक ७.१०.१९७६ को प्रात: 8 बजे है कि उनके जीवनकाल मे वह कार्य पूरा न हो सका। घर पर टेलीफोन की घण्टी बनी और मेरे अपना नाम उनके निधन के बाद पूरे साह परिवार ने उस योजना में बताने पर तुरन्त साहजी से सम्पर्क स्थापित हो गया । साहू पूरी रुचि ली तथा शेप कार्य को पूरा करापा । क्षेत्र पर जी ने इच्छा व्यक्त की कि वह अगले दिन ही सुबह दिनांक १३-४-७८ से १६.४.७८ तक होने वाली पंचकार द्वारा श्री अहिच्छत्र पाश्वनाथ दिगम्बर जैन तीर्थ कल्याणक प्रतिष्ठा पर भी प्रादरणीय माहू श्रेयांसप्रसाद, क्षेत्र जाना चाहते है और वहां से श्री कम्मिला जी, साहू अशोककुमार, साहू पालोकप्रकाश, साहू मनोजकुमार शोरीपुर, बटेश्वर ग्रादि अन्य तार्थों पर भी जाने का समेत समस्त साहू-परिवार ने बड़े उत्साह एवं श्रद्धापूर्वक विचार है। वे चाहत ये कि इस यात्रा में उनके साथ मैं भाग लिया, जिसके लिए हम समस्त साहू-परिवार के भी चलू । मैंन उनको अपनी स्वीकृति दे दी। अगले दिन बहुत ही प्राभारी है । अगले दिन मैं पुनः माहूजी के साथ ८-१०.१६७६ को प्रात. १० बजे उन्होने शाहदरे से ही श्री कम्पिलाजी गया। रात को हम कम्पिलाजी मे ही मुझं साथ ले कर अपनी कार में बैठा लिया । वैसे तो उनके ठहरे तथा रात को वहाँ की कमेटी के सदस्यो से साहजी साथ एक कार पोर भी थी जिसमें उनका सचिव, रसो. नक्षत्र का प्रगति के बारे में बातचीत की तथा उसके इया, चपरासी, नौकर ग्रादि बैठे थे, परन्तु उन्होने मझे जीर्णोद्धार के लिए भी एक बड़ी राशि के लिए घोषणा अपनी कार में अपने पास ही बैठाया। रास्ते मे श्री अहि- की। अगले दिन १०-१०-१९७८ को प्रातः दर्शन-पूजन च्छत्र तीर्थक्षेत्र तथा अन्य तीर्थों एवं अन्य सामाजिक, करने के बाद हम श्री कम्पिला जी से चलकर फीरोजाराष्ट्रीय प्रादि विषयों पर बातचीत होती रही। बाद, शौरीपुर, बटेश्वर (वहा पर दर्शन नही हो सके हम रामपुर, बरेली होते हुए चार बजे श्री अहिच्छत्र पाव. क्योंकि यमुना का पुल टूटा हुमा था, अत: कार मन्दिर तक नाथ पहुंच गए । मेरे द्वारा रात को ही फोन द्वारा सूचना नहीं जा सकी) प्रागरा, चौरासी, मथुरा होते हुए शाम दे देने पर क्षेत्र कमेटी के बहुत से सदस्य रामपुर, मुरादा- को दिल्ली पहुंच गये। इन तीन दिनों में लगातार साहू बादन और रेली से क्षेत्र पर पहले से ही पहुंच गये थे । साहू जी के साथ रहते हुए मैंने उन में एक अभूतपूर्व प्रतिभा जी ने पहुंचते ही बड़ी विनय, श्रद्धा एवं भक्ति पूर्वक को देखा । अभिमान एवं प्रहकार नाम की कोई वस्तु मन्दिरजी मे दर्शन किये और रात को ही साहूजी क्षेत्र पर उनके पास थी ही नही। उन्होंने मुझे जो प्यार-स्नेहही धर्मशाला की कोठरी में ठहरे । उन्होंने वहा ठहरने मे ममता दी वह आज के युग मे विरले ही दे होने वाली तकलीफ की तनिक भी परवाह नहीं की। पाते है। वे ख्यातिप्राप्त अन्तर्गष्ट्रीय उद्योगपति तो थे शाम की प्रारती के बाद साहजी ने वहाँ के मन्दिर जी को ही, साथ में मैंने पाया कि वह बड़े सरल स्वभाव, निरबड़े गौर से निरीक्षण किया तथा वहां सब बेदियो एवं भिमानी, समाजसेवी, धर्मनिष्ठ एव तुरन्त निर्णय लेने उनमें विराजमान प्रतिमानों को बड़े ध्यान से देखा। रात्रि वाले व्यक्ति थे। इन सबके पीछे उनकी धर्मपत्नी श्रीमती को क्षेत्र के विषय में कमेटी के उपस्थित सदस्यों में विचार. रमा जैन उनकी प्रेरणा स्रोत रही हैं, क्योकि रमाजी के Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४, वर्ष ३१, कि० ३-४ अनेकान्त नाम का उल्लेख पाते ही उनकी मांखें नम हो जाती थीं। दूसरी प्रकार भारत का कोई भी ऐसा जैन तीर्थ इसी क्षेत्र समाज, वे जैन समाज एवं राष्ट्र का बहकल्याण चाहते थे। नहीं है जिसकी पोर साहजी का ध्यान न गया हो तथा इसके लिए उनके दिल मे बडी वेदना थी। वह चाहते थे जिसके जीर्णोद्धार में साहजी ने सक्रिय योगदान न दिया हो। किन समाज के समम्त लोग एकजुट होकर समाज के उनकी तीर्थों के प्रति श्रद्धा, भक्ति, धार्मिक भावना तथा जस्थान के लिए कार्य करें। इके लिए वह जैन समाज के उनकी सरलता, सहृदयता, विवेक, बन्धुत्व की भावना, प्रत्येक सम्प्रदाय के साधुनों एवं प्रतिष्ठित व्यक्तियों से उच्च विचार, भ्रातृ-स्नेह एवं ममत्व की भावना, उनकी मिलते रहते थे तथा इसके लिए उन्होंने कई योजनाये भी समाज एव राष्ट्र की सेवा, मिलन-सारिता, मातिथ्यबनाई थी। जैन तीर्थक्षत्रो के जीर्णोद्धार कराने मे उन्होने सत्कारिता, गुरुभक्ति, शैक्षणिक एवं साहित्यिक रुचि भादि विशेष रुचि ली। वह इनको राष्ट्र की धरोहर मानते ये अनेकों ऐसे गुण थे जो किसी बिरले व्यक्ति मे ही पाए जाते और इस कार्य के लिए उन्होंने अपनी ओर से विपुल धन- है । यात्रा से पाने के बाद भी समय-समय पर मैं उनसे मिला राशि खर्च को । यह साहू शान्तिप्रसादजी की प्रेरणा एवं और जब भी मिला उनके गुणों में कुछ-न-कुछ वशि ही मार्ग दर्शन ही था कि भगवान महावीर का २५.०वां पाई । दिनांक २७.१०.१६७६ को प्रकृति की क्रूर नियति निर्वाण महोत्सव राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर बड़े ने उनको सदा-सदा के लिए हमसे छीन लिया। परन्तु वह उत्साह से व्यापक रूप में मनाया गया, जिससे देश के सदेव हमारे मन मे रहेगे तथा उनका उच्च जीवन चरित्र कोने कोने मे शगवान महावीर की वाणी फिर एक दफा सदैव मार्गदर्शन करता रहेगा और समाज में ही नही गज उठी। भारतीय स्तर पर कोई भी ऐसी जैन संस्था अपितु समस्त राष्ट्र उनको सदेव याद करता रहेगा। नही थी जिसको साहजी का सक्रिय योगदान न मिला हो और 000 (पृष्ठ ३१ का शेषाश) सस्थानों को भारी द न देकर संचालित कराई। मूर्तिदेवी धार्मिक कार्यों पर संकट पाने पर साहजी के द्वारा वर्त. कन्या विद्यालय, मूर्तिदेवी सरस्वती इण्टर कालेज, साहू मान काल मे दूर होते रहे हैं। हमें प्राशा कि अब जैन कालेज नजीबाबाद नगर में संचालित कराए। एस. उपरोक्त कार्यों में उनके भ्राता साहू श्रेयांसप्रसादजी तथा पी. जैन काज, सासाराम (बिहार) मे स्थापित कर उनके सुपुत्रगण श्री अशोककुमारजी, श्रीमालोकप्रसादजी भी संचालित कराया। तीन ट्रस्ट सस्याएं, अपने-अपने क्षेत्र में अपने स्व० पिताजी के पदचिन्हों पर चलकर जैन समाज विशिष्ट संम्थाए, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, साहू जैन तथा जैन धर्म की रक्षा करते रहेंगे और अनेक धार्मिक चेगेटेबल सोमायटी व साहू जैन ट्रम्ट (जो अखिल भारतीय एवं सामाजिक कार्यों में उपस्थित होकर यथायोग्य तनमहत्व को सस्थाये है) भारी दान देकर संचालित की है मन धन से सहयोग प्रदाम करते रहेंगे। देश के इतिहास जो प्रचलित है, कार्य परिणित है। तीर्थ क्षेत्र, पुरातत्व में सदा ही साहू जी का कृतित्व वरिष्ठ तथा विशिष्ट केन्द्र तत्वज्ञान की प्रतिष्ठापना, मुनि भक्ति, मुनि रक्षा, माना जायेगा इसमें कोई संदेह नही। पाल इडिया दिगम्बर भगवान महावीर २५००वा मिक कार्यों पर सकटो के प्राने पर उनको दूर करने में निर्वाण महोत्सव सोसायटी के अध्यक्ष तथा भगवान तन-मन-धन हर प्रकार से परिश्रम करके वरिष्ठ शासन महावीर २५००वा निर्वाण महोत्सव राष्ट्रीय समिति के अधिकारियो से मिलकर पैदा हुई विपदामो को दूर करने कार्याध्यक्ष रहकर सम्पूर्ण देश में भगवान महावीर परिको सदैव हर समय तत्पर रहकर पाए हुए सकटो को दूर निर्वाण का जो व्यापक कार्यक्रम हुमा है और जो उस करते थे। इसी प्रकार, पहले सर सेठ हुकमचन्द जी इन्दोर कार्य मे चेतना जाग्रत हुई है, वह श्री साहूजी की ही की स्वाभाविक दृष्टि थी। उनके स्वर्गवास के पश्चात् प्रेरणा, परिश्रम और लगन से संगठन होकर हुई है। यह यह स्थान थी साहूजी के ग्रहण करने से जैन समाज के श्री साहजी के ही नेतृत्व एवं परिश्रम का श्रेय है। DCO Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व के जीवन्त प्रतीक D डा. राजेन्द्र कुमार बंसल, शहडोल श्रद्धा सुमन समर्पित करने एव दूसरों के प्रेरणा स्रोत सही प्रकाशन नहीं हो सकता। जबकि धिद्यमान पर्यावरण बनने की पवित्र भावना से व्यक्ति विशेष से सम्बन्धित मे प्रावश्यकता इस बात की है कि उनके व्यक्तित्व का विशेषांक निकालने की परम्परा रही है। किन्तु अव मह यथार्थ प्रकाशन किया जाये जिससे संस्कारविहीन युवा की तुष्टि एव व्यक्तिगत लाभ की दृष्टि से ऐसे व्यक्तियो के पीढी, भ्रमित वृद्ध पीढी एवं प्रथमद मे चर मध्यवर्गीय भी विशेषाक निकाले जाने लगे है जिनका व्यक्तित्व विवाद धनिक पीढ़ी स्त्र० साहजी से मार्गदर्शन पाकर कल्पना. ग्रस्त एव समाज विच्छेदक बना है। फिर ऐसे विषाको लोक की उडान छोड जमीन पर चलने का साहस कर का प्रोचित्य सिद्ध करने म प्रायः घटनाएं अतिरजित रूप सकें। मे वणित की जाती है जिमसे व्यक्ति का व्यक्तित्व कृत्रिम दुर्भाग्य मे मेरा साहू जी से प्रत्यक्ष मे परिचय कभी एव बोझिल मा लगने लगता है और वह सहज सरल नही हुमा। हां उनके अग्रज श्री साहू श्रेयांस प्रसादजी से प्ररणा स्रोत नही बन पाता। बने भी क्या ? कुछ अन्दर अवश्य विगत वर्ष गुना मे सक्षिप्त परिचय हुप्रा था। वजन हो तो बने भी। उनकी सौजन्यता, सरलता, महृदयता एव निश्छलता की स्व. श्री शान्तिप्रसाद जी की पुण्य स्मृति का विशे- बानगी से स्व. श्री साहनी के प्रति मेगे जो धारणा थी, पाक हम नवीन प्रवृत्ति का अपवाद है और साहू जी का वह अवश्य पुष्ट हुई। गनिशील, बहमुखी एवं कर्मयोगी व्यक्तित्व यथार्थ में दूमरो ऐसे भाग्यवान व्यक्ति अल्प संख्या में ही होते है जिन्हे के लिए प्रेरणा-स्रोत एव पथप्रदर्शक बनेगा, इममे दो मत जीवन मे विपुल भौतिक साधन एव पवसर प्राप्त होते है। नही हो सकते। फिर ऐसे व्यक्ति तो बिरले ही होते है जो उन माघनो मह प्रश्न व्यक्ति के व्यक्तित्व के प्राधारभत गुणो के कामही एव सतुलित उपयाग जीवन की प्रत्येक विद्या मे प्रकाशन का है जो उसके जीवन दर्शन, चितन-मनन को उन्मुक्त हृदय से निष्काम भावना से करते है । जब हम दिशा एव कार्य-पद्धति प्रादि के सही मूल्यांकन पर निर्भर स्व. श्री माहूजी के जीवन दर्शन की ओर देखते है तो यह करता है। व्यक्ति के व्यक्तित्व के मूल्याकन का एक नज- वात निविवाद रूप से स्वीकारना पड़ती है कि उन्होने रिया मोर होता है। वह है व्यक्ति ने परिवार, ममा ज, राष्ट्र अपने उग्र पुरुषार्थ से जो बाह्य वैभव पाया था, मिला एवं धर्म-सस्कृति से जितना पाया है उसका वह निज के था, उसका उपयोग उन्होने धर्म, स कृति, साहित्य, समाज उपलब्ध साधनो की तुलना में कितना प्रौर का ऋग एक राष्ट्र की सेवा में सहज भाव से समर्पित कर दिया चुका सका है ? और क्या वह अपने बहुमती दायित्वो को और इस प्रकार वे प्राधुनिक जैन जगत के वीर भामाशाह पूर्ण कर सका है ? बन गये । मान-प्रतिष्ठा पाकर भी वे निरहंकारी बने रहे। वस्तुतः इन प्रश्नो के सन्दर्भ में ही स्व० साहनी का जिस वंभव से उनके साथी, सहयोगी, मित्र एवं कृपापात्र मूल्याकन किया जाना उनके व्यक्तित्व के प्रति मबसे बर । चमत्कृत एवं महंबद्धिधारी बने, वही वैभव साहुजी को श्रद्धाजलि होगी। कुवेरपति परिवार का कृपापात्र बनने नव्यविमुख नही कर सका। वे जल में कमलवत् बने रह हेतु स्व० साहूजी की प्रशंसा करने से लोकिक लाभ तो जीवनपर्यन्त निष्काम कर्मयोगी बने रहे प्रोर जिन वाणी, सम्भव हो सकता है, किन्तु उससे उनके व्यक्तित्व का जिन शासन के गीत गात रहे। सावन माना तो और Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६, वर्ष ३१, कि० ३-४ अनेकान्त को भी उपलब्ध हई है, लेकिन किस काम की वह जो दे और फिर अपरिचित व्यक्ति के विचारों से अपनी सह कर्तव्य पूर्ति का साधन बनकर मात्र ईर्ष्या एवं दिखावे मति व्यक्त कर प्रेरणा भी दे। तक ही सीमित रह जाये। एक बात और जिसको मैं विकास की दष्टि से महत्वपूर्ण __ मानव जीवन में ऐसे संयोग भी बहुत बिरले मिलते हैं समझता हूं बुराई के प्रतिकार एवं प्रच्छाई के ग्रहण जहाँ लक्ष्मी के साथ भगवती सरस्वती का अपूर्व समागम हेतु खुले दिल और दिमाग की है। जब दिल और दिमाग एवं संगति हो । पश्चिम लक्ष्मी का दास बना पथभ्रष्ट हो की खिडकियां बन्द हो जाती है तो व्यक्तित्व का विकास रहा है जबकि पूर्व सरस्वती को भूलकर लक्ष्मीदास बनने रुक जाता है। इससे व्यक्ति प्राग्रही एव रूढ हो जाता है। की होड़ में सब कुछ छोड़ रहा है। ऐसे माहौल मे इन धार्मिक एवं मुक्त होने की बात तो बहुत दूर की है, स्व. दोनों का सतुलित समन्वय करने का संयोग प्राप्त होना श्री साहजी सदैव सर्वांगीण विकास एवं नित न्तन विचार विस्मयकारी ही कहा जायेगा। स्व० श्री साहूजी के अन्त. ग्रहण करने में विश्वास एव प्रयत्नशील रहते थे। वे प्रनास्थल में दोनों देवियां विराजमान थी और किन्तु उनके ग्रही थे। सहज किन्तु तकधारित विवेक बुद्धि से जो भी मध्य कोई बर या प्रतिस्पर्धा नहीं थी। सामान्य लक्ष्मी उन्हें सत्य प्रतीत होता था, बिना सयोगी परिणामो की पति के समान न तो वे अहंकारी, जिद्दी या सकुचित परवाह किए, उसे स्वीकार लेते थे, और समर्पित भाव दष्टि के ही थे पोर न सरस्वती के उपासक के रूप मे से उसका अनुकरण भी करते थे। लौकिक व्यवहार शून्य या पलायनवादी वृत्ति के ही । वे जीवन पर्यन्त वह धर्म एवं सस्कृति के व्यवहार पक्ष तो बेजोड़ गतिवान कर्मयोगी थे जो जीवन भर प्रादर्शों के पोषण में सजग रहे। मतो के पूजक एवं विद्वानों के एवं कला-संस्कृति की रक्षा करते रहे । मम्मान तथा प्राश्रयदाता रहे। कला, संस्कृति एवं साहित्य उनकी समदृष्टि थी। क्या छोटा और क्या बड़ा, प्रादि की रक्षा, सुरक्षा, प्रकाशन एवं उद्धार में उन्होने सबके प्रति उनके हृदय में सम्मान था । अपने व्यस्त कार्य- निष्काम भाव से अपना वैभव समर्पित कर दिया। कही क्रमों के मध्य भी वे पत्रोत्तर देने मे नही चकते थे । समाज कुछ कमी नहीं रखी। किन्तु जैसे ही जीवन के उत्तरार्ध का पंसा रथ, गजरथ, मन्दिर एवं धर्मशालानों जैसे प्रचल में उनकी दृष्टि प्रात्मा के वैभव की पोर ग्राकर्पित की मनुत्पादक कार्यों में प्रायः व्यय होता है। मानव सेवा के गई या हुई, उन्होने तत्काल बिना झिझक के अत्यन्त कार्यों में उसका उपयोग नही होता। अतः मैंने भगवान साहसी स्वरो मे उ स्वीकार कर ग्रहण कर लिया। यह महावीर निर्वाणोत्सव के काल में साहूजी को पत्र दिनाक वह स्थिति होती है जहा व्यक्ति अपनी पिछ नी मान्यता ८-११-७४ द्वारा सुझाव दिया कि इस अवसर पर एवं प्राचरण को, भले ही वह प्रत्यक्ष मे कितना ही प्रहितगम्भीर रोगों की चिकित्सा हेतु अद्यावत साज-सज्जायुक्त कर क्यों न हो, छोड़ने का साहस नहीं कर पाता और चिकित्सालय मिशनरी भावना से खोले जावें तो अच्छा एकांगी पक्ष पोषण करता रहता है। साहजी को यह है। साहजी ने पत्रोत्तर बिना विलम्ब के दिनांक परिणति उनको जिन्दादिली एव खिलाडी भावना का ५.१२-७४ को भेजा और लिखा-'मापने जो लिखा' सत्य परिचय देती है। यही कारण है कि जीवन पर्य। उन्होंने है। दान की जो शैली समाज में है वह धीरे-धीरे ही सार-तत्व को बटोरा, ग्रहण किया और अन्त मे उस बिन्दु बदल सकती है और बहुत बदली भी है। प्राशा है प्राप को पा लिया जिसका मिलना अत्यन्त दुर्लभ होता है। जैसे सज्जनो के प्रयत्नों से और भी विशेष बदलेगी।" खड-खड एव नय पक्षों में विभक्त जैन समाज के उनके पत्र को पाकर मैं स्तब्य-सा रह गया । साहूजी मेरे अस्तित्व पर अनेक प्रश्न चिह्न लगे थे । साहूजी ने इसके विचारों से सहमत होगे और मझे पत्र का उत्तर मिलेगा, दर्द को अनुभव किया। भगवान महावीर निर्वाण महोत्सव इसको मैंने कल्पना भी नहीं की थी। प्राज के भौतिक. के काल में इस दर्द की वेदना को कम करने का अवसर वादी युग में किस उद्योगपति के पास समय है जो पत्रोत्तर (शेष पृष्ठ ३८ पर) Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतस् को सालती स्मृति डा. शोभनाथ पाठक, मेघनगर श्री की समृद्धि और सरस्वती की पांडित्यपूर्ण प्रख• प्राघात लगा जो सदैव ही मेरे प्रतस को सालता रहता रता का समष्टिपूर्ण संयोग विरला ही देखने को मिलता है। है, किन्तु जहां लक्ष्मी का भरपूर वैभव उफन पडा हो. जैन धर्म के उद्धारक, स्व. साहजी का राष्ट्रव्यापी वहा सरस्वती की ज्ञान-गरिमा भी गुरुत्तर हो, उसे गौरवा- धार्मिक कार्य चिरस्मरणीय रहेगा जो विविध रूपो मे वित करने पर तुली हो, ऐसा प्रायः होता नही है । किन्तु उन की गरिमा को गाते नहीं मघाते। देश के कोने-कोमे स्व० साह शान्ति प्रसादजी जैन में इन दोनो देवियो को मे उन्होने जैन धर्म की ध्वजा को फहराया है। कृया समाहित थी । "सोने मे सुगध" की उक्ति को यथा- "भगवान महावीर कथा" शोध प्रबन्ध लिखते समय र्थता प्रदान करने वाला साह शान्ति प्रसाद जी जैन का स्व० साहजी से संपर्क हुमा था। देश के कोने-कोने से अनठा व्यक्तित्व एक कीर्तिमान स्थापित कर युग के लिए यह भगवान महावीर विषयक शोध सामग्री एकत्रित करने मे प्रादर्श प्रस्तुत करता है, कि इतनी प्रसीम सम्पत्ति के बाव जहा एलाचर्य मुनि विद्यानन्द जी का कृपा-सम्बल मुझे मद भी वे माहित्य, संस्कृति व धर्म के प्रति इतने अधिक प्रोत्साहित करता रहा वहीं, मझे स्व० साहजी को प्रथ ग्रास्थावान थे। स्व. रमारानी जैन भी विधाता की अनु- के प्रति निष्ठा भी निखार ला रही थी। प्रबन्ध की प्रेरणा पम देन थी जो स्व० माह जी के साथ धर्मपत्नी की विशि- उपाध्याय विद्यानन्दजी मुनि ने दो तो साहित्यिक थाती ष्टतम भूमिका निभाते हुए साहित्य व कला के क्षेत्र में का विशा। भण्डार प्राकृत शोध-संस्थान, वैशाली से मिला कीर्तिमान स्थापित कर च की है, जिसका अनुपम उदाह- जिरो साहूजी ने बनवाया है। रण है ज्ञानपीठ पुरस्कार योजना का सूत्रपात्र । ___"भगवान महावीर कथा" पी-एच० डी० प्रबन्ध मामाजिक सचार, सांस्कृतिक विकास, नैतिक निरवार लिखते ममय साहजी के सम्पर्क मे पाने के पश्चात मझे व प्राध्यात्मिक उत्थान के प्रति सतत प्रयत्नशील उनी उनकी विशाल हृदयता, धर्मपरायणता तथा जन संस्कृति धार्मिक भावना, राष्ट्रीय निष्ठा व साहित्यिक सृजन को के प्रति अपार निष्ठा की अनुभूति हुई, जिसे शब्दो मे प्रोत्साहित करने की प्रवृत्ति से मैं बेहद प्रभावित था। व्यक्त करना सम्भव नही। प्रबन्ध लिखने में प्रोत्माहन इतने धनवान होते हुए भी साहूजी की धार्मिक प्रवृत्ति को का जो उफान था, वह बडी तीव्रता के साथ गतिशील था जितना भी सराहा जाए थोड़ा है। सर्वगुण सम्पन्न कि भगवान महावीर पर यह देश का प्रथम पी-एच. व्यक्तित्व वाले साहूजी की सहृदयता को प्राकना प्रासान डी० प्रबन्ध उपाधि के पश्चात् ज्ञानपीठ से प्रकाशित हो नहीं है। जायेगा । इसीलिए प्रबन्ध का कार्य में दिन-रात एक करके श्रावक शिरोमणि साहजी के इसी गुण से अभिभूत कठोर परिश्रम के साथ शीघ्र पूर्ण करने में लगा था। मैं मी आशान्वित रहा कि उनकी विशेष कृपा से मेरा पावा, वैशाची, कपिलवस्तु कुशीनगर, लुम्बिनी, गोरखपुर पी-एच. डी. शोध-प्रबन्ध 'भगवान महावीर कथा' कपिया, उपरा, सारनाथ, वाराणसी, हस्तिनापुर, दिल्ली ज्ञानपीठ से अथवा उनकी कृपा सम्बल से प्रकाशित हो आदि की यात्राएं कर मैंने महावीर विषयक विशेष भगवान महावीर के प्रादों, उपदेशो को जन-जन तक मामग्री एकत्रित की। यह सब सामग्री उपाध्याय विद्यानंद पहुंचायेगा, किन्तु उन दोनो (स्व. रमाजी तथा साहू जी मुनि को भी दिखाई व मेरठ चातुर्मास मे ७-८ दिनों शान्ति प्रसाद जैन) के असामयिक निधन से मुझे गहरा तक उनके पास रहकर मार्ग दर्शन लेता रहा । Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८, प कि . ३-४ अनेकान्त स्व. शान्तिप्रसाद जैन भी मेरे इस शोध ग्रंथ लिखने समाप्त हो गया। के उत्साह से प्रभावित थे, इसलिए मैं दूने उत्साह से कार्य द्वितीय संस्करण भी संभवतः शीघ्र समाप्त हो करता रहा। अन्तत: २५००वें निर्वाणोत्सव के पावन जायेगा, किन्तु इस सफलता के बावजूद एक अजीब-सी अवसर पर "भगवान महावीर कथा" पर पी-एच. कसक, कचोट हृदय को सालती है व टीस भरी हूक उठडी. की उपाधि मिल गई। कर विह्वल कर देती है कि यदि साहजी या रमाजी होनी "भगवान महावीर कथा" शोध प्रबन्ध के प्रकाशन तो इस "महावीर कथा" को दुनिया के कोने-२ में पहुंचने के लिए मैं प्रत्यधिक माशान्वित था कि यह साहूजी की में मझे सफलता और अधिक मिलती। प्रसीम संघर्षों से कृपा से हो जायेगा। ज्ञानपीठ के मंत्री श्री लक्ष्मीचंदजी इसे इस मंजिल तक पहुंचाया है किन्तू साहू दम्पत्ति का जैन से भी २.३ बार मिला तथा साहू पालोक प्रकाश कृपा संबल इसे कहां पहुंचा देता। जैन के घर पर स्यय जाकर पाडुलिपि (प्रबन्ध को टकित प्राज साह श्रेयासप्रसादजी का प्राशीर्वाद व प्रेरणार प्रति) उन्हें दे दी कि इसे प्रकाशित कराने की कृपा पत्र भी मझे मिलता है कि मैं 'महावीर जीवन-दर्शन" करें। किन्तु सर्वत्र निराशा हो मुझे मिली अर्थात् प्रबन्ध विषय पर डी. लिट. का विशाल प्रथ लिखकर भगवान प्रकाशित न हो सका । तब श्रीमती रमारानी जैन व श्री महावीर विषयक विश्वस्तरीय सामग्री का इसमे समावेश साह शान्तिप्रसाद जैन का प्रभाव मझे अग्व रने लगा कि करूं जिसके लिए मैंने कार्य प्रारम्भ कर दिया है। यदि वे होते तो ...। क्या महावीर पर विश्वस्तरीय सामग्री एकत्रित करने __ "भगवान महावीर कथा" को प्रततः स्वयं पाठक- के लिए साहजी की स्मृति मे साइट्रस्ट से सहगोग प्राप्त हो प्रकाशन, से प्रकाशित कर द्वितीय संस्करण की परिष्कृत सकता है । साहित्यकार को उनकी कितनी कृपा मिलती थी प्रति देश के कोने-कोने में पहुंचा रहा हूँ। "भगवान इसे शब्दों मे प्रांकना सभव नहीं। महावीर कथा" नेपाल, भूटान, सिक्किम व देश के सुदूर मेघनगर (म. प्र.) भागों में पहुंच गई है। प्रथम संस्करण तो एक वर्ष मे ही 000 (पृष्ठ ३६ का शेषाश) उन्हें मिला । जुट गए तन-मन-धन से वे जैन एकता, सग- गुणो से विभूषित अन्य अनेक व्यक्तित्व बौने से लगते है । ठन एव महावीर के उपदेशो मे प्रचार-प्रसार मे। जैन निष्काम समाजसेवा, धर्म परायणता, कला, साहित्य एव समाज एव धर्म जो मन्दिर की गलियो एवं शास्त्रो के संस्कृति प्रेम, कर्तव्य निष्ठा, सरलता, उदार एव परोपकार पन्नो मे विलुप्त था, प्रब राष्ट्रीय एव अन्तर्राष्ट्रीय जगत की वत्ति, व्यापक एवं उन्मुक्त दृष्टिकोण, मानव सम्मान, धरोहर एवं प्राकर्षण का विषय बन गया। जगत ने जाना प्राप्त साधनों एव अवसरो का समुचित सन्तुलित उपयोग, महावीर को एवं उनके अनुयायियो को। समाज एव गुण ग्राहकता तथा पात्म वैभव को पाने का निरन्तर संस्कृति कृत-कृत्य हो गई साहूजी के इस महान प्रयास सतत प्रयास, ये सब ऐसे गुण हैं जो स्व. श्री साहूजी से । दि. जैन महासमिति के गठन हेतु उन्होने वश नहीं को अमरत्व प्रदान करते है। बाह्य वैभव वो उनसे भी किया? उन्होने अश्रपूरित नेत्रों सहित समाज से जन अधिक बहतों को मिला था, मिला है और मिलेगा, किन्तु एकता हेतु मार्मिक प्रपीन तक की पौर जीवन का उत्सर्ग उक्त प्रात्मिक गुणों के सामने उनका क्या मूल्य ? समग्र उसी प्रयास में कर दिया । महासमिति उनके जीवन का रूप से, मेरी दृष्टि में, वे सच्चे जनस्व के जीवन्त प्रतीक मन्तिम किन्तु महत्वपूर्ण स्मारक है जिसका व्यापक गठन, थे, जो इस दष्टि से सदैव जैन जगत के प्रेरणा स्रोत बने विकास एवं रक्षा करना प्रत्येक जैन का परम कर्तव्य है। रहेंगे। यही उनके प्रति समाज की सच्ची श्रद्धांजलि होगी। म. मोरियण्ट पेपर मिल्स, वस्तुतः उनके सर्वागीण व्यक्तित्व के भागे एक-एक शाहगोल (म.प्र.) 000 Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज और राष्ट्र की सेवा के लिए समर्पित व्यक्तित्व श्री सत्यंधर कुमार सेठी, उज्जन भारतीय साहित्य में मानव जीवन की मौलिकता का घराने में हुपा, वे कितने बड़े उद्योगपति थे इसमें मैं नहीं अंकन करने के लिए कही भी किपी भी तरह की मिशाल जाना चाहता । इन चीजों से किसी का व्यक्तित्व नहीं देखने को नहीं मिलती। इसलिए मानव जीव को प्रपो- मां जा सकता। महान वह है जो इन सबसे अपने लिक जीवन माना है। इस जीवन से सम्बन्धित पौराणिक मापको बचाकर देश व समाज की सेवामों में अपने ग्रंथों में अनेक कथायें महान साधको द्वारा लिखी गई प्रापको अर्पित कर देता है। साहजी के जीवन से सन. हैं जिनमें बतलाया गया है कि मानव ने अपने जीवन धित अनेक लेख व ग्रथ प्रकाशित हए है और होते रहेगे. का निर्माण करके किस तरह मनवना प्राप्त की है और जिनमें उनके जीवन की झांकिया अनेकों मिलेंगी। लेकिन उसके बाद मत्य, हिमा पोर अनेकात विचारधारा के जहां तक मैं उनके सम्पर्क में पाया हूं, मैंने उनके जीवन प्राधार से अपने प्रापको देश, राष्ट्र और प्राणी सेवा के मे व कार्यों से यही अनुभव लिया कि वे एक अलिप्त लिए समर्पित कर दिया है। तीर्थकर जैसे महापुरुषो की श्रावक की तरह अपने जीवन के निर्माण में जुटे रहते थे। पूर्व भव की जीवनियों में भी ऐसे सकरा मिलते है जिनमे मैंने हमेशा उनके हृदय में उदारता मोर करुणा के दर्शन वे साधना के बल पर विश्व के समस्त प्राणियो की सेवा का किए व चेहरे पर हमेशा शाति के भाव । न उनमें प्रभिः व्रत लेते है । सेवा ही जीवन का एक महान व्रत है जिसका मान की भावनाये थी और न किसी प्रकार की प्रतिष्ठा सम्बन्ध न राज्य शासन से है और न धन सम्पदा से पोर की भावनायें। उनमे हमेशा लघुता और मानव भावनामो जिसका स्पष्ट उदाहरण भगवान महावीर का है । भगवान के दर्शन होते थे। वे सही रूप मे एक धार्मिक महापुरुष महावीर अपार वैभव और राज्य सम्पदा के बीच पैदा थे। उनके जीवन का लक्ष्य प्रनाथ, गरीब और अबलामों हए, लेकिन उनके जीवन का लक्ष्य प्रात्मविश्वास के साथ की सेवा का था और साहित्य प्रचार व इतिहास-प्रकाश निस्तर प्राणी संवा व राष्ट्र सेवा का रहा और वे इस का था, जिसके लिए प्रापने प्रचुर मात्रा में धन का उपसंकल्प की पूर्ति मे लगे रहे और उन्होंने अपने इस महान योग किया। मानव जीवन को सफल किया। ऐसे महापुरुष हमेशा से गरीब छात्रों के लिए मापन दिल खोलकर छात्रवृत्ति होते पाये है पोर भविष्य में होते रहेगे। इस युग म फड खोले व प्रसहाय प्रबलामो को ऊचा उठाने के लिए भी अनेक सतों और विद्वानो ने भी जन्म लिया है जिनके महायक फण्ड खोले , जिनसे प्राज भी इस वर्ग का प्रत्यद्वारा राष्ट्र के प्राणियो की अनन्त सेवाये हुई है जिनमे । धिक उत्थान हो रहा है। इसी तरह, प्रापने साहित्य और पं. टोडरमलजी, पं० सदासुख जी, प. बनारसीदासजी, इतिहास के प्रकार के लिए ज्ञानपीठ जैसी महान सस्था प० गणेशप्रसादजी प्रादि के नाम उल्लेखनीय है। को जन्म दिया, जिसके द्वारा साहित्य जगत की इन विशिष्ट पुरुषो के स्वर्गवाम के बाद भी इस पाज भी सेवायें हो रही है। इस संस्थान द्वारा प्रलभ्य जैन भारत भूमि पर एक ऐसी विभूति ने जन्म लिया, जिसका ग्रन्थों का सरल और स्पष्ट भाषा में प्रकाशन करके जो जन्म जन कुल मेव विशाल वैभव के बीच में होते हर जैन साहित्य व इतिहास को प्रकाश में लाने का प्रयत्न भी उसने अपने जीवन की समस्त सेवायें राष्ट्र पोर समाज किया गया है वह जैन इतिहास मे हमेशा स्मरणीय रहेगा। के विकास के लिए अर्पित कर दी । वह विभूति है श्री साहू जैन समाज के लिए माहूजी की यह एक ऐसी देन है शान्ति प्रसाद जैन, जिनके संबन्ध में हम गौरव के साथ जिसके लिए जैन समजता रहेगा। यह देन जैनों तक लिख सकते हैं या कह सकते हैं कि इस महान व्यक्ति का ही सीमित नही लेकिन भारतीय वाङ्मय के लिए भो महान जीवन किसी एक जाति विशेष व समाज विशेष के सर्वोपरि देन है जो प्रतिवर्ष सर्वोपरि साहित्य के लेखक को लिए नही रहा । साहूजी का जन्म कहां हुमा, कितने बड़े एक साख रुपये की राशि का पारितोषिक देती रही है। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. १ कि. ३-४ यह एक बहुत बड़ा प्रादर्श है। और अनेकांत विचारधारा को। साहजी ने जीवन के इसी तरह, भारत के समस्त तीर्थों को प्रकाश में लाने अन्त तक एकता के लिए अथक प्रयास किया और इसको के लिए समाज के सुप्रसिद्ध विद्वान् पं. बलभद्रजी साहू मूर्त रूप देने के लिए दि. जैन महासमिति जैसी विराट साहब ने प्रेरणायें दी जिससे प्रभावित होकर भारत के सस्था को जन्म दिया, जिसका स्थान भारत के कोने-२ कोने-कोने मे जाकर पंडितजी ने जैन तीर्थ का इतिहास मे वटवृक्ष की तरह साकार हो रहा है। यदि समाज बटोरा और उसे वे प्रकाश मे लाय। ने साहजी की इग भावना को साकार रूप दे डाला तो २५००वें निर्वाण महोत्सव के इस रूप में सफल होने इस युग में उनके प्रति जैन समाज की यह सबसे बडी का श्रेय भी माननीय साहू साहब को है जिन्होने अपनी श्रद्धाजलि होगी। समस्त शक्तियां लगाकर गष्ट्रीय स्तर पर इसका प्रायो साहूजी अनेक संस्थानो के सस्थापक, व्यवस्थापक व जन करवाया। भगवान महावीर के निर्माण के बाद जनो सचालक थे। समाज के कार्यकर्ताप्रो के प्रति उनका का यह पहला प्रायोजन है जो सार्वजनिक रूप से विश्व अगाध प्रेम था। उनका सम्मान देते थे और अपने मकान के बौन २ मे मनाया गया। इस प्रायोजन स मर्वसाधारण पर बहा भारी प्रातिथ्य करते थे। कई बार मस्थानो को यह समझने का प्रपमर मिला कि जन धर्म क मूल के अधिवेशनो म मझे उनके प्रत्यक्ष दर्शन करने के अवसर सिवान्त अहिंसा, अपरिग्रह और अन कात राष्ट्र के लिए मिल है। वे म देखते ही प्रागे बढ़कर गले लगाते थे कितने उपयोगी है। पौर मेरी पीठ ठोका करते थे। उनमे समाज के कार्यसाहजी जितने धार्मिक और साहित्यिक प्रेमी थे उतन पति जतन पासीयतामा कभी मतही वे समाजसुधारक भी थे । वे सामाजिक रूढियो के कदर ढया क कट्टर सर नही पाया जब पर्यपणराजपर्व और दीपावली पर मुझे विरोधी थे । वे हमेशा समाज को वर्तमान रूढ़ियों से वे भल जाते । उनमे वात्सल्य और समता का जबर्दस्त सममत कराने के लिए प्रयास किया करते थे । उनको विवाह- स्वरा था। ऐसे एक नहीं अनेकों उदाहरण है। शादियो के प्रदर्शन बिल्कुल पसन्द नही थे। वे चाहते थे मैं यहां स्वर्गीया रमा रानीजी को भी नही भूल कि प्रत्यन्त सादगी के साथ ये सम्पन्न हों। जहा तक मेरा सकता। जिन की सही प्रेरणामों से ही माहूजी का जीवन अनुमान है, उन्होंने अपने बच्चो की शादियों में किसी भी महान् बना । रमाजी सही रूप मे प्रादर्श देवी थी। प्रकार का दिखावा व प्रदर्शन नहीं किया था। वे अ भारतवर्षीय दि० जैन परिषद की विचारधारा के पूर्ण समर्थक इतने विशाल कुटम्ब के बीच रहते हुए भी उन्होने थे और उसके माध्यम से वे समाज को हमेशा सबोधित अपने कर्तव्य को निभाया व स्वयं अनेक संस्थानों की करते थे। साहूजी के विचारों में यह भी विशेषता थी संचालन किया । कि वे समन्वय विचारधारा के सबसे बड़े व्यक्ति थे। परि- मैं तो यही निवेवन करना चाहूगा कि जैन समाज षद के सर्वेसर्वा होने पर भी महासभा और परिषद को साहू जी जैसे प्रादर्श पुरुषो के पदचिह्नों पर चलकर उनके एक करने के लिए उन्होंने कई बार प्रयास किया। साह स नसन स्वप्न को साकार करे और उनकी संगठन पोर एकता जी चाहते थे कि हम संगठन को महसा दें जिससे हमारी की भावना को मूर्त रूप दे जिससे कि स्वर्गीय प्रात्मा को शक्तियों का उपयोग प्रच्छाइयो में हो। साहजी न बदर शाति प्राप्त हो। बीस पंथी थे और न तेरह पथी थे। वे पंथ से ऊपर उठे मैं भी उस महामानव के चरणों में सही रूप से श्रद्धा हए विचारों के थे । वे कभी भी वैचारिक संघर्ष में नही सुमन अर्पित करता हुमा भगवान महावीर से प्रार्थना करता गए। वे सही रूप में मनेकांतवादी थे। इसीलिए वे हैं कि वे मझे भी वह शक्ति प्रदान करें जिससे मैं उनके भाषणों को महत्व नही देते थे। वे महत्व देते थे अहिंसा पदचिह्नों पर चल सक। 000 Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातत्त्व के अमर प्रेमी 0 डा. सुरेन्द्र कुमार प्रार्य, उज्जैन साहजी अपने बहुविधि व्यक्तित्व के कारण चिर. था। उसके लिए इस संग्रहालय की मूर्तियों का वर्गीकरण स्मरणीय थे। वे एक सफल उद्योगपति, जागरुक विचारक करके एक विस्तृत लेख भेजने को लिखा था। मैंने व पं. और सामाजिक कार्यकर्ता के साथ-साथ धर्म, दर्शन, कला, सत्यंधर कुमार जी ने संयुक्त रूप से एक लेख भेजा था जो राजनीति पौर साहित्य में भी विशेष रुचि रखते थे। भारत उस प्रभ्य के भाग-२ में प्रध्याय ३८ में पृष्ठ ५८७ से ५८८ देश की प्राचीन सपदा व प्रतीत की गरिमा के प्रसंगों में तक छपा भी, और लगभग १५ चित्र मूर्तियो के भेजे। मापका मन अधिक रमता था। उनका पुरातत्व में भी संग्रहालय में मालव प्रदेश के बदनावर, चोर, विशेष आकर्षण था और एक जागरूक पाठक की भांति जामनेर, ईसागढ, सुन्दरसी, मक्सी, प्राष्टा, इंदार मादि हर उत्खनन मोर नई पुरातात्विक उपलब्धियों पर लेख, स्थानों से प्रतिमाएं एकत्र की गई थीं व उनका संग्रह सम्मरण व रिपोर्ट पढा करते थे। मेरा उनसे कभी कर यहाँ स्थापित करने का समय व महाकाल क्षेत्र की माक्षात्कार न हो सका, परन्तु पत्रों द्वारा सूचनाप्रो का व कालियादह की शिवनत्य व शिव पार्वती, सरस्वती पादान-प्रदान होता रहता था, और उसी पत्र-व्यवहार प्रादि प्रतिमानों का हवाला दिया था, तब साहजी ने लिखा के प्राधार पर यह स्पष्ट होता है कि प्रातःस्मरणीय श्री था कि यह जैन व जैनेतर ब्राह्मण शेवधर्म की प्रतिभामों साहजी पुरातत्व विषय मे अत्यधिक रुचि रखते थे। का एक भारतीय स्तर का संग्रहालय है तथा उसका विधि" उज्जैन के मालवा प्रान्तीय दिगम्बर जैन संग्रहालय, । वत प्राकलन होना चाहिए-इससे भारतीय संस्कृति के जयसिंह पुरा के विषय मे उनकी गहरी रुचि थी। यह सग्रहा. वत् लय पंडिन सत्यधरकुमार सेठी एवं श्री भपेन्द्रकुमार सेठी उज्जवल पक्ष का सबल रूप विद्वानों के समक्ष पाया है। उ साहजी की इच्छा थी कि यह संग्रहालय उज्जैन का के अथक प्रयासों से स्थापित किया गया था। इस संग्रहालय की मतिशिल्प के कालक्रमानसार व्यवस्था के लिए मैं एक प्रमुख प्राकषण कन्द्र बने और देश-विदेश के विमान इस पोर प्राकर्षित हो। हमने उनकी इच्छानुसार एक सन् १९६८ से ही क्रियाशील था । डा. वि. भी. वाकण सचित्र मलबम, मूर्ति विवरण, पहचान, लांछन, प्रायुध, कर, श्री नारायण भाटी, श्री दीप चन्द जैन, श्री लालबहादुर यक्ष-यक्षिणी व पादपीठ के शिलालेखों के पाचन के साथ तोमर के साथ मैंने समस्त ५१० प्रतिमानों का क्रमांकी. करण, अभिलेखों की प्रतिलिपि एवं मनि सौष्ठव का एक तयार किया। न्यूमायर इरविन (मास्ट्रिया), बेनेट पिटर वहत केटलाग तैयार किया था। उस केटलाग को ज्ञानपीठ (लंदन), लोथार बांके (मास्ट्रिया) व ऋजर (इगलैड) ने इसका मूर्तिशिल्प देखा, फोटोग्राफ लिए व इसकी मूर्तियों की प्रोर प्रकाशनार्थ भेजा गया। इसी बीच अखिल भारतीय प्रोरिएन्टल कान्फ्रेंस का उज्जैन अधिवेशन हो रहा का प्रकाशन किया। साहूजी ने पत्र में लिखा था कि था, प्रतः एक परिचय पुस्तिका इस संग्रहालय की प्रका- मालवा के जैन तीर्थों पर एक पुस्तक तैयार की जाय। उसी शित की जो समस्त कलाप्रेमी प्रबुद्ध पाठको को वितरित शृखला में मैंने "मक्सी जैन तीर्थ : एक परिचय व इतिकी गई । मैंने एक प्रति प्रादरणीय साह जी के पास भेजी हास" पुस्तक लिखी जो हाल ही में प्रकाशित हुई है। थी और उनका मंतव्य मांगा था। इस पर साहूजी ने ऊन, ओंकारेश्वर, बड़वानी, बनडिया पर भी मैं लेखन कर एक विस्तृत पत्र दिया था कि परिचय पुस्तिका को पढकर रहा है। सभी के प्रेरणास्रोत पादरणीय साहजी थे। उन्हे हर्ष हुमा व किन-किन स्थानों से कब-कब संग्रह किया साहूजी का मत था कि प्राचीन मूर्तियो मे युगों की गया है और जैन प्रतिमानों पर शोध करने वालों को श्रद्धा समन्वित रही है। प्रतः यह हमारे लिए धरोहर है। यहाँ किस प्रकार की सुविधा दी जाती है? क्या जैन धर्म राष्ट्र के लिए यह थाती है जिस पर यगों तक भारके अतिरिक्त भी इस संग्रहालय मे अन्य प्रतिमाएं हैं ? तीयो को गर्व होगा। साथ ही ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित 'जन मार्ट एण्ड मार्कि- अन्त में उनके प्रति श्रद्धांजली प्रस्तुत करत हूं । टेक्चर' डा. अमलानन्द घोष द्वारा संपादित होने वाला विक्रम विश्वविद्याल, उज्जैन (मध्य प्रदेश) 000 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाप्रभावक श्रावक शिरोमणि 1 पण्डित सुमेरचन्द्र जैन, दिल्ली उन्नीसवीं शताब्दी में जैन धर्म और जैन सस्कृति के नहीं । इस पुस्तक में उनके सम्बन्ध में लिखा था। प्रभ्युदय के लिए जिन तेजस्वी . असाधारण प्रतिभासपन्न, चतुर्विध संघ में किमते कितना श्रद्धा का भाग अपने दानवीर महान पात्मामों ने जन्म लेकर लोक कल्याणकारी हृदय के विकसित पुष्पों से भरकर पुष्पांजलि २५०० वर्षों प्राश्चर्यजनक कार्य किए उनमे स्वनामधन्य सेठमाणिकचद्र के पश्चात् वीर भगवान के चरणों में अपित की, इसका जी जहरी पोर जैन समाज के अनभिशिक्त मम्राट तो हम सभी मल्यांकन नही कर सकते । परन्तु यह बात सवराजा सेठ हकमचन्द जी थे । उन के पश्चात सर्वतोमुखी हप अवश्य जानते है कि उसमे उमग से भरकर कृतकारित प्रतिभा को लेकर भ० महावीर के शासन को और अहिंसा- अनुमोदना से और तन, मन, धन से मर्वत्र जागति और स्मक सस्कृति के उत्थान के लिए जिन्होंने अथक परिश्रम प्रेरणा का स्रोत जिसके बारा हमावे हे स्वनामधन्य किया उनका नाम काव्य प्रतिष्ठित महाप्रभावक श्रावक लब्बप्रतिष्ठित जैन समाज के मुकुटमणि साहू शान्ति शिरोमणि साह शांति प्रसाद जी है।। प्रसादजी है । वे समाज के ऐसे ज्योतिर्मान देदीप्यमान रत्न साहूजी की प्रतिभा चतुर्मुखी थी। उन्होंने व्यापार, है जो अस्वस्थ होने पर भी भ० महावीर निर्वाण महोत्सव तीर्थ भक्ति, जिनवाणी भक्ति समाज निर्माण का महान के लिए सतत जागरूक रहे । समाज के मार्गदर्शक जैन कार्य, घोन्नति की तीव्र प्राकांक्षा पौर अध्यात्मज्ञान को समाज के सभी मुनिजनों, त्यागियों, व्रती विद्वानों और पिपासा, इन सभी विषयो मे उन्होन महत्वपूर्ण कार्य किए श्रावक वर्ग के प्रिय रहे। इस उत्सव की सफलता का जिन्हें हम युग-युग तक याद करते रहेंगे। श्रेय साहूजी की तीन लगन को है जिन्होंने अपनी वे भारतीय माता क ऐसे दिव्य सपूत थे जो जीवन निष्ठा और कर्तव्यशीलता से समाज के मन को मोह लिया भर विविध प्रकार से जन संस्कृति, हिंसात्मक विचार- प्रौर उत्सव में चार चाद लगा दिए । धारा और भारतीय दिव्य विचारों के पोषण के लिए वैष्णव कुल मे जन्म लेने पर भी श्रीमती रमा रानी सतत प्रयत्नशील रहे। जी के मन मे जैन धर्म और जैन संस्कृति के प्रति बड़ी भ० महावीर स्वामी के २५००वे निर्माण महोत्सव भक्ति थी। वे सहजी को सतत धार्मिक कार्यों में प्रोत्साहन पर उन्होंने जो प्रसाधारण कार्य किए, उन्हे देख हमे भिक्ष- दिया करती थी। गजवारावेल (जो महापराक्रमी पोर शक्तिशाली नरेश था यद्यपि साहूजी का अन्तःकरण स्वतः जिन शासन की पौर जिसने दुर्दान्त शत्रु को परास्तकर कुमारी पर्वत पर प्रभावना करने म सदैव उत्साहित रहता था परन्तु रमा १७गिरि मे धर्मोद्योतन का महान कार्य किया) को याद जी का सहयोग सोने मे सुगन्धि की तरह चरितार्थ हुमा। भा गई। जैन सस्कृति और जैन धर्म के उत्थान मे सदैव दिल्ली में भगवान महावीर के २५००वें निर्वाण पर जैन महिलामो ने मसाधारण शक्ति लगाकर माश्चर्यमहोत्सव में एक छोटी-सी पुस्तक जब साहजी को दिई जनक कार्य किए है। प्राचीन काल में अनेक तपस्विनी, दान तो बोले कि 'तुमने तो सभी की प्रशंसा लिख दी।" गीला, वीरप्रसवा, शूरवीर, तेजस्वी, शक्तिशाली, वीरा. वस्तुतः जिन्होंने निर्वाण महोत्सव पर क्रियात्मक सह. ना लेखिका, कवियित्री, प्रत्यक, बुद्धिमती नारी रल हुई योग दिया इसमे उन्ही महानुभावो की प्रशसा है मन्य को जिन्होंने जिन शासन को उद्योग करने में भी प्रभावना मन Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महात्रमावाबावक शिरोमणि के पालन करने में महत्वपूर्ण अनूठे कार्य किए हैं। स्त्रियों तीर्थ क्षेत्र की मुग्ण बेदी के पास इतमा स्थान नहीं था कि की तेजस्वी शक्ति से ही समाज सच्चे पर्षों में उत्कर्ष को स-पांच महाज सुविधापूर्वक बैठ सकें मोर परिकमा भली प्राप्त होकर सर्वागीण उन्नति को प्राप्त हो सकती है। प्रकार लगा सकें। जब इस विषय की पोर साहजो का श्रीमती रमारानीजी उन्हीं वीर महिलाओं के पदचिह्नो ध्यान प्राकर्षित किया गया तो उन्होंने एक लाख रुपये पर चलीं, जिन्होंने सस्कृति उत्थान के कार्य मे प्रभाव से स्वयं अधिक रुपये लगाकर मनोशतम वेदी पोर नये शाली कार्य किया, जिससे जनता में अपने कर्तव्य के प्रति सिरे से भवन वशिखर बनवाकर तीर्थ का उद्धारकर दिया। श्रद्धा बलवती हुई और उनका सबसे बड़ा कार्य यह हुमा इसी प्रकार न मालम कितने तीयों का जीर्णोद्वार उनके कि वे साहजी को दिल खोलकर उदारता के साथ धर्म, द्वारा हपा । वे सच्चे पथों में तीर्थभक्त शिरोमणि ॥ संस्कृति, साहित्य, जिनवाणी, तीर्थ और समाज निर्माण के इसी प्रकार जिनवाणी उद्धार के लिए उन्होंने भार. कार्य में प्रोत्साहन देती रही जिससे जैन समाज के जीवन तीय ज्ञानपीठ की स्थापना की जिसके द्वारा सम्कृत, मे एक नई चेतना जागृत हुई और जिसका सुमधुर फल प्राकृत, हिन्दी पौर दक्षिण की भाषामों के प्रथ सर्वात निकला। सुन्दर रूप में नई सज्जा के साथ इस प्रकार प्रकाशित साहजी ने व्यापार के कार्य को खूब बढ़ाया। अनेक कराये जो पहले कभी नहीं हुए थे। फैक्टरियों, व्यापारिक सस्थानो, विविध उद्योगो को इतने जो ग्रथ प्रकाशित हए वे प्राभ्यन्तर विषय की दृष्टि कंचे दर्जे पर ले जाना उनकी प्रतिभा का उत्कृष्ट नमना से और बाह्य सज्जा की दृष्टि से नयनाभिराम, नाय था। जबकि माज के समय मे मालिक मजदूरों के संघर्ष और अद्वितीय थे जिनकी सभी सरस्वती पाद सेजियों निरन्तर चलते रहते है, हजारों कामगारों से काम लेना, ने मुक्त कंठ से प्रशसा की और दूसरो के लिए उनका उन्हें सतुष्ट करना और अपने वाणिज्य का सर्वतोमुखी अनुकरण करने की प्रेरणा दी। इसी सस्था के द्वारा एक विकास करना उनका व्यक्तिगत चमत्कार ही था। ऐमा महान कार्य हुपा जिससे देश की चौदह भाषामो के सारे देश में जितने तीर्थ है, उनमें सबसे अधिक मध्य सर्वोत्तम प्रथकार का सम्मान किया गया भोर प्रति वर्ष प्रदेश में जैन तीर्थ हैं। मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के वाग्देवी सरस्वती की मूर्ति सहित एक लाख रुपये का सव. जिस इलाके को बन्देलखण्ड कहते है। प्राचीन काल मे वहां श्रेष्ठ पुरस्कार प्रदान किया गया, जिसके फलस्वरूप भनेक सिंघई, सवाई सिंघई और श्रीमंत धनिक हुए जिन्होंने सभी भाषामों के साहित्यकार विविध भापारूपो मनियो अपनी चंचला लक्ष्मी का सही उपयोग जिनेन्द्रदेव के को एक माला मे गूथने और एक-दूसरे के निकट भाकर मदिरों के निर्माण में लगाया। बहुत समय तक वे धर्म प्रास्मीयता प्रकट करने लगे। इससे भारतीय संस्कृति का पौर संस्कृति के केन्द्र बने रहे। जब गांवों की मोर से गौरव बढ़ा और साहू जी को दानशीलता, दिग्दिगान्त शहरों की मोर ग्रामीण जनता का रुख हमा तो वे तीर्थ व्यापिनी हुई, यद्यपि उन्हें स्वयं पानी प्रशमा सुनने का उपेक्षित हो गए। फलस्वरूप उनका सौन्दयं मलिन हो रचमात्र भी चाव न था । उन्हे काय में विश्वास था। गया । धीरे-धीरे वे जीर्ण होकर अपने अस्तित्व को ही समाज निर्माण के कार्य में उनकी बडी रुचि थी। खतरे में डालने लगे। उनका उद्यम करना सामान्य बात दिगम्बर जैन समाज में जो अनेक संस्थाये अपने-अपने क्षेत्र नही थी । साहूजी ने उनके दर्शन किए। उनके मन मे टीस मे कार्य कर रही थी उनमे से कोई भी सस्था समस्त न हई और उनके उद्धार का सकल्प उनके मन मे जागत हमा। समाज का प्रतिनिधित्व करने का दावा नही कर सकती अपने मुख्य इन्जीनियर को भिजवाकर उन तीर्थों का थी। ऐसी परिस्थिति में भ. महावीर निर्वाण महोत्सव सर्वे किया गया और नये सिरे से एक सुयोग्य महानुभाव कैसे सफल हो, इस बात को ध्यान में रखकर दिगम्बर जैन को देख-रेख मे लाखों रुपये व्यय करके उन तीर्थों का भ. महावीर निर्वाण समिति बनाई गई जिसके माध्यम से जीर्णोद्धार किया गया। इसी प्रकार प्रहिछत्र पार्श्वनाथ वीर निर्वाण महोत्सव पौर धर्मचक्र प्रवर्तन का अत्यन्त Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ वर्ष ३१, कि० ३-४ अनेकान्त गौरवशाली कार्य सम्पन्न हुमा । साहूजी की मान्तरिक इच्छा देखा और उन्हें जो सुझाव देना था देते गए। तनसुख थी कि समस्त जैन समाज एक झडे के नीचे पाए। रायजी समाज के कर्मठ कार्यकर्ता थे जिन्होने विविध उम्होंने इस कार्य में प्रथक परिश्रम किया और दिगम्बर प्रकार से समाज की सेवा की। साहूजी के वे दाहिने जैन महासमिति का निर्माण किया गया। हाथ थे । सैकड़ों कार्यकर्ता, या जिन्हे उनसे प्रोत्साहन महासमिति का दायित्व बहुत बड़ा है। उसके द्वारा मिलता था उनके बिना प्रभाव का अनुभव करने लगे। प्रषिक काम हो, सभी की प्रान्तरिक प्रेरण। इस बात में साहजी मे प्रात्म-कल्याण की महती भावना है। इसके कार्यकर्तामों का ध्यान एकांगी न हो; उनकी जागी। वे कई बार मुनि श्री शान्ति सागर जी सर्वाङ्गीण बुष्टि हो। यद्यपि राजनैतिक अधिकार हम महाराज के पास दर्शनार्थ पहुंचे और दीक्षा पालग से नहीं चाहते, पर इतना अवश्य चाहते हैं कि हमारी ग्रहण करने की अभिलाषा प्रकट की। प्राचीन काल धार्मिक संस्कतिके विकास में किसी प्रकार की बाघा न मे अमोघवर्ष जैसे प्रतापी राजा राज्यस्याग कर दीक्षा प्राए । समस्त जैन शिक्षण संस्थानो मे धर्म शिक्षा दी अंगीकार करते और स्वपर कल्याण में दत्तचित्त रहते थे। जातोयों को सुरक्षा हो। आसपास का वातावरण उनके द्वारा जैन शासन की महती प्रभावना होने वाली अहिंसात्मक बना रहे इसी प्रकार जैन समाज भारत के गाव. थी। साहजी के मन मे भोगों से उदासो और प्रात्मोद्धार गांव में फैला है। हमारा उनका सम्पर्क टूट गया न तो। की तीव्र माकांक्षा बलवती हुई। वे जानते थे कि हमारे उन्हें केन्द्र से प्रकाश मिलता है और न उनकी कठिनाइयो पूर्वज ऋषियो ने जो ज्ञाननिधि हमे सौपी है, कुछ लोग और समस्यामों को हल करने की समस्या हम मिल बैठ उससे न तो स्वयं लाभ उठाते है पौरन दूसरों को उठाने देते कर सलझाते है। इसलिए दूरी बढ़ती जाती है और मामी- है; क्यो न मै वीर शासन के सर्वोदय सिद्धान्तो का अधिक पता कम होती जाती है। प्रतः प्रावश्यक है कि प्रान्तो मे से अधिक प्रचार करू । वे अस्वस्थ हो गए । सर गगाराम दासमिति के कार्यालय हो और कतिपय विद्वान उपदेशक हास्पिटल में जब उन्हें देखने गया तो उनकी शारीरिक कसे जायें जो देश की धर्मप्राण जनता में धार्मिक स्थिति अच्छी न थी। चिकित्सा चल रही थी। परन्त netm शातकोian Hi दुर्भाग्य एव काल के ऋर हाथो से समाज की अनुपम निधि देने की व्यवस्था प्रादि कार्यों में रुचि जगावें। मिशनरी ढग से युवको को कार्य करने की प्रेरणा दें। साहजी इस वे सच्चे अर्थों में भामाशाह थे। उनकी जितनी बात से अत्यधिक खिन्न थे कि नवयुवको मे उज्ज्वल प्रशंसा की जाय थोड़ी है। ऐसी दिव्य विभतियां कभीसंस्कार कम होते जाते है। उनमे किस प्रकार चरित्र कभी अवतरित होती है जिनके मन मे यह भावना होती निर्माण की सुरुचि जागृत हो, यह कार्य उत्तम शैली से दी गई धर्म शिक्षा से ही सम्भव है। न तन सेवा न मन सेवा, न जीवन और धन सेवा । उनमे अपने कार्यकर्तामो के प्रति बड़ा स्नेह था। वे मुझे है इष्ट जन सेवा, सदा सच्ची भुवन सेवा।। मुझ है। श्री तनसुखराय स्मृति ग्रथ समिति के अध्यक्ष थे और मैं . हमे विश्वास है कि उनके पुत्र रत्न उनके पदचिह्नों पर चलेंगे। उसका संयोजक । उन्होने सारे लेख मंगवाकर एक-एक लेख पाडव नगर, पटपड़गज, दिल्ली 000 लूट ली गई। Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युग के भामाशाह 0 श्री लक्ष्मीचन्द्र 'सरोज', जावरा युग के भामाशाह एक तुम, साह शान्ति प्रसाद । देश तथा समाज यह कह कर, तुम्हे करेगा याद । नोबल पुरस्कार से कुछ कम, प्रर्थ भावमय नाद । ज्ञानपीठ का पुरस्कार सच, मानवता का वाद । सत्य रमापति सफल हए तुम, कर निधि का उपयोग। लक्ष्मी-सरस्वती का तुम में, था मणि-कांचन योग ।। श्रीमानों प्रो विद्वानों के, केन्द्रविन्दु तुम शान्ति । सामाजिक प्रो धार्मिक मानव, केन्द्रविन्दु तुम शान्ति ।। जीवन के उत्थान-पतन में, रखा न हर्ष-विषाद । एक मंच, ध्वज, प्रतीक, पागम, लेकर बने प्रसाद ।। जनगण मन के माने अनुपम, अनभिषिक्त सम्राट् । संसति-जीवन-कृतित्व तेरा, था बहुमूल्य विराट ।। व्यापारी विद्वान् नेक तुम, करके नहीं विवाद । जिज्ञासू बन सत्य शोधते, करने धर्म-निनाद ।। जैन धर्म जन धर्म बने मो, श्रमण संस्कृति-भाव । भले जग-जन ऋजनाल, भव-भ्रमण-संस्कृति-गव । लौकिक होकर सत्य अलौकिक, अनपम अमित ललाम । कार्य-संस्थानों से रवि-शशि, सदश अमर सुनाम ।। तेरे जीवन को गाथा का, जो सुन ले सवाद । निरभिमान हे परोपकारी ! पढ़ भूले अवसाद ।। साहस-शोर्य बुद्धि-विधा ले, मतिशय परम उदार . अपने जीवन से सिखलाया, सुखद समाज-सुधार ॥ जन जगत के अनुपम राजा, किए सहस्रों काम । श्रद्धांजलि लो कहें सहस्रों, शत-शत बार प्रणाम ॥ मर कर भी तुम अमर हो गए, साह शान्ति प्रसाद । अपने यश-शरीर से जीवित, साहू शान्तिप्रसाद ।। बजाज खाना, जावरा (म०प्र०) Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरस्वती के पुजारी श्री बती रूपवतो 'किरण', जउलपुर सरस्वती का एकनिष्ठ अनन्य पुजारी अनायास सो कोई भी क्षेत्र उनकी सेवामों से अछूता न रह सका । गया, यह सुनकर मस्तिष्क में क्षण भर को यह प्रश्न कौंध उनके साथ उनकी सहधर्मिणी चतुर्मखी प्रतिभाशालिनी गया कि प्राजीवन सक्रिय रहने वाले जागरूक व्यक्ति को रमा जी का व्यक्तित्व भी संपूर्णतः उन्ही में विलय हो निद्रा कैसे मा गई ? तत्क्षण तथ्य उजागर हो गया कि यह एकाकार हो गया था। ऐसा मणि-काचन सयोग बिरले ही निद्रा नहीं चिर निद्रा है, जो अब कभी नही खुलेगी। दंपतियों को प्राप्त होता है। सृष्टि का अटल नियम है । जो पाता है, वह जाता है। जन्म द्रव्याभाव के कारण विपन्न परिवारों की प्रतिभाएं के साथ ही प्राणी मरण की पोर पैर बढ़ा देता है, अनजाने कुण्ठित हो विकसित हुये बिना ही नष्ट हो जाती हैं। यह ही। संसार ही परिवर्तनशील अस्थिर है तो उसमें प्रारूतु व्यक्तिगत विनाश नही, अपितु समाज का पतन है। इससे यात्री कैसे स्थिर रह सकता है ? यह अस्थिरता भी उस मानवता का अपकर्ष होता है। ऐसा अनुभव करते हुये ज्वलंत सत्य को उद्घटित करती है, जो प्राज तक एक उन्होंने छात्रवृत्तियों देने के लिये तत्काल ट्रस्ट स्थापित मबूझी पहेली बना हुप्रा है । संसार यात्रा का साथी शरीर कर इस महत् प्रभाव की पूर्ति की, जिससे हजारों नश्वर है। स्थिति समाप्त होते ही वह पिंड ब्रह्माण्ड में विद्यार्थी प्रशिक्षित हुये पौर हो रहे हैं। इच्छुक शिक्षितों बिखर जाता है, परंतु प्रात्मा यथावत है। शरीर के मिलने को साहू उद्योगों में नियुक्त कर प्राजीविका की विभीषिका से वह न अधिक होता है, न बिछडने से न्यूनता पाती है। से भी विमुक्त कर दिया। पह था उनका समाज-प्रेम । प्रत्यक्षतः अनेक शरीर जीणं होते तथा मृत्यु को प्राप्त इसीलिये वे समाज के प्राण स्वरूप थे। ज्ञान दान की होते देखे जाते हैं। उन शरीरों में श्रीमान् धीमान आदि महत्ता को उन्होने यथार्थत. प्राका था। कोई भी संज्ञा धारण करने वाली प्रात्माएँ विद्यमान रही ज्ञानपीठ, काशी सस्थान की सस्थापना कर लुप्त हो हों, किन्तु सभी शरीर कालधर्म से प्रछते रह चिरस्थायी रहे भनेक अनुपलब्ध प्राचीन ग्रंथों का एवं लोकोपकारी नहीं हुये । जो इस भेदविज्ञान को प्रात्मसात् कर लेता है, परिष्कृत मौलिक साहित्य का प्रकाशन कर वे सर्वसाधारण वह प्रात्मा इस पावागमन के चक्र से मुक्त हो जाता है। को सुलभ किये । जैन कुलोत्पन्न होने से जैन साहित्य, दर्शन वे ही पूज्य एवं अनुकरणीय हैं, परंतु मुक्त होने के पूर्व जो के प्रति स्वभावतः प्राकर्षित थे ही; पर भारतीय भाषाएं यात्री अपने मानव जीवन की लघुतम यात्रा शुभ भाव व भी उन्हे प्रिय थी। फलत: ज्ञानपीठ, काशी के माध्यम से शुभ कार्यों के द्वारा सफल कर लेते है, वे धन्य है। ऐसे साहित्यकारों को उनकी सवोच्च सृजनात्मक साहित्यिक भाग्यवानों में थे स्वनामधन्य श्राबक शिरोमणि साहू शाति कृति पर उनके सम्मानार्थ, विश्वविख्यात नोबल पुरस्कार प्रसाद जी। की भांति मापने भी प्रतीकात्मक एक लाख रुपये पुरस्कार साहू जी देश के जाने-माने महान् उद्योगपति थे ही, स्वरूप देने की घोषणा कर, भारत मे नवीन परम्परा का परंतु सभी क्षेत्रों में उनका अधिकार था । वे उन श्रीमानों सूत्रपात किया। इस योजना के अंतर्गत प्रतिवर्ष विविध में से नहीं थे जो अपनी प्रांखें व बुद्धि को गिरवी रखकर भाषाभाषी सरस्वती-पुत्रो का सम्मान किया जा चुका है। केवल कानों से ही कार्य लेते हैं। वे कार्य करने के पूर्व उसे इस योजना की प्राधारशिला इतनी सुदृढ़ है कि भविष्य भली प्रकार बुद्धि की कसौटी पर कसकर क्रियान्वित करते थे में भी बिना किसी व्यवधान के सुचारुरूपेण साकार होती वे लक्ष्मीपति होकर भी पाजीवन सरस्वती के पुजारी रहे। रहेगी। उन्हें दोनों का समान रूप से वरदान प्राप्त था। अतएव ज्ञानपीठ की भांति प्रापके द्वारा संस्थापित साह जैन अपने जीवन में उन्होंने सामाजिक, धार्मिक मादि सभी ट्रस्ट, साहू जैन चेरीटेबल सोसायटी प्रादि अनेक संस्थाएं क्षेत्रों को तन-मन-धन से पूर्व सहयोग प्रदान किया। हैं, जो प्रापके कुशल संचालन में कार्यरत रही। इनके द्वार Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सस्तीपुपारी सामाजिक क्षेत्र में बहप्रशंसित कार्य प्रगतिमान हैं। वैशाली सरलता थी कि अपरिचित व्यक्ति भी प्रथम मिलन में ही प्राकृत जैन धर्म एवं पहिसा शोध संस्थान भी मापके प्रचुर मुग्ध हुये बिना न रहते थे। अनुदान से अभिभूत हुये हैं। माज के कतिपय विद्वानों के कारण समाज में जो साहजी ऊर्जस्वी विचारवान् व्यक्ति थे। उनकी विघटन चल रहा है, उससे वे अत्यंत व्यथित थे। अन्तिम भारतीय संस्कृति में भी अद्वितीय अभिरुचि थी। जैन धर्म समय तक खाई को पाटने में लगे रहे। नैनवा काण्ड ने तो के उपासक होने के नाते जैन तीर्थों के प्रति उनकी अगाध उनके मन-मस्तिष्क को झिंझोड़ कर रख दिया। जिनवाणी भक्ति थी। उस मौघड़ दानी ने नवीन मंदिरो का निर्माण का अपमान एक जैन और वह भी पंडित सज्ञाधारी व्यक्ति न कराकर, भारत के अधिकांश तीर्थों का जीर्णोद्धार कर के द्वारा हो तो वह और भी अधिक शोचनीय हो जाता उन दानियों के समक्ष प्रादर्श उपस्थित किया, जो यश- है। यह ऐसी घटना थी, जिसने जैन जगत् में क्षोभ उत्पन्न प्राप्ति हेतु यथेष्ट पात्रता पर ध्यान नहीं देते। बहुमुखी कर हलचल मचा दी। उन्हें भी पसह्य होना स्वाभाविक प्रतिभा के धनी साहजी ने जो भी कदम उठाया, सोच ही था। भाव विह्वल हो उन्होने प्रश्रुपूर्ण नयनो से कडे समझकर विवेकपूर्वक उठाया। इसीलिये सभी कार्य ठोस शब्दो मे भत्र्सना की थी। मां जिनवाणी का विसर्जन, हथे, सतही नही। उनकी कार्यक्षमता एवं सूझबूझ मठी दहन करने जैसे घृणित कुकर्म सुनकर किस धर्मप्रेमी थी। कल्याणेच्छुक का हृदय न रो पड़ेगा? जिनवाणी का प्रनाभगवान महावीर के पच्चीससौवें निर्वाण महोत्सव के दर पंच परमेष्ठी का, किंवा स्वयं प्रात्मप्रभु का ही अनादर कार्यक्रमों को गफल बनाने के लिये प्रापने भारत भर की कई बार यात्रा कर समाज में जागरण का मंत्र फूंक इस समय उनकी नितान्त प्रावश्यकता थी। उनकी अनोखी चेतना जगाई। प्रापके व्यक्तित्व से प्रभावित हो उपस्थिति कदाचित् समाज को एक सूत्र में बांधने में समर्थ जैन समाज के चारो सम्प्रदायों की पोर में गठित भगवान हो सकती थी। उनसे समाज को बहुत बहुत पाशाएं थी, महावीर पच्चीससौवा निर्वाण महोत्सव समिति ने प्रापको पर क्रूर काल की गति अवरुद्ध करने की क्षमता किसमें कार्याध्यक्ष मनोनीत किया। प्रापका सर्वोत्तम गुण यह था है ? उसने प्रत्यंत निर्ममता से असमय में ही समाज का कि पाप वृद्धो जैसा अनुभवपूर्ण गाम्भीर्य था तो तरुणों कल्पवृक्ष, चिन्तामणिरत्न-सा पुरुष-पारस हमसे छीन जैसा कार्य करने मे अदम्य उत्साह भी था । परिणामस्वरूप लिया। उन्होने अध्यक्ष पद की गरिमा महिमा का मूल्यांकन कर वे अपने जीवन में ही यशस्वी हुये। देश के कोने-कोने अपने उत्तरदायित्व का समुचित निर्वाह किया। में उनकी यशपताका फहरा रही है। साहू शाति प्रसाद जी समाज ने जहाँ भी प्रापको प्रामंत्रित किया, वहाँ का जीवन समाज को प्रादर्शस्वरूप है। इसलिये नही कि जाकर प्रापने अपनी बहुमूल्य सेवाएं अर्पित की। किसी वे समृद्धिशाली थे, प्रत्युत वे कर्तव्यनिष्ठ सरल हृदय लगन भी प्रात या नगर का जैन समाज उनका सौहार्द्रपा परम शील समाज के विनम्र सेवक थे। समाज सेवा का व्रत प्राह्लादिन हो अपना महोभाग्य मानता था। प्रापकी उप- उन्होंने प्राजीवन निबाहा। स्थिति में समाज के वर्षों से प्रवरुद्ध कार्य अप्रत्याशित यह दुखद सत्य है कि समाज एक महान शुभचिंतक गति से अग्रसर होने लगते थे। यह अतिशयोक्ति न होगी के नेतृत्व से सदैव के लिये वंचित हो गया। यद्यपि उनका कि प्राप वर्तमान युग मे समाज के प्रमुख कर्णधार थे। पार्थिव शरीर हमारे बीच नही है, तथापि उनके महत्वपूर्ण अनेक विवादग्रस्त विषय मापने निपटाये । कार्य उनके जीवंत स्मारक के रूप में सदैव रहेगे एवं पदप्राप पूजीपतियों में अपने हंसमुख मिलनसार और क्षीर. पद पर युगो-युगों तक वे उनका स्मरण कराते रहेगे। नीर विवकी स्वभाव के कारण प्रपवाद स्वरूप थे । प्रापने साहूजी के प्रति अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हुये इस उक्ति को चरितार्थ कर दिया था कि जैसे पत्र-पुष्प- साह परिवार के प्रति हार्दिक सवेदना व्यक्त करती हूँ। फलों से समृद्ध वृक्ष सहज ही झुक जाते हैं, उसी प्रकार जैन जगत को उनके उत्तराधिकारियों से भी प्राशा ही भौतिक विभूति के साथ गुणसम्पन्नता से युक्त प्राप नहीं वरन पूर्ण विश्वास है कि वे उनके द्वारा प्रारंभ किये प्रकृततः विशेष नम्रीभूत थे। पापमे कुछ ऐसी विलक्षण गये रचनात्मक कार्यों को भविष्य में भी अविरत रखेंगे। Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानवीर श्रावक शिरोमणि - श्रीमहेन्द्र कुमार जैन, दिल्ली सरल स्वभावो, धर्मनिष्ठ, समाजसेवी, निरभिमानी, में प्रवेश किया। वहां से फिर प्रागरा विश्वविद्यालय में प्रा राष्ट्रसेवो, अन्तर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त उद्योगपति, दानवीर, गये । प्रागरा विश्वविद्यालय से वी०० प्रथम श्रेणी में पास श्रावक शिरोमणि, साह शान्ति प्रसाद जैन का भारत की किया । बस्ततः प्राप साद जन का भारत को किया । वस्तुतः प्रापका समूचा विद्यार्थी जीवन प्रथम श्रेणी राजधानी दिल्ली मे गत वर्ष बृहस्पतिवार, दिनांक 27 का रहा और यह वेवन अध्ययन और ज्ञानोपार्जन की दष्टि अक्टबर, 1977 को प्रात: 11 बजे देहावसान हुआ था। से ही नही वरन अन्य दप्टियो स भी उल्लेखनीय था। उनमें समाज सेवा, राष्ट्र सेवा, साहित्य व संस्कृति के क्षेत्र और वे सभी सदगुण और सदतिया विकसित हुई जो सफलता होक्षणिक, प्रौद्योगिक एवं पत्रकारिता जगत् शोकाकुल हो के शिखर तक पहुंचने के लिए प्रावश्यक है । उठा । सुहास्य, सौम्य मुद्रा में विकसित, सादगी, मिलन- उद्योग के क्षेत्र मे ग्रापने तीसरे दशक में पदार्पण किया सारिता, सरलता, सौजन्य, प्रातिथ्यशीलता, गुम्भक्ति, था और प्रारम्भ से ही अपनी दष्टि इस प्रोर केद्रित की लोकप्रियता, धर्मनिष्ठा एवं एकता के प्रतीक साहू शान्ति कि न केवल देश के उद्योग-व्यवसाय का विकाम पौर प्रसाद जैन के निधन से प्राधार-स्तम्भ टूट गया। इससे अभिवर्द्धन हो, बल्कि संचालन प्रणालियों मे भी नये से समाज को ही नही अपित राष्ट्र को बड़ी क्षति पहुंची नये प्राविधिक रूपों का क्रियान्वयन हो। इसके लिये प्रापने जिसकी पूर्ति होना सम्भव नही है। शुक्रवार, दिनांक 27 स्वयं विभिन्न प्राधुनिक पद्धतियों का गम्भीर अध्ययन अक्टूबर, 1978 का दिवम उनकी प्रथम पुण्य तिथि का किया तथा विविध विषय-क्षेत्रों में निरन्तर गवेषणाएं अवसर है । हम सबका कर्तव्य है कि हम उनका स्मरण कराई। प्रर्थ शास्त्र और वित्तीय सिद्धान्तों पौर पद्धतियो करे, उनके द्वारा पालोकित मार्ग का अनुकरण करें, तथा का पापका बड़ा व्यापक और विशेष अध्ययन था। प्रत्येक पुण्य तिथि को उपकृत भाव से मनायें। विषय से सम्बद्ध प्रांकड़ो एव विवरण की जानकारी इस श्री शान्ति प्रसाद जी की प्रेरणा व मार्ग दर्शन से प्रकार हृदयंगम थी कि वह देश-विदेश के प्राधिक मामलों भगवान महावीर का 2500 वां निर्वाण महोत्सव राष्ट्र व के तथ्यों को पूरे परिप्रेक्ष्य मे देख कर सही निष्कर्ष निकालते अन्तराष्ट्रीय स्तर पर व्यापक सफलता से सम्पन्न हुमा। थे और अपनी प्रतिभा से सबको चकित कर देते थे। उनके सक्रिय प्रयत्न के कारण समग्र समाज में इस महो- विशेष रूप से, भारतीय उद्यम और भारतीय क्षमता के त्सव वर्ष में एकता स्थापित हुई। प्रति प्राप अपने प्रौद्योगिक जीवन के प्रारम्भ से ही अत्यन्त उतर प्रदेश के अन्तर्गत नजीबाबाद के पुराने घरानो प्रास्थावान् रहे। में साहू जैन घराना बहुत प्रतिष्ठित रहा है। शान्ति साहू साहब ने अपने इन उद्देश्यों की पूर्ति को लक्ष्य में प्रसाद जी का जन्म इसी नगर पोर घराने मे सन् 1911 रखते हुए आवश्यकता के अनुरूप अन्यान्य देशों का भ्रमणमे हुमा था। उनके पितामह साहू सलेखचन्द जैन, पिता पर्यटन भी किया। सर्व प्रथम 1935 में वे डच ईस्ट इण्डीज श्री दीवानचन्द जी और माता मूर्तिदेवी जन-जन मे गए. फिर 1945 में मास्ट्रलिया और 1954 में सोवियत श्रद्धेय थे। रूस । ये तीनों यात्राएं उन्होंने भारतीय प्रौद्योगिक प्रतिआपकी प्रारम्भिक शिक्षा नजीबाबाद शिक्षा केन्द्रों में निधि के रूप में की थीं और परिणामों की दृष्टि से वह हई। हाई स्कूल करने के बाद मापने काशी विश्वविद्यालय अत्यन्त उल्लेखनीय मानी जाती हैं। विटेम, अमरीका Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानवीर भावक शिरोमणि ४९ जर्मनी तथा अन्य यरोपीय देशों का भी प्रापने परिभ्रमण प्रथम समिति गठित की थी उममे प्राप देश के तरुण प्रौद्योकिया और अनुभवों के समावेश द्वारा साहू जैन उद्योगो गिक प्रतिनिधित्व रहे। को अधिकाधिक समृद्ध किया। साह सम्हन को भारतीय धर्म-दर्शन और इतिहास सचमुच जिम महजता के साथ उद्योग एवं व्यवसाय तथा सांस्कृतिक विषयों के अध्ययन मे भी पान्तरिक के क्षेत्र में साह जी ने सफलता प्राप्त की, वह उनकी स्वा. अभिरुचि थी। भारतीय कला एव पुरातत्व के क्षेत्र मे भावगत प्रतिभा और बूझबूझ, मंगठन-क्षमता तथा प्रध्यव भी वे सर्वाधिक चर्चा किया करते थे । धार्मिक श्रद्धा में साय और सहनशीलता की सम्मिलित देन है। पिछले लग- वह अडिग थे। भारतीय भाषामों एवं साहित्य के विकासभग 45 वर्षों में प्रापने विभिन्न प्रकार और प्रकृति के उन्नयन की दिशा में प्रापका अति विशिष्ट यागदान उद्योग-धन्धों को एक सुविस्तृत श्रेणी की स्थापना एवं रहा । पापके द्वारा सन् 1944 में भारतीय ज्ञानपीठ की मंचालना करके देश के प्रौद्योगिक विकास में योगदान संस्थापना एवं अपनी सहमिणी स्वर्गीया श्रीमती रमा किया व अनेक उद्योगो का नेतृत्व किया । इस श्रेणी के जैन के साथ उसकी कार्य-प्रवृतिया, विशेषकर उसके द्वारा अन्तर्गन जहा एक प्रोर कागज, चीनी, वनस्पति, सीमेंट, प्रवर्तित भारतीय भाषाओं की सर्वश्रेष्ठ सृजनात्मक एसबेम्टस प्रोडक्टम, पाट निर्मित वस्तुएं, भारी रसायन, साहित्यिक कृति पर प्रति वर्ष एक लाख रुपये की पुरस्कार नाइट्रोजन ग्वाद, पावर प्रल्कोहल, प्लाइवुड, साइकिल । योजना की परिकल्पना और तब तक 11 पुरस्कारों के निर्माण, कोयले की खाने, लाइट रेलवे व इन्जीनियरग। निर्णयों को कार्यविधि मे अनवरत रुचि एवं मार्गदर्शन, वर्म पाते हैं, वहीं दूसरी ओर हिन्दी, अंग्रेजी, मराठी, उनकी दूरदगिता एवं क्षमता के बहु प्रशासित प्रमर प्रतीक गुज गती के दैनिक पत्र और सावधिक पत्रिका तथा महत्व हैं। ज्ञानपीठ के अतिरिक्त प्रापने साहू जैन ट्रम्ट, साहू पूर्ण सास्कृतिक, माहित्यिक शोध एवं प्रकाशन के कार्य भी जैन चैरिटेबल मोमायटी तथा अनेक शिक्षण संस्थानो पाते है। की भी स्थापना की। प्राप वैशाली प्राकृत जैन धर्म एवं विगत वर्षों में देश की विभिन्न व्यवसाय-संस्थानो के हिंसा शोध संस्थान, अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन प्राप प्रध्यक्ष रहे है। इनमें प्रमुख है : फेडरेशन प्राफ तीर्थक्षेत्र कमेटी, बम्बई, अहिंसा प्रचार समिति, कलकत्ता, इण्डियन चेम्बर ग्राफ कामर्स, इण्डियन शुगर मिल्स एसो- अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन परिषद् एवं मारवाडी सिएशन, इण्डिया पेपर मिल्म एसोसिएशन, बिहार चेम्बर रिलीफ सोसायटी के अध्यक्ष रह चुके थे। ग्राफ काममं एवं इण्डस्ट्रीज, राजस्थान चेम्बर ग्राफ कामर्स भगवान महावीर के 2500 वें निर्वाण महोत्सव के एवं इण्डस्ट्रीज, इस्टर्न यू०पी० चेम्बर प्राफ कामर्स एड कार्यक्रमों को सफल बनाने में प्रापका सर्वाधिक योगदान इन्डस्ट्रीज । चार वर्ष तक लगातार प्राप पाल इण्डिया मार्ग रहा है। जैन समाज के चारो सम्प्रदायों की मोर से नाइजेशन प्राफ इण्डस्ट्रियल एम्प्लायर्स के भी अध्यक्ष रहे गठित भगवान महावीर 2500 वा निर्वाण महोत्सव और इसी अवधि में भारतीय श्रम व्यवसाय सम्बन्ध नियम महासमिति के पाप कार्याध्यक्ष थे। भारत के सम्पूर्ण बनते ममय प्रापने उद्योग-धन्धो का व्यावहारिक दृष्टिकोण दिगम्बर जैन समाज की भोर से गटित पाल इण्डिया उपस्थित किया। दिगम्बर भगवान महावीर 2500 वां निर्वाण महोत्सव अपनी विशिष्ट प्रतिभा सम्पन्नता तथा व्यापक अनुभव सोसायटी एवं बंगाल प्रदेश क्षेत्रीय समिति के अध्यक्ष के के कारण साहूजी देश के उद्योग एव व्यवसाय वर्ग द्वाग रूप मे प्रापने देणव्यापी सास्कृतिक चेतना को जागत अनेक अवसरो पर सम्मानित किये गये। स्वर्गीय पं० किया । भारत सरकार द्वारा गठित राष्ट्रीय समिति मौर जवाहरलाल नेहरू ने देश की प्रौद्योगिक प्रगति की। बिहार तथा बंगाल की समितियो में भी प्रापन महत्वपूर्ण वैज्ञानिक परिकल्पना को कार्यान्वित करने के लिये जो (शेष पृष्ठ ५१ पर) Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरस्वती के परम उपासक डा. कस्तूर चंद कासलीवाल, जयपुर माह शान्तिप्रसाद जी जैन देश एवं समाज के उन एक बृहद् जैन प्रदर्शनी के अवसर पर उनसे मेंट हुई थी। ठरतों में से थे जिनकी सेवाएं सदा अविस्मरणीय देहली में भी उन्होंने प्रदर्शनी के प्रायोजन में पूरी रुचि रहेंगी तथा जिनका नाम भविष्य में उदाहरण के रूप में ला था तथा वहा प्रदशित प्रत्येक वस्तु का उन्होने बारीकी लिया जाता रहेगा। साह जी समाज के गौरव थे। उनके से प्रध्ययन किया था। उन्होंने उस समय जयपर के प्राश्रय में समस्त जैन समाज निश्चिन्त था। वे एक महान् प्राचीन भक्तामर स्तोत्र की सचित्र पाण्डलिपि को अपनी व्यक्ति थे जिनके हृदय में समाज का दर्द छिपा हुप्रा था। प्रोर से छापने का प्रस्ताव रखा था लेकिन जयपुर के इसलिये साहित्यिक, सामाजिक एवं सास्कृतिक सभी गति- मन्दिर के व्यवस्थापकों ने उसे स्वीकार नही किया विधियों के विकास मे उनका वरद हस्त रहता था। वह बहुमूल्य ग्रन्थ प्रकाशित होने से रह गया। समाज में उनकी उपस्थिति ही कार्यकर्तामों में उत्साह जयपुर में भगवान महावीर की 5 सौ में निर्वाण पैदा करने के लिये पर्याप्त मानी जाती थी। साहू जी महोत्सव की मीटिग मे मम्मिलित होने के लिये वे कितनी समस्त दि. जैन समाज के एक मात्र प्रतिनिधि थे, इस- ही बार पाये। जयपुर में उनका अन्तिम प्रागमन उनकी लिये जिस भी उत्सव, मेने एवं कार्यक्रम में साहू जी सम्मि- मृत्यु के कुछ ही समय पहिले हपा था। वे भाद्रपद मास लित हो गये तो ऐसा माना जाता था कि मानो पूरे समाज में बापूनगर के 115Hथ जन मण्डल द्वारा प्रायोजित का ही जमे समर्थन मिल गया हो। युवा सम्मेलन में कुछ समय के लिये पाये थे और युवकों साहशान्तिप्रसाद जी जैन ने समान पर 30-40 वर्षों को सामाजिक सेवा में जुट जाने की प्रेरणा दे गये थे। वह तक एक छत्र शासन किया। उन्होने समाज को नयी सम्भवतः उनका प्रन्तिम संदेश था। दिशा प्रदान की, कार्य करने की शक्ति दी तथा संकट के साहू जी को सारित्य से कितना प्यार था, उसके समय उमा जिा प्रकार साथ दिया वह मब इतिहाम प्रकाशन में उनकी कितनी रुचि थी, इसका प्रत्यक्ष की प्राज प्रमूल्य धरोहर हो गयी है। उनके निधन से उदाहरण उनका भारतीय ज्ञानपीठ जैसे संस्था का संचालन समाज ने वास्तव में अपना बहुमूल्य रत्न खो दिया है है। उन्होने सैकडो जैन ग्रन्थो के उद्धार कर महान पण जिसकी पूर्ति निकट भविष्य मे सम्भव नहीं लगती। यदि प्रजन किया । वे जीवन भर जिनवाणी के प्रकाशन एवं सामाजिक इतिहास के पृष्ठों को खोल कर देखा जाए तो उसके प्रचार-प्रसार में समर्पिन रहे । वास्तव मे गत हमे मालूम पडेगा कि ऐसा उदारहृदय समाजसेवी व्यक्ति संकडो वर्षों मे उन जंमा जिनवाणी का प्रचारक नही गत संकड़ों वर्षों मे नही हुमा। हुमा। साहू जी से मेरी प्रम भेंट कलकत्ता महानगरी में उन्होंने भारतीय ज्ञानपीठ के माध्यम से ही साहित्य बेनगन्छिया मे प्रायोजित जैन साहित्य एवं कला प्रदर्शनी सेवा नहीं की किन्तु अन्य प्रकाशन संस्थानों को भी उन्होंने में कोई 28 30 वर्ष पूर्व हुई थी। उस समय उन्होने जिस खूब प्रार्थिक सहायता दी है । वीर सेवा मन्दिर द्वारा तन्मयता से जन प्रथो मे रुचि ली थी तथा अपने भाषण प्रकाशित जैन लक्ष्णावली के प्रकाशन में भी उनका पर्याप्त मे उनके महत्व पर प्रकाश डाला था, उससे मेरे मन पर मार्थिक योगदान रहा। मैंने स्वयं ने समस्त हिन्दी जैन गहरी छाप पड़ी थी। उसके पश्चात देहली मे प्रायोजित साहित्य के प्रकाशन के लिये जयपुर में जब श्री महावीर Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरस्वती के परम उपासक ग्रन्थ अकादमी की स्थापना की तथा उसकी योजना एवं का एक बार ही नहीं, कितनी ही बार दौरा किया तथा नियम जब साह जी को भेजे और उनसे संस्था का संरक्षक गरीब से लेकर अमीर तक जन सेवा के भाव-भरे, वह सब बनने के लिये निवेदन किया तो उन्होंने साहित्य प्रकाशन उनके महान् व्यक्तित्व का परिचायक है। जयपुर में प्रायोकी योजना की प्रशंसा करते हए तत्काल उसका संरक्षक जित एक सभा मे वे इतने द्रवीभूत हो गये कि सारी सभा बनना स्वीकार कर लिया। इसलिये पता नही उन्होंने के ही प्रांसू बह निकले थे। कितनी प्रकाशन संस्थानों को जैन साहित्य के प्रचार प्रसार मे योग दिया। साहू जी पुरातत्व के प्रेमी थे। प्राचीन मन्दिरों के जैन साहित्य एवं जैन समाज की सेवा के लिये उनके जीर्णोद्धार में उन्होंने विशेष रुचि ली। दक्षिण भारत हृदय में गहरे भाव थे। भगवान महावीर के 25002 एवं बुदेलखण्ड के कितने ही मन्दिरो का उन्होने जीर्णोद्धार करवा कर मन्दिरों को कला एवं सम्पत्ति को नष्ट होने निर्वाण महोत्सव का जिस कुशलता एवं सजगता से बचा लिया। मे संचालन किया तथा समस्त जैन समाज को एकसूत्र मे बांधने का जो प्रशसनीय कार्य किया वह साहजी जैसे साहू जी के कार्यों का वर्णन करने के लिये किसी एक व्यक्ति से ही सम्भव था और वह सब उनके वर्षों को बड़े ग्रन्थ की प्रावश्यकता है जिसमें उनके जन्म से लेकर साधना का फल था । स्वास्थ्य खराब होने एवं धर्मपत्नी मृत्यु पर्यत उसके व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर सागोपाग श्रीमती रमा जी का वियोग होने पर भी उन्होने जिस वर्णन रहे। तभी जाकर हम उनके पूरे कार्यों से समाज असाधारण साहस एवं सूझबूझ से काम लिया, सारे देश को एवं प्रागे पाने वाली पीढ़ी को परिचित करा सकेंगे। D00 (पृष्ठ ४९ का शेषाश) पदों का दायित्व तन्मयता से सम्भाला । निर्वाण महोत्सव किया। अन्तिम क्षणो मे साह जी के परिणाम इतने निर्मल के बहुमुखी कार्यक्रमों को मापने चिन्तन, उत्साहपूर्ण हो गये थे कि उन्होने अपने पुत्र श्री अशोक कुमार जैन से नेतृत्व और मुखर श्रद्धा के प्रत्यक्ष प्रभाव से उपलब्धियों इच्छा व्यक्त की थी कि वे स्वस्थ होने के उपरान्त का जो वरदान दिया, वह जैन समाज के इतिहास मे हस्तिनापुर मे मुनिश्री शान्ति सागर जी महाराज के प्रबिस्मरणीय रहेगा। निर्देशन मे शेष जीवन व्यतीत करेंगे। महाराजश्री जब दिगम्बर जैन समाज की उत्कट प्राकांक्षा के अनुरूप जैसी दीक्षा उचित समझेगे दे देगे। प्राज उनके वे शब्द प्रापने अखिल भारतीय स्तर पर दिगम्बर जैन समाज के हम फिर सुनने के लिए कितने प्रातुर है । हमे चाहिए कि एक मंच ‘दिगम्बर जैन महासमिति' के गठन का निर्णय हम उनकी इस पुण्य तिथि को साकार करने के लिये, कर दिगम्बर जैन महासमिति की स्थापना की। उसके उनके द्वारा निर्देशित कार्यक्रम को पूग व रने के लिये संस्थापक अध्यक्ष का दायित्व वहन किया तथा पगपग पर दिगम्बर जैन सहासमिति को संगठित रूप दे, उसे सब समाज का मार्ग दर्शन किया। प्रकार से समर्थ मौर क्रियाशील बनाये । समाज ने अपनी श्रद्धा स्वरूप प्रापको 'दानवीर" एफ 94, जवाहर पार्क वेस्ट तथा "श्रावकशिरोमणि'' की उपाधियो से सम्मानित लक्ष्मीनगर, दिल्ली-110092 DDD Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राधुनिक खारवेल 0 श्री बिशन चन्द जैन, शिकारपुर श्री साह शान्ति प्रसाद जी जैन से मेरा बहुत सुपरिचय उ० प्र० मे एक ऐसे प्रतिष्ठित जैन परिवार में हुअा था जो था। जिस समय मैं सन् 1920 मे लगभग 35 वर्ष तक देश की भलाई और अपनी उदारता के लिये विख्यात था। बराबर “जैन मित्र मंडल देहली" का सभामद् व वे श्री साहू दीवानचन्द जी जैन के तेजस्वी व होनहार पुत्र मंत्री रह कर हर प्रकार से देश-विदेशों में जैन धर्म थे। उनकी माता का नाम श्रीमती मूर्ति देवी था। साह प्रचार का कार्य कर रहा था व भा० दि. जैन परिपद शान्तिप्रसाद जी जैन ने नजीबाबाद में अपनी शुरू की प्रादि अन्य जैन संस्थानों का भी सभासद और मंत्री शिक्षा पूरी करने के बाद आगरा विश्वविद्यालय से रह कर धार्मिक और सामाजिक कार्य कर रहा था, बी० एस-सी० की परीक्षा प्रथम श्रेणी मे पास कर उन्होने उस समय रिटायर होने के बाद दिनांक 14 मई, 1959 साहित्यिक, धार्मिक ग्रादि पुस्तकों का अध्ययन कर योग्यता को साहजी के दफ्तर "साहू सीमेट सरविसेज़, नई देहली' प्राप्त की। उन्होने अपनी सूझ-बूझ से व्यापार में उन्नति में मुझे प्रोवरसियर के पद पर नियुक्त किया गया और करने के विचार से विकसित देशों का दौरा किया। वहाँ दिनाक 5 नवम्बर, 1959 में मार्च, 1969 (10 वर्ष) तक जाकर उन्होंने भारत में बिकने वाली चीजों तथा वहाँ की साहू जी की पोर से म०प्र०, उ० प्र० और राजस्थान चीनी, कागज, वनस्पति, पटसन, रसायन, खाद, सीमेट के कुछ प्राचीन दि जेन तीर्थक्षेत्रो के मदिरो के जीर्णोद्धार प्रादि की फैक्ट्रियों का भी अध्ययन किया। भारत मे के कार्यों तथा “साह जैन संग्रहालय" प्रादि के निमःण पाकर उन्होंने अपनी सूझबूभ. से भारत के कुछ शहरो मे कार्य को, नई देहलो मे 6 सरदार पटेल रोड पर साहनी रोहतास इंडस्ट्रीज, जूट मिल्स, साहू केमिकल, रमायन की कोठी और नजीबाबाद मे साहूजी के भवन के निर्माण खाद, श्री कृष्णा ज्ञान उदय, चीनी, अशोक सीमेट, अशोक प्रादि के कार्यों को अपनी देखरेख में कराता रहा । म स्टील, दी जयपुर उद्योग लि०, बगाल कोट सीमेंट, कारण साहू जी के प्रति मेरी और अधिक जानकारी बढ़ गई, कोलाईज कम्पनी नाम की फैक्ट्रियो का निर्माण किया प्रौर उनसे मेरा बराबर पत्र-व्यवहार होता रहता था। और उनके द्वारा चीजें तैयार करा-करा कर उनको मार्कीट श्री साह शान्ति प्रसाद जी जैन एक माने हुए नागी- मे पहुंचाया तथा इस प्रकार विपुल धन पैदा किया, जिससे गिरामी, भारतवर्ष की दि. जैन समाज के धार्मिक व्यक्ति वह उद्योगपति बड़े बने । यह कोई मामूली काम न था थे। वे जैनियो के सरताज थे। उनका 66 वर्ष की आयु हर एक व्यक्ति के बूते का वाम न था। इससे उन्होने में ता0 22 अक्तूबर, 1977 (गुरुवार) को नई देहली में अपने को और अपने परिवार को ऊंचा उठाते हुए अपना इस नाशवान संसार से निधन हो गया । जिस समय उनके और अपने पुरुखों का नाम संसार में रोशन किया। निधन के समाचार समाचार पत्रों (अग्य वारों) मे पढे । ये, खारवेल अपनी मूझ-बूझ से उन्नति करते-करते महासंसार के कोने-कोने मे शोक की लहरे फैल गई । हृदय को राजा खारवेल की पदवी प्राप्त कर गरीब परवर, दयालु प्रत्यन्त दुःख हमा और उनके प्रेम तथा उनके कार्यों की कहलाये तथा अपनी 35 हजार सेना प्रादि की तकलीफो बराबर याद माती रही । स्थान-स्थानपर उनके निधन पर का ध्यान रखते हुये उनकी सहायता करते रहे और नवीनशोक सभाये होने लगी। नवीन मदिरो के निर्माण कराने की अपेक्षा वे पुराने उनका जन्म सन 1911 ई. मे नजीवावाद (विजनोर) पुरखो के निर्माण कराये हुये प्राचीन मदिरो के जीर्णो Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राथमिक वारवेल बार के कार्यों को कराने मे अधिक धर्म-पुण्य मानते थे। नेमनाथ की बारात (उ० प्र०) पोर बूढी चंदेरी, गोलाइससे पुरखो के बनाये हुये प्राचीन मंदिर व प्राचीन कला कोट (म.प्र.) के मंदिरो से बराबर मूर्तियां व मूर्तियो सैकड़ों हजारों वर्षों तक सुरक्षित रह सके और प्राने के सिर काट काट कर चोर ले जाते रहे। वाली पीढी उनके दर्शन कर, ज्ञान प्राप्त कर जैन धर्म की इस घटना की सूचना सन् 1958 मे मिली। तब भारतउन्नति करती हुई उसे ऊंचा उठा सकी। इसी प्रकार, श्री वर्ष की जैन समाज में सर्वत्र क्षोभ फैल गया और यह भी साह शांति प्रसाद जी जैन भी इन्ही विचारा के घाामक मालूम हुमा कि एक वर्ग कुछ वर्षों से इन क्षेत्रो मे प्राप्त भक्ति थे । वेदानी, समाज सेवक, सच्चे प्रेमी, गरीब जिन मतियो की मन्दर कला के कारण उनके सि परवर, उदार हृदय, सब मतों के प्रति प्रादरभावी धर्मात्मा काट कर विदेशियों को बेचकर अच्छी धनराशि प्राप्त कर थे । उन्हे अपने धन का मान न था। बल्कि ये मान रहा है और उसने इस कार्य को अपना व्यापार बना लिया हजारों की संख्या मे कर्मचारियो को प्रसन्न रखनेरा है। सन् 1959 ई० मे अखिल भारतीय जैन कनवेन्शन की ध्यान रखते थे । साहू जी सुधारक विचारो के थे ! काढ गई जिसके द्वारा भारत, मध्य प्रदेश व उत्तर प्रदेश सरवादी न थे। वे भा० वर्ष० दि० जैन परिषद के हामी कारों से अनुरोध किया गया कि वे इन दुखद घटनामों को (सहयोगी) थे। बहुत-सी जैन संस्थानो के संरक्षक व रोके तथा अपराधियों को दण्ड दें। कनवेन्शन के सभापति अध्यक्ष थे। उन्होने नजीबाबाद में साह जैन कालेज, उद्योगपति साहू शांति प्रसाद जी जैन ने इस घटना को मुति देवी सरस्वती इटर कालेज और "मूति देवी देखते हुये उपरोक्त प्रातो के प्राचीन तीर्थक्षेत्रों के मंदिरों कन्या इंटर कालेज की स्थापना की, जिससे उनका नाम के जीर्णोद्वार के कार्यों के वास्ते तीन लाख (3,00,000) अमर रहेगा। साहूजी भी महाराजा खारवेलकी भातिनवीन रुपए की धनराशि देने की घोषणा की, तथा जैन पुरातत्व नवीन मंदिरो के निर्माण कराने की अपेक्षा प्राचीन दि० कमेटी स्थापित की गई और यह निश्चय किया गया कि इस जैन तीर्थक्षेत्रो प्रादि के मदिरो के जीर्णोद्वार के कार्यों के द्रव्य से श्री राजेन्द्र कुमार जैन की देखरेख में क्षेत्रों के वास्ते दान देने में अधिक धर्म व पुण्य मानते थे। जीर्णोद्धार का कार्य कराया जाये तथा मूर्तियों की सुरक्षा अनेक व्यक्ति प्राचीन मदिरो के होते हये भी उसी का भी किया जाये। vaar, स्थानपर गजरथ को प्रथा को लेकर लाखो रुपया व्यय धाना). म०प्र० के प्राचीन तीर्थक्षेत्र के मंदिर में से एक करके नवीन-नवीन मंदिरों का निर्माण कराते रहते है लेकिन व्यक्ति रामगोपाल मुनार एक प्राचीन सुन्दर मूर्ति का म प्र. और उ०प्र० के प्राचीन क्षेत्रों मादि स्थानों में मैकडो सिर काटता ह प्रा पकड़ा गया। उसके साथ दूसरा पादमी प्राचीन जैन मदिर खंडित पडे है और हजारो की संख्या गोरधन भी था। दोनों को खनियाधाना की पुलिस ने मे प्राचीन मूर्तियाँ जगलो प्रादि स्थानों में बिखरी पडी है गिरफ्तार किया और चोरी का पता लगाने के वास्ते दोनो तथा बहुत से शिला लेख जमीन मे दबे पड़े है। उनकी अपराधियों को देहली लाई। रामगोपाल सुनार देहली मे सुरक्षा का वहाँ की जैन समाज को कुछ भी ध्यान नहीं धर्मपुरा मोहल्ला के एक मकान में रहता था। पुलिस ने माता। साहजी इन विचारो के नहीं थे। वह उसके मकान की तलाशी ली तो यह भी पता लगा कि तो प्राचीन मंदिरों के जीर्णोद्धार और प्राचीन मूर्तियों की रामगोपाल, शिवचरण बत्रा, सुन्दर नगर, नई देहली सुरक्षा कराने के पक्ष मे थे। इसका कारण इस प्रकार को मूर्तियां बेचता है । तब पुलिस ने शिवचरण बत्रा की है कि म०प्र० और उ० प्र० के कुछ प्राचीन दि० जैन सुन्दर नगर, नई देहली की फर्म पर छापा मारा। बत्रा तीर्थक्षेत्रो के मंदिरो पर पुरातत्व विभाग की ओर से की फर्म मे से पुलिस को कुछ मूर्तियां और कुछ मूर्तियो जो चौकीदार रहते थे उनका संतोषजनक इंतजाम के सिर कटे हुये मिले । पुलिस ने शिवचरण बत्रा को भी न होने के कारण वहाँ के प्राचीन दि० जैन तीर्थ क्षेत्रो के गिरफ्तार कर लिया। तीनों अपराधियों के खिलाफ प्रदामंदिरो से प्रति देवगढ़, दुधई, चाँदपुर, जहाजपुर' लतो में मुकदमा चालू कर दिया गया। साहूजी Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४, वर्ष ३१, कि० ३-४ सहयोग से व जैन समाज की हर प्रकार की कोशिशों द्रोणगिर (म० प्र०), पपोरा, पाहार (टीकमगढ़) और से झांसी भ्यायालय ने अपराधियो को सजा के प्रादेश चित्तौडगढ़ किले का दि० जैन मंदिर कुल 9 क्षेत्रों का दिये। जीर्णोद्धार, यात्रियों की सुविधा के लिये नवीन सड़कों व साहजी ने म०प्र० व उ० प्र०के प्राचीन तीर्थक्षेत्रों देवगढ़ में मूर्तियो की सुरक्षा के लिये एक नवीन साह के मंदिरों के जीर्णोद्धार के कार्यों को कार्यान्वित जन संग्रहालय का निर्माण कराने की स्वीकृति दी। सब करने के वास्ते प्रपने दफ्तर "साह सीमेंट सविसेज", उपरोक्त क्षेत्रो का कार्य प्रोग्राम के मुताबिक श्री विशनचंद नई देहली से दिनाक 5 नवम्बर, 1959 ई. को श्री जैन प्रोवरसियर की देखरेख में कराया गया। ये सब कार्य मार० सी० पारिख ऐडीशनल चीफ इंजीनियर, श्री सन् 1960 से मार्च, सन् 1968 तक पूरे हुये। सब कार्यों बिशनचंद जेन प्रोवरसियर तथा श्री उलाल (फोटोग्राफर में लगभग 4 लाख रुपये व्यय हुये। टाईम्स माफ इंडिया नई देहली) से एक टेक्निकल साहूजी की यह भी योजना थी कि मूतियो की सुरक्षा पार्टी को प्राचीन क्षेत्रो का निरीक्षण और सर्वेक्षण करने के बास्ते एक-एक साहू जैन संग्रहालय ललितपुर, चन्देरी, के वास्ते ललितपुर भेजा । टेक्निकल पार्टी ने लगभग 11 खनियाधाना और खजुराहो मे भी निर्माण कराया जाये । महीने में बडी लगन के साथ रातदिन एक करके 51 लेकिन यह कार्य इस कारण से न हो सका कि इन क्षेत्रों प्राचीन क्षेत्रों का निरीक्षण और सर्वेक्षण किया । सब चीजो के सरकारी अधिकारियों ने क्षेत्रों को जैन समाज को वहाँ को नोट किया नको बनाये, जीर्णोद्धार व नवीन साह जैन की बिखरी हुई प्राचीन मूर्तियों को उठाने की इजाजत नहीं संग्रहालय प्रादि कार्यों की लागत के तख मीने (Estimates) दी। इसके अतिरिक्त, साहू जी इसी प्रकार दूसरे दि. बनाये, हर क्षे की मूर्तियों प्रादि के फोटो तैयार कराकर जैन मंदिरों के जीर्णोद्धार के कार्यों के वास्ते दान देते हर क्षेत्र के अलग-अलग एलबम तैयार करवाये तथा रहते थे । समय-समय पर अपनी मौजूदगी मे देहली क्षेत्रों की रंगीन फिल्म तैयार करवाई जिनको साहूजी ने के चांदनी चौक के लाल किले के सामने के प्राचीन जैन बहुत पसन्द किया। इन फिल्मो को नई देहली मे मंदिर (जो लाल मदिर या उर्दू के जैन मदिर के नाम लाल मंदिर और पपोरा क्षेत्र प्रादि स्थानो पर दिखाया से प्रसिद्ध है) उसके लिये, हिक्षेत्र के जैन मंदिरों के लिये गया। तथा प्रयोध्याजी के जैन मंदिर भादि के जीर्णोद्धार के __उपरोक्त क्षेत्रों का निरीक्षण और सर्वेक्षण करने में लिये लाखों रुपये दान मे देते रहते थे जिससे वह पुण्य बडी-बड़ी कठिनाइयां उठानी पड़ी जबकि तमाम क्षेत्रो के के भागी बने। साहू जी जैनियो के सरताज थे। उनमे बहुत मार्ग व क्षेत्र भयानक जंगलों, वनो, झाडियो, नदी-नालों, से गुण थे। उनके गुणों का प्रादर करते हुये दिसम्बर, सन् पहाडों, खूखार जानवरों, (शेर ग्रादि जानवरो) और डाकुनों 1970 मे श्रीमान साहू शाति प्रसाद जो जन को देहली मे से घिरे हये थे तथा घोडो पर जाने-माने के मार्ग बड़े ही एक भव्य समारोह मे धावक-शिरोमणि की पदवी दी खराब, भयानक और खतरनाक थे। ऐसे स्थानो पर जाना गई । साहू जी का जैसा नाम था वैसे ही उनमे गुण भी थे। मोर पाना कोई मामूली काम न था। मौत और जिन्दगी वे शांतस्वभावी थे। जब कभी वह अपने नवीन भवन का का सवाल था। कई बार देवगढ़, पचराई, थोवनजी मोर निरीक्षण करते थे अकेले ही शाति के साथ करते थे और नैनागिर मादि क्षेत्रों पर खतरे की खबर मिलने पर पास उसकी अच्छाई और बुराई को देखते थे। के गाँवो मे भागना पड़ा था। भगवान के नाम और जिस प्रकार अक्सर बड़े-बड़े धनवान् कानों के कच्चे णमकार मत्र के जाप के द्वारा सब कार्य सिद्ध हुये। होते है, साहू जी कानो के कच्चे न थे । वह तो सच्चे प्रेमी उपरोक्त क्षेत्रो की सब रिपोर्ट साहूजी के सम्मुख रक्खी। और उसूलों के पाबन्द थे। जो व्यक्ति उनसे किसी की उन्होने कूल क्षेत्रों में से देवगढ, बानपुर (उ० प्र०), बुराई या चुगली करता था वे उस चुगलखोर और शिकाकन्धार हिल (घदेरी), पचराई (खनियाधाना), बोवनी, यत करने वाले की बातों का यकीन नही करते थे, जब Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माधुनिक भारवेल तक उन बातों की अच्छी तरह से छानबीन न कर लेते थे। प्रति दिन गुल्लक में डालकर जमा करे पोर इस धन को छानबीन करने से जिसकी गलती होती थी उसके विरुद्ध सोसायटी के पास भेजे । मैंने भी इस अपील के मुताबिक उचित कार्यवाही करते थे। मुझे उनकी इस प्रकार की 312 रु. 50 पैसे जमाकर श्री सुकुमार चंद जैन महा मंत्री बातों का ख़ब अनुभव है। अक्सर झूठी चुगली करने वालों के पास मेरठ भेजे और इसी उपलक्ष में जीर्णोद्धार प्रादि पौर शिकायत करने वालों को अपने स्वार्थवश नीचा कार्य कराये । इस प्रकार इस प्रपोल से जैन समाज को देखना पडा । साहजी मुनि श्री शांति सागरजी, मुनि श्री प्रोर से हजारों की संख्या में धन राशि प्राप्त हुई। यह देशभूषण जी, मुनि श्री विद्यानन्द जी और मुनि श्री भी एक महान कार्य था। साह जैन संस्थानों ने देश की गणेशकीति जी प्रादि साधनों के सच्चे भक्त थे। वे विद्वानों, जो सेवायें की हैं वे सर्वविदित हैं। इससे साह जी का पंडितों और धार्मिक-सामाजिक कार्यकर्तापों का भी प्रादर नाम अमर रहेगा। वे भारत के प्रमुख उदयोगपति तथा करते थे। भारतीय ज्ञानपीठ के द्वारा जैन धर्म के शास्त्र, भारतवर्गीय जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी के अध्यक्ष तीर्थभक्त, पुस्तकें, क्षेत्रों के इतिहास व नक्शे पोर नवीन प्रच्छी-अच्छा प्रावक शिरोमणि, समाज सेवक, दानवीर साह श्री शांति पुस्तकें लिखवा-निववा कर प्रकाशित करा कर देश-विदेशो प्रमाद जी जैन की प्रेरणा से उनकी धर्मपत्नी तथा साह मे प्रचार कराते थे जिससे जैन धर्म की उन्नति होती थी। जन ट्रस्ट की अध्यक्षा श्रीमती रमा जैन जैसी महान् साहजी सबसे अच्छी पुस्तक लिखने वाले विद्वान को ज्ञान प्रात्मानों ने उपरोक्त तीर्थ स्थानों को प्रकाश में लाने तथा पीठ द्वारा हर साल एक लाख रुपये का पुरस्कार दिया करते उनका जीर्णोद्धार व मूर्तियो की सुरक्षा के लिये "माहू जैन थे। साह जैन सस्थानो ने देश की जो सेवाये की है वे संग्रहालय", यात्रियो प्रादि की सुविधा के लिये पहाडों वनो सर्वविदित हैं । साहजी भारतीय राष्ट्र के सेवक व हमदर्द प्रादि की कटाई कराकर क्षेत्रो में प्राने-जाने के पक्के मागों भी थे । भारत सरकार उनका प्रादर करती थी। का निर्माण कराकर जो महान कार्य कराया है वह सराहनीय जिस समय मन 1965 ई० में भारत और पाकिस्तान है, जो मकडों व हजारो वर्षों तक उनकी धवल कीति को की लड़ाई छिडी उस समय देहली में परेड के मैदान प्रकट करता रहेगा। प्रापके द्वारा अनेक संस्थायें स्थापित मे जैन समाज की ओर से श्री साहू शानि प्रसाद जैन का है। अनेक गरीब, अपाहिज व अन्य प्रनाथ पाश्रम सहायता सभापतित्व में एक प्राम सभा हुई। श्री साहू जी ने जैन पा रहे है तथा अनेक विद्यार्थी छात्रवृत्ति प्राप्त कर अपना समाज की प्रोर से भारत के प्रधान मंत्री श्री लालबहादुर जीवन सफल बना रहे हैं एवं भारतीय ज्ञानपीठ के शास्त्री जी को रुपयो की एक थैली मेट की, और साह जी द्वाग जो जैन धर्म प्रचार प्रादि का कार्य हो रहा है वह को अपील पर बहुत-सी जैन समाज की स्त्रियो ने अपने सब प्रापक किए हये बेमिमाल कार्य है। प्राप जैसे उदार अपने जेवर उतार उतार कर भारत के प्रधान मधी को हृदय महामानव मंमार में बिरले ही होते हैं। भेंट किए । मनि श्री देशभूषण जी महाराज ने भारत के साहू जो के निधन से भारत की जैन समाज का सरप्रधान मत्री श्री लाल बहादुर शास्त्री जी के सिर पर हाथ ताज इस संसार से चला गया जिममे भारत की जैन रखकर उनको पाशीर्वाद दिया। साहू जी भगवान महावीर समाज को बडी भारी क्षति हुई है और उनके चले जाने से, 25सौवा निर्वाण महोत्सव सोसायटी के अध्यक्ष थे। उस उनके स्थान की पूर्ति प्रसंभव है। उनके निधन पर जितना समय उनकी कोशिशो से भारत की भूतपूर्व प्रधान मत्री भी शोक मनाया जाये थोडा है। लेकिन हृदय मे शाति श्रीमती इदिरा गाधी ने भगवान महावीर के निर्वाण महोत्सव के उपलक्ष मे उपरोक्त सोसायटी व भारत की जैन __ लाने से ही सुख की प्राप्ति होती है। समाज के धार्मिक कार्यों में हर प्रकार की सहायता की। मै सच्चे हृदय से उनके प्रति श्रद्धांजलि अर्पित करता साहजी को जैन धर्म को ऊचा उठाने के प्रति बहुत लगन हुमा श्रीजी से प्रार्थना करता हूँ कि स्वर्गीय की प्रात्मा को रहती थी। उन्होने भगवान महावीर के निर्वाण महोत्सव शाति प्राप्त हो। को सफल बनाने मौर हर प्रकार से जैन धर्म प्रसार के 000 लिये पनेक कार्यों का प्रचार करते हुये एक कार्य यह भी रिटायर्ड प्रोवरसियर किया कि उन्होने भारतवर्ष की जैन समाज से अपील की भू०पू० मंत्री, जैन मित्र मंडल, देहली। कि हर घर में जितने व्यक्ति हो, हर व्यक्ति एक-एक पैसा शिकारपुर (बुलन्दशहर) उ.प्र. Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा : विश्वधर्म 0 उपाध्याय मनि श्री विद्यानन्द 'गाणी सिव परमेष्ठी सम्वाह वि चहमहोबुद्धो। होता है) इत्यादि जीवन सूत्र हिन्दू शास्त्रकार लिखने अप्पोषिय परमप्पो कम्मविभुषको य होइ फुडं।' लगे। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अक्रोध, ब्रह्मचर्य इत्यादि पहिसा भगवान् महावीर की दिव्य ध्वनि है, धर्म के बस लक्षणो मे वैदिको ने 'पहिसा' को धर्म का चौबीस तीर्थकरों द्वारों उपदिष्ट सम्यग धर्म है और स्याद- स्वरूप माना। यह महिंसाधर्म की महान विजय थी। बाद सिद्धान्त को मानने वाले कोटि-कोटि जनों का धर्म पहिसा धर्म की प्रभावना के परिणामस्वरूप भारत में जैन है। हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि अहिमा प्राणिमात्र धर्म के अनुयायियों की विशाल सख्या थी। प्राबर के का पास्मधर्म भी है। यह वस्तुस्वरूप होने से सभी को राज्यकाल मे चार करोड जैन थे। प्रिय है । "वरं मज्झ ण केणवि' कहन बान तीर्थकर विश्व ईसाई मिशनरियो द्वारा दुर्गम अगम आदिम क्षेत्रो, के सम्पूर्ण जीवाजीव से निर्वैर थे। सब मानवो से, प्रशेष पर्वतीय प्रदेशो और पिछडी-उपेक्षित जातियो मे घमघमकीट-पतगों से, विश्व के प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष प्रणमहत पर- कर अस्पताल, स्कल प्रादि बनाकर वन मानव सेवा भाव माणु पुद्गलो से प्रसीम करुणामय अहिंसक व्यवहार करना भी अहिंसा धर्म की ही प्रेरणा है। पहिसा-धर्म का प्रारम्भिक पाठ है। तीर्थकगे और उनके सम्यक चारित्र ही धर्म है। यह कागज पर नही जीवन मनुयायियों ने हिंसा को चारित्ररूप देकर मानव जाति में प्रकित करना होता है । जीवन में उतारे बिना कागज मे का महान् उपकार किया है। अपने अहिंसामूलक प्राचार रहा धर्म प्राणी को त्राण नहीं देता। धर्म की रक्षा जीवन द्वारा भर्य भूमि के कण कण को अपनी स्वेच्छया संचार- को तन्मय बनाकर होती है धर्म रक्षा के लिए उसके पालने शील चरणविभति से निरन्तर पवित्र करने वाले जैना- वालो की संख्या अधिकतम होनी चाहिए, क्योकि 'न धर्मो चार्यों और मुनियो ने मानव को हिंसक पशुवत्ति से ऊपर धामिकविना' (धामिको के बिना धर्म किसम स्थित उठाकर मानवता की दयामयी मणिशिला पर प्रतिष्ठित होगा) । प्रत: विश्व के देशो में, प्रदेशो मे, नगरो, गावो किया है। पहिमा, माता की गोद के समान, समस्त और जातियो मे धामिकता का शंख फूकने की परमावश्यप्राणियों को प्रभय प्रदान करने वाली है। इस शब्द की कता है, ताकि उदार सर्वोदयी धर्म का विस्तृत रूप विश्वमधुरता को चाल कर प्राणियो के परस्पर वैरभाव का मच पर पुनः प्रवतीणं हो और 'प्रत्ता चेव पहिसा', उपशम होता है । वैरभाव की निवृत्ति से हृदय मे शान्ति (मात्मा ही अहिंसा है) के सन्देश के उद्घोषक तीर्थकर की शीतल धारा प्रवाहित होती है । शान्ति को इस जल वर्षभदेव के, जिन्होने लोक संग्रह एवं लोक कल्याण की धार मे अवगाहन करने वाला विश्व ही इस प्रकार भावना से ससार को दिव्य-ध्वनि का अमृतकलश पिलाया, महिंसा परम्परा के संबंध से तत्वचिन्तापरिणामी मोक्ष के __ उसी लोकधर्म और प्रात्मधर्म के प्रभ्युत्थान से हिमा, लिए मुख्य साधन है। अहिंसा के इस प्रात्मदर्शनमूलक वैर, कलह, शिथिलाचार प्रादि दूर्जात प्राधि-व्याधियों का धर्म का प्रभाव विश्व के सभी धमों पर छाया हुआ है। शमन किया जा सके और विश्वशान्ति के धूमिलहुए चित्रों वैदिक धर्म, जिसमे यज्ञानुष्ठान विधि मे हिंसा की जाती मे भी नया रग उमगाया जा सके। रही, महिंसा धर्म के प्रभाव से वहा 'मा हिस्या.' । हिसा चारितं खलु धम्मो' की गूंज मे से उठने वाली मत करो), 'निरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव' (जो प्रहिसा की पदध्वनि को पहचानकर जनसाधारण तत्वचिन्ता की ओर प्रवृत्त हो सकता है, भौर सब प्राणियो । सम्मान से विनत हो उठे, झूम उठे, इसके अनुरूप स्वय मे वैर-रहित है, वह मोक्ष को प्राप्त होता है), 'अहिंसा को बनाना धर्मभावना के लिए प्रथम म गलपाठ है। प्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वर त्यागः" (अहिंसा की प्रतिष्ठा मशेष प्राणियो का हित-साधन करने वाले तीर्थकरो के रखने से महिसक के पास वैर-त्याग की भावना का उदय महिंसा-धर्म को ही सर्वोदय-तीर्थ के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहिसा : विषधर्म हुई थी। धर्म का यश-नाद गुंजरित करते हुए श्रमण मनी- जिससे लोक-जीवन समुन्नत बना और मस्त में श्रमण-वत्ति षियों ने 'सर्वोदयं तीर्थमिदं तव' यह वाक्य धर्म के राज- धारण करते हए पारमार्थिक श्रम-मार्ग की प्रतिष्ठा की। मार्ग पर संकेत-शिला के रूप में उत्कीर्ण कर दिया है। यह श्रमणत्व भी श्रम के महत्व को ही व्यक्त करता है। वह मंगलमय धर्म पुनः विश्व में सर्वोदय तीर्थ के रूप में उपलब्धियों के लिए श्रम करना प्रावश्यक है। मनि पहचाना जाए, इसमें श्रावकों, श्यागियों और प्रशेष धर्मानु- सम्यक् श्रम करते हैं, अतः श्रमण संज्ञा से विभूषित होते रागियों को मन, वचन और कर्म से सहयोग करना है। बादलों से प्राच्छन्न सूर्य का प्रकाश पध्वी पर नहीं चाहिए । एक प्रदम्य साहस लेकर, निष्ठा पोर संकल्प. प्राता। जो मनुष्य होकर इसी भव में साध्य उत्तम फलों पूर्वक निर्वर भाव द्वारा तप, त्याग, संयम, अपरिग्रह, शौच, के लिए अपनी भजाएं ऊपर नहीं उठाता, उसे उनसे वंचित पार्जव मारि उत्तम गुणों को राष्ट्र के वातावरण में अपने रहना होगा । तप मनुष्य को सभी क्षेत्रों में समुन्नति देता विशुख माचरण से संक्रमित करने वाला जैन, भगवान महा- है और उसे मनुज बनाता है, परन्तु तप से रहित को पतन वीर का सच्चा संदेश वाहक है । श्रावक और त्यागी, मुनि का मार्ग देखना पड़ता है । 'तप' का विलोम शब्द 'पत' है पौर प्राचार्य तथा समाज के शास्त्र धुरन्धर विद्वान इस जिसका प्रथं पतन है। अपने परिश्रम का परिणाम गुंजा पोर एक मन, एक प्राण से चेष्टावान होंगे तो यह दयामय । और मणि दोनों में यदि मिल सकता है तो कौन बुद्धिमान धर्म विश्वमानव की झोली को शान्ति, अहिंसा, निवर, मणि छोड़कर गुंजा ग्रहण करना चाहेगा? अपरिग्रह, शील प्रादि रत्नराशि से भर देगा। शरीर से मनुष्य होना अलग बात है और पाचरण भारत धर्मभूमि है। अनादि काल से यहां के धर्मकृषक अपने चरित्र के खेत मे धर्म के बीज बोते प्राये हैं। से मनुष्य होना मलग बाप्त है। माज प्रायः से शरीर मनुष्य मनु भारतीयो के चतुर्विध पुरुषार्थ में प्रथम पुरुषार्थ धर्म है। तो अति संख्या में हैं, इतने कि सरकार को उनके उदरपहिमा उसका प्रमुख स्तम्भ है। कहना होगा कि एक पूरण के लिए विदेशों से अन्न-याचना करनी पड़ती है, महिंसा में ही अन्य सारे धर्म समाए हए है। सारे भारत मे परन्तु उनमें माचारवान् मनुष्य बहुत अल्प संख्या में हैं। पुरातन धर्म स्तम्भ इसी धर्म के कीर्तिस्तम्भ के समान जब पाचारवान् अधिक होंगे, तब राष्ट्र सर्वतोमुखी उन्नति खड़े हुए धर्म का सन्देश सुना रहे है । साम्राज्य प्राये और करेगा । गणपूरकों ने कभी विजय प्राप्त नहीं की। गये, सम्राट बने और बिगड़े, पर कोई अमरत्व प्राप्त न कर अाज विश्वत्राण के लिए वषमदेव का उपदेश सर्वाधिक सका; किन्तु धर्म-स्तम्भों पर उत्कीर्ण ये धर्म-लेख अब सशक्त है। वीतराग परमदेव को अपना मार्गदर्शक स्वीकातक खड़े है और उनमे अभिहित धर्म सदा रहेगा। जो । जा रने से युद्ध, हिंसा, भय, सीमोल्लंघन, परपीड़न इत्यादि प्रात्मा का धर्म है, वह प्रात्मा की तरह अमर है । विश्व को संत्रस्त करने वाली प्राकूलतामों का प्रशमन देवानप्रिय प्रशोक के गिरनार अभिलेख से प्राप्त यह यह सहज हो जाएगा। भगवान महावीर का लगभग ढाई 'प्रविहिसा' धर्म-सूत्र परस्पर, एक-दूसरे के सपीड़न को जार वर्ष पराना वह स्वर, जिसका समाधोष उन्होने परास्त करने वाला है। यह परिभाषा उस धर्म के लिए विश्वमानव के लिए किया था, भाज भी उतना ही सिद्ध हो सकती है, जिसमे पर-पीड़न को अधर्म माना गया प्राणवन्त है, जितना उनके अपने समय में था। वह है। जैन धर्म ही वह धर्म है जिसमे मन से भी परद्रोह- समाधोष है मिती मे सव्य मृदेसु'-मैं सम्पूर्ण विश्व चिन्तन-पराङ्मुखता का विधान है। का मित्र हूं, मेरा कोई वरी नही है । यह घोषणा प्रजापति ऋषभदेव ने इसी धर्म की प्रतिष्ठा लोक पनः जन-जन के हृदय-पटल पर उत्कीर्ण करने योग्य में स्थापित करते हुए इसके लौकिक तथा पात्मिक दो है। स्मरण रखिए कि यह वीर शासन की वीर वाणी मार्ग- "कृषि करो या ऋषि बनो"-निर्धारित किये। है, महावीर का सिंहनाद है, परन्तु नितान्त उत्पीड़न-रहित प्रथम उन्होने छह प्रकार की विद्याम्रो का प्रसार किया तथा विश्व को शान्ति प्रदान करने वाला। 000 Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साधु की चर्या डा. देवेन्द्र कुमार शास्त्री, नीमच स्वस वेद्य समरसानन्द की सहज अनुभूति से समुल्ल- चर्या है जो स्थायी एवं सहज मानन्द की जननी है, जिसे सित स्वरूप की साधना में रत स्वात्मा का अवलोकन एक बार उपलब्ध हो जाने के अनन्तर कुछ प्राप्तव्य एवं करने वा ने श्रमण निम्रन्थ सहज लिग से प्रात्माराम में करणीय नही रह जाता है । वास्तव में जैन साधु की चर्या विचरण करने वाले परमार्थ में जैन साधु कहे गये है। सच्ची शान्ति एव प्रानन्द में निहित है। जब शुद्ध के लक्ष्य जो केवल व्यवहार में विमूढ है, जिन्हे शुद्धात्मा के स्वरूप से प्रेरित अनन्तविकल्पी ज्ञान एक शुद्धात्मनिष्ठ होकर का परिचय नही है, केवल साधुता का वेश ही धारण किए ज्ञानस्वभाव-तन्मय होकर परिणमित होता है तब सच्चे हए है, वे परमार्थ से जैन साधु नही है । जैन साधु ही उस सुख की किरण उदभासित हए बिना नहीं रहती, क्योकि शद्वात्म-चर्या में तल्लीन रहते है, जिस परम तत्व तथा साध चर्याही धर्म है और धर्म में अविनाभाव रूप से सत्य के साक्षात्कार के लिए विश्व में तरह तरह के नामरूपों तथा बाह्य क्रियानो व मतो को अपनाकर अपनी सच्चा सुख विलसित होता है । अतः धर्म परिणत प्रात्मा नियम से प्रानन्द का भोग करता है। सच्चा प्रानन्द अपनी मान्यतामों तथा पक्षो का पोषण कर रहे है । परन्तु ही उसका जीवन है। यही साधु-चर्या का प्रत्यक्ष परिणाम वास्तव में जैन साधु सभी प्रकार के मत मान्यताप्रो, पक्षो तथा प्राचार-विचारगत पार ग्रहो से रिक्त यथार्थतः है । माधु की चर्या का प्रादि विन्दु क्या है ? सतत सहज साधुता का पालन करता है । पालन करता है - यह कहना भेद विज्ञान का उच्छलन । जिसे प्रात्म अनात्म का भेदभी भाषा की असमर्थता है । जैन साधु तो अपनी चर्चा में विज्ञान नहीं है, वास्तव में वह जैन साधु होने का भी अपने गुण पर्याय रूप परिण मते हुए अपने प्राप का प्रव. पात्र नही है, क्योकि उक्त दशा तथा स्थिति हेतु उसका लोकन करते है। उस दशा में केवल विज्ञान धन स्वभाव लक्ष्य स्थिर नही हो सकता। अपने पूर्ण उज्वल स्वरूप का, चैतन्य का पूर्ण प्र शि एकत्व भेद विज्ञान रूप से उदित होता है, उम समय कोई वैत भासित नही होता है, अनादि काल की प्रज्ञान दशा विघट जाती है और जो प्रात्म दर्शन करना चाहता है, उसे भेद-विज्ञान स्वतत्व का उदा हो जाता है। यही ज्ञानियो का प्रभात करना ही पड़ता है। यह मोक्ष मार्ग की आवश्यक भूमिका है। प्रज्ञान अन्धकार से प्रकाश में योगियो की चर्या है। __ है, क्योकि सत् असत् की पहचान के बिना वस्तु-स्वरूप जागति" का महान का निर्णय नही हो सकता। वास्तव में एक वस्तु का दूसरी साधूपो की चर्या से सहज प्रकट होता है। जिस अनात्म दशा वस्तु के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है । सभी वस्तुएं स्वतन्त्र व में ससार के तथाकथित विद्वान, वैज्ञानिक तथा अन्वेषणकर्ता स्वाधीन है। वस्तु की असलियत का ख्याल पाते ही प्रानंद प्रत्येक समय मातेर हते है, उससे भिन्न प्रात्मस्थिति में की धारा उमड पड़ती है। क्योकि परमार्थ में प्रत्येक वस्तु ज्ञामी साधू प्रत्येक समय में जाग्रत रहते है - यहाँ तक कि अपने में प्रतिष्टित है। ज्ञान ज्ञान में है और क्रोधादिक जिस घोर अन्धकार से व्याप्त रात्रि में चर-अचर सभी जीव क्रोधादिक मह है। दोनो का स्वभाव भिन्न होने से सोते रहते है, उस समय में भी ज्ञानी अपने ज्ञान में जागते दोनो ही भिन्न हैं। इन दोनों में पाधार-माघयत्व भी रसते हैं। ज्ञान चेतना के समक्ष काम वामनायो, पर-भावो, अपने-अपने में ही है। किन्तु दर्शनमोह के वश में होकर विभावो तथा परसमय के मिथ्या भाव टिक ही नही पाते हम अनादि काल से यह मानते चले पा रहे है कि रागाहै। केवल ज्ञान चेतनाका विलास ही उत्तम मुनियो की दिक भाव चैतन्य करता है। उपयोग तो चैतन्य का परि १ "तदप्रभवे चैक ज्ञानमेवैकस्मिन ज्ञान एव प्रतिष्ठित विभावयतो न पराघाराधेयत्व प्रतिभाति । ततो ज्ञानमेव ज्ञाने एव क्रोधादय एक क्रोधादिष्वेवेति साधु सिद्ध भेदविज्ञानम्।"-समयसार, गा० १८१ को प्रात्मख्याति टीका। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साधु की चर्या ५६ णमन होने से ज्ञानस्वरूप है और क्रोधादि भावकम, द्रव्य- पर: स्वरूपलीनता के पनुपम सुख को प्राप्त कगे। इस कर्न एवं नोकर्म सभी पुदगल द्रव्य के परिणाम होने से भेद-विज्ञान से ज्ञानभाव और राग की सूक्ष्म अन्तःसधि जड़ है । इनकी पाज तक वास्तविक पहचान नही हुई। स्पष्ट रूप से प्रतिभासित हो जाती है और निजात्मा मे इसीलिये ससार में भटक रहे हैं। काललब्धि के वश गुरु प्रतीत होने वाली ज्ञान और रागादि भावो की एकता दूर के सम्यक् उपदेश के निमित्त से मिथ्यात्वादि प्रकृतियों के हो जाती है। भेद-विज्ञान का माहात्म्य यह है कि यदि उपशम, क्षय या क्षयोपशम से सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति जीव निरन्तर उसका अभ्यास करता रहे, कभी भेदहोते ही स्व-पर भेद-विज्ञान प्रकट हो जाता है और तभी विज्ञान की धारा न टूटे तो भेद-विज्ञान के बल सं ध्र व, प्रात्मा अपने स्वरूप को पहचान लेती है। स्वात्मतत्त्व शुद्ध प्रात्मा का अनुभव करता हुमा प्रवत होता है। इतना की रुचि को प्राप्त हुमा जीव ही संयोगी दशा में भी पर. ही नहीं, प्रकाशमान पनी प्रात्मा को पर द्रव्य से उत्पन्न द्रव्य से भिन्न निज तत्त्व की प्रतीति कर सकता है। विकारी परिणति को भी दूर कर शुद्ध रूप में स्वय को जैसे दो जुडी हुई वस्तुनों को अलग-अलग करने के प्राप्त कर लेता है। यह सुनिश्चित है कि भेद-विज्ञान से लिए मिस्त्री सन्धि के स्थान पर छ नी मार कर या करोंत ही निज शुढात्मा की उपलब्धि होती है। चलाकर कुशलता के साथ उन दोनों को पृथक् पृथक् कर वास्तव में भेद-विज्ञान में निमित्त निमित्त रूप में, देता है, वैसे ही सम्यक्त्व के सन्मुख ससारी जीव ज्ञान. उपादान उपादान रूप में, साधन साधन रूप में मोर साध्य रूपी करोत के अभ्यास से कुशलता के साथ लक्षण भेद साध्य रूप में, जो जैसा हो वैसा ही उद्भासित होने लगता का ज्ञान होने से जीव और अजीव को भिन्न- है। जब तक जीव को हेय-उपादेय का बीध नही होता भिन्न कर जानता है। रागादिक भावो की भिन्नता के है, तब तक यह हेय को त्यागकर उपादेय को ग्रहण नही साथ ही चैतन्य रम से निर्मर ज्ञायक प्रात्मा तत्काल ऐसा करता । भेद-विज्ञान होने पर सभी राग-रगो की हेयता प्रकाशित हो जाता है, जैसे कि खान में से निकला हमा का बोध हो जाता है, इसलिए जीव उन सबको छोड़कर मोना सोलह बानी ताव पर चढ़ कर अपने उज्ज्वल स्वरूप में चमचमाने लगता है। निज शुद्धात्म-स्वभाव का पालम्बन लेता है। यही भेद. विज्ञान को उपयोगिता है। भेद-विज्ञान करोत को तीक्ष्ण धारा के समान कहा गया है। जैसे करोत लकड़ी के टुकड़े-टुकड़े कर डालती पाच महाव्रत, समिति, इन्द्रियनिरोध, लोच, छह प्रावहै, उसी प्रकार भेद-विज्ञान भी ज्ञान और र गादि विकार २५ श्यक, प्रचेलस, प्रस्नान, भूमिशयन, अदन्तधावन, खडे होकर इन दोनो को अपनी मन्तदष्टि रूपी तीक्ष्ण पार के द्वारा भोजन तथा एक बार माहार, ये श्रमण के प्राइस मूल परस्पर में या पूर्ण प से पथक पथक करके, यह निमंज गुण जिनवरो ने कहे है। यथार्थ में सभी प्रकार के भेद-विज्ञान, जो स्वय शुद्ध चैतन्य का ठोस पिण्ड है, पर व्यापारी से मुक्त सम्यग्दर्श, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्र तथा के सयोग से रहित निज स्वरूप में लीन हो जाता है। सम्यक तप में अनुरक्त निग्रन्थ एव निर्मोह साधु होत है।' १. चंदृष्य जरूपतां च दधतोः कृत्वा विभाग द्वयो रमतरुणदारणेन परितो ज्ञानस्य रागस्य च । भेदज्ञानमुदेति निर्मलमिद मोदध्वमध्यासिता: शुद्धज्ञानघनौधमेकमधुना सन्तो द्वितीयच्युताः ।। सगयासारकलश, श्लो० १२६ २. यदि कथमपि धाराराहिना बोधनेन धूवमुपलभमान: शुद्धमात्मानमास्ते । तदयमुदय द्वात्माराममात्मानमात्मा परपरणतिरोधाच्छुद्ध मेवाभ्युपैति ॥ वही, १५७. ३. प्रवचन सार, गा० २०८-२०६. ४. वावार विपकका च रविहाराहणासयारता । णिग्गंथा णिम्मोहा साह एदेरिसा होति ।। -मियमसार, गा० ७५ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०, वर्ष ३१, कि० ३-४ अनेकान्त उत्तम सविचलित प्रखण्ड अदत परम चिद्रप के श्रद्धान, मंतरंग त्याग के साथ बहियंग त्याग का भी उपदेश दिया पान तथा अनुष्ठान रूप स्वभावरत्नत्रय मे अनुरत होते है। गया है। इस प्रकार साधु की चर्या वही है जिसमें प्रत ज्ञानी साधु का ज्ञानरूप परिणमन करना, यह मन्त- रग तथा बहिरग दोनों प्रकार के परिग्रह का किसी प्रकार रंग चर्या है। किन्तु बाहर में ज्ञान-ध्यान एवं अध्ययन मे ग्रहण नहीं होता । सभी प्रकार से स्वावलम्बी जीवन की में लीन रहना, स्व-समय में स्थिर होकर सम्यग्दर्शन-ज्ञान- चर्या का नाम साधुचर्या है, जिसमे सम्पूर्ण स्वतन्त्रता का चारित्र का पालन करना पोर रत्नत्रय की भाराधना के सागर लहराता रहता है और जिस प्रात्मनिष्ठ साधना लिए अन्तरंग तथा बाहर सभी प्रकार के परिग्रहों से मुक्त मे मापक बने TET की पर्णता होकर महावतों एवं मूलगुणो का पालन करना प्रार्ष श्रमण जारी की हो अत: बाहरी जीवन की प्रत्येक किया में उसे अपनी प्रात्ममार्ग है। ऐसे ही साधु वीतरागी गुरु कहे जाते हैं। बीत चर्या का मानन्द रस का ही स्वाद संवेदित होता रहता रागता की पूर्ण उपलन्धि ही उनका चरम लक्ष्य होता है । प्रत: बाहरी क्रियानों में जैन साधु को क्लेश एव है। वे स्वयं वीतरागता के एक शिखर होते है। इसलिए उस शिखर पर अधिरोहण करने की पीड़ा का अनुभव न होकर प्रानन्द रस का उच्छमन ही की इच्छा से नैतिकता को अपनी व्यवहार बुद्धि से धर्म होता है । जैनागमों में जैन यतियों, मुनियों तथा साधुओं मानने वाला श्रावक उनसे वीतरागी-मार्ग को शिक्षा व का चयो का यही रहस्य उद्घाटित किया गया है कि वे उपदेश प्रात्त करता है । उनके वीतराग-चारित्र मे चीबीसो प्रात्मज्ञान से भीतर-बाहर प्रकाशित होते हए प्रात्म-चर्या घटेमानन्द की धारा प्रवाहित होती रहती है । उनके यम, मे निरत रहते है, लौकिक किंवा व्यावहारिक जगत के नियम, व्रत, उपदेश प्रादि सभी एक-रस धारा से प्राप्यायित ढंग से परे रहते है एवं प्रदत की समरसी भमिका को होते रहते है । वहां शान्ति व प्रानन्द के सिवाय, ध्यान व प्रलोकित करते रहते है।100 अध्ययन के अतिरिक्त जगत का कोई व्यापार नही चलता। २४३, शिक्षक कालोनी, नीमच मध्य प्रदेश प्रतः साधु सब प्रकार से नग्न होकर-तन से, मन से, विकारो से यथार्थ मे त्यागी होता है। जो केवल वस्त्र 'अनेकान्त' के स्वामित्व सम्बन्धी विवरण को साधुत्व के लिए बाधक समझता है, वह साधु चर्या के योग्य नहीं हो पाता, क्योकि आत्मचर्या मे वस्त्र बाधक | प्रकाशन स्थान--वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागज, नई दिल्ली नही है, किन्तु वस्त्र का परिग्रह बाधक है। मद्रक-प्रकाशक-वीर सेवा मन्दिर के निमित्त जो वस्त्र का परिग्रह किए हुए है, वह उसकी श्री मोमप्रकाश जैन प्रासक्ति से परे नही हो सकता। अतः तृणमात्र भी घारण प्रकाशन प्रवषि-मासिक करना अपरिग्रह महाव्रत से बाहर है। पूर्ण प्रपरिग्रही राष्ट्रिकता-भारतीय तिल, तुष मात्र भी परिग्रहण नहीं कर सकता। केवल पता-२१, दरियागंज, नई दिल्ली-२ बाहर वसनों को प्रोढना ही परिग्रह नहीं है किन्तु प्राहार सम्पादक-श्री गोकुलप्रसाद जैन मे प्रासक्ति रखना, अमुक वस्तु मे स्वाद लेना, ससार के राष्ट्रिकता-भारतीय विषयों के प्रति रुचि या चाह होना, अपने नाम व यश | पता-वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागज, नई दिल्ली-२ की कामना करना, मेरा कोई अभिनन्दन या स्वागत करे, स्वामित्व-वोर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ ऐसा विकल्प होना, किसी के अच्छे बुरे की पभिलाषा मैं, मोमप्रकाश जैन, एतद्वारा घोषित करता हूं कि करना,मभी परिग्रह कोटि में है । प्रतः सच्चा त्याग अत- | मेरी पूर्ण जानकारी एवं विश्वास के अनुसार उपयुक्त रंग का माना गया है। किन्तु बाहरी साधनो को देखकर विवरण सत्य है। -मोमप्रकाश जैन, प्रकाशक मंतरंग के परिग्रह का अनुमान किया जाता है । इस कारण Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत और भारत श्री गणेश प्रसाद जैन, वाराणसी "भरत" नाम के कई महापुरुष इस पुण्य-भूमि 'भारत- सूर्य-वश, सूर्य-कुल मादि उपाधियों से विभूषित, प्रख्यात देश' मे हुए है। किन्तु जिस महामानव 'भरत' के नाम पर तथा इस देश का मूल निवासी है। अयोध्यापति, "सुदास', इस देश का नाम 'भारत' प्रख्यात हुमा, जिसका वेदों में 'सुहास' व भरत नाम भी मिलता है, सूर्य वह 'भरत' प्राग-ऐतिहासिक-काल में हुमा है। वह वंशी और इस 'प्राग-कालिक' भरत का वशज है। इसी जैन धर्म के प्रवर्तक, प्रादि-तीर्थंकर श्री ऋषभदेव के एक सो 'सुदास' का युद्ध चद्रवंशीय राजा 'पुरु', जिसकी राजधानी पत्रों में ज्येष्ठ थे । वह चक्रवर्ती, महान् प्रतापी, महापरा 'प्रयाग' (झसी) में थी, हुमा था। इस युद्ध का वर्णन क्रमी महायोगी, महातपस्वी मोर ब्रह्मज्ञाना थ । मद तानु- "देवासर-संग्राम" अथवा "देवराज-युद्ध" के नाम से वंदिक भति अत्यन्त तीव्र होने से प्राचीन वैदिक ग्रन्थों में जह. मोगा । भरत के नाम से उनका कथन है। 'ऋग्वेद' प्रादि में जिन ऐल या चंद्रवंश--महाराजा 'इक्ष्वाकु' के समय के 'भरतों' का बारम्बार उल्लेख है, वे उक्त भरत के हो लगभग ही 'मध्य-प्रदेश' का एक प्रतापी राजा था, जो मानव वंशज हैं। वश का नही था, उसका नाम 'पुरुरवा' ऐल था। उसकी ज्य राजधानी प्रतिष्ठान अथवा प्रतिष्ठानपुर' प्रयाग के सामने और पाश्चात्य विद्वानों को भ्रम हुमा है, और देश के नाम भंसी के पास थी। वहाँ माज भी 'पहिन' नाम का एक का सम्बन्ध प्रर्वाचीन चंद्रवंशीय दुष्यन्त-पुत्र 'भरत' के माँव है। उसे ही 'प्रतिष्ठान' का ठीक स्थान माना गपा नाम से जोड़कर इतिहास की पाठ्य-पुस्तकों मे पाठ्य-रूप है। प्रचलित कर दिया गया है, जिसके कारण एक गलत पर ___'पुरुरवा' की रानी 'उर्वसी' मप्सरा थी। उसका वंश म्परा का विकास हो रहा है ! 'चंद्र पथवा ऐल' कहलाता था। 'ऐल वंश' ने शीघ्र ही अनेक विद्वानों ने अपनी शोधस्वरूप उक्त भ्रांति का बड़ी उन्नति की प्रौर दूर-दूर के प्रदेशो तक अपना राज्य निराकरण करते हुए, ठोस प्राचीन-साहित्यिक प्रमाणो से स्थापित किया था। 'प्रतिष्ठान' वाले मुख्य वश मे 'पुरुरवा' सिद्ध कर दिया है कि-"दुष्यन्त-पुत्र चंद्रवंशीय था। इस का पौत्र 'नहष' हुमा और नहुष का 'ययाति'। (सूर्य 'भरत' से १५०० वर्षों (पन्द्रह सौ वर्षों) के पूर्व से (इस) वंश में भी नहुष-पुत्र ययाति हुमा है।) 'ययाति' के भ्राता देश का नाम 'भारत' संसार में प्रख्यात हो चुका था।" ने नीचे की ओर गंगा के तट पर वाराणसी' 'प्राग-ऐतिहासिककाल' से ही इस भारत देश की राज्य की स्थापना की। बाद में उसके वंशज राजा' काश' भूमि पर 'भरत' अथवा 'भारत' नाम की एक जाति बसती के नाम पर वह 'काशी-राज' कहा जाने लगा। थी। उस भारत अथवा भरत जाति का सम्राट् (चक्रवर्ती) चद्रवशीय 'ययाति' के पांच पुत्र-१. यदु, २. तुवंस, 'भरत' 'सूर्यवंशीय' था और उसी भरत के नाम पर इस ३. हय, ४. अनु और ५. पुरु थे। 'पुरु' के पास प्रतिष्ठान भूमि का नामकरण भारत हा है। 'ऋग्वेदादि' प्राचीन का राज्य था। उसके वंशज पौरव कहलाए। महाभारत तम साहित्य इसी "भरत-जाति" को स्मृति मे प्रथित के उद्योग-पर्व (१४६३) मे वणित है कि-"समः प्रजा पतिः पूर्व कुरूणां वंशवर्धनः।" इस बाक्य से स्पष्ट है पादि सम्राट् (चक्रवर्ती) भरत का वंश इक्ष्वाकुवंश, कि-"कौरव-वंश" का प्रणेता 'सोम' का ५वां पु Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४, वर्ष ११, कि० ३-४ भनेका भारत वर्ष भरतात् सुमतिस्तवभूत् ।" (पग्नि पुराण थे जिन्हें जन्म देकर यह देश धन्य हो गया। उनके जाति प्र० १०७।११.१२) । श्री ऋषभदेव ने रानी मरुदेवी के के रूप यह 'भजनाभवर्ष' और हिमवर्ष से भारतवर्ष कहगर्म से जन्म लिया, और उनके पुत्र श्री 'भरत हुए; उन्हीं लाने लगा और अब इसी नाम से प्रख्यात है। के नाम पर इस वर्ष (देश) का नाम भारतवर्ष कहलाकर श्रीमद्भागवत् के मंत्र (५१४१४२) मे महाप्रतापी प्रख्यात हुमा है। महाराजा भरत के सम्बन्ध में वर्णित है कि-"जैसे गरुड़ 'भरत' महाराज के पुत्र "सुमति" थे। "वर्षोऽयं भारतो से कोई भी पक्षी होड़ नहीं कर सकता, वैसे हो राजषि भरत नाम यत्रयं भारती प्रजा, भरणाच्य प्रजानां वैमनुर्भरत के पथ का अनुसरण भी अन्य कोई राजा नहीं कर सकते। उच्यते, निरुक्त-वचनाच्चैव वर्ष नद्भारतं म्मृतम् ॥” (वा. महाराजा 'भरत' का वंशानु कम "स्वायंभुव मनु" के पु. ४५.१७६)। यह देश भारतवष है और यहां की प्रजा पुत्र महाराजा "प्रियव्रत' से सभी पुराणों में कथित हैभारती है। प्रजा का भरण-पोषण करने मे 'मनु' को 'भरत' प्रियव्रत के प्रागिन्ध्र, ग्रान्ध्रि के नाभि, नाभि के ऋषभ कहा गया है। निरुक्त के अनुसार, उस भरत का जो पौर ऋषभ के पत्र 'भरत' महाराज थे। देश है, वही भारतवर्ष है। मत्स्य-पुराण में भी यही इलोक प्रियव्रतो नाम सुतो मनो स्वयंभुवम्य च, है (११४४५) । ब्रह्माण्डपुराण एव लिगपुराण (१।४७४२४) तस्यागन्ध्रिम्ततोनाभिऋषभस्य सुतस्ततः । का भी यही अभिमत है। अवतीर्ण पुत्रशत तस्यासदिब्रह्मपारगम्, इस भू-खण का नाम भारतवर्ष पड़ने से पूर्व प्रजनाभ तेषा व भरती ज्येष्ठो नारायणपरायणः । वर्ष पोर हिमवर्ष प्रचलित था। (भा० ५७.३ तथा विख्यात वर्ष मेतन् नाम्ना भारतमुत्तमम् ॥ विष्णु-पुराण २.१.१८ । प्रादिमानव का यही प्रजनाम (मा० स्क० ५, १० ४) वर्ष मे जन्म हुमा था और उसी से विश्व मे मानव सभ्यता अर्थात्-उक्त वंशावली मे भरत हुए और उन्हीं के का विस्तार भी हुप्रा । 'मनु' भगवान ने कहा है कि नाम पर यह देश भारत के नाम से विख्यात हमा है। 'एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः । स्व स्व चरित्र इक्ष्वाकुः प्रथमप्रधानमुद गादित्यवशस्ततः तस्मादेव शिक्षेरन् (पथिव्या) सर्वमानवाः ।।" च सोमवंश इति यस्त्वत्ये कुरुग्रादयः । (जैन हरिवश___ महाभारतयुद्ध प्रारम्भ होने से पूर्व 'धृतराष्ट्र' ने संजय पुराण, पर्व १३, श्लोक ३२) अर्थात् सबसे प्रथम इक्ष्वाकू. से भारतवर्ष के सम्बन्ध मे जिज्ञासा की। सजय ने पथ, वंश चला, उसके बाद सूर्य, चन्द्र, कुरु, उग्र प्रादि वंश इक्ष्वाकु, ययाति, अंबरीष, मान्धाता, नहुष, शिवि, ऋषभ, प्रचलित हुए। इसी सर्वप्रधान प्रथम इक्ष्वाकुवंश मे भरत मुचकुन्द, पुरुरवा नग, कुशिक, गाधि, सोमाक मौर दिलीप हुए है । पुराणों के अनुसार 'इक्ष्वाकू' के एक सौ पत्र थे। मादि कतिपय महान राजामो का नाम पिनाकर कहा- उनसे ही सम्पूर्ण पार्य-वश की परम्परा चलो है। श्री "सर्वेषामेवराजेन्द्र प्रिय भारत भारतम् ।" हे राजराजेन्द्र ऋषभदेव जी को भी एक सौ पुत्र थे। 'इक्ष्वाकु वश के भारत (घतराष्ट), इन सब लोगो को भारत देश प्रत्य- नामकरण का कारण जैन ग्रंथ मे निम्न प्रकार से हैधिक प्रिय था। ये सभी लोग देश भक्त हो गए हैं। "माकनाच्चतदिक्षणं रस सग्रहोगणाम् । इक्ष्वाकूः महाराजा 'पथ' ने पर्वत श्रेणिया काट-काटकर भमि इत्यभू द्दवो जगतामभिसम्मतः ।।" अर्थात् श्री ऋषभदेव को समतल किया (ममयल किया)। उसे मनुष्यो के की प्रथम पारणा के समय राजा श्रेयास ने उन्हे 'इक्ष रस' पावास योग्य बनाया और कृषि, वाणिज्य एवं पशु पालन दिया था, तभी से इस वंश को इक्ष्वाकु-वंश कहा जाने का प्रचलन किया। (विष्णु पु० १११३८२, ८३,८४)। लगा। 'इक्षु' का उल्लेख अथर्ववेद (१९३४) तथा ऋग्वेद महामानव श्री ऋषभदेव ने मानवों को सभ्य-सुसंस्कृत में है। बनाया, प्रजा को गहस्थाश्रम में नियमित किया। (भा० पं० श्री भगवतदत्त जी ने अपनी रचना 'भारतवर्ष १॥४॥१४) । इन्हीं श्री ऋषभदेव के पुत्र महाराजा 'भरत' का इतिहास' में राजा 'सुदास' की वंशावली प्रथम 'मनु' Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत और भारत (श्री नाभि से दी है । ६३वीं पीढ़ी में श्री रामचन्द्र जी है। धर्मनीति, विद्यानीति और संस्कृति आदि मे भरत जाति राजा 'मुदास' ५२वी पीढी मे है । ५३वी में कल्याषपाद, प्रायों में अग्रणी थी। उसके विस्तार और प्रभाव से सारा ५४वी मे सूर्यकर्मा ५५वी मे भमरण्य, ५६वी मे निघ्न, देश भारतवर्ष अथवा भरतो का देश कहलाया। यहां तक ५७वी मे रघु, ५८वी मे अनमित्र, ५६वी में दिलीप, कि देश की विद्या और कुल का नाम भो 'भारती' पड़ा। ६०वी मे रघु (द्वितीय), ६१वी में प्रज, ६२वी मे दशरथ प० जयचन्द विद्यालंकार ने अपने ग्रन्थ "भारतीय पौर ६३वी में श्रीराम है। इतिहास की रूपरेखा" (प्र. सं. प्र. जि. पृ. १४६) मे द्वितीय रघ ६०वी पीढ़ी से रघ वश की उत्पत्ति लिखा लिखा है कि ऐसा सोचने का प्रलोभन होता है कि है । इस तालिका से यह सिद्ध होता है कि 'श्रीरामचन्द्र हमारे देश का नाम भारतवर्ष उसी भरत' (शकुन्तलाजी से ११ पीढी पूर्व 'सुदास', अर्थात् 'भरत-जाति' का दुष्यन्त-पुत्र) से हुआ है, किन्तु वह नाम (भरत) एक पौर अस्तित्व था। इसके पूर्व से ही देश का नाम 'भारत' प्रच- प्राचीन राजा ऋषभ पुत्र 'भरत' के नाम से बतलाया जाता लित था ।" है और वह भरत या तो कल्पित है या प्रागैतिहासिक । मा सन १६४६ के हिन्द- विद्यालकार जी ग्रन्थ मे यह भी लिखते है कि "दुष्यन्तस्तान (ममाचार-पत्र) में लिखते है कि 'भारत' नाम पुत्र 'भरत' चद्रवंशियो के भिरमौर्य हए है। इनके पूर्वज हमारी पर्वतम चद्रवंशीय थे । ये चद्रवशीय लोग भारत में बहत थोडे जाति है, रकवा गया है। उन्ही लोगों ने देश बमाया, समय पूर्व ही बाहर से पाये थे । इनका सबसे प्रथम गजा सभ्यता सस्कृति प्रदान की और नामकरण भी किया। जो भारत पाया, 'पुरुरवा' था। यद्यपि वह बडा प्रतापी पौराणिक साहित्य में 'भारत' शब्द का प्रयोग 'प्रावित' द का प्रयोग 'सावितं' और वीर था, किन्तु उसको यहाँ विशेष सफलता नही की तरह मीमित प्रदेश के लिए नही किया गया है. अपित मिली, इसलिए वह अपने देश लौट गया। परन्तु उसकी समूचे देश के लिए हमा है। 'भरत' जाति की चर्चा विशेषत. संतान यहाँ ही बसी रह गई। शनैः शन: ये लोग अपनी ऋग्वेद, यजुर्वेद और ब्राह्मण-ग्रथो मे है । शक्ति बढ़ाते और अपने राज्य का विस्तार करते रहे। श्री ब्रह्मदत्त जी शर्मा ने २५ सितम्बर, सन् १९४६ के उस समय इस कुल का नाम 'ऐल' था। हिन्दुस्तान पत्र मे लिखा है कि वास्तविक स्थिति यह इम 'पुरुरवा' के पूर्व यहाँ 'पाय' रहते थे । उन्ही लोगों है कि "इस देश का प्रत्यन्त प्राचीन नाम का इस देग पर एकछत्र राज्य था । इन्ही सूर्यवंशियो से "भारत" था, जिसका वर्णन ऋग्वेद के तृतीय ऐलो का अनेक बार युद्ध हुप्रा, परन्तु इन युद्धो मे सदा विजय मण्डल एवं १०वें मण्डल के ७५वे सूक्त मे हुआ है। साथ सूर्यवंशियो की ही होती रही। इसी वश क महाप्रतापी राजा ही, भारत की मुख्य-मुख्य नदियो के नाम भी लिखे है। 'पुरु' का धनधोर युद्ध मूर्यवशियो से दाशराज-युद्ध' के नाम अनन्तर यजुर्वेद और अथर्ववेद में 'भारत' के मुख्य मुख्य से हुग्रा, जिसमे ६६००० सैनिक एव सेनाध्यक्ष मारे गए। प्रान्तों का भी निर्देश मिलता है । लेख के अन्तिम भाग में अन्त मे विजय सूर्यवंशियो की ही हुई। इसी 'पुरु' की लिखा है कि "वेदों से लेकर दूसरी शताब्दी तक ३१वी पीढो मे दुष्यन्त-पुत्र भरत हुए है, अर्थात् अनुमानिःसन्देह, एवं बारहवी शताब्दी तक विकल्प रूप में, इस नतः पृरु के १५०० वर्षों बाद ही शकुन्तला-दुष्यन्त पुत्र देश का अन्य देशों में भारत एवं भारतवर्ष नाम प्रसिद्ध था।" भरत जन्मा या । प्रो० राजबली पाण्डेय ने अपनी रचना "भारतीय प. जयचन्द विद्यालकार दे उपरोक्त कथन में मिद्ध इतिहास का परिचय"(पृ० १, द्वितीय सस्करण मे) लिखा है कि दुष्यन्न-शकुलाना-पुत्र भरत की १५वी पीढ', अर्थात् है कि "जिस देश मे हम बसते है, उसका प्राचीन नाम भारत. लगभग १५०० वर्षों पुर्व में ही इस भारतवर्ष की भूमि वर्ष है। जान पड़ता है कि 'भरत' के वंशजो की प्राचीन पर दो वशो का अस्तित्व था ---भरत वश (मूर्यवंश) और भरत जाति ने ही यह नाम देश को दिया है । राजनीति, (शेष पठ ६६ पर) Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिहार के बिहारी : अप्रतिहत अर्हन्त D श्री लक्ष्मीचन्द्र 'सरोज' एम० ए०, जावरा [जैसे ८४ लाख योनियों में मनुष्य योनि सर्वश्रेष्ठ है वैसे ही मनुष्यों में सर्वश्रेष्ठ ग्रहन्त है । अर्हन् जैन और बौद्ध धर्मावलम्बियो के परम प्राराध्यदेव है । अर्ह पूजाया धातु से शतृ प्रत्यय होकर ग्रहत शब्द बना, इसके प्रथम सम्बोधन में ग्रहन शब्द बना, जिसका अर्थ पूजनीय है और यह उसकी पूज्यता का ही प्रभाव है कि उसे वैदिक, जैन पौर बौद्ध तीनो सस्कृतियों ने अपनाया। विचार के बिन्दु से प्रहन्त शब्द का इतिहास प्रत्यन्त प्राचीन है। वराहमिहिर सहिता, योगवाशिष्ठ, वायुपुराण, भागवत, पद्मपुराण और विष्णुपुराण, शिवपुराण मे इस शब्द का उल्लेख है । अप्रतिहत प्रहन्त का यहाँ जैन-बौद्ध दृष्टि से सक्षिप्त वर्णन प्रस्तुत है।] बिहार प्रदेश का नाम बिहार क्यों पड़ा? प्रस्तुत सिद्धे शरण पन्वज्जामि, साह शरणं पव्वज्जामि, केवलि प्रश्न का सुस्पष्ट उत्तर यह कि बिहार मे पण्णत्तं धम्म शरणं पवज्जामि । चूकि एक धर्म, एक प्रहम्नों का बहुत बिहार (प्राममन-गमन) हुमा, प्रतएव दर्शन, एक संस्कृति, एक समाज, एक साहित्य अपने पड़ोसी अपने प्रागध्य देवतामो की पुनीत स्मृति लिए कृतज्ञ भक्त. धर्म, दर्शन, सस्कृति, समान प्रौर साहित्य से प्रभावित हुए जनो ने प्रपन प्रदेश का नाम बिहार रख लिया। प्ररहन्तो बिना रह ही नही सकता है, प्रतएव तीनो भारतीय भारतीय के निगस के लिए यहा अनेक बिहार (प्रावास) बने, संस्कृनिया वैदिक, जैन और बौद्ध परम्पर प्रभावित हई। इसलिए इस प्रदेश की सजा बिहार हो गई। यह बात विशेषतया महावीर पोर बुद्ध के व्यक्तित्व और कृतित्व में, प्रतीव स्वस्थ हृदय और सतुलित मस्तिष्क में इतिहास उनकी जीवन मानना मे अनेक समानताओं को दृष्टि-पथ और पूराण के परिप्रेक्ष्य में भाज भी निस्सकोच कही जा मे रखकर कुछ ऐतिहासिक विद्वान दोनो को पृथक नही सकती है। अपृथक भी समझने लगे थे, पर कालान्तर मे उनकी जिन दो भगवन्तो-प्रहन्तों की दिव्य और भव्य स्मृति धारणा निर्मल सिद्ध हुई।। बिहार अपने अन्तर में प्राज भी सजाए है, उनके नाम जैन और बौद्ध तथा वैदिक संस्कृति मे महन्त भगवान महावीर और पहात्मा गौतम बुद्ध है । इन दोनो शब्द को काफी चर्चा हुई है। जैन जनो का णमोकारमहतो का बिहार से काफी घनिष्ठ सम्बन्ध रहा। चूकि मन्त्र ही णमो परहस्ताणं' (अरहलो को नमस्कार हो) भगवान पाश्वनाथ की परम्परा मे मह स्मा गौतम बुद्ध भी से प्रारम्भ होता है और बौद्धों के धम्मपद ग्रन्थ मे दालप्रलंयम वर्ष तक जैन श्रमण साधु रहे, अतएव यह स्वाभा- ब्राह्मण वग्ग की भाति परहन्त वग्ग भी है। तीर्थकर निक था कि उनके प्राचार-विचार, धर्म देशना पर जैन महन्त जिनेन्द्र के सदश गौतम बुद्ध को भी प्रमर-कोप और सस्कृति की भी क्षीण छाया पड़ी, अनेक जैन पारिभाषिक पञ्चतन्त्र संस्कृत ग्रथा मे 'जिन' जितेन्द्रिय, सर्वज्ञ, शास्ता शब्दो का प्रयोग भी बौद्ध वाङ्मय में हुमा, उदाहरण के कहा गया पर इतने पर भी प्रर्हन्त विषयक जैन और बौद्ध लिए परहन्त, प्रास्रव, गन्धकुटी, यम-नियम, सम्यक् दृष्टिकोण मे उतना ही अन्तर बना रहा, जितना अन्तर विनिकित्मा, ग्रद तादान प्रादि पर्याप्त होगे। महावीर और गौतम बुद्ध में रहा । "बद्ध शरण गच्छामि, घम्म शरण गच्छामि, संघ शरण प्ररहन्त :जंन दृष्टि गच्छामि" पर णमोकार मन्त्र के मागलिक पाठ की प्रस्तुत सर्वज्ञो जितरागादिदोषवस्त्रलोक्यपूजितः । क्तियोंकी क्षीण छाया पड़ी-भरहन्ते शरण पध्वजामि, यथास्थितार्थवादी च देवोऽहत्परमेश्वरः।। पष्ट Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिहार के बिहारी: प्रतिहत परहंत विचार के इस बिन्दु से जैन प्रहन्त परमेश्वर सर्वज्ञ, में जय-ध्वनि होमी है, सुगन्धित जल की वृष्टि होती है, वीतराग लोक्यपूजित यथा स्थितार्थबादी होते है । दूसरे पवन कुमार देवभूमि को निकण्टक करते है सभी प्राणी शब्दों मे, जैन ग्रहन्त वीतरागी, सर्वज्ञ और हितोपदेशी मुदित होते है । पहनन के प्राग धर्म चक्र चलता है और होते है। गणम्यानो को दष्टि से साधु-उपाध्याय-प्राचार्य छत्र-चबर-हाजा-पण कलश जमे पंण पाठ मगल द्रव्य से आगे बढकर तेरहवें गुणस्थान में पहुंच कर जीवनमुक्त साथ-साथ रहते हैं। सदृश प्रहन्त होते है । वे समवशरण या धर्मसभा में प्रशोक वृक्ष, रत्नमप सिंहासन, तीन छत्र, भामण्डल, यामीन होकर पुरुष और स्त्रो, पशु पोर पक्षी, राजा पोर निरक्षरी दिध ध्वनि, पुष वष्टि, ६४ चवर चालन, रक, देव और राक्षस सभी को ममान रूप से दिव्य देशना दुन्दुभि वाद्यनाद, प्रतिहायं महित प्रहात होते है। वे देते है। वे व्यक्तियो पोर पदार्थो को समस्त अवस्थाये अनन्त दर्शन ज्ञान-सुग्व-तीथं सम्पन्न होते है। वे जन्मसे ही सुस्पष्टतया देख ते पोर लेखते है जैसे हम हाथ पर ___ जरा, तृषा, क्षचा, विस्मय, पति, खेद, गेग, शोबा, मद, रखे आंवले को या दोपहर में हाथ की रेखाम्रो को देखते मोह, भय, निन्द्रा, चिन्ता, स्वेद, राज, द्वेष, मरण रहित होते है । वे ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, अन्तराय, जैसे साथ के २८, उपाध्याय के २५ और प्राचार्य के पातिया कर्मों का नाश कर चकते है। वे जोवन्मुक्त निय. ३६ गुण होते है वसे ही प्रहन्त के ४६ गुण होते है -३४ मतः मुक्तिश्री के निकट भविष्य में प्रधिकागे हात है। अतिशय, ८ प्रातिहायं और ४ अनन्त चतुष्टय । ३४ प्रति क्षपकश्रेणी मारूतु जीवात्मा निश्चय से प्ररहन्त हात है। शयो मे से १० अतिशय जन्म के १. केवल ज्ञान के, भोर पहन्त एक से अधिक एक साथ हो सकते है पर तीर्थ कर १४ देवकृत अतिशय है। अतिशय का अर्थ प्राज की नही, इसलिए उनके पांच कल्याणक होना भी अनिवार्य भाषा में 'असाधारणता' करना उचित होगा। नहीं है । जो सोलह कारण भावनामों का चितवन करते प्रहन्त शरीर से सुन्दर-सुगन्धित होते है । वे स्वेद है, तीर्थकर प्रकृति का बन्य करते है वे हो तीर्थकर हाते मल मूत्र रहित होते है। वे हित-मित-प्रियभाषी, प्रतुलित हैं। तीर्थकर या महन्त भी निजान निकाम, निरीह भाव वली, श्वेतरुधिर, १००८ लक्षण समचतुस्स सस्थान वच से धर्मचक्र का प्रवर्तन करते है । संस्कृत के एक सुकवि क वृषभनाराच सहनन वाले होते है । जिस स्थान मे अहंन्त शब्दो मे उनकी वाणी का साराश यह है होते है वहा से मौ योजन तक सुकाल होता है । वे प्राकाश पासवोभवहेतुस्यात् सवरा मोक्षकारणम् । मे गमन करते है। उनका मुख चारों ओर दिखता है। इतीय माहंती दृष्टि रम्य दस्याः अदया का प्रभाव और उपसर्ग (उपद्रव) का भी प्रभाव होता प्रपचनम् ।। है। वे सर्वसाधारण सदृश ग्रास वाला पाहार नही लेते है। अर्थात् प्रास्रव ससार का और सवर मोक्ष का कारण वे ममस्त विद्यापो के स्वामी होते है, उनके न नख-केश बढ़ते है। इतनी हो प्रहन्त की दृष्टि है। शेष सभी इमो का है और न नेत्रों को पलके झाकती है तथा न शरीर की विस्तार है। महन्त, अरहन्त, प्रारहन्त, अरुहन्त, पाहा शब्द छाया पड़ती है । वे एक ही चिर-युवा होते है जो जन्म का अर्थ उनकी वास्तविक व्युत्पत्ति की दृष्टि से समक्ष जरा मरण से सुदूर होते है। ही है । प्ररहन शब्द के भिन्न-भिन्न भाषाम्रो मे निम्न. प्रहन्त की भापा पद्धमागधी होती है। उनके प्रभाव लिखित रूप है, जिसका भाषा विज्ञान साक्षी है.से सभी जीव मित्र सदश रहते है । दशो दिशाओ के साथ भाषा रूप भाषा रूप प्राकाश निर्मल होता है। छहो ऋतुप्रो के फल-फल-धान्य सस्कृत प्रहन तमिल भवह एक समय फलते है। एक योजन तक पृथ्वी दपंण की तरह प्राकृत प्ररिहन्त प्राभ्रश मलहतु, भलिहो स्वच्छ होती है। जब पहन्त विहार करते है तब उनके पालि मरिहत कावड़ परहन्त, प्रान्त चरणो के नीचे देवता सीध स्वर्णकमल रवते है । प्राकाश मागधी अलहन, प्रलिहा Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८, वर्ष ३१, कि० ३-४ अनेकान्त अमरकोष में जहां "सर्वज्ञो वीतरागो अर्हन् केवली या अरण्य, नीचा स्थान हो या ऊँचा, वह भूमि रमणीक तीर्थ कृज्जिनः" कहा गया वहा नाममाला मे सर्वज्ञो है। उन रमणीय अरण्यो मे, जहाँ साधारण लोग रमण वीतरागोऽर्हन केवली धर्मच कमत" कहा गया। भर्तहरि ने नही करते है. वहाँ कामनापों के पीछे नही भटकने वाले शृङ्गारशतक मे "स्याद्वादिक: पाहत:" कहा तो ऋग्वेद मे वीतराग जन रमण करेगे। ऐसी विविध बातें धम्मपद "पहन विभषि सायकानि" कहा गया। मे महन्त के विषय कही गई हैं। प्रहन्त के विषय मे पहात : बौख वृष्टि उल्लेखनीय है कि जिसने अपने को जीत लिया। वह युद्ध मे जिसका मार्ग समाप्त हो चुका है, जो शोकरहित जीतने वालो से बढ़कर है और धर्म का एक पदश्रेष्ठ है और rin a ini का सके जिसे सुनकर शान्ति प्राप्त हो जाती है। "रवीणसव पर हीन यान लोग हन" अर्थात् प्रहन्त प्रास्रव से क्षीण होते है। "नस्थि उद्योग करते है, वे गह में रमण नही करते है। जिस जागरतो भयं" अर्थात जागने वाले को भय नही है तो तपति तेजमा" बुद्ध तेज में प्रकाशिन है। प्रकार हंस जलाशय का परित्याग कर चले जाते है उसी तथागत प्रहंत है, सम्यक सम्बद्ध है। वे दो अन्त प्रकार वे (पहन्त) लोग भी गहों को त्याग देते है। जो अष्टांगिक मध्यम मार्ग, चार पायं सत्य के सन्देशवाहक वस्तूमों का संचय नही करते है, जिन्हें शन्यतास्वरूप है। महन्त से प्राशय मक्त पुरुष का है। अहंन्त शाम्ता निमित्तरहित मोक्ष दिखाई पड़ता है, उनकी गति उसी भिक्षो के लिए उपदेश देते है - भिक्षुग्रो, बहुजन प्रकार कठिनाई से जानने योग्य है जिस प्रकार कठिनाई के हित के लिए, बहजन के सुख के लिए, से जानने जानने योग्य है जिग प्रकार प्राकाश में पक्षियो लोक पर दया करने के लिए, देवतायो और की गति कठिनाई से जानने योग्य होती है। जिनके चित्त के मनुष्यो के प्रयोजन के लिए, सुख के लिए विचरण करो। मैल क्षीण हो गये है, जो प्राहार मे अनासक्त है, जिसे प्रारम्भ, मध्य और अन्त मभी अवस्थाप्रो में कल्याणकारक शन्यतास्वरूप निमित्तरहित मोक्ष दिखाई देता है, उसकी धर्म का उसके शब्दो और भावों सहित उपदेश करके गति उसी प्रकार कठिनाई से जानने योग्य है जिस प्रकार सर्वाश मे परिशुद्ध परिपूर्ण ब्रह्मचर्य का प्रकाश करो। प्राकाश में पक्षियों की गति कठिनाई से जानने योग्य है। ग्रहन्त धर्म को मुग्राख्यान करते है। दुग्न के क्षय के हेतु जिम प्रकार सारथी के द्वारा घोडो का दमन किया जाता ब्रह्मचर्य पालने को कहते है। उद्योगी ही, पालमी न बनो, है उसी प्रकार जिमकी इन्द्रिया शात हो गई है. ऐसे अभि- सुचरित धर्म का प्राचरण करो, यह प्रेरणा देते है। धर्ममानरहित प्रास्रवविहीन मनुष्य (अर्हन्त) की देवता भी चारी पुरुष इस लोक वपरलोक में मुख में सोता है। प्रवजित चाह करते हैं। होने पर नाम-गोत्र से विलग सभी श्रमण होते है । जन्म से पढ़वी समो न विरुज्झति इन्द्र खीलूपमोत दिसुब्बतो। न कोई ब्राह्मण होता है न अब्राह्मण, कर्म से ही कोई ब्राह्मण रहदो अपेत कददमो संसारी न भवति तादिनो॥ या अब्राह्मण होता है। बुद्ध अरहंत शाश्वतवाद-उच्छेद जो पृथ्वी के समान क्षब्ध नहीं होता, जो इन्द्र के बाद दोनों से परे है। उनके उपदेश का सार यह हैसमान व्रत मे दृढ़ है, जो जलाशय के समान कीचड से सब्ब पापस्स अकरणं कुसलस्स उपसंपदा । शम्य है, उसके लिए संसार नही होता है। जो मनुष्य सचिन्त परियोदपनं एतं बद्धानुसासनं ॥ यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति से विमक्त और उपशान हो गया अर्थात् समस्त पापो का त्याग करना, समस्त पुण्य कमों है, ऐसे मनुय्य का मन शान्त हो जाता है, उगी वाणी का संचय करना, अपने चित्त को निर्मल, पवित्र रखना, और कर्म शान्त होते है । जो मनुष्य अधश्रद्धा से रहित यही बुद्ध का अनुशासन है। बुद्ध-परहन्त पाठ अनुहै, जो प्रकृत निर्वाण को जानने वाला है, जो अवकाश हल चघनीय नियमो स्वीकृति पर भिक्षुणी संघ की स्थापना रहित है, जिसने तृष्णा का परित्याग कर दिया, वही उत्तम करते है । वे मन-वचन-काय के दुश्चरित को पाप पाकु. पुरुष है। जहां प्रहन्त विवरण करते है, वह चाहे ग्राम हा शन धर्म किया कहते है। वे स्वधर्म मे पर धर्मानुयाय! Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिहार के बिहारी : प्रतिहत पहंन्त को दीक्षित कर भी उनसे पूर्व व्ययहार छोड़ने को नही कर प्रहन्त बनने उतना परिश्रम करें, जितना भी शक्यकहते है । मैत्री, करुणा, मदिता की भावना को जीवन के सम्भव हो। विकास के लिए प्रावश्यक मानते हैं। वे पांच काम गुण राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के उत्तराधिकारी, सर्वधर्ममार्य विनय में जंजीर मानते है और पाच नीवरण कम मार्य विनय में प्रावरण मानते है । वे बुद्ध (परमतत्वज्ञ), समभाव के इक्छुक बिनोवा भावे के शब्दो में कहे -"महंन इदं दयमे विश्वं अभवम् (ऋग्वेद)-हे महन् ! तुम इस धर्म (परमतत्व), सघ (परमतत्व रक्षक समदाय) की तुच्छ दुनिया पर दया करते हो । प्रहंन् और दया दोनो शरण अनीव प्रावश्यक मानते है। प्राणातिपात विमरण -- पहिसा, प्रादिन्नादान विरमण -- चौरी, काम मिथ्याचार ही जनों के प्यारे शब्द है। सामुदायिक मासाहार निवृत्त विमरण-अध्याभिचार, मृषावाद विमरण --- अट त्याग, का मबमे पहला श्रेय शायद जनो को ही है। बाद मे बौद्ध, सुरा मेरय मद्य प्रमाद स्थान विरमण - नशा त्याग का वैष्णव, ब्राह्मण आदि ने उसको स्वीकार किया। बुद्ध की परामर्श देते है। वे निरुपाधिशेष सम्यक सम्बद्ध होते है। शिक्षाप्रो का धम्मपद मे समायोजन है और वे सहज भाव वे तीथों के निर्माता रतपों के प्राधार होत है। प्रबद्र पाठक से भी स्वीकार कर सकते है । भगवान बद्ध की जो इज्जत अनुभव करेंगे कि महन्त विषयक जैन और बौद्ध दष्टि में काफी ब्रह्म देश और तिब्बत मे है वह हमारे लिए बहुत बड़ी बात है । बोद्ध धर्म मे करुणा पर जोर है और जैनो मे क्या समानता तथा कम असमानता है। प्रहन्त शोक रहित नियुक्त गह त्यागी अमंग्रही प्रनाशक्त जितेन्द्रिय यथार्थ- पाना त्यागी प्रसंगी प्रजासतमा खाना-क्या-न-ग्वान। पर। विद होने है, वे तब्णा और प्रमाद के परित्यागी होकर जागन बद्ध का धर्म करुणामूलक परन्तु वैराग्यप्रधान है। उनका क्षेत्र मानवता है । जनो का धर्म भी करुणामूनक है, लोक हितैषी होते है। उनको अनुभव मलक देशना है। जा तो सही। पर उसका क्षेत्र मानव नहीं समूचा जीव जगत राग में अनुरक्त है वे तृष्णा के स्रोत मे जा पडते है. जिम है, उसमें न विह्वलता है, न खलबली, उसमे है तटस्थता । प्रकार मकड़ी अपने स्वयं के बनाये जाल में फस जाती है, पर निम्पह धंयंशाली लोग इसे काटकर सब दुखो को प्राचार्य कुन्दकुन्द ने प्ररहन्त को पुण्य का फल कहा । उन्हें प्रेमठ शलाका का पूरुषों में शीर्षस्थ माना । अनेक बौद्ध छोडकर संसार में विरक्त होने है । जब मनुष्य पालसी बन विद्वानों ने महन्त की भक्ति विषयक बाते लिखी। उपनिजाता है, ज्यादा खाने वाला निद्रालु हो जाता है करवट बदल. पद और गीता की शिक्षाप्रो मे प्रहेन्त का यह कथन मध्य बदलकर सोता है तब खा-पीकर मोटे बने हुए सुअर के कडी के समान आज भी पठनीय, मननीय, चिन्तनीय, समान वह मूर्ख बार-बार जन्म लेता है। गीता की दृष्टि से गहणीय है-जो ममभाव से बरतता है, जो शान्त, दमन गहणीय है-जो ममभाव मे araat "जातस्थ ध्रुवं मृत्युः ध्रुवं जन्म मृतस्य च" अनुभव करता है। शील, संयमी, ब्रह्मचारी है, जिसने दण्डत्याग करके सब शंकराचार्य के शब्दो मे "पुनरपि जननं, जननी जठरे शयन, भूतो को प्रभय दिया है वह ब्राह्मण है, वह श्रमण है, वह पुनरपि मरण भुगतता है। यह सूर्य सत्य हृदयगम कर वह भिक्ष है। यदि हम चिरकाल से ८४ लाख योनियों मे भटकते हुए जन्म-मरण से तिलतुषमात्र भी भयभीत हए हों तो अहंन्त बजाजखाना, जावरा (म.प्र.) जैसा प्राचरण करे, उनके द्वारा उपदेशित मार्ग पर चल. 000 (पृष्ठ ६५ का शेषांश) ऐल वश (चंद्रवंश)। वे परम्परा विरोधी होने से अप्रमाण है। श्री बलदेवजी उपाध्याय ने अपनी सर्जना 'पुराण- उपरोक्त उद्धरणों सिद्ध है कि "इस देश का नाम विमर्श' (पृ. ३३३) में लिखा है कि प्राचीन निरुक्ति के जिम 'भरत के नाम पर मारतवर्ष पड़ा और प्रख्यात अनुसार स्वायभुव मनु के पुत्र थे प्रियवन, जिनके पुत्र थे हुमा, वह दुष्यन्त-शकुन्तला पुत्र 'भरत' (चंद्रवंशीय) से नाभि । नाभि के पुत्र थे ऋषभ, उनके शतपुत्रों में ज्येष्ठ हजारों वर्ष पूर्व सूर्य-वंश म हुप्रा । जिन सूर्य वशोयो भरत थे । उन्होंने पिता से सिंहासन प्राप्त किया और का प्राचीन साहित्य म उल्लेख मिलता है, वे इसी ऋषभ इन्ही राजा भरत' के नाम पर यह प्रदेश 'अजनाभ' से पुत्र 'भरत' की सन्तान है, और भरत-वंश' के नाम से परिवर्तित होकर भारतवर्ष कहलाने लगा। जो लोग प्रसिद्ध है । दुष्यन्त-पुत्र 'भरत' के नाम पर यह नामकरण मानते है, बसन्ती कटरा (ठठरी बाजार), वाराणसी 000 Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्म जिनदास और उनकी हिन्दी-साहित्य को देन ____D डा० प्रेमचन्द रांवका, जयपुर महाकवि ब्रह्म जिनदास १५वी शताब्दी के सस्कृत. गृहस्थ-जीवन प्रादि का कहीं कुछ विवरण नहीं मिलता। हिन्दी वाङ्मय के उद्भट विद्वान् एवं कवि थे। इन्होने परन्तु प्रारम्भ से ही सकलकीति के संघ का प्राश्रय प्रात्मसंस्कृत एवं हिन्दी भाषा के माध्यम से मा भारती की साधना की उत्कट लगन और सर्वत्र प्रपनी रचनामों मे अनुपम सेवा की। संस्कृत-भाषा में छोटे बढे १३ काव्यों अपने नाम के पूर्व 'ब्रह्म' एवं 'ब्रह्मचारी' शब्द का प्रयोम एवं हिन्दी भाषा ६० से भी अधिक लघु वहत् काव्यों के ये सिद्ध करते है कि ब्रह्म जिनदाम बाल ब्रह्मचारी थे। प्रणयन से मां भारती के भण्डार को भरकर अपना अमूल्य जिनेश्वर का भक्त होने के कारण अपने का 'जिनदास' योग दिया। कहा है। इनके जन्म एवं निधन के सम्बन्ध में भी अन्तः साक्ष्य अन्य प्राचीन कवियों की भांति 'ब्रह्म जिनदास' ने एवं बहिसक्ष्यि के प्राधार पर अभी तक कोई निश्चित' भी अपनी किसी कृति को प्रशस्ति में अपना परिचय नही जानकारी नहीं मिली है। प० परमानन्दजी शास्त्री एव दिया है। केवल जम्बस्वामी चरित्र एव हरिवश पुराण डा० कस्तूरचन्द कासलीवान ने इनका जन्म समय क्रमश की प्रशस्तियों मे भट्टारक सकलकोति को अपना अग्रज वि० सं० १४४३ एव वि० स० १४४५ के बाद का माना भ्राता एव गुरु बताया है । सकल 'कोतिनुरास' मे भट्टा० है। सवत् १४८१ मे भट्टा० सकलकोति न ब्रह्म जिनदास सकलकोति का परिचय दिया गया है। उसी के अनुसार के प्राग्रह से 'मूलाचार प्रदीप' जैसे उकाटि के प्राचार. ब्रह्म जिनदास के पिता कर्णसिंह एवं माता शोभा प्रणहिल- शास्त्र की रचना की। उस समय ब्रह्म जिनदास की प्रायु पुर पट्टण के निवासी हंबडवंशीय थे। समृद्ध परिवार कम से कम २०-२५ वर्ष की तो अवश्य होनी चाहिए। था। पर इस समृद्धि के प्रति ब्रह्म जिनदास का कोई इस दृष्टि से 'ब्रह्म जिनदास' का जन्म वि० स० १४६० लगाव न था। ये अपने प्रग्रज भ्राता भट्टा० सकल कीति या इससे पूर्व का होना चाहिए। के समान प्रारम्भ से ही ग्रहस्थ एवं संसार से विरक्त रहे । ब्रह्म जिनदास ने अपनो केवल दो रचनायो मे ही उनके साथ-साथ तीर्थयात्रा, प्रात्म-साधना एवं साहित्य- रचनाकाल दिया है, अन्यत्र किसी मे नही। एक 'राम सजन मे रत रहने लगे। इनके बाल्यकाल, शिक्षा-दीक्षा, रास' का रचनाकाल स०१५०८ एव दूसरे 'हरिवंश पुराण १. राजस्थान के जैन सन्त : डा. कस्तूरचन्द कासली- डा० कासलीवाल, पृ०६३। वाल, पृ० २३ । ५. संवत चौदह सौ इक्यासी भला, श्रावण मास महंतरे। २. श्री सकलकीरति गुरु प्रणमीनि, पूणिमा दिवसे पूरण किया, मूलाचार महतरे।। मुनि भुवनकीरति भवतार । भ्राता अनुग्रह थकी, कीधा ग्रथ महत रे ।। ब्रह्म जिणदाम कहे निरमनो, रास कियो मेसार ॥ -मूलाचार प्रदीप, भट्टा० सकलकीतिकृत ।। - प्रादिपुराण रास ६. सर ब्रह्मचारी गुरुपूर्वकोऽस्य, ३. भ्रातास्ति तस्य प्रथितः पृथिव्या सद्ब्रह्मचारी जिन- भ्राता गुणज्ञोस्ति विशुद्धचित्तः । दास नामा। -जम्ब स्वामी चरित्र ॥२८, जिनेशभक्तो जिनदास नामा, ४. राजस्थान के जैन सन्त : व्यक्तित्व एवं कृतित्व : कामारिजेता विदितो धरिम् ॥२६॥ हरिवंशपुराण Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बा जिनवास और उनकी हिन्दी साहित्य को बैन रास' का रचनाकाल सं० १५२० हैं। इनके अतिरिक्त इनके अतिरिक्त अन्य किसी गुरु का उल्लेख नहीं मिलता। स्वयं कवि ने अन्यत्र किसी भी काल सवत् का उल्लेख अपने इन दोनों गुरुपों के प्रति ब्रह्म जिनदास की प्रगाढ़ नही किया है। परन्तु 'पद्मा' नामके कवि ने अपने भक्ति एव प्रसीम श्रद्धा थी। अपने उद्धार के लिए कवि 'वर्द्धमान रास' की रचना मे 'ब्रह्म जिनदास' की सहायता ने अनेक स्थानों पर अपने गुरु से अपनी दीक्षा की याचना का उल्लेख किया है। इस रास का रचनाकाल सं० की है । 'गुरु जयमाल' नामक १४ पद्यों की लघु-रचना में १५१६ दिया गया है। इसी प्रकार, गजवासौदा (म०प्र०) गुरु का स्तवन किया गया है। के बूढ़ेपुरा के जैन मन्दिर मे ब्रह्म जिनदास के उपदेश ब्रह्म जिनदास एक साथ विद्वान, संत एवं कवि तीनों से प्रतिष्ठित स० १५१६ की मूर्ति प्राप्त हुई है।' ही थे। उनका अधिकाश समय प्रात्म-साधना के अतिरिक्त इन सबसे कवि का समय वि० स. १४६० से वि० स० अध्ययन एव अध्यापन मे व्यतीत होता था। उन्होने अपने १५२० तो सुनिश्चित है । मूर्ति का लेख इस प्रकार है- शिष्यों को हिन्दी एव संस्कृत का ज्ञान कराकर उनमे धर्म एव साहित्य के प्रति रुचि जागृत की और साहित्य-सजन ''स० १५१६ माघ सुदी ५ श्री मूलसघे भ० को प्रेरणा दी। उनके सन्तत्व, विद्वत्ता एवं कवित्व से सकलकीतिदेव: तच्छिष्य ब्रह्मश्रीजिनदासस्य उपदेशात् ब्र० उनके सम-सामयिक विद्वान, श्रावक-श्राविकाए एवं शिष्य. मल्लिदाम जोगडा पोरवाड साहु नाऊ भार्या नेइ भ्राता गण प्रभावित हए। उनकी रचनामों की भिन्न-भिन्न घणा भार्या हर्षी नित्यं प्रणमति ।" कालों एव स्थानो पर की गई प्रतिलिपिया इस तथ्य की इससे प्रतीत होता है कि ब्रह्म जि नदास प्रतिष्ठाचार्य साक्षी है। भी थे । वैसे भट्टा. सकलकीति के मान्निध्य मे उन्होने जहा तक उनके शिष्य-सम्प्रदाय का सम्बन्ध है, हमे कई प्रतिष्ठानो म भाग लिया। इनके समय में भट्टा० अभी तक उनके छ. शिष्यो की जानकारी मिली है। उनके सकलकीति द्वारा प्रतिष्ठित प्रनेको प्रतिमाए उदयपुर, हरिवंश पुगण वी प्रशस्ति मे मनाहर, मल्लिदास एव गुण. डगरपुर आदि स्थानो में मिलती है और अपने समय दास इन तीन शिष्यो का तया परमबम राम में ने मिदास का के श्रावको को जिनालयो के निर्माण एवं जीर्णोद्धार की तथा एक अन्य कृति मे शान्तिदाम का उल्लेख मिलता है। प्रेरणा दी। रामसीता राम के कर्ता गुण-कीति भी इन्ही के शिष्य ब्रह्म जिनदास ने अपने सभी काव्यो के प्रारम्भ एव थे। चारुदत्त रास मे डा. मल्लिदास एवं नेमिदास का प्रत में अपने गुरु भट्टा• सकलकीर्ति एवं भट्टा० भुवन- उल्लेख है। कीति का बही ही प्रादर-भावना से गुण-गान किया है। महाकवि ब्रह्म जिनदास अपने गुरु एव अग्रज भट्टा १. संवत पन्नर अठोतरा, मानसिर मास विसाल । ४. श्री सकलकीरति पाय प्रणमीन, शुक्ल पक्ष चउदिसि दिनी, गस कियो गुणमाल ॥ मुनि भुवन कीर्ति गुरु चग । -रामरास, ॥६॥ चारुदत्त गुण वशणवं. सवत पनर वीसोतरे, वंशाख मास वीशाल । ब्रह्म जिणदास भणे मन रग ॥१॥ चारुदत्त रास । सुकल पक्ष चौदस दिने, रास कियो गुणमाल ।। ५. शीष्य मनोहर रूवड़ा, ब्रह्म मलिदाग गुणदास । - हरिवंश रास, ॥६॥ पढ़ो पढावो बहु भाक्स, जिम होय मौरव्य निवास ।। ॥४॥ रामरास । २. वर्द्धमान रास : पदमा कवि-मामेर शास्त्र भण्डार, ब्रह्म जिनदास शिष्य निरमला, नेमिदास सुविचार ।। जयपुर। --परमहंस रास ३. अनेकान्त :५० परमानन्द शास्त्री, वर्ष २४, किरण ६. राजस्थान के जैन सन्त : ५, पृ० २२७ । डा. कस्तुरचन्द कासलीवाल, पृ. १८६ ।। -परमह Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२, वर्ष ३१, कि० ३.४ सकलकीति के सदश साहित्य-सजन में अग्रणी रहे। विविध चरित्र काव्य परक-४. अजित जिनेश्वर रास, ५. हनुविधामों मे रचित इनका विशाल साहित्य इन्हें सरस्वती मंत राम, ६. जीवंधर रास, ७. जंबूस्वामी रास, का वरद पुत्र सिद्ध करता है। प्राकृत, सस्कृत, गुजर.ती ८ यशोधर रास, ९ अम्बिकानो रास, १० सूकुमाल एवं राजस्थानी प्रादि भाषामों पर इनका प्रपना अषि स्वामी रास, ११. गौतम स्वामी रास, १२. श्रेणिक रास, कार था तथापि लोकभाषा मरु गुर्जर से इनका विशेष अनु- १३. धन्मकुमार रास, १४. भविष्य दस रास, १५. श्रीपाल राग था । संस्कृत केवल विद्वानों के बोधगम्य थी। प्रतः रास, १६ नागकुमार रास, १७. सुदर्शन रास, १८. जन सामान्य की दृष्टि से इन्होंने अपने समय की भद्रबाहु रास, २६. चारुदत्त रास (णमोकार रास), २०. प्रचलित लोकभाषा मे (जिसमें कबीर एव मीरा का नागश्री रास (गत्रिभोजन रास) २१ रोहिणी रास । साहित्य मिलता है) अपना ८० प्रतिशत साहित्य रचा। प्रतिशत साहित्य रचा। पाख्यान परक काव्य-२२ समकित अष्टांग कथा रास, यही नही, पद्मपुराण, हरिवंश पुराण एव जम्ब स्वामी चरित्र २३ सासर वामा को रास, २४ होली रास, २५. जैसे विशाल प्रथो का प्रणयन, संस्कृत में करने के पश्चात महायक्ष विद्याधर कथा । पुनः उसी विशाल रूप से हिन्दी मे भी किया गया । देश दानकथा काव्य ६ लुब्धदत्त विनयवती कथा, २७. भाषा में काव्य-रचना का कारण कवि ने "प्रादि पुराण सूकात साह की कथा २८. धनपाल कथा राम । रास" के प्रारम्भ मे उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया है।' व्रतकथा काव्य--२६. सोलह कारण रास, ३.. दशपं० परमानन्द शास्त्री ने जैन सि० भा० मे कवि की ४६ लक्षण कथा गम, ३१. अक्षय दशमी गस, ३२. निर्दोष रचनामों का उल्लेख विया है।' डा. कस्तुरचन्द सप्तमी रास, ३३. मोड सप्तमी रास, ३४ चन्दन कासलीवाल ने इनकी सस्कृत की १२ एवं हिन्दी की ५५ षष्ठी कथा रास, ३५. आकाश पचमी कथा रास, कृतियो का उल्लेख किया है एव विशिष्ट कृतियो का ३६. पूष्पांजलि रास, ३७ रविव्रत कचा, ३८. अनन्त सक्षिप्त परिचय देकर इन्हे 'रास शिरोमणि' सिद्ध किया व्रत रास । है। मुझे अपने अनसधान मे प्रभी तक इस कवि की कूल पूजाकथा काव्य-३६. पुरन्दर विधान कथा, ४०.ज्येष्ठ ८० कृतियों की उपलब्धि हुई है, जिनमे ६७ हिन्दी की व जिनवर पूजा कथा, ४१. मालिणी पूजा कथा, ४२. शेष सस्कृत की है। विषय-वस्तु को दृष्टि से हिन्दी-कृतियो मेडूकनी पूजा कथा । का वर्गीकरण निम्न प्रकार है :-- रूपक काध्य-४३. परमहस रास। ये सब प्रबन्धात्मक पुराण कास्य परक-१. प्रादि पुराण रास, २' रामरास काव्य हैं। निम्नलिखित प्रगीतात्मक हैं :पद्मपुराण रास ३. हरिवश पुराण रास सिद्धान्तपरक काव्य:- ४४. समदित मिथ्यात रास ४५. १. भवीयण मावई सुणउ माज रास कहू मनोहर । मादि पुराण जोरकरी, कवित्त करूं मनोहर ॥१॥ बाल गोपाल जिम पढ़इ सुणइ, जाणे बहुभेद। जिन सासण गुण निरमला, मिथ्या मतछेद ॥२॥ कठिण नालीप ने दीजि माला हाथ, ते स्वाद न जाणे । छोल्या केल्या दाख देजे, ते गुण बहु माने ॥३॥ तीम ए प्रादि पुराण सार, देस भषा बखाणु । प्रकट गुण जीम वोस्तरे, जिन सासण वखाणु ॥४॥ रतन माणिक हीरा जगा जोति, पारखे मजाण न जाणे। तीम जिण सासण भेद गुण, भोला किम वरवाणि ॥५॥ तीह कारणि ए रास-चंग, करु' गुणवत । भवीयण मन संतोष यग, रीझे जयवंत ॥६॥ -पादि पुराण रास २. जैन सिद्धान्तभास्कर, पारा (बिहार) भाग-२५, किरण-१, पृष्ठ २६ । ३. राजस्थान के जैन सन्त : व्यक्तित्व एव कृतित्व, पृ०-२४१२५ । ४. संस्कृत सास्त्र जोरकरी, सुगमि कीयो गुणमाल । बाल बोध अति रूबडो, प्रकट करे गुण विसाल ॥ -व० भ० रास ५. संस्कृत सलोक बंधए, कीघु हणमंत एसता । विस्तार से कथा जाणवीए, पद्मपुराण मझारिस ।। भवीयणनण संशोधवाए, राम की इमि चंगतु । अजणा गुण बहुवरणकाए, हनुमन्त सहित उतंगतु ।। -हनुमन्त रास Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३ बा जिनदास और उनकी हिन्दी साहित्य को देन मठावीस मूलगुण रास, ४६. बारह व्रत गीत ४७. लोगों ने उनकी प्रतिभा को पहिचाना। उनके समय में चौदह गुण स्थान रास, ४८. प्रतिमा ग्यारह का रास। ही उनके ग्रन्थों की प्रतिलिपियों की यत्र-तत्र स्वाध्याय उपदेशपरक काय-४६ निजमनि संबोधन, ५०.जीवडा हेतु मांग होने लगी। उनको काव्य-रचना जन-जीवन के गीत, ५१. चनडी गीता, ५२. धर्मतरु गीत, ५३. निकट थी। उपलब्ध पांडलिपियों की प्रशस्तियां यह तथ्य शरीर सकल गीत । उजागर करती हैं कि कवि के लोकवाणी में प्रथमानयोग स्ततिपरक काव्य-५४. मादिनाथ स्तवन, ५५. तीन काव्यों के प्रणयन में भत प्रेरक शिष्यगण, श्रावक-श्रावि. चौबसी विनती, ५६. ज्येष्ठ जिनवर लहान, ५७. काए एवं विद्वान थे। कालान्तर मे भी उन काव्यों की जिनवर पूजा होली, ५८. पच परमेष्ठी गुण वर्णन, समय-समय पर प्रतिलिपियाकी गई और भिन्न-भिन्न ५६ गिरिनारि धवल, ६०. गुरु जयमाल, ६१. जिन जिनालयो में उन्हे स्वाध्यायार्थ विराजमान किया गया। वाणी गुणमाला, ६२. पूजा गीत, ६३. गौरी भास, इस स्वनामधन्य महाकवि ने अपनी ६० से भी ६४. मिथ्यादुक्कड बीनती। अधिक कृतियों से हिन्दी वाङ्मय को समृद्ध किया । हिन्दी स्फुट काव्य---६५. चौरासी न्याति माला, ६६ बंक चल साहित्य के प्रादिकाल मे ४० से भी अधिक रास-काव्यों का स, ६७. धर्मपरीक्षा रास, ६८. कर्मविपाकन द्वादशा कथा, ६६. प्रेमा चक्रवर्ती । प्रणयन ब्रह्म जिनदास की अपनी देन है। उनका प्रत्येक काव्य-रूप की दृष्टि से ये रचनाएं प्रबन्ध काव्य के। राम-काव्य प्रबन्ध काव्य की सीमा को पहंचता महाकाव्य, और खण्ड काव्य तथा गीति काव्य के अंतर्गत है। मं०१५०८ में रचित प्रकेला 'राम-रामो'-राजस्थानी भी विभक्त की जा सकती हैं। पुराण एवं चरित काव्य भाषा की प्रथम जैन रामायण जिसकाउल्लेख हिन्दी के महाकाव्य की सीमा में परिगणनीय है तो प्राख्यानपरक फादर कामिल तथा बुल्के ने 'रामकथा परम्परा' से किया है। काव्य खण्डकाव्य की मीमा को पहुंचते है। शेष रचनाए जो गो० तुलसीदास के रामचरित मानस से सवा-सौ वर्ष मक्तक या प्रगीतिकाव्य को विधा में समाविष्ट हो सकती पूर्व का है, किसी भी दृष्टि से मानस से कम महत्व नही है । इन विशाल रचनाओ के धनी महाकवि ब्रह्म जिनदास रखता। यह राम-रासो लगभग ६५०० शब्द प्रमाण है। इसमे बहमुखी प्रतिभासम्पन्न थे। जैन सिद्धान्त के गहन अध्य. यन के साथ-माथ भक्तिपरक साहित्य के निर्माण मे उनकी कोई अत्युक्ति नही कि समूचे हिन्दी साहित्य के इतिहास मे ब्रह्म जिनवास अपनी सानी नही रखते। विशिष्ट रुचि थी। साहित्य की विविध विधानों-पुराण, काव्य, चरित, कथा, स्तवन, पूजा प्रादि के रूप मे मा-भारती अपनी उत्कट प्रात्म-साधना के साथ गुरु-भक्ति, के भण्डार को पूर्ण करने मे इस महाकवि ने कोई कसर नही ताथाटन, नियामत स्वाध्याय, प्रतिष्ठाम्रा का संचालन छोड़ी। इन सबके माध्यम से प्रात्मोत्थान कवि का एक मात्र पार फिर उच्च और फिर उच्चकोटि का विशाल साहित्य-सजन, ये सब प्रतिपाद्य लक्ष्य था। कवि की रचनायें किसी एक स्थान पर कार्य ब्रह्म जिनदास जैसे बहुमखी व्यक्तित्व की ही मनपम उपलब्ध नहीं होती। ईडर, बासवाड़ा, मागवाड़ा, गलिया- देन है । वे अप्रतिम प्रतिभाओ के धनी थे, जिनमे एक कोट, डुगरपुर उदयपुर और ऋषभदेव प्रादि गुजरात एवं राज. साथ अद्भुत विद्वत्ता, उच्च कोटि के साधुत्व, अपने पाराध्य स्थान के सीमावर्ती प्रदेशो में कवि के मुख्यत. बिहार एव साधना के प्रति प्रगाढ भक्ति के साथ-साथ अनुपम कवित्वशक्ति मोर स्थल रहे। प्रत. इन प्रदेशो के जैन शास्त्र भण्डारोंमे कवि अविचलित प्रात्म-साधना के सभी गुण विद्यमान हैं । का साहित्य विशेष रूप से उपलब्ध होता है । वैसे जयपूर, इसीलिए उनका साहित्य प्राणि-मात्र के इह लौकिक एवं अजमेर, प्रतापगढ, दिल्ली प्रादि स्थानों के जन शास्त्रा. पारलौकिक जीवन का अभ्युदयकारक होने से पूर्णत: सत्य गारो में भी उन्क साहित्य की अने की प्रतिया मिल जाती शिव पोर सुन्दर से प्रोत-प्रोत है। वस्तुतः ब्रह्म जिनदास है । इसमे कवि की प्रसिदि एवं उसके साहित्य की लोक. की हिन्दी साहित्य को उल्लेखनीय देन है। वे अपने युग के प्रियता का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। प्रतिनिधि कवि है। भक्तिकालीन सत साहित्य में वे सर्वोपरि ब्रह्म जिनदास उन विरले सौभाग्यशाली सन्त महा गणनीय हैं । भाव, भाषा, वस्तु-विधान प्रादि सभी दृष्टियों कवियों में थे, जिन्हें अपने समय में ही प्रसिद्धि मिल जाती से उनका कान्व-सजन उल्लेखनीय है । हिन्दी वाङ्मय की है। उन्होंने अपने काव्यों की रचना के लिए अपने समय प्रतुलनीय सेवा की दृष्टि से हिन्दी साहित्य-संसार सदा की लोक प्रचलित हिन्दी-भाषा को माध्यम चुना। इससे सर्वदा महाकवि ब्रह्म जिनदास का कृतज्ञ रहेगा। जन-सामान्य को बौद्धिक खुराक मिली। सम-सामयिक राजकीय संस्कृत महाविद्यालय, मनोहरपुर (जयपुर) Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन देवकुल में यक्षी चक्रेश्वरी Dहा. मारुतिनन्दन प्रसाद तिवारी, वाराणसी हिन्दू एव बौद्ध धर्मों के समान ही जैन धर्म भीभारत को शासनदेवता के रूप में नियुक्त किया था। जैन ग्रंथ का एक प्रमुख धर्म रहा है । जैन धर्म का अस्तित्व लगभग हरिवंश पुराण (८वी शती) के ६६वें सर्ग में स्पष्ट पाठवीं शती ई०पू० में २३वें तीर्थकर पार्श्वनाथ के समय उल्लेख है कि २४ जिनो के निकट रहकर उनकी सेवा में स्वीकार किया जाता है। कुछ विद्वान् सिन्धु सभ्यता करने वाले शासन देवता सज्जनो का हित और शुभ कार्यों (लगभग ३००० ई० पू०) मे जैन धर्म का अस्तित्व ~ की विघ्नकारी शक्तियो, ग्रह. नाग, भूत, पिशाच, राक्षस-- प्रतिपादित करते है, जिसे निर्णायक प्रमाणों के अभाव मे को शान्त करते है । यक्ष-यक्षी युगलों को जिन मतियो के स्वीकार नहीं किया जा सकता। जैन देवकुल म २४ मिहामन या सामान्य पीठिका के दाहने और बायें छोरो तीर्थकरों (या जिनो) को सर्वोच्च महत्ता प्रदान की गई। पर निमपित किया गया है । लगभग नवी शती ई० से इन्हें देवाधिदेव कहा गया। जैन देवकुल के अन्य सभी यक्ष एवं यक्षी की स्वतन्त्र मूर्तियाँ प्राप्त होने लगती है । देवताओं को किसी न किसी रूप में जिनो से चवरी (या अप्रतिचका) प्रथम जिन प्रादिनाथ उनके सहायक के रूप मे संबद्ध किया गया । छठी से दसवी (या ऋषभनाथ) की यक्षी है । चक्रेश्वरी जैन देवकुल की शती ई. के मध्य तात्रिक प्रभाव के फलस्वरूप सभी धर्मों चार सर्वाधिक लोकप्रिय यक्षियों में एक है। अन्य यक्षिया ti में नवीन देवतामों को सम्मिलित कर देवकुल का विस्तार विका, पदमावतो और सिद्धायिका है, जो क्रमशः २२वें, किया गया । जैन देवकूल में वृद्धि की यह प्रत्रिया छठी शती २३वें एवं २४वें तीर्थंकरो नेमिनाथ, पार्श्वनाथ एव महाई. में प्रारम्भ हुई और तेरहवी-चौदहवी शती ई. तक वीर की यक्षिया है। जैन चक्रेश्वरी के स्वरूप पर विष्णु चलती रही। छठी शती ई. में जिनो के साथ उपासक की शक्ति वैष्णवी (या चक्रेश्वरी) का स्पष्ट परिलक्षित देवतामों के रूप में यक्ष-यक्षी युगलों को सश्लिष्ट किया होता है। जैन लाक्षणिक प्रथो मे यह प्रभाव देवी के गया, जिनकी उपासना से मनुष्य अपनी भौतिक आकां- गरुड़वाहन एवं भुजा में चक्र के प्रदर्शन के सन्दर्भ मे देखा क्षानों की पूर्ति कर सकता था। उल्लेखनीय है कि वीत- जा सकता है। रागी जिनों की उपासना से सासारिक सुख-समृद्धि की परन्तु मूर्त कनो मे यह प्रभाव गरुड़वाहन और प्राप्ति संभव नही थी। भजायो मे चक्र के अतिरिक्त, शख और गदा के प्रदर्शन पाठवी-नवी शती ई० में, श्वेताम्बर एव दिगम्बर के सन्दर्भ में भी प्राप्त होता है। हिन्दू देवी वैष्णवी के परम्परा के ग्रन्थों में प्रत्येक जिन के साथ एक स्वतन्त्र लाक्ष- प्रभाव का स्पष्ट सकेत कुमारिया (गुजरात) के महावीर णिक स्वरूपों का निर्धारण दसवी-ग्यारवी शती ई० यक्ष यक्षी जैन मन्दिर की छत पर उत्कीर्ण चक्रेश्वरी की मति मे युगल की कल्पना की गई। इन यक्ष-यक्षी युगलो मे स्वतन्त्र देखा जा सकता है । मूर्ति लेख मे जैन यक्षी को 'वैष्णवी' में हुमा । यक्ष यक्षी युगल जिनों के चतुर्विध सघ के शासन देवी कहा गया है । विष्णुधर्मोत्तर पुराण, रूपमण्डन एव एव रक्षक देव होते है । जैन मान्यता के अनुसार केवल देवपुराण जैसे ब्राह्मण ग्रथो मे किरीटम कुट से शोभित ज्ञान प्राप्त होने के बाद सभी जिनो ने अपना प्रथम उपदेश ___ गडवाहन वैष्णवी की भुजानो मे शख, चक्र, गदा एव देवनिर्मित सभा (ममवसरण) मे दिया था और उसी पद्म के प्रदर्शन का निर्देश दिया गया है। सभा मे इन्द्र ने प्रत्येक जिन के साथ एक यक्ष-यक्षी युगल इसी प्रसग में यह उल्लेख मावश्यक है कि हिन्दू प्रभाव Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन देवकुल में यक्षी चक्रेश्वरी ७५ केवल जैन यक्षो चक्रेश्वरी के निरूपण तक ही सीमित नही किया गया है। चतुर्भजा यक्षी को दो भुजामों मे पक्र रहा है । २४ यक्ष एवं यक्षियों की सूची में से अधिकाश और अन्य दो मे फल एवं वरदमुद्रा के प्रदर्शन का विधान के नामो एव लाक्षणिक विशेषतामो को जनो ने हिन्दू और है। द्वादशभुज यक्षी की पाठ भुजामों में चक्र, दो में वज्र कुछ उदाहरणों मे बौद्ध देवों से ग्रहण किया था। हिन्दू देवकुल एवं अन्य दो मे फल एव वरदमुद्रा प्रदर्शित होगी। विष्णु, शिव, ब्रह्मा, इन्द्र, स्कन्द, कातिकय, काली, गौरी, वामे चक्रेश्वरी देवी स्थाप्यद्वादशसभुजा। सरस्वती, चामुण्डा मोर बौद्ध देवकुल की तारा, वज. धत्ते हस्तये बजे चक्राणी च तथाष्टम् ।। शृखला, वचतारा एव वजा कुशी के नामो घोर लाक्ष- एकेन बीजपूरं तु वरवा कमलासना। णिक विशेषताओं को जैन धर्म में ग्रहण किया गया । जैन चतुर्भूजाथवाचकं द्वयोर्गडवाहनं ।। देवकुल के गरुड़, वरुण, कुमार यक्षो, पोर अम्बिका, -प्रतिष्ठासारसंग्रह : ५, १५-१६ । पद्मावती, ब्रह्माणी यक्षियों के नाम हिन्दू देवकुल स ग्रहण तात्रिक अथो में चक्रेश्वरी के भयावह स्वरूप का उल्लेख किये गए, पर उनकी लाक्षणिक विशषताए स्वतन्त्र थी। है। ऐमे स्वरूप में तीन नेत्रो एव भयकर दर्शनवाली यक्षी दूसरी पार ब्रह्मा, ईश्वर, गामुख, भृकुटि, षण्मुख, यक्षेन्द्र, चक, पद्म, फल एव बज से युक्त है। दक्षिण भारतीय श्वेतापाताल, धरणन्द्र, कुबेर यक्षो और चक्रेश्वरी, विजया, म्बर परम्परा में गरुडवाहगा चश्वरी को द्वादशभुज बताया निर्वाणी, काली, महाकाली, तारा, वज्रशृखला यक्षिया गया है, जबकि दिगम्बर परम्परा में यक्षी षोडशभुज के नामो एव लाक्षणिक विशेषतामा दानो को हिन्दू दव- है। भ जाग्रो के प्रायुधों के सन्दर्भ में उत्तर भारतीय परकूल स प्रहण किया गया था । यक्ष-यक्षियो के अतिरिक्त म्परा का ही अनुकरण किया गया है। जैन देवकुल के गम, कृष्ण, बलराम, महाविद्या, मूर्त प्रकनों में चक्रेश्वरी सरस्वती, लक्ष्मी, गणश, नंगमषिन्, भरव एव क्षत्रपाल मतं प्रकनो म किरीटमुकुट से शाभित चक्रेश्वरी को प्रादि दवा का भी हिन्दू देवकुल स ही ग्रहण किया गया सदैव मानव रूप में उत्कीर्ण गरुड़ पर पारूढ़ प्रदर्शित था। किया गया है । यक्षी की भुजाओ में चक्र के साथ ही गदा प्रामाशास्त्रीय ग्रयो र चक्रवरी और शख का नियमित चित्रण हुमा है। केवल उड़ीसा से श्नताम्बर परम्परा में चक्रश्वरी का अष्टभुज और प्राप्त चक्रेश्वरी मूर्तियो मे गदा और शंख के स्थान पर दिगम्बर परम्परा में चनुभुज एव द्वादशभुज निरूपित खड्ग, खटक एवं वच का प्रदर्शन प्राप्त होता है। यक्षी की किया गया है । दानो ही परम्परामा म गरुड़वाहन चक. एक भुजा से सामान्यतः वरदमुद्रा (या प्रभय मुद्रा) प्रदशित श्वरी के करो में चक्र एव वध क प्रदशन क सन्दभ म है। देवी अधिकाशतः एक पैर नीचे लटकाकर ललित मुद्रा समानता प्राप्त होती है । श्वेताम्बर ग्रन्य निर्वाणकाला में प्रासीन है। तीर्थकर ऋषभनाथ की मूर्तिया क सिंहासन (१०वी शता) क अनुमार यक्षी दक्षिण भुजामा म वरद- छारो पर चक्रेश्वरी का अकन जहाँ पाठवी शती ई० मे मुद्रा, वाण, चक्र, पाश और वाम म घनुष, वन, चक्र, ही प्रारम्भ हो गया, वही यक्षी की स्वतन्त्र मूर्तिया नवी म कुश धारण करती है। शती ई० मे बनीं । श्वेताम्बर स्थलो पर परम्परा के विप__"प्रप्रतिचक्राभिधाना यक्षिणी गत चक्रेश्वरी का केवल चतुर्भुज स्वरूप में निरूपण ही हेमवर्णा गरुड़वाहनामष्टभुजां। लोकप्रिय रहा है। पर दिगम्बर स्थलो पर चक्रेश्वरी वरदवाणचक्रपाशयुक्तदक्षिणकगं की द्विभुज से विशतिमुज मूतिया बनी। चक्रेश्वरी की धनुर्वनचक्राकुशवामहस्तां चेति ॥" मूर्तियो क विकास की दृष्टि से दिगम्बर स्थलों की मतियां --निर्वाणकलिका : १८१॥ महत्वपूर्ण रही है। राजस्थान एवं गुजरात से श्वेताम्बर दिगम्बर ग्रंथ प्रतिष्ठासारसंग्रह (१२वी शती) मे और अन्य क्षेत्रो से दिगम्बर परम्परा की मूर्तिया प्राप्त परवरी का चतुर्भुज एवं द्वादशभुज स्वरूपो में ध्यान होती हैं। दक्षिण भारत की मूर्तियो में गरुड़वाहन का Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६, वर्षे ३२, कि० ३-४ अनेकान्त चित्रण बहुत नियमित नहीं रहा है। साथ ही, भुजामों में मोर शख से युक्त है । शंख मोर गदा का प्रदर्शन भी दुर्लभ रहा है। इस क्षेत्र में देवगढ़ मे चक्रेश्वरी का चतुर्भुज स्वरूप सर्वाधिक यक्षो की भुजामों में बक, वन एव पद्म के प्रदर्शन में लोकप्रिय रहा है । पर यक्षी को षड्भुज, प्रष्टभुज, दशभुज नियमितता प्राप्त होती है। एव विशतिभुज स्वरूपों में भी अभिव्यक्त किया गया। चक्रेश्वरी को प्राचीनतम स्वतन्त्र मति उत्तर प्रदेश उल्लेखनीय है कि नवी (८६२ ई.) से बारहवी शती के के ललितपुर जिले में स्थित देवगढ़ (दिगम्बर) के मंदिर मध्य को चक्रेश्वरी की सर्वाधिक स्वतन्त्र मतियां देवगढ़ १२ को भित्ति से प्राप्त होती है। ८६२ ई० मे निर्मित से ही प्राप्त हुई है। अधिकांश उदाहरणों में किरीटम कुट मन्दिर सं० १२ (शान्तिनाथ मन्दिर) की भित्ति पर जन से प्रलंकृत गरुड़वाहन यक्षी के हाथो में चक्र, शंख एवं देवकुल को सभी २४ यक्षियों का प्रकन प्राप्त होता है, गदा है। बहुमुजो मूर्तियों में चक्र, शख, गदा के अतिरिक्त जो २४ यक्षियों के सामहिक चित्रण का प्रारम्भिकतम खेटक, खड्ग, परशु एवं वज्र का प्रदर्शन लोकप्रिय रहा उदाहरण है । विभग मे खड़ी चतुर्भुज चक्रेश्वरी को सभी है ।चतुर्भुज यक्षी को द्विभंग मे खड़ी एक मति मन्दिर भुजानों मे चक्र है । गरुड़वाहन दाहिने पावं मे नमस्कार १२ के मधमण्डप के स्तम्भ पर उत्कीर्ण है। यक्षी के करो मुद्रा में खड़ा है। मतिलेख में यक्षी का नाम 'चक्रेश्वरी' में वरदमुद्रा, गदा, शख एव चक्र प्रदर्शित है। षट्भ ज उत्कीर्ण है । यक्षी के निरूपण में जैन देवकल की पांचवी चक्रेश्वरी को एक मूति (११वी शती ई०) मदिर १२ महाविद्या प्रतिचक्रा के स्वरूप का अनुकरण किया गया को दक्षिणी चहारदीबारी पर उत्कीर्ण है । यक्षी वरदमुद्रा, है, जिसकी सभी भजामों में चक्र के प्रदर्शन का विधान खड्ग, चक्र, चक्र, गदा एव शंख से युक्त है। अष्टभुज रहा है। महाविद्या की धारणा यक्षी चक्रेश्वरी की अपेक्षा चक्रेश्वरी को तीन मूर्तिया है । ग्यारहवी शती की एक मति प्राचीन रही है। मन्दिर सं० १ के मानस्तम्भ पर उत्कीर्ण है, जिसमें यक्षी प्रारम्भिक दसवी शती की दो प्रष्टभुज मूर्तिया की भुजानो मे वरदमुद्रा, गदा, वाण, छल्ला, छल्ला, बज्र, मध्यप्रदेश के विदिशा जिले में स्थित ग्यारसपुर के माला- चाप एवं शख है। मंदिर १४ की बारहवी शती ई० को देवी मन्दिर के शिखर पर उत्कोणं है। इनमे पक्षी के एक मूर्ति मे तीन हाथो में चक्र और शेष में दण्ड, खड्ग, प्रवशिष्ट करो मे छल्ला, वच, चक्र, चक्र, चक्र और शंख अभयमुद्रा, परशु एव शख प्रदर्शित है। प्रदर्शित है । दसवी शती की एक दशभुजा चक्रेश्वरी मनि दशभुजा यक्षी को एक मूति मन्दिर ११ के समक्ष पुरातास्विक संग्रहालय, मथुरा (क्रमांक-०० डो-६) मे के मानस्तम्भ (१०५६ ई०) पर उत्कीर्ण है ! यक्षी वरदसुरक्षित है। पद्मासन पर समभग मे खड़ो यक्षो की नो मृद्रा, वाण, गदा, खड्ग चक्र, चक्र, खेटक, वज्र, धनुष एव सुरक्षित मजागो मे चक्र स्थित है। दो से विकाग्रो से सेवित शख से युक्त है । विशतिमुज चक्रेश्वरी को ग्यारहवी शती देवी के शीर्ष भाग मे लघु जिन भाकृति उत्कीर्ण है । दिगबर को तीन मतिया प्राप्त होती है, जिनमे से दो स्थानीय स्थल खजुराहो (छतरपुर, मध्य प्रदेश) से यक्षो को दसवी साहू जैन संग्रहालय में सुरक्षित है। साहू जैन संग्रहालय से बारहवी शती के मध्य चार से दस भुजाम्रो वाली कई की एक विशिष्ट मूर्ति मे चक्रेश्वरी के साथ दो उपासको, मतिया मिली है । यहा की चतुर्भुज मूर्तियों में गदा, चक्र, चामरधारिणी सेविकामों, पद्म धारण करने वाली पुरुष शंख और प्रभयमदा (या पद्ध) प्रदर्शित है । घण्टई मन्दिर प्राकृतियो, उडडीयमान मालाघरों एवं ऊपर की भोर (१०वी शती) के प्रवेश द्वार पर चक्रेश्वरी की प्रष्टभुज जैन यक्षी पद्मावती और सरस्वती को भी मामूर्तित किया मति निरूपित है। यक्षी के हाथों मे फल, घण्ट, चक्र, गया है। चक्रेश्वरी की केवल सात ही भुजाए सुरक्षित हैं, चक्र, चक्र, चक्र, धनुष एवं कलश है। पार्श्वनाथ मन्दिर जिनमे चार में चक्र और अन्य में वरदाक्ष, खेटक और शख (८५४ ई.) के प्रवेश द्वार की मूर्ति मे दशभुजा यक्षी प्रदर्शित है। संग्रहालय को दूसरी मूर्ति मे चामरघारिणी बरद, खड्ग, गदा, चक्र, पप, चक्र, धनुष, फलक, गदा सेविकामो एव उड्डीयमान मालाधरों से युक्त चक्रेश्वरी Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन देवकुलमें यक्षी चक्रेश्वरी ७७ की सभी भुजाए सुरक्षित है । देवी की छह भुजाओं मे बारहवी शती की एक चतुर्भुज मति कर्नाटक की कम्बड़ चक एव अन्य में शृखला से युक्त घण्ट, खेटक, वज्र, पहाड़ी स्थित शातिनाथ बस्ती के नवरग स मिली है। खड्ग, तूणीर, मुद्गर, गदा, व्याख्यान मुद्रा -अक्षमाला, गरुड़वाहना यक्षी ने प्रभयमुद्रा, चक्र, चक्र एवं पप धारण परशु दण्ड, शंख, धनुष, सर्प एवं शल प्रदर्शित है। देवी किया है। होयसलकालीन एक षट्भुज मूर्ति कर्नाटक के के शीर्ष भाग में तीन जिन मूर्तियां निरूपित है। बहुमुजी जिननाथपूर स्थित जैन मन्दिर को दक्षिणी भित्ति पर चक्रेश्वरी को ग्यारहवी शती की एक मनोज्ञमति मध्य है। यक्षी के करो मे वरमुदद्रा, वज्र, चक्र, चक्र, वन एवं प्रदेश के गोलकोट नामक स्थल से प्राप्त होती है। पत्र प्रदशित हैं। बम्बई के संण्ट जाविधर कालेज के उड़ीसा की खण्डगिरि पहाडी (पुरी जिला) को नवमुनि गफा में ग्यारहवी शती की दमभुजा पक्रेश्वरी की इण्डियन हिस्टारिकल रिसर्च इन्स्टीट्यूट संग्रहालय में एक मूर्ति है। जटाम कुट से शोभित गरुड़वाहना यक्षी सुरक्षित ऋषभमूर्ति में चकेश्वरी द्वादशभुज है। विभंग मे योगासन मुद्रा मे दोनो पर मोड़ कर बैठी है। चक्रेश्वरी खड़ो यक्षो को पाठ भुजामो मे चक्र, दो मे व ब एवं एक के सात हाथो में चक्र, दो में बटक, प्रक्षमाला एव एक में पद्म प्रदर्शित है । एक भुजा खण्डित है। द्वादशमन चक्रहाथ योगमुद्रा मे गोद में स्थित है। उड़ीसा की खण्डगिरि श्वरी की एक अन्य मूर्ति एलोग (महाराष्ट्र) को गफा पहाड़ी की वारभुजी गफा में द्वादशभुज चक्रेश्वरी को एक ३० मे देखी जा सकती है। गरुड़वाहना चक्रेश्वरी के पाच मति है। गवाहना देवी की छह दक्षिणभुजाप्रो मे वरद- प्रवशिष्ट दक्षिण करो मे पद्म, चक्र, शंख, चक्र एवं गदा मुद्रा, वज, चक, चक्र, अक्षमाला एवं खड्ग है, और तीन प्रदशत । यही को प्रदशित है। यक्षी को केवल एक हो वामभुजा सुर मन वाममजापो में खेटक, एव सनाल पद्म हैं और तीन भुजाएं क्षित है, जिसमे खड्ग स्थित है। खण्डित है। 000 पश्चिम भारत के किसी स्थल से प्राप्त लगभग दसवी डी-५१/१६४बी, सूरजकुण्ड, वाराणसी-२२१००१(उ० प्र०) शती की एक अष्टभुज मति राष्ट्राय संग्रहालय, दिल्ली (क्रमाक ६७-१५२) मे सुरक्षित है। गरुड़वाहना यक्षी सम्वभं सूची की ऊपर की छह भुजाम्रो म चक्र और अन्य दो मे वरद १. शाह, यूपी0-माइकानोग्राफी माफ चक्रेश्वरी, दि मुद्रा एवं फन प्रदर्शित है। कुभारिया (बनासकाठा, यक्षा प्राफ ऋषभनाय, जनल प्राफ दि पौरिएण्टल गुजरात) के शातिनाथ एवं गहावीर मन्दिरो (११वी शती) की छतों पर उत्कीर्ण ऋषभनाथ के जीवन दृश्यो इन्स्टीट्यूट माफ बड़ोदा, ख० २०, अ०३, मार्च मे भी चतुभु । वऋशरी निरूपित है । शान्तिनाथ मन्दिर १६७१, पृ० २८०-३११ । के उदाहरण म यक्षी वरदमुद्रा, चक्र, चक्र एव शंख से युक्त २. 'तिवारी' मारुतिनन्दन प्रसाद, 'दि प्राइकानाग्राफी है। महावीर मन्दिर के उदाहरण में "वैष्णवी देवी" के प्राफ दि जैन यक्षी चश्वगे', श्रमण (वाराणसी), वर्ष नाम से सम्बोधित यक्षी के करो में वरदमुद्रा, गदा, २७, अ० १०, अगस्त १६७५, पृ० २४-३३ । सनालपन एवं शंख प्रदशित है । गजगत एवं राजस्थान ३. शर्मा, बजेन्द्रनाथ -'अपब्लिश्ड जैन ब्रोन्जज इन दि के श्वेताम्बर स्थलो की चक्रेश्वरी मूर्ति के सन्दर्भ में एक नेशनल म्यूजियम', जर्नल ग्राफ दि प्रोरियन्टल इन्स्टी. प्रमुख बात यह है कि इस स्थलों पर यक्षो चश्वरी और ट्यूट, बड़ोदा, ख० १६, भ० ३, मार्च १६७०, पांचवी महाविद्या अप्रतिचक्रा के निरूपण में अत्यधिक पृ० २७५-७६ । समानता प्राप्त होती है। इस कारण कभी-कभी यह निश्चित करना कठिन हा जाता है कि मूर्ति यक्षो की है ४. गुप्ता, एस०पी० तथा शर्मा, बी० एन.-"गधावल, या महाविद्या की। यद्यपि लाक्षणिक ग्रंथों में दोनो के और जैन मूर्तियाँ, अनेकांत, खं० १६, म क १-२, लिए स्वतन्त्र विशेषताए वर्णित है, पर मूर्त अभिव्यक्तियो भप्रैल-जून १६६६, पृ० १३० । में उनका निर्वाह नही किया गया । ५. मित्रा, देवला-शासन देवीज इन दि खण्डगिरि दक्षिण भारत में यक्षो का चतुर्भुज, षट्भुन, प्रष्ट भज केन्स', जल माफ वि एशियाटिक सोसायटी, ख० एवं द्वादशभुज स्वरूपों में निरूपण हा है। ग्यारहवीं. म०२, १६५६, पृ० १२७-३३ । Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भानपुरा संग्रहालय की जैन यक्ष-यक्षिणी प्रतिमाएँ 0 श्री रवीन्द्र भारद्वाज, एम. ए., उज्जैन मंदसौर जिले को भानपुरा तहसील अपने अन्दर के निचले भाग में मान प्रश्वारोही दर्शाये गये हैं। प्राचीन शिल्प वैभव को समेटे हुए है। एक अन्य अम्बिका की प्रतिमा हिग्लाजगढ़ से प्राप्त परमारो से राज्य में जिन छोटे-छोटे और प्रार्चालक हुई है । यह भानपुरा सग्रहालय की शिल्प कृतियों में से महत्त्व के कलाकेन्द्रो का विकास हुआ, उनमे मोड़ी एव एक है । हिग्लाजगढ़ का विशिष्ट स्थान है । मोटी तो भानपुरा से इम क्षेत्र की प्रचिलिक शिल्प विशेषता यह रही है कि १२ कि. मी० पश्चिम में स्थित था और हिंगलाजगढ़ २२ प्रतिमाएं लघु स्तम्भो से निर्मित रथिका में बनाई गई है। कि. मी. की दूरी पर उत्तर पश्चिम में । यहाँ पश्चिमी अम्बिका की प्रतिमा भी रथिका में स्थित है जो कि लघमालवा शैली विकसित एव परिष्कृत हुई। स्तम्मो के द्वारा निर्मित है। कार कलात्मक चैत्य परमार काल मे शव एव वैष्णव सम्प्रदायों के अतिरिक्त प्रलकरण है। यहाँ जैन धर्म का भी व्यापक प्रसार हमा। इस क्षेत्र के किरीट मकुटधारिणी अम्बिका मव्यललितासन मे परमार कालीन सधारा, केथुली, कवना और नीमथर" ग्रामन क है। दाहिना हम्न पाम्रलुम्बि युक्त तथा वाम के जैन मन्दिर इसके प्रमाण है। शिशु को सहारा दिये है। अन्य ब्राह्मण प्रतिमानो के परमारो के समय की प्राचीनतम अभिलिखित जैन सदृश ही अम्बिका की मुखाकृति गोलाई लिए सौम्य मद्रा यक्षिणी प्रच्युता को प्रतिमा सवत १०७५ (१०१८ ई.) में है। उभरी हुई ठुड्डी तथा पलको क अकन मे नुकीलायही हिंगलाजगढ़ से प्राप्त हुई है। पन है। प्रतिमा के प्रोठ, वक्षस्थल तथा कटिप्रदेश के भानपुरा पुरातत्त्व सग्रहालय में यहा को जैन-मूर्ति अकन में सुरुचिपूर्ण मृदुता, लावण्य और मासलता है । शिल्प धरोहर सुरक्षित है। पुरातत्त्व सग्राहलय मे हिंग उन्नत और कठिन पयोधर पर कुचबन्धों का पालेखन लाजगढ को यक्ष-यक्षिणी प्रतिमाएं परमारकाल की कला किया गया है। प्रतिमा का अनकरण दृष्टव्य है-किरीट का पूर्ण प्रतिनिधित्व करती है। मुकुट, कुण्डल, ग्रेवेयक, स्तन पर मणिमाला, स्तनों के इनमे प्रमुख है परमारकालीन गोमेध यक्ष एव मध्य झलता हिक्कामूत्र, स्कन्धमाला, केयूर, कटिसूत्र तथा अम्बिका की मूर्ति, जो कि भद्रपीठ पर प्रासनस्थ है। इस मखला और पैर नपुरो से अलकृत है। प्रतिमा के ऊपरी प्रतिमा का प्राकार-ऊचाई ८२ से० मो०, चौड़ाई ४६ भाग में 'पासनक तीर्थ कर' प्रतिमा है। पाम्र वृक्ष का से० मी० तथा मोटाई ८ से० मा० है। गोमेव यक्ष तथा प्रभामण्डल और नीचे अम्बिका का वाहन सिंह का अंकन अम्बिका क्रमश. वाम तथा सव्यललितासन में है। प्रतिमा है । यह प्रतिभा लाल सिकताश्म की बनी है। का प्रभामण्डल पाम्रवृक्ष का तथा नीच इनका वाहन इस प्रकार, भानपुरा क्षेत्र परमारकालीन जैन शिल्प सिह का अकन है। प्रतिमा के ऊपर प्रासनक मद्राम को दृष्टि से महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। On7 पाश्वनाथ (?) तथा दोनों मोर स्थानक तीर्थंकर है। पुरातत्त्व विभाग, विक्रम प्रतिमा के पार्श्व मे चॅवरघारी पुरुष का अकन है । प्रतिमा विश्वविद्यालय, उज्जैन (म० प्र०) १. श्री गर्ग, प्रार. एस.-मोड़ी-मण्डल का शिल्प वैभव. ४. वही, पृ० ८३ (प्रोग्रेसिव रिपोर्ट माफ मार्केलाजिकल सर्वे, वेस्टर्न ५ भारद्वाज, रवीन्द्र, भानपुरा का अप्रकाशित जैन शिल्प, सकिल-वर्ष १९२०)। वीरवाणी, वर्ष ३१, अक ६, पृ० १४६ । २. PRAS. WC,. P.८८-६१ ६. श्रीगर्ग-मोड़ी-मण्डल का शिल्पवैभव-टंकितप्रति३. वही, पृ० ६२ प्रकाशनाधीन । Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामगुप्त और जैन धर्म D० सोहन कृष्ण पुरोहित, जोधपुर गुप्तवंशी नरेशों के अभिलेखों से ज्ञात होता है कि रामगुप्त की मुद्राएँ विदिशा, एरिकिणप्रदेश (पूर्वीसमुद्रगप्त का उत्तराधिकारी उसका द्वितीय पुत्र द्वितीय मालवा) से प्राप्त हुई है। डा० के० डी० वाजपेयी ने चन्द्रगुप्त बना'। परन्तु विशव दत्त द्वारा रचित 'देवी इन मद्रामो को चार प्रकारों में विभाजित किया है, जो चन्द्रगुप्तम्" नाटक के उपलब्ध अंशो, बाण के 'हर्षचरित" इस प्रकार हैं-- सिंह, गरुड़, गरुडध्वज मोर बार्डर राजशेखर की 'काव्यमीमांसा" तथा एक मम्लिम कृति लिजेण्ड । इन मुद्रामो पर गरुड़ध्वज का अंकन उसे मजमल-उत तवारीख' प्रादि साहित्यिक साधनो एव राष्ट्र गुप्तवंशीय नरेश प्रमाणित करता है। उसके अभिलेख कटों के सजन', केम्बे तथा मांगली दानपत्रो के मम्मिलित विदिशा के निकट दुर्जनपुर ग्राम से प्राप्त हुए है। ये जन साक्ष्यो से संकेतित है कि ममुद्रगुप्त की मृत्यु के पश्चात् मूर्ति प्रभिलेख हैं, जिनकी स्थापना रामगुप्त ने करवाई उसका ज्येष्ठ पुत्र गगगुप्त उत्तराधिकारी बना, जिसके थी। प्रथम एवं तृतीय अभिलेख के अनुसार, रामगुप्त ने चेसूक्षमण नामक प्राचार्य के उपदेशानमार चन्द्रप्रभ नामक अनुज द्वितीय चन्द्रगुप्त ने उसे मारकर मिहामन पर ग्रहंत की प्रतिमा स्थापित करवाई थी। द्वितीय लेख" के अधिकार कर लिया था। उपयंत माक्ष्यानुमार गमगुप्त अनुमार, उसने पुष्पदन्त नामक ग्रहंत की मूर्ति का निर्माण एक कायर एव कुल के लिा कलक तुल्य था । शक नरेश कगया था। द्वारा घेर लिए जाने पर उसने अपनी पत्नी ध्रव देवी का हमार मान्यता है कि गुप्तवशीय नरेश होने के कारण शकाधिपति को देना स्वीकार कर लिया था। लेकिन उमन मुद्रामो पर गरुड का अंकन जारी रखा। लेकिन द्वितीय चन्द्रगुप्त ने शकाधिपति को धोखे से मारकर वास्तव मे रामगुप्त का झुकाव जैन धर्म की पोर था सम्राज्ञी और माम्राज्य का सम्मान बढ़ाया। बाद मे जिमका प्रमण उसके जैन प्रतिमालेख है। विशाग्वदत्त अवसर पाकर रामगुप्त की भी हत्या करके मिहामन पर उसे कायर कह कर पुकारता है। लेकिन हम विशादत्त के अधिकार और ध्रव देवी से विवाह कर लिया। ये घट विचारो से सहमत नही है। हमारी धारणा है कि शकाधिनाएं ऐतिहासिक है अथवा नहीं, इस विषय पर करीब इस विषय पर करीब पति ने जब रामगुप्त पर प्राक्रमण किया, उस समय उसने पिछले पचास वर्षों से बड़ा विवाद चला जा रहा (रामगुप्त ने) कायरता के कारण ध्रुवदेवी को देना स्वीकार परन्तु पिछले कुछ वर्षों में गमगुप्त को मद्राएं और अभि किया था। अपितु रामगुप्त एक कट्टर जैन धर्मावलम्बी लेख प्रकाश मे मा जान से उगकी ऐतिहामिकता प्रमाणित कट्टर नरेश था। इसलिए उसने सोचा कि यदि शकाधिपति हो गई है। से युद्ध किया जायेगा तो युद्ध मे सैकड़ों व्यक्ति मारे जायेगे। १. भीतरी स्तम्भ लेख । चतुर्थ पक्ति--सर्पसेनलक्ष्मण शिष्यस्य गोलक्या२. गुप्त, परमेश्वरीलाल-गुप्त साम्राज्य, पृ० १२३-१३० त्यासत्पुत्रस्य चेलुक्षमणस्येति । ३. वही, प० १३८ । ४. वही। १०. प्रथम पक्ति-भगवतोऽहंतः (चन्द्रप्रभ) स्य प्रति मेय ५ इलियट, डा उसन-हिस्टरी प्राफ इण्डिया एज टोल्ड कारिता महा (राजा) धिराराज - बाइ इट्स प्रोन हिस्टोरियम, १, प० ११० । द्वितीय पक्ति-श्री (रामगुप्ते)म उ(पदेशात) ६. ए० इ० ४, पृ० २५७, ए० इ० १७, पृ० २४८ । (पा) णि (पात्रि)... ७ ज० न्यू० सो० इ० १२, पृ० १०३, १३, पृ० १२८ ८. जनल आफ इण्डियन हिस्टी, ४२, पृ० ३८६। ११. (१) भगवतोऽहंतः । पुष्परम्तस्य प्रतिमेयं कारिता । ६. प्रथम पक्ति - भगवतोऽहंत.। चन्द्रप्रभस्य प्रतिमेय (२) महाराजाधिराज श्री रामगुप्ते उपदेशात् कारिता। पाणिपात्रिक । द्वितीय पंक्ति-महागजाधिराज, श्री रामगुप्तेन, (३) चन्द्रक्षम (णा) चार्य-(क्षमण)-श्रमण प्रशि उपदेशात पाणिया (व्यस्य) ततीय पक्ति-त्रिक चन्द्रक्षमाचार्य क्षमण श्रमणप्रशिष्याचार्य १२. ज. न्यू० सो० इ० २३, पृ० ३३१.४३ । । पक्ति- णि ( प वित Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फुलान की अप्रकाशित जैन प्रतिमाएं डा. सुरेन्द्र कुमार प्रार्य, उज्जैन उज्जैन से २ विलो मीटर पश्चिम दिशा में नागदा- ५ फुट ५ इंच चौडा है। पादपीठ पर संवत ११७८ इदौर बस मार्ग पर फुलान ग्राम स्थित है। यह उज्जैन का शिलालेख है । लेख की ४ पंक्तियां हैं पर इतना भग्न जिले की बड़मगर तहसील में प्राता है। यहाँ पर विक्रम है कि केवल संवत ११७८ ही पढ़ा जा सकता है। पादविश्वविद्यालय, उज्जैन व मध्य प्रदेश राज्य पुरातत्व विभाग पीठ पर शेर बना हुआ है । अतः शेर-वाहन वाली यह के सयुस. तत्वावधान में पुरातात्विक सर्वेक्षण किया गया है। महावीर प्रतिमा हो सकती है। यह सर्वेक्षण दंगवाड़ा-उत्खनन वर्ष १६७६ के कार्य का ही एक अन्य खंडित प्रतिमा हनुमान मन्दिर के पास एक अंग था। डा० वि० श्री वाव णकर के मार्गदर्शन में प्रोटले पर रग्बी हुई है जो पार्श्वनाथ की खड्गासन में है यह सर्वेक्षण किया यगा था: नरसिंगा ग्राम से २ कि० मी० और निश्चय ही १०वी शताब्दी के शिल्प में निर्मित है। पूर्व की ओर फलान ग्राम स्थित है। यहा पर मौर्यकाल, तीसरी प्रतिमा माताजो के प्रोटले (चबतरे) पर नक युग व गुप्तकाल के शेष मिलते है और टोल पर बसा जडीई है । इसमें जैन देवी पद्मावती गरुड़वाहन पर हुप्रा जो प्राचीन ग्राम का स्थान है, वह सब उजाड़ है। प्रासीन है. व ऊपर तीर्थकर प्रतिमा पद्मासन में है। देव. इस टीले पर सर्वेक्षण के दौरान तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व गण रक्ष, किन्नर व वाद्यवाद हर्ष से पुष्प वर्षा कर रहे की ताम्र पाहत मुद्राएं मिली है। साथ ही जीवदामन व हैं। रद्रदायन की व ताम्र मद्राएं मिली है। यह एक सम्पन्न चौथी व पाचवी तीर्थकर प्रतिमायें भग्न है व केवल थल था जहां पर मौर्य युग से शक काल नक पर्याप्त पादपीठ ही शेष है। एक अन्य प्रतिमा पर चरणचिह्न ही जनावास था। यही पर जन प्रतिभाए मिली है जिनका शेष है और सब भग्न है । फलानग्राग में यह जन प्रतिभायें विवरण निम्नलिखित है : स्पष्ट करती है कि यहा पर परमार काल में कोई विशाल ग्राम को घेरता हा एक भेर है, नाला उसके किनारे पर देवालय रहा होगा। परमार काल की एक तीर्थक र प्रतिमा मिली है जिसका शीर्ष २२, भक्त नगर, दशहरा मैदान, भग्न है। प्रतिमा पद्मासन में है और माकार ६ फुट ऊंचा उज्जैन-४५६००१ 000 (पृष्ठ ७६ का शेषांश) जबकि जैनधर्मानुसार अहिंसा को परमधर्म माना गया इसमे जैन धर्मावलम्बी अविवर्ष ने रामगुप्त वी पालोचना है इसलिए रामगुप्त ने हिसा से बचने हेतु अथवा यू कहिए न करके उमके स्थान पर द्वितीय चन्द्रगुप्त के प्रति घृणा कि जैन धर्म के सिद्धान्तों की रक्षा हेतु अपनी पत्नी ध्रव प्रकट की है। यहां हम डा० उदयनारायण राय के मत से देवी को शकाधिपति को देना स्वीकार किया था। अतः पूर्णतया सहमत है कि जिस प्रकार उत्तरकाल मे बुद्धगुप्त, हमे रामगुप्त को एक कायर नरेश नही अपितु कट्टर जैन बालादिस्य एव वञ्च प्रादि नरेशी न बौद्धधर्म का अनुसरण धर्मावलम्बी नरेश के रूप में स्वीकार करना चाहिए। किया उमी भाति पूर्वकाल मे समुद्रगुप्त के उत्तराधिकारी रामगुप्त के जैन होने की पुष्टि का सूक्ष्म सकेत राष्ट्रकूट रामगुप्त ने जैनधर्म का अवलम्बन कर लिया था।" नरेश अमोघवर्ष के सजन ताम्रपत्र में भी मिलता है। इतिहास विभाग, जोधपुर विश्वविद्यालय, जोधपुर (राज.) 000 १३. गुप्त, पूर्वो० पृ. ४६ । १४. राम, उदयनारायण-गुप्त सम्राट् और उनका काल, पृ० १७८ । Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्म जिनवास और उनकी हिन्दी साहित्य को देन मठावीस मूलगुण रास, ४६. बारह व्रत गीत ४७. लोगों ने उनकी प्रतिभा को पहिचाना। उनके समय में चौदह गुण स्थान रास, ४८, प्रतिमा ग्यारह का रास। ही उनके ग्रन्थों की प्रतिलिपियों की यत्र-तत्र स्वाध्याय उपवेश परक कास्य-४६ निजमनि संबोधन, ५०.जीवड़ा हेतु मांग होने लगी। उनकी काव्य-रचना जन-जीवन के गीत, ५१. चनडी गीता, ५२. धर्मतरु गीत, ५३. निकट थी। उपलब्ध पाडुलिपियों की प्रशस्तियां यह तथ्य शरीर सकल गीत। उजागर करती हैं कि कवि के लोकवाणी मे प्रथमानयोग स्तुतिपरक काव्य-५४. प्रादिनाथ स्तवन, ५५. तीन काव्यों के प्रणयन मे भत प्रेरक शिष्यगण, श्रावक-श्रावि चौबसी विनती, ५६. ज्येष्ठ जिनवर लहान, ५७. काए एवं विद्वान थे। कालान्तर मे भी उन काव्यों की जिनवर पूजा होली, ५८. पंच परमेष्ठी गुण वर्णन, समय-समय पर प्रतिलिपिया की गई और भिन्न-भिन्न ५६. गिरिनारि घवल, ६०. गुरु जयमाल, ६१. जिन-जिनालयों में उन्हें स्वाध्यायार्थ विराजमान किया गया। वाणी गुणमाला, ६२. पूजा गीत, ६३. गौरी भास, इम स्वनामधन्य महाकवि ने अपनी ६० से भी ६४. मिथ्यादुक्कड बीनती। अधिक कृतियों से हिन्दी वाङ्मय को समृद्ध किया। हिन्दी स्फुट काव्य-६५. चौरासी न्याति माला, ६६. बंक चल साहित्य के प्रादिकाल मे ४० से भी अधिक रास-काव्यों का गस, ६७. धर्मपरीक्षा रास, ६६. कर्मविपाकन द्वादशा कथा, ६६. प्रेमा चक्रवर्ती। प्रणयन ब्रह्म जिनदास की अपनी देन है। उनका प्रत्येक काव्य-रूप की दृष्टि से ये रचनाएं प्रबन्ध काव्य के रास-काव्य प्रबन्ध काव्य की सीमा को पहचता महाकाव्य, प्रौर खण्ड काव्य तथा गीति काव्य के अंतर्गत है। मं०१५०८ में रचित प्रकेला 'राम-रामो'-राजस्थानी भी विभक्त की जा सकती हैं। पुराण एवं चरित काव्य भाषा की प्रथम जैन रामायण जिसकाउ - ल्लेख हिन्दी के महाकाव्य की सीमा में परिगणनीय है तो प्राख्यानपरक कादर कामिल तथा बल्के ने 'रामकथा परम्परा' में किया है। काव्य खण्डकाव्य की मीमा को पहंचते है । शेष रचनाए जो गो० तुलसीदास के रामचरित मानस से सवा-सौ वर्ष मक्तक या प्रगीतिकाव्य को विधा मे समाविष्ट हो सकती पूर्व का है, किसी भी दृष्टि से मानस से कम महत्व नही है। इन विशाल रचनाओ के धनी महाकवि ब्रह्म जिनदाम रग्वता। यह राम-रासो लगभग ६५०० शब्द प्रमाण है । इसमे बहमखी प्रतिभासम्पन्न थे। जैन सिद्धान्त के गहन अध्ययन के माथ-माथ भक्तिपरक साहित्य के निर्माण मे उनकी कोई अत्युक्ति नही कि समूचे हिन्दी साहित्य के इतिहास मे ब्रह्म जिनवास अपनी सानी नही रखते। विशिष्ट रुचि थी। साहित्य की विविध विधामों-पराण. काव्य, चरित, कथा, स्तवन, पूजा प्रादि के रूप मे मा-भारती अपनी उत्कट प्रात्म-साधना के साथ गुरु-भक्ति, के भण्डार को पूर्ण करने मे इस महाकवि ने कोई कसर नहीं तीर्थाटन, नियमित स्वाध्याय, प्रतिष्ठामो का संचालन छोड़ी। इन सबके माध्यम से प्रात्मोत्थान कवि का एक मात्र और फिर उच्चकोटि का विशाल साहित्य-सृजन, ये सब प्रतिपाद्य लक्ष्य था। कवि की रचनाये किसी एक स्थान पर कार्य ब्रह्म जिनदास जैसे बहुमखी व्यक्तित्व को ही मनुपम उपलब्ध नहीं होती । ईडर, बासवाड़ा, मागवाड़ा, गलिया- देन है । वे अप्रतिम प्रतिभाओं के धनी थे, जिनमे एक कोट, डूंगरपुर उदयपुर और ऋषभदेव प्रादि गुजरात एवं राज. साथ अद्भुत विद्वत्ता, उच्च कोटि के साधुत्व, अपने माराध्य स्थान के सीमावर्ती प्रदेशो मे कवि के मुख्यतः बिहार एव साधना के प्रति प्रगाढ भक्ति के साथ-साथअनुपम कवित्वशक्ति मोर स्थल रहे। प्रत. इन प्रदेशों के जैन शास्त्र भण्डारोमे कवि अविचलित प्रात्म-साधना के सभी गुण विद्यमान हैं। का साहित्य विशेष रूप से उपलब्ध होता है । वैसे जयपुर, इमीलिए उनका साहित्य प्राणि-मात्र के इह लौकिक एवं अजमेर, प्रतापगढ, दिल्ली आदि स्थानो के जैन शास्त्रा. पारलौकिक जीवन का अभ्युदयकारक होने से पूर्णत: मत्य गारों में भी उन्क माहित्य की अनेको प्रतिया मिल जाती शिव पौर सुन्दर से प्रोत-प्रोत है। वस्तुतः ब्रह्म जिनदास है। इसमे कवि की प्रसिद्धि एव उसके साहित्य की लोक. की हिन्दी साहित्य को उल्लेखनीय देन है । वे अपने युग के प्रियता का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। प्रतिनिधि कवि है। भक्तिकालीन सत साहित्य में वे सर्वोपरि ब्रह्म जिनदास उन विरले सौभाग्यशाली सन्त महा गणनीय हैं । भाव, भाषा, वस्तु-विधान प्रादि सभी दृष्टियों कवियों में थे, जिन्हे अपने समय में ही प्रसिद्धि मिल जाती से उनका काम्व-सजन उल्लेखनीय है । हिन्दी वाङ्मय की है। उन्होंने अपने काव्यों की रचना के लिए अपने समय अतुलनीय सेवा की दृष्टि से हिन्दी साहित्य-संसार सदा की लोक प्रचलित हिन्दी-भाषा को माध्यम चुना। इससे सर्वदा महाकवि ब्रह्म जिनदास का कृतज्ञ रहेगा। जन-सामान्य को बौद्धिक खुराक मिली। सम-सामयिक राजकीय संस्कृत महाविद्यालय, मनोहरपुर (जयपुर) Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन देवकुल में यक्षी चक्रेश्वरी D. मारुतिनन्दन प्रसाद तिवारी, वाराणसी हिन्दू एवं बौद्ध धमों के समान ही जैन धर्म भीभारत को शासनदेवता के रूप में नियुक्त किया था। जैन ग्रंथ का एक प्रमुख घर्म रहा है। जैन धर्म का पस्तित्व लगभग हरिवंश पुराण (८वी शती) के ६६वे सर्ग मे स्पष्ट पाठवी शती ई० पू० में २३वें तीर्थकर पार्श्वनाथ के समय उल्लेख है कि २४ जिनो के निकट रहकर उनकी सेवा में स्वीकार किया जाता है। कुछ विद्वान् सिन्धु सभ्यता करने वाले शासन देवता मज्जनों का हित और शुभ कार्यों (लगभग ३००० ई० पू०) मे जैन धर्म का अस्तित्व -- की विघ्नकारी शक्तियो, ग्रह, नाग, भूत, पिशाच, राक्षस --- प्रतिपादित करते हैं, जिसे निर्णायक प्रमाणों के अभाव मे को शान्त करते हैं । यक्ष-यक्षी युगलों को जिन मूर्तियो के स्वीकार नही किया जा सकता। जैन देवतुल म २४ मिहामन या मामान्य पीठिका के दाहने और बायें छोरो तीर्थकों (या जिनो) को सर्वोच्च महत्ता प्रदान की गई। पर निरुपित किया गया है। लगभग नवी शती ई० से इन्हें देवाधिदेव कहा गया। जैन देवकुल के अन्य सभी यक्ष एवं यक्षी की स्वतन्त्र मूर्तियाँ प्राप्त होने लगती है। देवतानों को किसी न किसी रूप मे जिनो से। चक्रेश्वरी (या अप्रतिचक्रा) प्रथम जिन प्रादिनाथ उनके सहायक के रूप मे संबद्ध किया गया । छठी से दसवी (या ऋषभनाथ) को यक्षी है । चक्रेश्वरी जैन देवकुल की पाती ई. के मध्य तांत्रिक प्रभाव के फलस्वरूप सभी धर्मों चार सर्वाधिक लोकप्रिय यक्षियो में एक है। अन्य यक्षियां में नवीन देवतामों को सम्मिलित कर देवकुल का विस्तार प्रबिका, पदमावती और मिद्धायिका है, जो क्रमशः २२वें, किया गया। जैन देठ कूल में वृद्धि की यह प्रत्रिया छठी शती २३वें एव २४वें तीर्थंकरो नेमिनाथ, पाश्वनाथ एवं महाई. में प्रारम्भ हुई और तेरहवी-चौदहवी शती ई. तक वीर की यक्षिया है। जैन चक्रेश्वरी के स्वरूप पर विष्ण चलती रही। छठी शती ई. मे जिनों के साथ उपासक की शक्ति वैष्णवी (या चक्रेश्वरी) का स्पष्ट परिलक्षित देवताओं के रूप में यक्ष-यक्षी सुगलों को सश्लिष्ट किया होता है । जैन लाक्षणिक प्रथो में यह प्रभाव देवी के गया, जिनकी उपासना से मनुष्य अपनी भौतिक प्राका- गरुड़वाहन एवं भुजा मे चक्र के प्रदर्शन के सन्दर्भ मे देखा क्षानों की पूर्ति कर सकता था। उल्लेखनीय है कि वीत- जा सकता है ।' रागी जिनों की उपासना से सांसारिक सुख-समृद्धि की परन्तु मूर्त कनों में यह प्रभाव गरुड़वाहन और प्राप्ति संभव नहीं थी। भजामों में चक्र के अतिरिक्त, शंख और गदा के प्रदर्शन पाठवी-नवीं शती ई० में, श्वेताम्बर एवं दिगम्बर के सन्दर्भ में भी प्राप्त होता है। हिन्दू देवी वैष्णवी के परम्परा के ग्रन्थों में प्रत्येक जिन के साथ एक स्वतन्त्र लाक्ष- प्रभाव का स्पष्ट सकेत कुमारिया (गुजरात) के महावीर णिक स्वरूपों का निर्धारण दसवी-ग्यारवी शती ई० यक्ष-यक्षी जैन मन्दिर की छत पर उत्कीर्ण चक्रेश्वरी की मति मे युगल की कल्पना की गई। इन यक्ष-यक्षी युगलों मे स्वतन्त्र देखा जा सकता है । मूर्ति लेख मे जैन यक्षी को 'वैष्णवी' में दृमा । यक्ष यक्षी युगल जिनो के चविध सघ के शामन देवी कहा गया है । विष्णुधर्मोत्तर पुराण, रूपमण्डन एव एव रक्षक देव होते हैं । जैन मान्यता के अनुसार केवल देवपुराण जैसे ब्राह्मण ग्रथो मे किरीटम कुट से शोभित ज्ञान प्राप्त होने के बाद सभी जिनो ने अपना प्रथम उपदेश गरुड़वाहन वैष्णवी की भुजामो मे शख, चक्र, गदा एव देवनिर्मित सभा (ममवमरण) में दिया था और उसी पद के प्रदर्शन का निर्देश दिया गया है। सभा में इन्द्र ने प्रत्येक जिन के साथ एक यक्ष-यक्षी युगल इमी प्रसग में यह उल्लेख मावश्यक है कि हिन्दू प्रभाव Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन देवकुल में यक्षी चक्रेश्वरी केवल जैन यक्षी चक्रेश्वरी के निरूपण तक ही सीमित नही किया गया है। चतुभुजा यक्षी की दो भुजामों में चक्र रहा है । २४ यक्ष एवं पक्षियों की सूची में से अधिकाश और प्रन्य दो में फल एवं वरदमुद्रा के प्रदर्शन का विधान के नामो एवं लाक्षणिक विशेषतामो को जैनो ने हिन्दू पौर है। द्वादशभुज यक्षी की पाठ भुजामों में चक्र, दो मे वज कुछ उदाहरणों मे बौद्ध देवों से ग्रहण किया था। हिन्दू देवकुल एवं अन्य दो मे फल एव वरदमुद्रा प्रदर्शित होगी। विष्णु, शिव, ब्रह्मा, इन्द्र, स्कन्द, काति कय, काली, गौरी वामे चक्रेश्वरी देवी स्थाप्यद्वादशसद्भजा। सरस्वती, चामुण्डा पोर बौद्ध देवकुल को तारा, वज्र. पत्ते हस्तद्वये बने चक्राणी च तथाष्टम् ।। शृखला, वज्रतारा एव वज्र कुशी के नामो पोर लाक्ष- एकेन बीजपूरं तु वरदा कमलासना । णिक विशेषताओं को जैन धर्म म ग्रहण किया गया। जैन चतुर्भुजायवाचक्र द्वयोर्गरुडवाहनं ॥ देवकुल के गरुड़, वरुण, कुमार यक्षो, और अम्बिका, -प्रतिष्ठासारसंग्रह : ५, १५-१६ । पद्मावती, ब्रह्माणी यक्षियों के नाम हिन्दू देवकुल से ग्रहण तात्रिक ग्रथो मे चक्रेश्वरी के भयावह स्वरूप का उल्लेख किये गए, पर उनकी लाक्षणिक विशेषताए स्वतन्त्र थी। है। ऐसे स्वरूप में तीन नेत्रो एवं भयकर दर्शनवाली यक्षी दूसरी पोर ब्रह्मा, ईश्वर, गोमुख, भृकुटि, पण्मुख, यक्षन्द्र, चक, पद्म, फल एव वज स युक्त है। दक्षिण भारतीय श्वेतापाताल, धरणेन्द्र, कुबेर यक्षो और चश्वरी, विजया, घर परम्पग में गरुडवाहमा चक्रेश्वरी का बादशभुज बताया निर्वाणी, काली, महाकाली, तारा, बज” खला याक्षया गया है, जबकि दिगम्बर परम्परा में यक्षी षोडशभुज के नाम एव लाक्षणिक विशेषतापा दोनो का हिन्दू दव- है। भजामो के प्रायुधो के सन्दर्भ में उत्तर भारतीय परकुल सग्रहण किया गया था । यक्ष-यक्षियों के अतिरिक्त म्परा का ही अनुकरण किया गया है। जैन देवकुल के गम. कृष्ण, बलराम, महाविद्या, मूर्त प्रकनो में चश्वरी सरस्वती, लक्ष्मी, गणेश, नैगमषिन्, भेरव एव क्षत्रपाल मूतं अंकनों में किरीटमुकुट से शोभित चक्रेश्वरी को पादि देवी का भा हिन्दू देवकुल सह। ग्रहण किया गया मदेव मानव रूप में उत्कीणं गरुड़ पर भारूढ़ प्रदर्शित था। किया गया है । यक्षी का भजामा में चक्र के साथ ही गदा प्रामाशास्त्रीय प्रथोर चक्रवरी और शख का नियमित चित्रण हुआ है। केवल उड़ीसा से निनाम्बर परम्परा म चक्रेश्वरी का प्रष्टभुज और प्राप्त चक्रेश्वरी मूर्तियो में गदा और शंख के स्थान पर दिगम्बर परम्परा में चतुभुज एव द्वादशभुज निरूपित खड्ग, खटक एवं वन का प्रदर्शन प्राप्त होता है। यक्षी की किया गया है । दोनो ही परमरामा म गरुड़वाहन क्र. एक भुजा से सामान्यतः वरदमुद्रा (या अभय मुद्रा) प्रदर्शित ३वरी के करो में चक्र एव पत्र के प्राशन का सन्दन म है। दवी अधिकाशतः एक पैर नीचे लटकाकर ललित मुद्रा समानता प्राप्त होती है । वेताम्बर अन्य निर्वाणकाला में प्रासीन है। तीर्थकर ऋषभनाथ की मूर्तियों के सिंहासन (१०वीं शता) क अनुमार यक्षी दक्षिण भुजामा म वरद- छोरो पर चक्रेश्वरी का प्रकन जहाँ पाठवी शती ई० मे मुद्रा, वाण, चक्र, पाश और वाम म धनुष, वज्र, चक्र, ही प्रारम्भ हो गया, वही यक्षी की स्वतन्त्र मूर्तिया नवीं अंकुश धारण करता है। शती ई० मे बनी। श्वेताम्बर स्थलो पर परम्परा के विप... 'प्रप्रतिचक्राभिधानां यक्षिणी रीत चक्रेश्वरी का केवल चतुर्भुज स्वरूप मे निरूपण ही हेमवर्णां गरुड़वाहनामष्टभुजां। लोकप्रिय रहा है। पर दिगम्बर स्थलो पर चक्रेश्वरी वरदवाणचक्रपाशयुक्तदक्षिणकगं की द्विभुज से विशतिमुज मूर्तिया बनी। चकेश्वरी की धनवंचक्राकुशवामहस्तां चेति ।।" मूर्तियो के विकास की दृष्टि से दिगम्बर स्थलो की मतियां ___-- निर्वाणलिका : १८१॥ महत्वपूर्ण रही है । राजस्थान एव गुजरात से श्वेताम्बर दिगम्बर ग्रंथ प्रतिष्ठाप्तारसंग्रह (१२वी शती) मे और अन्य क्षेत्रो से दिगम्बर परम्परा की मूर्तिया प्राप्त पश्वरा का चतुर्भुज एवं द्वादशभुज स्वरूपो म ध्यान होती हैं। दक्षिण भारत को मूतियो में गरुड़वाहन का Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६, बर्वे १२, कि० ३-४ अनेकाव चित्रण बहुत नियमित नहीं रहा है। साथ ही, भुजाबों में पोर शख से युक्त है । शख और गदा का प्रदर्शन भी दुर्लभ रहा है । इस क्षेत्र में देवगढ़ में चक्रेश्वरी का चतुर्भुज स्वरूप सर्वाधिक यक्षी की भुजामों में चक्र, वन एव पद्म के प्रदर्शन में लोकप्रिय रहा है । पर यक्षी को षड्भुज, प्रष्टभुज, दशभूज नियमितता प्राप्त होती है। एवं विशतिभुज स्वरूपों में भी अभिव्यक्त किया गया। चक्रेश्वरी को प्राचीनतम स्वतन्त्र मूर्ति उत्तर प्रदेश उल्लेखनीय है कि नवीं (८६२ ई.) से बारहवी शती के के ललितपुर जिले में स्थित देवगढ़ (दिगम्बर) के मंदिर मध्य की चक्रेश्वरी की सर्वाधिक स्वतन्त्र मतिया देवगढ़ १२ को भित्ति से प्राप्त होती है। ८६२ ई० मे निर्मित से ही प्राप्त हुई हैं। अधिकांश उदाहरणों में किरीटमकुट मन्दिर स० १२ (शान्तिनाथ मन्दिर) की भित्ति पर जैन से अलंकृत गरुड़वाहन यक्षी के हाथों में चक्र, शख एव देवकुल की सभी २४ यक्षियों का प्रकन प्राप्त होता है, गदा है। बहुमुजी मतियो मे चक्र, शख, गदा के अतिरिक्त जो २४ यक्षियों के सामहिक चित्रण का प्रारम्भिकतम खेटक, खड्ग, परशु एवं वज्र का प्रदर्शन लोकप्रिय रहा उदाहरण है । त्रिभग में खड़ी चतुर्भुज चक्रेश्वरी की सभी है ।चतुर्भुज यक्षी की द्विभग मे खड़ी एक मूर्ति मन्दिर भजात्रों में चक्र है । गरुड़वाहन दाहिने पार्श्व में नमस्कार १२ के प्रधंमण्डप के स्तम्भ पर उत्कीर्ण है । यक्षी के करो मुद्रा में खड़ा है। मतिलेख मे यक्षी का नाम 'चक्रेश्वरी' मे वरदमुद्रा, गदा, शंख एव चक्र प्रदर्शित है। षट मज उत्कीर्ण है । यक्षी के निरूपण में जैन देवकूल की पांचवी चक्रेश्वरी की एक मूति (११वी शती ई०) मदिर १२ महाविद्या प्रतिचक्रा के स्वरूप का अनुकरण किया गया की दक्षिणी चहारदोबारी पर उत्कीणं है। यक्षी वरदमुद्रा, है, जिसकी सभी भुजामों में चक्र के प्रदर्शन का विधान खड्ग, चक्र, चक्र, गदा एवं शंख से युक्त है। मष्टभुज रहा है । महाविद्या की धारणा यक्षी चक्रेश्वरी की अपेक्षा चक्रेश्वरी की तीन मूर्तियां है । ग्यारहवी शती को एक मति प्राचीन रही है। मन्दिर स०१ के मानस्तम्भ पर उत्कीर्ण है, जिसमे यक्षी प्रारम्भिक दसवी शती को दो प्रष्टभुज मूर्तिया की भुजाम्रो मे वरदमुद्रा, गदा, वाण, छल्ला, छल्ला, वज्र, मध्यप्रदेश के विदिशा जिले में स्थित ग्यारसपुर के माला- चाप एवं शख है मंदिर १४ की बारहवी शती ई० को देवी मन्दिर के शिखर पर उत्कीर्ण है। इनमे पक्षी के एक मूर्ति में तीन हाथो मे चक्र और शेष मे दण्ड, खडग, प्रवशिष्ट करो मे छल्ला, वज्र, चक्र, चक्र, चक्र और शंख अभयमुद्रा, परशु एव शख प्रदर्शित है । प्रदर्शित है । दसवी गती को एक दशभुजा चक्रेश्वरी मति दशभुजा यक्षी को एक मूर्ति मन्दिर ११ के समक्ष पुरातात्विक संग्रहालय, मथुरा (क्रमाक.०० डी-६) मे के मानस्तम्भ (१०५६ ई.) पर उत्कोण है ! यक्षी वरदसुरक्षित है। पद्मासन पर समभग मे खड़ी यक्षी की नो मृद्रा, वाण, गदा, खड्ग चक्र, चक्र, खेटक, वज्र, धनुष एव सुरक्षित मजामों मे चक्रस्थित है। दो सेविकाग्रो से सेवित शख से युक्त है। वितिमुज चक्रेश्वरी को ग्यारहवी शती देवी के शीर्षभाग मे लघु जिन प्राकृति उत्कीर्ण है । दिगबर की तीन मतिया प्राप्त होती है, जिनमें से दो स्थानीय स्थल खजुराहो (छतरपुर, मध्य प्रदेश) से यक्षी की दसवी साह जन संग्रहालय में सुरक्षित है। साहू जैन संग्रहालय से बारहवी शती के मध्य चार से दस भुजाम्रो वाली कई की एक विशिष्ट मूर्ति मे चक्रेश्वरी के साथ दो उपासको, मतिया मिली है। यहा की चतुर्भुज मूर्तियों में गदा, चक्र, चामरचारिणी सेविकामो, पप धारण करने वाली पुरुष शंख और प्रभयमुदा (या पध) प्रदर्शित है । घण्ट ई मन्दिर प्राकृतियो, उड्डीयमान मालाघरो एवं ऊपर की भोर (१०वी शती) के प्रवेश द्वार पर चक्रेश्वरी की मष्टभुज जैन यक्षी पथावती और सरस्वती को भी मामतित किया मति निरूपित है। यक्षी के हाथों में फल, घण्ट, चक्र, गया है। चक्रेश्वरी की केवल सात ही भुजाए सुरक्षित है, चक्र, चक्र, चक्र, धनुष एवं कलश है। पार्श्वनाथ मन्दिर जिन में चार मे चक्र पोर पन्य में वरदाक्ष, खेटक भौर शख (८५४ ई.) के प्रवेश द्वार की मूर्ति मे दशभुजा यक्षी प्रदर्शित है। संग्रहालय की दूसरी मूर्ति मे चामरघारिणी बरद, खड्ग, गदा, चक्र, पप, चक्र, धनुष, फलक, गदा सेविकामों एवं उड्डीयमान मालाधरों से युक्त चक्रेश्वरी Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन देवकुलमें यक्षी चक्रेश्वरी ७७ की सभी भुजाए सुरक्षित है। देवी की छह भुजामों में बारहवीं शती की एक चतुर्भुज मूर्ति कर्नाटक की कम्बड़ चक्र एव अन्य में शृखला से युक्त घण्ट, खेटक, वन, पहाड़ी स्थित शातिनाथ बस्ती के नवरग से मिली है। खड्ग, तूणीर, मुद्गर, गदा, व्याख्यान मुद्रा-अक्षमाला, गरुड़वाहना यक्षी ने अभयमुद्रा, चक्र, चक्र एव पद्म धारण परशु दण्ड, शख, घनुप, मर्प एवं शूल प्रदर्शित है। देवा किया है। होयसल कालीन एक षट्भुज मूति कर्नाटक के के शीपंभाग में तीन जिन मूर्तियां निरूपित है। बहुमुजी जिननाथपुर स्थित जैन मन्दिर को दक्षिणी भित्ति पर चक्रेश्वरी को ग्यारहवीं शती को एक मनोजमूर्ति मध्य है। यक्षी के करो मे वरमुदद्रा, वन, चक्र, चक्र, वन एवं प्रदेश के गोलकोट नामक स्थल से प्राप्त होती है। पद्य प्रदर्शित हैं। बम्बई के सेण्ट जावियर कालेज के उड़ीसा को खण्डगिरि पहाड़ी (पुरी जिला) को नवमुनि गुफा में ग्यारहवी शती की दमभुजा चक्रेश्वरी को इण्डियन हिस्टारिकल रिसर्च इन्स्टीटयूट सग्रहालय में एक मूर्ति है। जटामकुट से शोभित गरुड़वाहना यक्षो सुरक्षित ऋषभमूर्ति में चकेश्वरी द्वादशभुज है। त्रिभंग में योगासन मुद्रा में दोनो पर मोडकर बैठा है। चक्रेश्वरी खड़ी यक्षो की पाठ भुजामों में चक्र, दो मे वज्र एव एक के मात हाथो में चक्र, दो में खेटक, अक्षमाला एव एक में पत्र प्रदर्शित हैं । एक भुजा खण्डित है। द्वादशभुज चहाथ योगमुद्रा में गोद में स्थित है। उड़ीसा को खण्डगिरि श्वरी की एक अन्य मूर्ति एलोरा (महाराष्ट्र) को गफा पहाडी को वारभुजो गुफा मेद्वादशभुज चक्रेश्वरी की एक ३० में देखी जा सकती है। गरुड़वाहना चक्रेश्वरी के पाच मति है । गरुड़वाहना देवी की छह दक्षिणभुजाओ मे वरद- अवशिष्ट दक्षिण करो में पद्म, चक्र, शंख, चक्र एव गदा मुद्रा, वज्र, चक्र, चक्र, अक्षमाला एवं खड्ग है, और तान प्रदर्शित है। यक्षी की केवल एक ही वामभजा सुरवाममजामो मे खेटक, एवं सनाल पद्य है और तीन भुजाएं क्षित है, जिसमे खड्ग स्थित है। खण्डित है। 000 पश्चिम भारत के किसी स्थल से प्राप्त लगभग दसवी डो-५१/१६४बी, सूरजकुण्ड, वाराणसी-२२१००१(उ० प्र०) शती को एक अष्टभ ज मति राष्ट्रीय संग्रहालय, दिल्ली (क्रमाक ६७-१५२) मे सुरक्षित है। गरुड़वाहना यक्षी सन्दर्भ सूची की ऊपर की छह भुजाम्रो म चक्र और अन्य दो मे वरद १. शाह, यू। पी.---भाइकानोग्राफी माफ चक्रेश्वरी, दि मुद्रा एवं फल प्रदशित है। कुभारिया (बनासकाठा, यक्षा प्राफ ऋषभनाथ, जनल प्राफ दि मोरिएण्टल गुजरात) के शातिनाथ एवं गहावीर मन्दिरो (११वी इन्स्टीट्यूट माफ बड़ोदा, ख० २०, अ०३, मार्च शती) की छतो पर उत्कीण ऋषभनाथ के जीवन दृश्यों में भी चतु। वक्रटरी निरूपित है। शान्तिनाथ मन्दिर १९७१, पृ० २८०-३११ । के उदाहरण म यक्षी वरदमुद्रा, चक्र, चक्र एव शख से युक्त २. तिवारी' मारुतिनन्दन प्रसाद, दि प्राहकानोग्राफी है। महावीर मन्दिर के उदाहरण में "वैष्णवो देवी" के पाफ दि जैन यक्षी पश्वरा', श्रमण (वाराणसी), वर्ष नाम से सम्बोधित यक्षी के करो में वरदमुद्रा, गदा, २७, अ० १०, अगस्त १९७५, पृ० २४.३३ । सनालपन एवं शंख प्रशित है। गजरात एवं राजस्थान ३. शर्मा, बजेन्द्रनाथ -'मन्पब्लिश्ड जैन ब्रोन्जेज इन दि के श्वेताम्बर स्थलो की चक्रेश्वरी मति के सन्दर्भ में एक नेशनल म्यूजियम', जर्नल पाफ दि मोरियन्टल इन्स्टी. प्रमुख बात यह है कि इस स्थलो पर यक्षो चक्र खरी पोर ट्यूट, बड़ोदा, ख० १६, म० ३, मार्च १६७०, पाचवी महाविद्या अप्रतिचका के निरूपण में अत्यधिक पृ० २७५-७६ । समानता प्राप्त होती है। इस कारण कभी-कभी यह निश्चित करना कठिन हा जाता है कि मूर्ति यक्षो की है ४. गुप्ता, एस० पी० तथा शर्मा, बी०एन० --"गघावल, या महाविद्या की। यद्यपि लाक्षणिक ग्रंथों में दोनों के पोर जैन मतियां,' मनेकांत, खं० १६, अक १-२, लिए स्वतन्त्र विशेपताए वणित है, पर मूर्त अभिव्यक्तियो अप्रैल-जून १९६६, पृ० १३० । में उनका निर्वाह नही किया गया । ५. मित्रा, देबला-शासन देवीज इन दि खण्डगिरि दक्षिण भारत में यक्षो का चतुर्भुज, पद्मन, प्रष्ट भज केन्स', जर्नल माफ दि एशियाटिक सोसायटी, ख. एवं द्वादशभुज स्वरूपा मे निरूपण हा है। ग्यारहवी. १,०२, १९५६, पृ० १२७-३३ । Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भानपुरा संग्रहालय की जैन यक्ष-यक्षिणी प्रतिमाएँ 0 श्री रवीन्द्र भारद्वाज, एम. ए., उज्जैन मदसौर जिले को भानपुरा तहसील अपने अन्दर के निचले भाग में सात प्रश्वारोही दर्शाये गये हैं। प्राचीन शिल्प वैभव को समेटे हुए है। एक अन्य अम्बिका की प्रतिमा हिंग्लाजगढ़ से प्राप्त परमारों से राज्य में जिन छोटे-छोटे मोर पांचालक हुई है। यह भानपुरा सग्रहालय की शिल्प कृतियों में से महत्त्व के कलाकेन्द्रो का विकास हुअा, उनमे मोड़ी एव एक है । हिंग्लाजगढ़ का विशिष्ट स्थान है। मोडी तो भानपुरा से इस क्षेत्र की प्राचलिक शिल्प विशेषता यह रही है कि १२ कि. मी० पश्चिम में स्थित था और हिग्लाजगढ २२ प्रतिमाएं लघु स्तम्भो से निर्मित रधिका में बनाई गई है। कि. मी. की दूरी पर उत्तर पश्चिम में । यहाँ पश्चिमी अम्बिका की प्रतिमा भी रथिका में स्थित है जो कि लघुमालवा शैली विकसित एवं परिष्कृत हुई। स्तम्भो के द्वारा निर्मित है। कार कलात्मक चत्य परमार काल में शैव एव वैष्णव सम्प्रदायों के प्रतिरिक्त अलकरण है। यहाँ जैन धर्म का भी व्यापक प्रसार या । इस क्षेत्र के किरीट मुकुटधारिणी अम्बिका मयललितासन में परमार कालीन सधारा', केथली', कवना' और नीमथर अामनक है। दाहिना हान पाम्रलुम्बि युक्त तथा वाम के जैन मन्दिर इसके प्रमाण है। शिशु को सहाग दिय है। अन्य ब्राह्मण प्रतिमानों के परमारी के समय की प्राचीनतम अभिलिखित जैन सदृश ही पम्बिका की मुखाकृति गालाई लिए सौम्य मद्रा यक्षिणी अच्युता को प्रतिमा सवत् १०७५ (१०१८ ई.) में है। उभरी हुई छुट्टो तथा पलको के अंकन में नुकीलायही हिंगलाजगढ़ से प्राप्त हुई है।' पन है। प्रतिमा के प्रोठ, वक्षस्थल तथा कटिप्रवेश के अकन में सुरुचिपूर्ण मृदुता, लावण्य और मांसलता है। भानपुरा पुरातत्त्व संग्रहालय म यहा की जैन-मूर्तिशिल्प धरोहर सुरक्षित है। पुरातत्त्व सग्राहलय में हिंग उन्नन और कठिन पयाघर पर कूचबन्धो का पालेखन लाजगढ को यक्ष-यक्षिणी प्रतिमाएँ परमारकाल की कला किया गया है। प्रतिमा का अनकरण दृष्टव्य है----किरोट का पूर्ण प्रतिनिधित्व करता है। मुकुट, कुण्डल, ग्रंवेयक, स्तन पर मणिमाला, स्तनो के इनमें प्रमुख है परमारकालीन गोमेव यक्ष एव मध्य झलता हिक्कामूत्र, स्कन्धमाला, कयूर, कटिसूत्र तथा अम्बिका की मूर्ति, जो कि भद्रपीठ पर प्रासनस्थ है। इस मेखला और पर नपुगे से अलकृत है। प्रतिमा के ऊपरी प्रतिमा का माकार-ऊंचाई ८२ से० मा०, चौड़ाई ४६ भाग मे 'पासनक नीर्थकर' प्रतिमा है। प्राम्र वृक्ष का से० मी० तथा मोटाई ८ से. मा०है। गामेब यक्ष तथा प्रभामण्डल और नीचे अम्बिका का वाहन सिंह का अकन अम्बिका क्रमश: वाम तथा सव्यललितासन म है। प्रतिमा है। यह प्रतिमा लाल सिकताश्म की बनी है। का प्रभामण्डल भाम्रवृक्ष का तथा नीचे इनका वाहन इस प्रकार, भानपुरा क्षेत्र परमारकालीन जैन शिल्प सिंह का अकन है। प्रतिमा के ऊपर पासनक मद्राम की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। Gon पार्श्वनाथ (?) तथा दोनो भोर स्थानक तीर्थकर है । पुरातत्त्व विभाग, विक्रम प्रतिमा के पाश्व मे चॅवरधारी पुरुष का अकन है। प्रतिमा विश्वविद्यालय, उज्जैन (म०प्र०) १. श्री गर्ग, प्रार. एस.-मोड़ी-मण्डल का शिल्प वैभव- ४. वही, पृ.८३ (प्रोग्रेसिव रिपोर्ट माफ मार्केलाजिकल सर्वे, वेस्टर्न ५ भारद्वाज, रवीन्द्र, भानपुरा का अप्रकाशित जैन शिल्प, सकिल-वर्ष १९२०)। वोरवाणी, वर्ष ३१, अक ६, पृ० १४६ । २. PRAS. WC,. P. ८८-६१ ६. श्रीगर्ग-मोड़ी-मण्डल का शिल्पवैभव-टंकितप्रति३. वही, पृ. ६२ प्रकाशनाधीन । Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामगुप्त और जैन धर्म 0 डा. सोहनकृष्ण पुरोहित, जोधपुर गुप्तवंशी नरेशों के अभिलेखों से ज्ञात होता है कि रामगुप्त की मुद्राएं विदिशा, एरिकिणप्रदेश (पूर्वीसमुद्रगप्त का उत्तराधिकारी उसका द्वितीय पुत्र द्वितीय मालवा) से प्राप्त हुई है। डा० के० डी० वाजपेयी ने चन्द्रगुप्त बना'। परन्तु विशाखदत्त द्वारा रचित 'देवी इन मुद्रात्रों को चार प्रकारो मे विभाजित किया है, जो चन्द्रगुप्तम्" नाटक के उपलब्ध अंशो, बाण के 'हर्षचरित" इस प्रकार हैं- सिंह, गरुड, गरुड़ध्वज और बार्डर राजशेम्वर की 'काव्यमीमांसा" तथा एक मुस्लिम कृति लिजेण्ड । इन मुद्रामो पर गरुड़ध्वज का अंकन उसे मजमल-उत तवारीख' प्रादि साहित्यिक साधनों एवं राष्ट्र गुप्तवंशीय नरेश प्रमाणित करता है। उसके अभिलेख कटों के संजन', केम्बे तथा सांगली दानपत्रो के सम्मिलित विदिशा के निकट दुर्जनपुर ग्राम से प्राप्त हुए है। ये जैन साक्ष्यो से संकेतित है कि समुद्रगुप्त की मृत्यु के पश्चात् मूर्ति अभिलेख है जिनकी स्थापना रामगुप्त ने करवाई उसका ज्येष्ठ पुत्र रामगुप्त उत्तराधिकारी बना, जिसके थी। प्रथम एवं तृतीय अभिलेख" के अनुसार, रामगुप्त ने अनुज द्वितीय चन्द्रगुप्त ने उसे मारकर सिंहासन पर । चेनुक्षमण नामक प्राचार्य के उपदेशानुसार चन्द्रप्रभ नामक अहत की प्रतिमा स्थापित करवाई थी। द्वितीय लेख के अधिकार कर लिया था । उपयंक्त माक्ष्यानुसार गरगुप्त अनुमार, उमने पृष्पदन्त नामक प्रहंत की मूर्ति का निर्माण एक कायर एवं कुल के लिए कलक तुल्य था । शक नरेश कराया था। द्वारा घेर लिए जाने पर उसने अपनी पत्नी ध्रव देवी का हमार मान्यता है कि गुप्तवशीय नरेश होने के कारण शकाधिपति को देना स्वीकार कर लिया था। लेकिन उसने मद्रामो पर गरुड का अंकन जारी रखा। लेकिन द्वितीय चन्द्रगुप्त ने शकाधिपति को धोखे से मारकर वास्तव में रामगुप्त का झकाव जैन धर्म की पोर था सम्राज्ञी और साम्राज्य का सम्मान बढ़ाया। बाद मे जिसका प्रमण उसके जैन प्रतिमालेख है। विशाखदत्त अवसर पाकर रामगुप्त की भी हत्या करके मिहामन पर। उसे कायर कहकर पुकारता है। लेकिन हम विशादत्त के अधिकार और ध्रव देवी से विवाह कर लिया। ये घट विचारो मे सहमत नही है। हमारी धारणा है कि शकाधिनाएं ऐतिहासिक हैं अथवा नहीं, इस विषय पर करीब पति ने जब रामगुप्त पर प्राक्रमण किया, उस समय उसने पिछले पचास वर्षों से बड़ा विवाद चला पा रहा है। (रामगुप्त ने) कायरता के कारण ध्रुवदेवी को देना स्वीकार परन्तु पिछले कुछ वर्षों मे रामगुप्त की गद्राएं और अभि किया था। अपितु रामगुप्त एक कट्टर जैन धर्मावलम्बी लेख प्रकाश मे मा जाने से उगकी ऐतिहासिकता प्रमाणित कट्टर नरेश था। इसलिए उसने सोचा कि यदि शकाधिपति हो गई है। से युद्ध किया जायेगा तो युद्ध मे सैकड़ों व्यक्ति मारे जायेगे। १. भीतरी स्तम्भ लेख । चतुर्थ पक्ति-सप्प सेनलक्ष्मण शिष्यस्य गोलक्या२. गुप्त, परमेश्वरीलाल-गुप्त साम्राज्य, पृ० १९३-१३० त्यासत्पुत्रस्य चेलुक्षमणस्येति । ३. वही, प०१३८ । ४. वही। १०. प्रथम पक्ति-- भगवतोऽहंतः (चन्द्रप्रभ) स्य प्रतिमेय ५ इलियट, डाउमन-हिस्टरी ग्राफ इण्डिया एज टोल्ड कारिता महा (राजा) धिराराज - बाइ इट्स प्रोन हिस्टोरियन्म, १, १० ११० । द्वितीय पक्ति--श्री (रामगुप्ते)न उ(पदेशात्) ६. ए० इ०४, पृ० २५७, ए० इ० १७, पृ० २४८ । (पा) णि (पात्रि)... ७ ज० न्यू० सो० इ० १२, पृ० १०३, १३, पृ० १२८ तृतीय पंक्ति चतुर्थ पंक्ति .. ८. जनल ग्राफ इण्डियन हिस्टरी, ४२, पृ० ३८६। ११. (१) भगवतोऽहंतः । पुष्पबन्तस्य प्रतिमेयं कारिता। ६. प्रथम पक्ति ---भगवतोऽहंतः। चन्द्रप्रभस्य प्रतिमेय महाराजाधिराज श्री रामगुप्ते उपदेशात् कारिता। पाणिपात्रिक। द्वितीय पंक्ति--महाराजाधिराज, श्री रामगुप्तेन, (३) चन्द्रक्षम (णा) चार्य-(क्षमण)-श्रमण प्रशि उपदेशात् पाणिया (व्यस्य) तृतीय पक्ति-त्रिक चन्द्रक्षमाचार्य क्षमण-श्रमणप्रशिष्याचायं १२. ज. न्यू० सो० इ०२३, १० ३३१.४३ । Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फुलान की अप्रकाशित जैन प्रतिमाएं डा. सुरेन्द्र कुमार मार्य, उज्जैन उज्जन से :२ विलो मीटर परिचम दिशा में नागदा- ४ फुट ५ इंच चौड़ा है। पादपीठ पर संवत ११७८ इदोर बस मार्ग पर फुलान ग्राम स्थित है। यह उज्जैन का शिलालेख है । लेख की ४ पंक्तियां हैं पर इतना भग्न जिल की बड़नगर तहसील में आता है। यहां पर वित्रम है कि केवल संवत ११७८ ही पढ़ा जा सकता है। पादविश्वविद्यालय, उज्जन व मध्य प्रदेश राज्य-पुरातत्व विभाग पीठ पर शेर बना हुआ है । अतः शेर वाहन वाली यह के संयुक्त तत्वावधान में पुरातात्विक सर्वेक्षण किया गया है। महावीर प्रतिमा हो सकती है। यह सर्वेक्षण दंगवाड़ा-उत्खनन वर्ष १९७६ के कार्य का ही एक अन्य खंडित प्रतिमा हनुमान मन्दिर के पास एक अंग था। डा.वि. श्री वाकणकर के मार्गदर्शन में प्रोटले पर रखी हुई है जो पार्श्वनाथ की खड़गासन में है यह सर्वेक्षण किया यगा था: नरसिंगा ग्राम से २ कि. मी. और निश्चय ही १०वी शताब्दी के शिल्प में निर्मित है। पूर्व की ओर फलान ग्राम स्थित है। यहा पर मौर्यकाल, तीसरी प्रतिमा माताजो के पोरले (चबूतरे) पर शक युग व गुप्तकाल व शेष मिलते हैं और टीले पर बसा ही हर्ट है । इसमें जन देवी पद्मावती गरुड़वाहन पर हुना जो प्राचीन ग्राम का स्थान है, वह अब उजाड़ है। प्रासीन है व ऊपर तीर्थकर प्रतिमा पद्मासन में है। देवइस टीले पर सर्वेक्षण के दौरान तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व गण, रक्ष, किन्नर व वाद्यवृन्द हर्ष से पुष्प वर्षा कर रहे की ताम्र पाहत मद्राएं मिली है। साथ ही जीवदामन व हैं। रद्रदायन की व ताम्र : मुद्राएं मिली है। यह एक सम्पन्न चौथी व पाचवी तीर्थकर प्रतिमाये भग्न है व केवल स्थल था जहां पर मौर्य यग से शक काल तक पर्याप्त पादपीठ ही शेष है । एक अन्य प्रतिमा पर चरणचिह्न ही जनावास था। यही पर जन प्रतिभाए मिली है जिनका शेष है और सब भग्न है । फलान ग्राम में यह जन प्रतिभायें विवरण निम्नलिखित है : स्पष्ट करती है कि यहा पर परमार काल में कोई विशाल ग्राम को घेता हुमा एक भेरू है, नाला उसके किनारे पर देवालय रहा होगा। परमार काल की एक तीर्थक र प्रतिमा मिली है जिसका शीर्ष २२, भक्त नगर, दशहरा मैदान, भग्न है। प्रतिमा पद्मासन में है और प्राकार ६ फुट ऊंचा उज्जैन-४५६००१ 000 (पृष्ठ ७६ का शेषांश) जबकि जैनधर्मानुसार हिंसा को परमधर्म माना गया इसमे जैन धर्मावलम्बी अबिवर्ष ने राममुग्न की पालोचना है इसलिए रामगुप्त ने हिंसा से बचने हेतु अथवा यू कहिए न करके उसके स्थान पर द्वितीय चन्द्रगुप्त के प्रति घृणा कि जैन धर्म के सिद्धान्तों की रक्षा हेतु अपनी पत्नी ध्रुव प्रकट की है । यहाँ हम डा० उदगनारायण राय के मत से देवी को शकाधिपति को देना स्वीकार किया था। अतः पूर्णतया सहमत है कि जिस प्रकार उत्तरकाल मे बुद्धगुप्त, हमे रामगुप्त को एक कायर नरेश नही अपितु कट्टर जैन बालादिस्य एव वज्र प्रादि नरेशो ने बौद्धधर्म का अनुसरण धर्मावलम्बी नरेश के रूप में स्वीकार करना चाहिए। किया उसी भाति पूर्वकाल में समुद्रगुप्त के उत्तराधिकारी रामगुप्त के जैन होने की पुष्टि का सूक्ष्म संकेत राष्ट्रकूट रामगुप्त ने जैनधर्म का अवलम्बन कर लिया था।" नरेश अमोघवर्ष के सजन ताम्रपत्र में भी मिलता है। इतिहास विभाग, जोधपुर विश्वविद्यालय, जोधपुर(राज.) 000 १३. गुप्त, पूर्वो० पु. ४६ । १४. राम, उदयनारायण-गुप्त सम्राट् और उनका काल, पृ० १७८ । Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण संस्कृति की प्राचीनता : पुरातत्व और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में डा. प्रेमचन्द जैन, एम ए., पी-एच डी. जैन, दर्शनाचार्य, जयपुर किसी धर्म की श्रेष्ठता उसकी प्राचीनता अथवा मानकर प्रत्येक वस्तु के इतिहास को पीछे की ओर उसके अर्वाचीनता पर अनिवार्यतः निर्भर नहीं होती, किन्तु यदि उदगम स्थान या उदय काल तक खोजते चला जाना है। कोई धार्मिक परम्परा प्राचीन होने के साथ-साथ मुदीर्घ तथ्य प्रमाणसिद्ध होते जाते है और प्रतीत में जितनी काल पर्यन्त मजीव. सक्रिप, प्रेरक एवं प्रगतिवान् बनी दूः तक निश्चित रूप से ले जाते प्रतीत होते है वही रहती है और लोक की उन्नति, नैतिक वृद्धि तथा सास्कृ.उ.का अथवा उनकी ऐतिहासिकता का ग्रादिकाल निश्चित तिक समृद्धि मे प्रबल प्रेरक एव सहायक सिद्ध हुई होती है क दिया जाता है। प्रब जन-संस्कृति को प्रापेक्षिक तो उसकी वह प्राचीनता जितनी अधिक होती है वह प्रावीनता के कतिपय प्रमुख प्रमाण प्रस्तुत किये जाते है। उतनी ही अधिक उम धर्म के स्थायी महन्त्र एवं ? 'मोहनजोदड़ो और हडप्पा" के अवशेषों से पुरातत्व. निहित सर्वकालीन एव सार्वभौमिक तत्वो की सूचक होती वेतानों ने यह सिद्ध कर दिया है कि पार्यो के कथित है। इसके अतिरिक्त किसी भी सस्कृति के उद्भव भारत प्रागमन के पूर्व यहा एक समृद्ध सस्कृति और एवं विकास का सम्यक ज्ञान प्राप्त करने तथा उसकी सभ्यता थी। उस मंस्कृति के मानने वाले मानव सुसभ्य, देनो का उचित मूल्यांकन करने के लिए भी उसकी सुसस्कृत और कनाविद् ही नहीं थे अपितु प्रात्मविद्या के अाधारभूत धार्मिक परम्परा की प्राचीनता का अन्वेषण भी प्रकाण्ड पण्डित थे। पुरातत्वविदो के अनुसार जो आवश्यक हो जाता है। अवशेष मिले है उनका सीधा सम्बन्ध जैन सस्कृति से है। प्रश्न किया जा सकता है कि जैन संस्कृति की प्राची. मग मूलर, मकडानल तथा अन्य पाश्चात्य विद्वानों नता मे शका करने की अथवा उस अत्यन्त प्राचीन मिद्ध की गवेषणायो ने यह तो सर्वसम्मत रूप से प्रमाणित करने की आवश्यकता ही क्यो हुई? स्वयं जैनो की कर दिया है कि किमी युग मे उतरी क्षेत्रो से बहुत बड़ी परम्परा अनुश्रुति तो सुदूर अतीत मे, जब से भी वह संख्या में प्रार्य लोग भारतवर्ष में पाये। उनकी अपनी मिलनी प्रारम्भ होती है निर्विवाद एव सहजरूप मे उसे एक व्यवस्थित सभ्यता थी। सर्वप्राचीन संस्कृति मानती ही चली पाती है और बौद्ध वैदिक-साहित्य से भी यह तथ्य प्रगट होता है कि अनुश्रुतिया ही नही ब्राह्मणीय अनुश्रुतिया भी अत्यन्त वैदिक आर्य-गण लघ एशिया और मध्य एशिया देशों से प्राचीन काल से जैन धर्म को स्वतन्त्र सत्ता स्वीकार करती होते हुए श्रेता युग के प्रादि में इलावत और उत्तर पश्चिम चली पाती हैं । अतएव जैन संस्कृति की प्राचीनता सिद्ध के द्वार से पजाब में पाये। उम गमय के पूर्व से ही द्रविड़ करने की कोई आवश्यकता नही है किन्तु अाधुनिक लोग गधार से विदेह तक तथा पाचाल से दक्षिण मध्यप्राच्यविदो एवं इतिहासकारों ने जब भारतीय इति- देश तफ अनेक वर्गों में विभक्त होकर निवास कर रहे थे। हास, समाज, धर्म, संस्कृति, साहित्य, कला आदि का इनकी गम्यता पूर्ण विकसित थी । इनका लोकिक अध्ययन प्रारम्भ किया तो उन्होंने उस प्राधुनिक ऐति- जीवन भी पूर्णतः सुव्यवस्थित था। कृषि, पशुपालन, हासिक पद्धति को अपनाया जिस में वर्तमान को स्थिर वाणिज्य एवं शिल्प कला इनके जीवन के मुख्य सापन थे। Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२, वर्ष ३१, कि० ३-४ अनेकान्त जहाजों द्वारा समूद्री भागो से लघु एशिया तथा उत्तर- मन्त्र २।६३७ मे इन्द्र को 'पुरन्दर' और कृष्ण योनिदासों पूर्वी अफ्रीका के देशो के साथ व्यापार न ते थे। की सेनामो को नष्ट करने वाला कहा गया है। मन्त्र डा. कीथ ने यपनी पुस्तक में लिखा कि "ऋग्वेद ११४८ मे 'गृह' नामक अनार्य राजा के एक सौ पुत्रो को मे जिस धर्म का उल्लेख है वह पार्यों का नही किन्तु भारत 'ऋजिश्ला' द्वारा भेदन करने का वर्णन तब पाया है जब के आदिवासियों का अनुमानन द्राविड़ों का है।" ये स्पष्ट कि कृष्णवर्ण वान दासो' पर उसने चढ़ाई की थी। रूप से भारत के प्राचीन निवासी है। यहा के निवासियो मे ऋग्वेद में अनेक स्थानो पर वर्णन किया गया है कि इनकी प्रधानता है। पर्वत निवामी 'दास' के द्वारा सेनापति शम्बर के पुरो डा. रेगोजिन (वैदिक इण्डिया), मार्टिनर व्हीलर और दुर्गों का ध्वंम किया गया, जिनकी संख्या ६० (१॥ (एनसियेन्ट इण्डिया), मिलवर्ट (स्टेट रम्युर), डा० पी० १३०७), ६६ (२।१६।६) और १०० (२११४१६) एल. भार्गव (इण्डिया इन वैदिक एज), राहुल साकृत्यायन कही गयी है। (ऋग्वैदिक भार्य), डा० सतीशचन्द्र काला (सिन्धु ऋग्वेद मे ही एक स्थान पर इन्द्र के लिए की गयी सभ्यता), कामरेड एम० ए० डागे (ग्रादि साम्यवाद से प्रार्यों की स्तुति मे परिस्थितियो को संक्षेप में इस प्रकार दासता तक) और डा० एस० के० चाटा (भारत में कहा गया है कि "ह सब ओर मे 'दस्यु' घेरे हुए हैं, वे आर्य और अनार्य) आदि विद्वानो ने दास और दस्यु आदि यज्ञ कर्म नहीं करने देते (अकर्मन्) हैं। न किसी को को भारत का मूल निवासी माना है। ये लोग वैदिक मानते है (अमन्तु)। उनके व्रत हमसे भिन्न है (अन्यमार्यों के प्रागमन के समय मिन्धु की उपत्यकानों, सहायक बत) । वे मनुष्य जमा व्यवहार नहीं करते (प्रमानुषः)। नदियों की धाटियो में निवाम करते थे। हे शनाशन ! तू उनका वध कर और दासो का नाश प्रार्यों के प्रागमन से पूर्व यहा एक समन्नत सस्कृति कर ।' महाभारत के अनुसार भारत में असुर राजाम्रो और सभ्यता विद्यमान थी। वह सस्कृति अहिसा, सत्य, को एक लम्बी परम्परा रही है। प्रोर वे सभी राजागण त्याग और अध्यात्म पर प्राधारित थी।' शक्तिशाली होने व्रत पारायण, बहुश्रुत और लोकेश्वर थे। के कारण वैदिक प्रार्यों को उनसे अत्यधिक क्षति उठानी विष्णु पुराण के अनुसार, असुर लोग पाहंत धर्म के पड़ी। वैदिक साहित्य मे देव और दानवो का जो मानने वाले थे। उनको मायामोह नामक किसी व्यक्ति युद्ध वर्णन पाया है. हमारी दृष्टि से यह युद्ध असुर और विशेष ने ग्राहंत धर्म में दीक्षित किया था। वे ऋग्वेद, वैदिक आय का है। यह मघर्ष ३०० वर्षों तक चलता यजर्वेद और सामवेद में विश्वास नही रखते थे। वे यज्ञ और पशुबलि में भी विश्वास नहीं रखते थे।" अहिंसा ऋग्वेद के मन्त्रो मे भी पार्यों प्रौर अनार्यों (मूल धर्म में उनका पूर्ण विश्वास था।" वे श्राद्ध और कर्मनिवासियो) का सघर्ष प्रगट होता है। मन्त्र १११-४१७-८ काण्ड का विरोध करते थे।" मायामोह ने अनेकान्तवाद में पृथ्वी को 'दास' लोगो की श्मशान-भूमि कहा गया है। का भी निरूपण किया था . ऋग्वेद में असुरों को वैदिक १ The Religion and rhilosophy of Veda and७. महाभारत, शान्तिपर्व २२७।५।६. Upnishada, pp 9-10. ८. महतेत महाधर्म मायामोहन ते यतः । २ The religion of Ahinsa : by Prof. A. प्रोक्तास्तत्राश्रिता धर्ममाहंतास्तेन ते भवन् । Chakaravaru, p. 17. -विष्णुपुराण ३।१८।१२ ३. महाभारत, शान्तिपर्व, २२७११३ ६. विष्णपुराण ३.१८।१४ ४. अथ देवासुरं युद्धमभूत वर्षशत त्रयम् । १०. विष्णपुराण ३।१८।२७ --मत्स्यपुराण २४॥३७ ११. विष्णुपुराण ३३१८२५ ५. ऋग्वंद, १२२।८ १२. विष्णुपुराण ३।१८।२८-२९ ६. महाभारत, शान्तिपर्व २२७१४९५४ १३. विष्णुपुराण ३.१८१८-११ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घमण संस्कृति की प्राचीनता : पुरातत्त्व और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में मार्यों का शत्रु कहा है।" को बतलाती है। दैनिक जीव र मे भी वे लोग प्रगति के पथ पर थे। मथग म्यूजियम मे दूसरी शती की कायोत्सर्ग मे उनके पावाम, ग्राम और नगर व्यवस्थित थे और वे हाथी स्थित ऋषभदेव जिन की एक मूर्ति है। इस मूर्ति की घोड़ो की सवारी भी करते थे। उनके पास आवागमन के शैली सिन्धु से प्राप्त मोहरों पर अकित खडी हुई देव साधन भी थे। यहा तक कि उनमे भक्ति और पुनर्जन्म मूर्तियो की शैली से बिल्कुल मिलती है। के विचारों में विश्वास था । मर जान मार्शल के अनुसार, मोहनजोदडो से प्राप्त जैन संस्कृति पुरातत्त्व परिपेक्ष्य में कुछ मूर्तिया योगियों की मूर्तियां प्रतीत होती है। इन मिन्धु घाटी के उत्खनन में जिस संस्कृति और मूर्तियों में से एक, योगामन स्थित त्रिमन्व योगी की प्रतिम सभ्यता का रूप हमारे सामने पाया है वह निश्चित ही विशेषतः उल्लेखनीय है। र मति के id : प्राग्वैदिक कालीन है । मूर्ति पूजा प्रादि कुछ ऐसे तथ्य है व्याघ्र, महिष, मग प्रादि पशु स्थित है। कुछ विद्वानो जि-से यह कहा जा सकता है कि सिन्धु घाटी सभ्यता के मतानुसार यह पशुपति शिव की मूर्ति है।" अन्य वैदिक विरोधी सम्पना थी। वह उपर्युक्त द्रविड़ अथवा विद्वानो के अनुमार यह मूर्ति किसी पहने हुए योगी विद्याधर जाति की सभ्यता से सम्बद्ध रही होगी। यह की मूर्ति है।० इम त्रिमख मूर्ति के अवलोकन से अहंत जाति ऋषभ (बल) को पूज्य मानती थी, जिसे कालानर अतिशयों मे यभिज्ञ कोई भी विद्वान यह निष्कर्ष निकाल मे ऋषभदेव तीर्थकर के चिह्न के रूप में स्वीकार किया सकता है कि यह मावशरण स्पिन चतुर्मम तीर्थर का गया है।" ही कोई शिल्प चित्रण है जिसका एक मख उसकी बनावट श्री रामप्रमाद चन्दा ने अपने एक लेग मे लिखा है के कारण प्रदश्य हो गया है। अस्तु पार्यों के प्रागमन मे कि मोहन जोदड़ो से प्राप्त एक ला पाषाण की मूर्ति, पूर्व यहाँ एक समुन्नत मंस्कृति एवं सभ्यता विद्यमान थी जिसे पुजारी की मूर्ति समझ लिया गया है, मुझे एक योगी जो महिमा, मत्य एवं त्याग पर ग्राघारिन थी। को मुर्ति प्रतीत होती है। वह मुझे इस निष्कर्ष पर इस प्रकार, पुरातत्व की दृष्टि से भी धगण संस्कृति पहचने के लिए प्रेरित करती है कि पिन्धु घाटी म उम की प्राचीनता मिद्ध होती जा रही है। भारतीय पुरातत्व समय योगाभ्यास होता था और योगी की मुद्रा में मूतिया का इतिहास मोहन जोदड़ो एवं हडप्पा से प्रारम्भ होता पूजी जाती थी। मोहन जोदड़ो और हडप्पा से प्राप्त है। पद्यपि इन स्थानों में प्राप्त मुद्राग्री की लिपि-मिन्धु मोहरें, जिन पर मनुष्य रूप में देवो की प्राकृति अकित है, लिपि का प्रामाणिक वाचन नहीं हो सका है और इसी मेरे इस निष्कर्ष को और भी पुष्ट करती है। कारण सिन्धु-मभ्यता के निर्माताग्रो की जाति अथवा सिन्धुघाटी से प्राप्त मोहरो पर बैठी अवस्था में नवश के सम्बन्ध मे निर्विवाद रूप से कहना सम्भव नही, अंकित मूर्तियां ही योग की मुद्रा में नही है, किन्तु खड़ी तथापि सिन्धु घाटी के अवशेषों में उपलब्ध कतिपय प्रतीको प्रवस्था में अकित मूर्तियां भी योग की कायोत्मग मुद्रा को थपण संस्कृति से सम्बद्ध माना जा सकता है। १४ ऋग्वेद १।२३।१७४१२.३ १८.५० कैलाशचन्द्र शास्त्री ना लेख "श्रमण परम्परा को १५. Mohan Jadro and the Indus Civilization प्राचीनता", अनेकान्न वष २८, कि.० १, पृ ११३-११४ (1931) Vol 1 PP 93.95. PE Mohan Jo-dro and the Indus Civilization १६. Ancient India (An Ancient History of (1931) Vol-1 pp. 42.3. India, Part-I). २०. Ahinsa in Indian Culture, Dr. Nathmal १७. देखिए प्राचीन परम्परा और इतिवृत्त : लेखक भाग- Tantia. चन्द्र जैन (भास्कर)-- महावीर जयन्ती स्मारिका, २१. मुनि श्री नगराज जी : बीर (श्रमण अक), वीर १६७४, पृ० २.१४ । निर्वाण स० २४६०, पृ० ४६ । Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ कि. ३.४, वर्ष ३१ वैदिक एवं पौराणिक साहित्य में जैन संस्कृति के तत्व: है कि वेद तथा अनेक पार्श्ववर्ती ग्रन्थो में अहन, व्रात्य, अरिहननादरिहंता,........." रोहननावा परिहन्ता, धमण, वातरशना, केशी, ऋषभ और वृषभ, पार्व, भतिशय पूजाहत्वादा मरिहन्ता । अरिष्टनेमि, महावीर प्रादि संज्ञायें जैन संस्कृति की प्राग- अर्थात अरिहन्त वे है जिन्होंने कर्म शत्रों का अथवा तिहासिकता को सिद्ध करती है। रामायण, महाभारत व कर्ममल का नाश कर दिया है तथा जो अतिशय पूजा के पुराणों में भी उपरोक्त संज्ञाएं पायी है। योग्य है। बहन जरवाहिजम्ममरणे च उगइगमणं च पुण्णपावं च । जैन धर्म मे पांच अवस्थाम्रो गे मम्पन्न प्रात्मा गर्वो- हतूण दोषकम्मे हुउणाणमयं च प्ररहती। त्कृष्ट एवं पूज्य मानी गई है। इनमें अरहन्न मर्व प्रथम अर्थात जिन्होंने जरा, व्याधि, जन्म, मरण, चतुगंतिहै। अरहन्त किसी व्यक्ति विशेष का नाम नहीं है, वह गमन, पुण्य, पाप - इन दोषा तथा कर्मों का नाश कर तो प्राध्यात्मिक गुणों के विकाम से प्राप्त होने वाला दिया है और जो ज्ञानमय हो गये है, वे अगहन्त ।। महान् मंगलमय पद है। अरहन्त की इन्ही विशेषताग्रो को पंचाध्यायी में इस जैनागम में अगहन्त का स्वरूप निम्न प्रकार बनाया प्रकार बताया गया हैगया है-जिन्होंने चार घातिथा कर्मो का नाश कर दिया दिव्योदारिकदेहस्था घौतघातिचतुष्टयः । है, जो अनन्त दर्शन सुव ज्ञान और वीर्य के धारक है, जो ज्ञानदग्वीर्य सौख्यादयः सोऽह न धर्मोपदेशकः ।।५ उत्तम देह में विराजमान है और जिनकी प्रात्मा शुउह ग्ररहन्त शब्द के विभिन्न भापायो म निम्न प्रकार के वे महंत है। रूप रह है - णटुबदुखाइकम्मो बसणस हणाण वीरियमईयो। सस्कृत महत् सहदेहत्थो प्रम्मा सद्यो अरि हो विचितिज्जो ।। प्राकृन अरहन तया अरिहंत द्रव्य मग्रह ५० पालि अरहन्त श्री गणेश प्रमाद ने लिखा है कि 'द्रविड़' अपन इष्ट जन शौरसेनी अछह देव को अहन, जिन, परमप्ठी एव ईश्व' के नाम में मागधी प्रलहंत तथा प्रलिहत माभिहित करते थे। जीवन शुद्धि के लिए अहिंसा एव अपभ्रश मलहतु तथा अलिहतु संयम पोर तपो मार्ग के अनुयायी थे। इतना ही नहीं, ये तमिल अरूह सांसारिक अभ्युदय से विरक्त हो त्यागी, भिक्षाचारी एवं कन्नड़ अरूहत, मरूह अरण्यवासी बन चुके थे। ग्रहन, जिनपरमेष्ठी एव ईश्वर परहन्त शब्द प्राकृत है। इसका संस्कृत रूप है का निर्विकार आदर्श ही इनके जीवन का परम आदर्श 'महत' । 'मह पूजायाम्' अर्थात् पूजार्थक 'अहं' धातु से था। साधु दिगम्बर होते थे, केश बड़े-बड़े रखते थे, 'महः प्रशंसायाम्' पाणिनि-सूत्र से प्रशसा अर्थ मे शत अधिकतर केवल वायु के आधार पर जीवन यापन करत प्रत्यय होकर 'अहंत' शब्द बनता है। प्रथमा के एक वचन हुए निरन्तर अात्म चिन्तनशील रहते थे । ये लोग तपस्या में 'उगिदचा सर्वनामस्थानेः धाते.' पाणिनि सूत्र से 'तुम' एवं श्रम के साथ साधना कर 'मृत्यु' पर विजय प्राप्त कर वा पागम होकर 'महन्' पद बनता है। सम्बोधन एक लेते थे। ___ वचन मे भी 'प्रहन' पद बनता है । प्राकृत भाषा मे 'शतृ' धवला टीका में परहन्त का अर्थ करते हए लिखा प्रत्पय के स्थान पर 'स्त' प्रत्यय होकर 'महत्' रूप बनता २२. भारत के आदिवासी और उनकी सस्कृति (लेख .. २३. धवला टीका प्रथम पुस्तक, पृ० ४२.४४ श्री गणेशप्रसाद) महावीर जानी मारिका, गन् २४. गोधपाहड, ३० .५ पदाध्यायी २१६०७ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण संस्कृति की प्राचीनता: पुरातत्व और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में है। साथ में प्राकृत व्याकरण के 'ई: श्री ही क्रीत क्लान्तक्लेशमभास्वप्नस्पर्शहर्हि गषु (प्राकृत प्रकाश ३.६२), सूत्र के अनुसार रह के मध्य ईकार का प्रागम होकर 'अरिहत' तथा प्राकृत की परम्परा के अनुसार प्रकार का मागम होकर 'महत' रूप प्राकृत भाषा मे बनता है। प्राचार्य कुन्दकुन्द ने प्राकृत भाषा मे इसका एक रूप 'प्ररूह' भी प्रयोग किया है.--'अरूहा सिद्धायरिया' (मोख पाहड़ ६।१०४) सम्भवत: इस शब्द पर तमिल का प्रभाव रहा हो। वैविक, पौराणिक एवं बौद्ध वाङ्मय में अहंत शब्द का प्रयोग विनोबा भावे ने अपने एक लेख पे ऋग्वेद के एक मत्र का उद्धरण देत हुए जैन सस्कृति की प्राचीनता सिद्ध की है। वे कहते है कि ऋग्वेद में भगवान की प्रार्थना में कहा गया है कि 'प्रहंत् इदं दयसे विश्वम्बम्", अर्थात् हे प्रहंत, तुम इस तुच्छ दुनिया पर क्या करते हो। इसमे प्रहंत और दया दोनो जैनो के प्यारे शब्द है। मेरी तो मान्यता है कि जितनी वैदिक मस्कृति प्राचीन है शायद उतनी ही जैन सस्कृति प्राचीन है। ऋग्वेद का उपरोक्त मत्र इस प्रकार है :--- प्रहत् विषि सायकानि, धन्वाहन्निष्कं यजत विश्वरूपमं । प्रहन्निदं दयसे विश्वममबं, न वा प्रो जीग्रो रूव त्वदन्यदस्ति । प्रतिष्ठातिलक के लेखक नेमिचन्द्र ऋग्वेद के उपर्युक्त मन्ध से अत्यन्त प्रभावित प्रतीत होते है । उन्होने इस मंत्र को प्राधार बनाकर निम्न प्रकार से वर्णन किया है.- २६. अर्हत् विमर्षि सायिकानि घन्वाह निष्कं यजत विश्वरूपम् । अर्हन्निद दयसे विश्वमम्बं न वा पो जीवो रुद्र त्वदन्यदस्ति ।। __ -ऋग्वेद २।४।१०१३३ २७. विनोबा भावे- श्रमण संस्कृति, पृ. ५७ २८. ऋग्वेद २।५।२२।४।१ २६. ऋग्तेद ४।३।९५२१५ (५।४।५२) ३०. ऋग्वेद ३१८६१५ (५।६।८६) ३१. ऋग्वेद ११५१९४ प्रहंत विष मोहारिविध्वंसिनवसायकान् । भनेकाम्योतिनिर्वाचप्रमाणोदार बन च ॥ ततस्त्वमेव वाप्ति पक्तिशास्त्राविरोधियाक । दृष्टष्वाधिलेष्टा स्यु. सर्व काम्तवादिनः ।। प्रहं निहाभिवत्मानं बहिरन्तम लक्षयम् । विश्वरूपं व विश्वार्थ वेदितं लभसे सदा ।। ग्रहन्मिदच वयसे विश्वमभ्यंतराधयम । नसुरासुनसघात मोक्षमार्गोपवेशनात ॥ ब्रह्मासुर यो वान्यो वेश रुद्रस्त्वस्ति । ऋग्वेद में अनेक स्थानो पर ग्रहंत शब्द का प्रयोग मिलता है 'प्रहंत देवान् यक्षि मानुषत पूर्ण प्रद्य ।"५८ "महन्तो ये सुदानवो नरो प्रसामि शवस ।"५९ "अहंता वित्युरोदय क्षेव देवायवर्तते ।"". इमस्नो हंले जातवेदसेर थमिव समहेमामनीषा। ईडित्ती अग्ने मनमाना महन्देवान्यक्षि मानषावों प्रथ। इन उल्लेखो 4 एका प्रतीत होता है कि जैन धर्म के मानने वाले हित को अपना उपास्य देव मानते थे। वराहमिहिरसहिता, योगवासिष्ठ, ब्रह्मसूत्र शकरभाष्य में भी अहंत मत का उल्लेख मिलता हैदिग्वासास्तरूणो रूपवांश्च कार्योर्हतादेवः ।।२।। वेदान्त हत सांख्य सोगत गुरुयम्मादिसूक्तादृशो।" शरीरपरिमाणो हि जीव इत्याहतामन्यते । इस प्राई । परम्परा की पुष्टि वायुपुराण", श्रीमद्भागवत", पद्मपुराणा, विष्णु पुराण" स्कन्दपुराण, ३२. ऋग्वेद २।११।३ ३३ वराहमिहिर सहिता ४५१५८ ३४. बाल्मीकि योगवासिष्ठ ६।१७३।३४ ३५. ब्रह्म सूत्र शाकरभाष्य २।२।३३ ३६. ब्रह्म शैव, वैष्णवं च सौर शाक्त तथा पाहतम् । -वायुपुराण १०४।१६ ३७. श्रीमद् भागवत ५।३।२० ३८. पद्मपुराण १३।३५० ३६. विष्णुपुराण १७-१८वा अध्याय । ४०. स्कन्द पुराण ३६-३७-३८ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६, वर्ष ३१, कि० ३-४ अनेकान्त शिवपुराण", मत्स्य पुराण", देवी भागवत प्रादि पुराणो से भी होती है। इनमे जैन धर्मों की उत्पत्ति के सम्बन्ध मे अनेक प्राख्यान उपलब्ध होते है । महंतेतं महाधर्म मायारोहेन ते यतः।। प्रोक्तास्तप्राधिता धर्ममाहतास्तेन तेऽभवन् ।।" विष्णुपुराण के इम उल्लेखानुपार, जो लोग पाहत धर्म को मानने वाले थे उनको मायामोह नामक किसी व्यक्ति विशेष ने ग्राहंत धर्म मे दीक्षित किया था। उसी मायामोह नामक व्यक्ति ने अनेकान्त वाद का निरूपण किया था। वे ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद में श्रद्धा नही रखते थे। वे यज्ञ और पशु बलि मे भी विश्वास नही रखते थे।" हिसा धर्म में उनका पूर्ण विश्वास था। वे श्राद्ध और कर्मकाण्ड के विरोधी थे। गतडिनो विसोकस्स विप्पमुत्तस्त सम्वधि। सम्बगन्धपहीनस्स परिलाहो न विज्जत्ति ॥ - धम्मपद अरहन्त बग्गो ६० अर्थात् अरहन्त वह है जिसने अपनी जीवन यात्र। समाप्त कर ली है, जो शोक राहत है, जो ससार स मुक्त है, जिसने सब प्रकार के परिग्रहों को छोड़ दिया है और जो कष्ट रहित है। ऐसा प्ररहन्न जहाँ कहाँ भी विहार करता है वह भूमि रमणीय है - यत्पारहन्तो विहरन्ति भमि रामणयेक । ४१. शिवपुराण ॥४.५ ४२. मत्स्यपुराण २४:४३-४६ ४३. देवी भागवत ४११३३५४-५७ ४४. विष्णु पुराण ३।१८।१२ ४५. विष्णुपुराण ३१८१८-११ ४६. विष्णुपुराण ३।१८।१३-१४ ४७. विष्णुपुराण ३।१८।२७ ४८. विष्णुपुराण ३.१८।२५ ४६. विष्णुपुराण ३११८:२८.२६ ५०. सयुक्त निकाय ५।१६४ गोतमधुद्ध पृ० १४७ ५१. वियते यद् तदवतम्, व्रते साधु कुशले वा इति व्रात्यः। ५२. Vraty a as initiated in Vratas Hence Vra- tya means a person who has volmitanly बुद्ध ने कहा था "भिक्षो, प्राचीनकाल में जो भी अरहन्त तथा बुद्ध हुए थे उनके भी ऐसे ही दो मुख्य अनुयायी थे जैसे मेरे अनुयायी सारिपुत्त और मोग्गलायन है।"५. प्रात्य: व्रात्य शब्द का मूल व्रत है। व्रत का अर्थ धार्मिक सकल्प और जो संकल्पो को करता है, कुशल है वह व्रात्य है।" डा. हैवर प्रस्तुत शब्द का विश्लेषण करते हैब्रात्य का अर्थ व्रतों मे दीक्षित है अर्थात् जिसने प्रात्मानुशासन की दृष्टि से स्वेच्छापूर्वक व्रत स्वीकार किये हो, वह व्रात्य है।५२ व्रात्य शब्द अर्वाचीन काल मे प्राचार और सस्कारों से हीन मानवो के लिए व्यवहन होता रहा है। अभिधान चिन्तामणि कोश मे आचार्य हेमचन्द्र ने भी यही अर्थ किया है। ५३ मनुस्मृतिकार लिखते है ---क्षत्रिय, वैश्य और ब्राह्मण योग्य अवस्था प्राप्त करने पर भी प्रसस्कृत हैं क्योकि वे व्रात्य है और वे पार्यों के द्वारा गहणीय है।५४ उन्होंने प्रागे लिखा है ---जो ब्राह्मण, मतति, उपनयन और व्रतो से रहित हो उस गुरु मंत्र से परिभ्रष्ट व्यक्ति को व्रात्य नाम से निर्दिष्ट किया गया है।५५ ताण्डय ब्राह्मण में एक स्तोत्र है जिसका पाठ करने से अशुद्ध व्रात्य भी शुद्ध और सुसस्कृत होकर यज प्रादि करने का अधिकारी हो जाता है ।१६ इस पर भास्य करते हुए सायण ने accepted the moral code of Vows for his own spiritual discipline- by Dr. Hebar. ५३. व्रात्यः संस्कारवजितः। व्रते: साधु कालो ब्रात्यः । तच भवो व्रात्यः प्रायश्चिताह' सस्कारोऽत्र उपनयनं तेल वजितः । - अभिधान चिन्तामणि कोष ३५१८ ५४ प्रत उर्व त्रयोऽप्येते, यथा कालमसस्कृताः । सावित्रीपतिता ब्रात्या भवन्त्यार्थविहिताः ॥ --मनुस्मृति ११५१८ ५५ द्विजातय. सवर्णामु 'जनयन्त्यव्रतांस्तु तान । तान सावित्री-परिप्रष्ट्रान बाह्यानिति विनिदिशेत् । -मनुस्मृति १०१२० ५६. हीना व एने । हीयन्त ये व्रात्या प्रवसन्ति । षोडशो वा एतत् स्तोमः समाप्तुमर्हति । -ताण्डय ब्राह्मण Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण संस्कृति की प्राचीनता : पुरातत्व और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में ८७ भी व्रात्य का अर्थ माचारहीन किया है।" तक निराहार रहने पर भी उनके शरीर की पुष्टि और उपयुक्त सभी अर्वाचीन उल्लेखों मे व्रात्य का अर्थ दीप्ति कम नहीं हुई थी। प्राचारहीन बताया गया है। जब कि इनसे पूर्ववर्ती ग्रन्थो व्रात्य प्रासीदीयमान एव स प्रजापति समरयत" में इसके विपरीत विद्वत्तम, महाधिकारी पुण्यशील, विश्व इस सूत्र मे "प्रामोदीयमान' शब्द का प्रयोग हमा है सम्मान्य आदि विशेषण प्रयुक्त हुए है। व्रात्यकाण्ड की जिसका अर्थ होता है -पर्यटन करता हुअा। यह शब्द भूमिका मे सायण ने लिखा है ---इसमे ब्रात्य की स्तुति श्रमण सस्कृति के सन्त की ओर निर्देश करता है। इसके की गई है। उपनयन प्रादि से हीन मानव व्रात्य कहलाता अतिरिक्त भी व्रात्य को अनेक जगह घूमने वाला साधु भी है। ऐसे मानव को वैदिक कृत्यो के लिए अनधिकारी कहा गया है। श्रमण संस्कृति का साधु भी प्रादिकाल से और सामान्यतः पतित माना जाता है। परन्तु कोई व्रात्य ही घुमक्कड रहा है। घूमना उसके जीवन की प्रधान ऐसा हो जो विद्वान् और तपस्वी हो, ब्राह्मण उससे भले दिनचर्या रही है। वह पूर्व पश्चिम उत्तर" और दक्षिण ही द्वेष करे, परन्तु वह सर्व पूज्य होगा और देवाधिदेव पर- पादि मभी दिशाओ मे अप्रतिबद्ध रूप से परिभ्रमण करता मात्मा के तुल्य होगा। यह तो स्पष्ट है कि अथर्ववेद के है। जैनागम माहित्य मे अनेक स्थलो पर उसे अप्रतिबन्धव्रात्य काण्ड का सम्बन्ध किसी ब्राह्मणेत्तर परम्परा से है। बिहारी कहा है। वर्षावास के समय को छोडकर शेष व्रात्य ने अपने पर्यटन में प्रजापति को भी प्रेरणा दी थी।६० पाठ मास तक वह एक ग्राम से दूसरे प्राम, एक नगर से उस प्रजापति ने अपने मे सुवर्ण पात्मा को देखा। दूसरे नगर विचरता रहता है। भ्रमण करना उसके लिए प्रश्न हो सकता है कि व्रात्य कौन है, जिसने प्रजापति प्रशस्त माना गया है। को प्रेरणा दी? डा. सम्पूर्णानन्द व्रात्य का अर्थ पर- व्रात्य लोग व्रतो को मानत थे, अहंन्तो की उपासना मात्मा करते है ।२ प्रोर बलदेव उपाध्याय भी इसी अर्थ करते थे और प्राकृत भाषा बोलते थे। उनके साथ को स्वीकार करते है। किन्तु व्रात्य काण्ड का परिशीलन ब्रह्मग मूत्रो के अनुसार ब्रह्म ग पोर क्षत्रिय थे।" खात्यकरने पर प्रस्तुत कथन युक्तियुक्त प्रतीत नही होता। काण्ड में पूर्व ब्रह्मचारी को व्रात्य कहा गया है।" खात्य काण्ड में जो वर्णन है वह परमात्मा का नहीं अपितु निष्कर्ष यह है कि प्राचीन काल में व्रात्य शब्द का किसी देहधारी का है। मनि देवेन्द्र शास्त्री की मान्यता प्रयोग श्रमण सस्कृति के अनुयायी श्रमणो के लिए होता है कि उस व्यक्ति का नाम भगवान ऋपभदेव है, क्योकि रहा है। अथववेद के व्रात्य-काण्ड मे पक की भाषा मे ऋषभदेव एक वर्ष तक तपस्या मे स्थिर रहे थे। एक वर्ष ऋषभदेव का ही जीवन वर्णन किया गया है। ऋषभदेव ५७. व्रात्यान् व्रात्यता प्राचारहीनता प्राप्य प्रवसन्त: प्रवास ६४. स उदतिष्ठन् म प्राचीदिशमनुव्यचजत् । कुर्वतः। --ताण्डय ब्राह्मण सायण महाभाष्य --प्रवर्ववेद १५।१।२।१ ५८. काचिद् विद्वत्तमं महाधिकार, पुण्यशील विश्वसमान्यं । ६५. स उदतिष्ठत् सः प्रतीचीदिशमनुष्यचलत् । ब्राह्मण विशिष्ट ब्रात्यमनुलक्ष्य वचनमिति मंतव्यम् ।। -अथर्ववेद १५॥१॥२०१५ -अथर्ववेद १।१।१।१ सायण भाष्य ६६. स उदतिष्ठत् स उदीची दिशमनुष्य चलत् । अथर्ववेद ५६. अथर्ववेद १५३१११११ ६७. दशवकालिक चूलिका--२ गा० ११ । ६०. व्रात्य भासीदीयमान एव स प्रजापति संमेरयत् । ६८. विहार चरिया इसिण पसत्था । -प्रथर्ववेद -दशर्वकालिक चुलिका २ गा०५ ६१. सः प्रजापतिः सुवर्णमात्पन्नपश्यन् । ६६. वैदिक इण्डेक्स, दूसरी जिल्द १९५८, पृ० ३४३, -प्रथर्ववेद १५२१११३ मेकडानल और कीथ ।। ६२. डा० सम्पूर्णानन्द-प्रथर्ववेदीय प्रात्यकाण्ड, पृ०१७..वैदिक कोष, वाराणसेय हिन्दू विश्वविद्यालय, १९६३, ६३. वैदिक साहित्य और संस्कृति, पृ० २२६ सूर्यकान्त । Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 45 वर्ष ३१, कि० ३-४ अनेकान्त के प्रति वैदिक ऋषि प्रारम्भ से ही निष्ठावान रहे है और ऋग्वेद में श्रमण" शब्द तथा वातग्शना: मुमय: उन्हे वे देवाधिदेव के रूप में मानते रहे है। (वायु जिनकी मेखला है, ऐसे नग्न मनि) का उल्लेख श्रमण हा है ।" बृहदारण्यक उपनिषद् में श्रमण के माथ साथ "श्रमण" शब्द की रचना "श्रम" धातु (श्रम तपसि 'तापम' शब्द का पृथक प्रयोग हुपा है। इससे स्पष्ट है खेदे च) मे ल्युट् प्रत्यय जोड कर हुई है। प्राचार्य हरिभद्र कि प्राचीनकाल से ही तापस ब्राह्मण एवं श्रमण भिन्न सूरि का कथन है -- "श्राम्यतोति श्रमणः तपस्यतीत्यर्थ:"७२ माने जाते थे । तैत्तिरीय पारण्यक मे तो ऋग्वेद के 'मन योः वातरशना" को श्रमण ही बताया गया है।" उपयुक्त अर्थात जो तप करता है वह श्रमण है। इस प्रकार श्रमण का अर्थ हुमा तपस्वी या परिब्राजक । उद्धरणों से प्राचीन वैदिक काल से ही श्रमणों का अस्तित्व एवं प्रभाव स्पष्ट रूप से व्यक्त होता है। श्रमण शब्द का अर्थ अत्यन्त व्यापक है। विभिन्न वैदिक वाङ्मय के अतिरिक्त रामायण, महाभारत" भाषाम्रो मे उपलब्ध अमण शब्द के विविध रा (ममण, तथा भागवत पृगण श्रमणो का स्पष्ट उल्लेख हा शमण, मवण, श्रवण, प्रमण, सरमनाइ, श्रमणेरादि) है। श्रमण सस्कृति के प्राद्य प्रवर्तक भगवान ऋषभदेव वा श्रमण शब्द की व्यापकता गिद्ध करते है।" मिश्र, सुमेर, भी उल्लेख वेदो५ तथा पुराणों में श्रद्धापूर्वक दिया असुर, बाबुल, यूनान, रोम, चीन, मध्य एशिया, प्राचीन गया है। अमेरिका, अरब, इसराइल प्रादि प्राचीन देशो मे भी वातरशना श्रमण सस्कृति किमी न किसी रूप में विद्यमान थी, यह ऋग्वेद में जिन 'वानरगन' मनियो का बहधा उल्लेख अनेक ऐतिहामिक एव पुरातात्त्विक साक्ष्यो से सिद्ध हो हुमा है वे भी अाहेत अथवा जंन हान चाहिए । मायण चुका है। ने भी इन्ही बात रशन मनियों को अतीन्द्रियार्थदर्श कहा - ७१. भगवान परमषिभिः प्रमादितो नाभ: प्रिपचिकीर्षपा ७६. महाभारत - १२॥१५४।२१ तदवरोधायने मरूदेव्या धर्मान् दर्शायितुकामा वात- ८.. सन्तुष्टा' करुणा मंत्रा: शान्ता दान्तास्तिविक्षवः । रशनाना श्रमणानाना ऋषीणाम् उर्वमन्थिना शुक्ल्या प्रात्मारामाः सहदशः प्रायशः श्रमणा: जनः । तन्वावतार । - भागवत पुराण ७२. दशवकालिक मूत्र १।३।। ८१. ऋग्वेद, १०।१०२।६ तथा ४१५८।३ ७३. विशेष के लिए देखे लेखक का शोध प्रबन्ध "जैन हरि- ९२. (१) वहिषि तस्मिन्नेव विष्णुदत्त भगवान परमर्षािभः वश पुराण का सांस्कृतिक अध्ययन" पृ० ६३ । प्रसादियो नामेः प्रियचिकीर्षया तदवरोधायने ७४. तृदिना प्रतृदिलासो अद्रयो श्रमणा अगथिता प्रमृत्यवः । मेरुदेव्यां धर्मान् दर्शयितुकामो वातरशनाना ऋग्वेद १०१९४११ -- प्रश्रमणा: श्रमणजिता श्रमणानामृषीणामूर्वमन्थिनां शुक्लया तनुवाबतसायण भाष्य । तार ।। -भागवत पुराण ५।३।३० ७५. मुनयो: वात रशना पिशङ्गावसते मला: । (२) ऋग्वेद १०१११११३६।२-३ --ऋग्वेद १०११३०२ ५३. (१) मुनयो वातरशना पिशगा वसते मला । ७६. श्रमणोऽश्रमण स्तापमोऽतापसः । भवति-बृहदारण्य घातस्यानु जि यन्ति यद्देवासो अविक्षत ॥ कोपनिषद ४।३।२२ उन्मदिता मौनयेन वातां मातस्थिम वयम् । ७७ वातरशना ह व ऋषयः श्रमणा: उर्वमन्थिनो वभुवः। -तत्तिरीयारण्यक २७ शरीरेचस्माकं मतां सो अभिपश्यथ ।। ७८. तापसाः भुंजते चापि श्रमणाव मुंजते । - ऋग्वेद १०।११।१३६३२ -रामायण १११११२ (२) तैत्तिरीयारण्यक-११२३३२; ११२४१४; १७.१२ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण संस्कृति की प्राचीनता : पुरातत्व और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में है। "मुनयो वातरशना: पिश गा बमते मला" का अर्थ चराई जा रही थी। उस समय के शी के सारथी ऋषभ के डा हीरालाल जैन ने सायण भाष्य की सहायता में इस वचन से वे अपने स्थान पर लौट पायी।" प्रकार किया है-"प्रतीद्रियार्थदर्शी वातरशना मनि मल जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति के अनुसार भगवान ऋषभदेव जब धारण करते है जिससे पिंगल वर्ण दिखाई देते है। जब व श्रमण बने तो उन्होंने चार मष्टि केशों का लोंच किया वायु की गति को प्राणोपासना द्वारा धारण कर लेते है. था। सामान्य रूप से पांच-मष्टि केशलोंच करने की परम्परा अर्थात् रोक लेते है तब वे अपने तप की महिमा से देदी- है। भगवान ऋषभदेव केशों का लोंच कर रहे थे। दोनों प्यमान होकर देवता-स्वरूप को छोड़कर हम मनोवृत्ति से भागों के केशों का लोंच करना अवशेष था। उस समय उन्नतवत् उत्कृष्ट प्रानन्द सहित वायु भाव को, अशरीरी प्रथम देवलोक के इन्द्र शकेन्द्र ने ऋषभ देव से निवेदन ध्यानत्ति को, प्राप्त हो जाते है और तुम साधारण मनुष्य किया कि इतनी सुन्दर केशराशि को रहने दें। ऋषभदेव हमारे बाह्य शरीर मात्र को देख पाते हो। हमारे सच्चे ने इन्द्र की प्रार्थना से उसको उसी प्रकार रहने दिया। प्राभ्यन्तर स्वरूप को नहीं।" कशी मुनि भी वातरशन की श्रेणी के ही थे। तैत्तिरीयारण्यक मे भगवान ऋषभ और वृषभ : डा० राधाकृष्णन कहते है "जैन परम्परा के अनुसार ऋषभदेव के शिष्यो को वातरशन ऋषि उर्व मथी कहा जैन धर्म का प्रारम्भ ऋषभदेव से होता है जो सदियों से पहले हो चुके थ । ऐसे प्रमाण मिलते है जो बताते हैं कि श्रीमद् भागवत पुराण में लिखा है -- स्वय भगवान ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी तक ऋषभदेव की उपासना करने विष्णु महाराजा नाभिराज का प्रिय करने के लिए उनके रनिवास में महारानी मरुदेवी के गर्भ मे पाये। नन्होने वाले लोग थे । इसमें कोई सन्देह नहीं कि जैन धर्म वर्ध मान और पार्श्वनाथ के पहले भी था। वातरशना श्रमण ऋषियो के धर्म को प्रकट करने की इच्छा से यह अवतार ग्रहण किया। जैन ग्रन्थो में ऋषभ को हिरण्यगर्भ भी कहा है क्योकि उनके गर्भ में पाने पर प्राकाश से स्वर्ण की वर्षा ऋग्वेद में भगवान शृपभदेव की स्तुति केशी के रूप हुई थी। में की गई है।वानरशना मनि प्रकरण मे प्रस्तुत उल्लेव यथा-गम्भट्ठियस्स जस्स उ हिरण्णवट्ठी संकटणा पारिया। पाया है, जिससे स्पष्ट है कि केशी ऋषभदेव ही थे। तेणं हिरण्णगभी जयम्मि उवयिज्जए उसमो॥ तण हिर अन्यत्र ऋग्वेद मे के शो और वृषभ का एक साथ उब्लेख अर्थात् जिनके गर्भ मे पाने पर सुवर्ण को वृष्टि हुई, भी प्राप्त होता है। मुगल ऋषि की गायें (इन्द्रियां) इसी से ऋषभ जगत मे हिरण्यगर्भ कहलाये। ८४. वात रशनाः वातरशनस्य पुत्रा: मुनयः प्रतीन्द्रियार्थ- मुद्गलानीम् । -ऋग्वेद १०१।१०२।६ ' दशिनो जतिवात जुतिप्रभयतः पिशगा पिशगानि ८६. जम्बूद्वीप प्रज्ञत्ति वक्षस्कार २, सू० ३० कपिलवर्णानि मला मलिनानि वत्कल रूपाणि वासासि ... Indian Philosophy Vol-I, P. 227 "Jain वसते पाच्छादयन्ति । -सायण भाष्य १०११३६०२ tradition ascribes the origin of the system ८५. ऋग्वेद : सायणभाष्य--१०५७ to Rishabhadeva, who lived many centu. ८६. वात रशना ह वा ऋषयः श्रमणा उर्च मथिनो बभूवुः। ries back. There is evidence to show that ---तैत्तिरीयारण्यक २०७१ so far back as the first ceutury B. C. there ८७. केश्य ग्नि केशी विष केशी विमत्ति रोदसी। were people who were worshipping Rishaकेशी विश्वं स्वदशे केशीदं ज्वोतिरुच्यते ।। bhadeva, the first Tirtbapkara. There is 4. ककर्दवे क्षमो युक्त पासीदवावचीत्सारथिरस्य केशी no doubt that Jainism prevailed even दुईंयुक्तस्य द्रवतः सहानस ऋच्छन्तिष्मा निष्पदो before Vardbaman or Parshvanath. केशी Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०, वर्ष ३१, कि० ३-४ अनेकान्त ऋग्वेद मंत्र १० सूक्त १२१ की पहली ऋचा इस साधना मोर तपस्था से मनुष्य शरीर में रहते हुए उसे प्रकार है प्रमाणित भी कर दिखया था। ऐसा उल्लेख भी वेदो पे हैहिरण्यगर्भः समवर्तता ग्रे भूतस्य जातः पतिरेक प्रासोत। तन्मय॑स्य देवत्वमजानमगे। - ऋग्वेद ।३१.१७ स दाधार पृथिवीं चामुतेमा कस्मै देवाय हविषा विधेमः ॥ ऋषभ स्वयं प्रादि पुरुष थे, जिन्होने सबसे पहले इसमें कहा गया है कि पहले हिरण्यगर्भ हुए। वह मर्त्यदशा मे देवत्व की प्राप्ति की थी। प्राणीमात्र के एक स्वामी थे। उन्होने प्राकाश सहित ऋषभदेव प्रेम के राजा के रूप में विख्यात थे। पृथ्वी को धारण किया। उन्होने जिस शासन की स्थापना की थी, उसमे मनुष्य व महाभारत के शान्तिपर्व में भी "हिरण्यगर्भ. योगस्य पशु सभी समान थे। पशु भी मारे नहीं जाते थेवक्ता नान्या पुरातनः ।" अर्थात हिरण्यगर्भ योगमार्ग के नास्य पशून् समानान हिनास्ति । -अथर्ववेद । प्रवर्तक है, अन्य कोई उनसे प्राचीन नहीं है। तो क्या सव प्राणियो के प्रति इस मंत्री भावना के कारण ही ऋषभ ही तो हिरण्यगर्भ नही है ? । वे देवत्व के रूप में पूजे जाते थे। ___ ऋषभ इक्ष्वाकुवंशी थे । इक्ष्याकु मूलतः पुरु राजाम्रो ऋषभं मा समासानां सपत्यानां विषासहितम् । की एक परम्परा थी, यद्यपि ऋग्वेद में पुरुषो को सरस्वती हन्तारं शत्रणां कृषि विराजं गोपितं गवाम ।। के तट पर बतलाया गया है। किन्तु उत्तर इक्ष्वाकुप्रो का -ऋग्वेद प्र०८ म० सू० २४ सम्बन्ध अयोध्या से था। जैनागम मे अयोध्या को ही इसलिए ही मुद्गल ऋषि पर ऋषभदेव की वाणी ऋपभदेव का जन्म स्थान माना है। उधर माख्यायन श्रोत्र के विलक्षण प्रभाव का उल्लेख करते हुए कहा मया हैसत्र में हिरण्यगर्भ को कौशल्य कहा गया है। अयोध्या को ककर्ववे वृषभो युक्त प्रासीद प्रवावचीद सारथिरथस्य केशी। कौशन देश में कहा गया है। अतः कोशल श में जन्म लेने दुर्युक्तस्यं यतः महानस ऋच्छन्तिस्मा निरूपदोमबगलानीम।। से ऋषभदेव को कोमल्य कहा जा सकता है। -ऋग्वेद १०.१०२१६ ऋग्वेद में भगवान ऋषभदेव का अनेक जगह उल्लेख इसीलिए उन्हे पाह्वान करने की प्रेरणा दी गई है-- हा है।" एक जगह ऋषभदेव की स्तुति 'हिमक प्रात्म- महोमुच वृषभं यज्ञियानां विराजं तं प्रथममध्यराणाम । साधको मे पथम, मधुनचर्या के प्रणेता तथा गत्यों में अपां न पातमश्विनाह वेषिय इंद्रियेण इद्रियं दतभोजः । -अथर्ववेद, का. १९४२१४ सर्वप्रथम अमरत्व तथा महादयत्व पाने वाले महापुरुष के अर्थात् समस्त पापो से युक्त, अहिंसक वृत्तियों के रूप में की गई। एक अन्य स्थान पर उन्हें ज्ञान का प्रथम राजा, मादित्यस्वरूप श्री ऋषभदेव को मैं प्राह्वान प्रागार थाना में शत्रुमो का विध्वंगत बनाया है। करता है। वे मुझे बद्धि पौर इन्द्रियों के साथ बल प्रदान करें। प्रसूतपूर्वा वृषभो ज्यापनिभा बस्य शुरुषः सन्तिपूर्वीः । ऋग्वेद में उन्हे स्तुति योग्य बताते हुए कहा गया है-- हिवान पाता विदयस्यधीभिः क्षत्र राजावा प्रदिवो दद्याथे॥ अनर्वाणं ऋषभं मन्द्रजिह, बहस्पति वर्षया नव्यमके। - ऋग्वेद ५१३८ - ऋग्वेद म० १ सूत्र १९० मन्त्र १ वापदेव का प्रमुख सिद्धान्त था कि आत्मा में ही मिष्टभाषी, ज्ञानी, स्तुति-योग्य ऋषभ को पूजा साधक का अधिष्ठान है। अतः उसे प्राप्त करने का मत्रो द्वारा वधित करो। व स्तोता को नहीं छोड़तेउऋम का। इगी सिद्धान्त की पुष्टि करते हुए वेदो में। प्राग्नये वाचमीरय। -ऋग्वेद मं० १० सूत्र १८७ उनका नामोल्लेख करते हुए कहा गया है तेजस्वी ऋषभ के लिए स्तुति प्रेरित करोत्रिधा बद्धो वषभो रोखीती, महादेवो मानाविवेश। -ऋग्वेद ।४।५८।३ शातारमिन्नं ऋषभं वदन्ति, प्रतिचारमिन्नं तमपरिष्टनेमि भवे भवे । मन, वचन, काय नीनो योगो से बद्ध वृषभ ने घोषणा सुभवं सुपाश्वमिन्द्रं हवेतु शक। की कि महादेव मयों में प्रवास करता है। उन्होंने अपनी प्रजितं तद् बर्द्धमान पुरुहूतमिन्नं स्वाहा ॥ ६१. ऋग्वेद १२४.१६१ २४।३३।१५; ५२।२८।४ ६।२।२।८ ६।१६११० १०॥१२॥१६६१ तथा ऋग्वेद मे ही १०११०२।६,४.५८।३. Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण संस्कृति की प्राचीनता : पुरातत्त्व और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत मन्त्र में भगवान ऋषभदेव द्वितीय तीर्थङ्कर इसकी पुष्टि राष्ट्रपति डा. राधाकृष्णन," डा. अलब्र. अजितनाथ तेईसवें तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ और चौबीसवें खेवर". प्रो० विरूपाक्ष, डा. बिमलाचरण लाहा", जो भगवान वर्धमान का स्पष्ट उल्लेख हुमा है। गी० जन"प्रभति विद्वज्जन भी करते है। अप्पा ददि मेयवामन रोदसी इमा च विश्वाभुवनानि । प्रो. विरूपाक्ष वाडियर वेदो मे जैन तीर्थ छरों के मन्मना यथेन निष्ठा वषभो विराजास ॥ उल्नेखों का कारण उपस्थिन करते हुए लिखते है 'प्रकृति-सामवेद, ३ प्र. १ खंड वादी मरीचि ऋषभदेव का पारिवारिक था।" वेद उसके सामवेद के इस मन्त्र में भी भगवान ऋषभदेव को तत्त्वानुसार होने के कारण ही ऋग्वेद प्रादि ग्रन्थों को समस्त विश्वज्ञाता बताया गया है। महत्वं न वृषभं वावृधानमकवारि दिव्य । ख्याति उसी के ज्ञान द्वारा हुई है। फलत. मरीचि ऋषि शासनमिद्र विश्वा साहम वसे नतनायोग्रासदो दा मिहंता के स्तोत्र वेद-पृगण ग्रादि ग्रन्यो में है और स्थान-स्थान ह्वयेमः। * . ट पर जैन तीर्थंकरो का रुख पाया जाता है। कोई ऐमा समिद्धस्य परम हसो वन्दे तवधियं वृषभो गम्भवानसिम वारण नहीं है कि हम वैदिक काल म जैन धर्म का मध्वोष्विध्यस। -- ऋग्वेद ४ अ० ४ व ६-४-१२२ अस्तित्व न माने । उपर्युक्त मन्त्रों में तीर्थकर वाचक शब्द श्री वृपभ- ऊार के सक्षिप्त विवरण से हम इस निष्कर्ष पर देव की महिमा का गान करते हए जैन संस्कृति को पहचत है कि श्रमण सस्कृति भारत की एक महान सम्कृति वेदो से भी प्राचीन प्रमाणित कर रहे है। और सम्यता है जो प्रागतिहासिक काल में ही भारत के पाश्व, अरिष्टनेमि तथा महावीर : विविध अचलो मे फलती और फलती रही है। यह सुपाश्र्वनाथ", अरिष्टनेमि तथा महावीरादि तीर्थ सम्कृति वैदिक संस्कृति की धारा नहीं है, अपित एक दूरों की स्तुति का वेदों में तथा वेदोत्तरकालीन साहित्य में स्वतन्त्र सस्कृति है। इस सरकृति की विचारधारा वैदिक उल्लेख हुमा है प्रातिथ्यरूपं भासरं महावीरस्य नग्नहुः । मस्क्रति की विचारधारा से पृथक् है। रूपमुपदामेततिस्त्रो रात्री सुरासुता ।५ इस प्रकार, यह स्पष्ट है कि जैन सस्कृति, जिसे श्रमण यजर्वेद के उपरोक्त मन्त्र में भगवान महावीर का संस्कृति कहा गया है, वैदिक और बौद्ध सस्कृति से पूर्व नामोल्लेख स्पष्ट है। की संस्कृति है, भारत की प्रादि संस्कृति है। COD उपर्युक्त मन्त्रों मे तीर्थङ्करों (ऋषभदेव, सुपाव, जैन दर्शन विभाग, अरिष्टनेमि, महावीर प्रादि) का उल्लेख किया गया है। राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर (राज.) ६२. (१) ऊं सुपावभिन्द्र हवे। -यजुर्वेद स्वस्ति न स्ताक्ष्यो अरिष्टनेमि, (२) ज्ञातारमिन्द्रं ऋषभ वदन्ति स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ।। प्रतिचारंमिन्द्र तमपरिष्टनेमि भवे भवे । -सामवेद प्रपा०६०३ सुभवं सुपाश्र्वमिन्द्रं हवेतु शक्र । १४. देववाहिवर्धमानं सुवीर, स्तीर्ण राये सूमर वेद्यस्याम । अजितं तद् वर्द्धमान पुरुहूतमिन्द्रं स्वाहा ।। तनाक्तवसव. सीदतेद, विश्वे देवा यादित्याय जियः सः ।। १३. (१) ऊ रक्ष रक्ष अरिष्टनेमि स्वाहा। -यजुर्वेद - ऋग्वेद म० २ ० १, मूबत ३ (२) त्वा रथ वयद्याहुवेमस्तो मेरश्विना सविताय नव्य : ६५. यजुर्वेद - प्र. १६ मं० १४ । अरिष्टनेमि परिद्यामियानं विद्यामेषं वजनं. ६६. Radha Krishnan Indian Philosophy, जीरदानम् ॥ - ऋग्वेद अ० २ म०४ व २४ Voll, pp 287. (३) वाजस्यनु प्रसव पावभूबेमा, ६७. Indian Antiquary, Vol. 3. pp. 90. च विश्वा भुवनानि सर्वतः । १८. जैन पथ प्रदर्शक (भागरा) भा० ३, प्र० ३, पृ. १०६ स नेमिराजा परियाति विद्वान्, EE. Historical Gleanings, pp 78. प्रजां पुष्टि वघेयमानो असो स्वाहा ।। १००. अनेकान्त-वेदो में गजते जन सम्वृति के स्वर .. -यजुर्वेद भ०६ मा २५ मार्च १६७१. वप: J० ३६ ३७ । (४) स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः, १०१. प्रजन विद्वानो की मम्मलिया, जन पर प्रदर्शक, स्वस्ति न पूषा: विश्वेदेवाः। (गिग) भाग-३, पृ. ३१, । Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनेन्द्र प्रतिमा का स्वरूप तथा उसका महत्त्व ॥ श्री राजीव प्रचंडिधा, अलीगढ़ 'सत्यं शिवं सुन्दर' का समन्वित रूप कला है। कला उसके मूर्ति-विधान मे केवल वीतरागता यानी राग-द्वेष से के अन्तर्गत 'जैन मूर्ति कला' सुन्दरता के साथ-साथ सत्य परे के ही अभिदर्शन होते है। जिनेन्द्र मूर्तियां चाहे नन्द तथा कल्याण की भावना से अनुप्राणित है। सचमुच जैन या मौर्य काल की हो, चाहे कुशान काल को रही हों, मूर्ति कला अपनी विशेषता रखती है । कला-क्षेत्र मे ससका चाहे प्राचीनतम काल की हो, प्राज की जिनेन्द्र प्रतिमाओ अपना एक स्थान है। से भिन्नता रखती है। सर्वप्रथम मस्तिष्क मे प्रश्न उठता है कि मूर्ति क्या जिनबिम्ब यद्यपि निर्जीव है, पर लगते है सजीव है? 'मूति' के अनेक पर्याय है-प्रतिमा, प्रतिकृति, चित्र, से। पापाणादि के होते हए भी वे पच भौतिक तत्त्वो तस्वीर, शक्ल-सूरत, फोटो प्रादि-आदि । किन्तु समझने (क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा) से विनिर्मित शरीरकी दृष्टि से मूर्ति को दो वर्गों में वर्गीकृत किया जा मय है। मूक में भी अमुक दिखते है । कारण ? कारण सकता है : यह है कि विम्ब एक ऐसे शिल्पी के द्वारा तराशे जाते है १. तदाकार मूर्ति । २. अतदाकार मूर्ति । जो इनमे वीतरागता, विरागता तथा समता जैसे सुन्दर पदार्थ के असली आकार को मूर्ति तदाकार मूर्ति के सस्कारो को भरने में काफी सक्षम होते है। वास्तव मे अन्तर्गत पाती है, जैसे मनुष्य, हाथी, घोड़ आदि के खिलौने, ये बिम्ब विन बोले हो मानव के सोय हुए पात्म सस्कारों तस्वीर, प्रतिमा मादि । पदाथ क मसला याकार मन हात को जगा दते है, और भर देते है उनमें एक नई चेतना । हए भी जिस मति मे उस पदार्थ का वाध कराने का चिह्न इनके दर्शन मात्र से व्यक्ति सुख-शान्ति से प्राप्लावित हो समाहित हो वह मतदाकार मूर्ति कहलाती है। उदाहर जाता है । सच है वीतरागी की वीतराग मूर्तियो से रागणार्थ, शतरज की गोटें । ये गोटें शतरंजी खेल म राजा, द्वेष को जीतने की प्रेरणा व्यक्ति में समा जाती है। मन्त्री, हाथी, घोडा प्रादि के स्वरूप को स्थिर करती है।' __ यह अपने मे सत्य है कि बिम्ब का प्रभाव मानव सचमु व जिनेन्द्र बिम्ब स्थायी कोश है और हैं अन्तहृदय पर स्पष्ट रूप से पड़ा करता है, इस बात को विज्ञान रग के प्रेरक । ये बिम्ब उन दिव्य आत्माओ का हमे क्षण भी स्वीकारता है। बाह्य वस्तुओं की प्रेरणा से जा विचार प्रतिक्षण स्मरण करते है जिन्होने लोकहित के लिए तथा बिम्ब मस्तिष्क मे बनते है, उनका प्रभाव मानव शरीर के स्व-पर कल्याण के लिए अपना जीवन समर्पण किया है। कण-कण पर पड़ता है, ऐसा डा० लिटनटन कहत है। धन्य है और अनन्य है ऐसे जिनेन्द्र बिम्ब जिनसे व्यक्ति सचमुच गन्दे प्रतिबिम्ब गन्दगी फैलाते है और उजले अज्ञान के घरातल से उठकर ज्ञान के पामीर तक सहज वीतराग प्रतिबिम्य स्वच्छता । मे पहुच लेता है। जैन धर्म प्रवृत्ति की अपेक्षा निवृत्ति मूलक है, अर्थात् जिन प्रतिमा व उनका स्थान (मन्दिर) वस्तुतः अभिलाषामो (बहिरंग विषय-कषायादि) के त्याग पर चैत्य व चैत्यालय कहलाते है। ये मनुष्य कृत भी होते है विशेष बल देता है। प्रस्त, प्रारम्भ से लेकर अधुनातन और प्रकृत्रिम भी । मतुष्यकृत चैत्यालय तो मनुष्य लोक १. 'मत्यार्थ दर्पण'-- स्व. पं० प्रजित कुमार जैन, शास्त्री, सन १६३७, भा. दि. जैन शास्त्राथं सघ, अम्बाला छावनी। Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनेन्द्र प्रतिमा का स्वरूप तथा उसका महत्त्व चिह्न हाथी में ही मिलते हैं, परन्तु प्रकृत्रिम चैत्यालय चारों प्रकार हाथ की हथेली दायें हाथ की हथेली से नीचे होती है) के देवों के भवन प्रासादों या विमानों में तथा स्थल- और खड्गासन (इसमे प्रतिमा सोधी, खड़ी तथा जानुस्थल पर इस मध्य लोक में विद्यमान है। इस लोक पर्यन्त लम्बायमान बाहु वाली होती है) में ही सर्वत्र दिखाई में स्थित होने के फलस्वरूप प्रतिमा स्थावर कहलाती है देती हैं। तीर्थङ्गर की मूर्तियों को उनके चिह्नों से पहि और मोक्षगमन काल में एक समय के लिए वही जंगम चाना जाता है, चाहे वे खड्गासन हों या पद्मासन । जैन जिन प्रतिमा कहलाती है। धर्म में चौबीस तीर्थङ्कर हुए है। इन चौबीसों तीर्थङ्करों जैनदर्शन के अनुसार, व्यक्ति अपने कर्मों का विनाश " के अपने-अपने चिह्न होते है, जिनसे वे समझे-पहिचाने कर स्वयं परमात्मा बन जाता है और उस परमात्मा को जाते है कि यह प्रमक तीर्थदुर है। ये चिह्न तीर्थङ्कर के दो अवस्थाएँ होती हैं -एक शरीर महित, जीवन्मुक्त दायें चरण के प्रगठे में होते है, किन्तु जिनेन्द्र मूर्तियो के अवस्था और दूसरी शरीर रहित, देह मुक्त प्रवस्था । सामने ही ये चिह्न बना दिये जाते है ताकि सहज में ही पहली अवस्था को अर्हन्त कहा जाता है तथा दूसरी मूर्ति के माध्यम से तीर्थङ्कर की पहिचान हो सके । तीर्थअवस्था सिद्ध कहलाती है। प्रहन्त भी दो प्रकार के होते डुरों के नाम और चिह्न निम्न प्रकार से हैहै -- तीर्थङ्कर पोर सामान्य । विशेष पुण्य सहित पर्हन्त विशेष पण्य सहित प्रहन्त तीर्थङ्कर । जिनके कि कल्याणक महोत्सव (जीवनकाल की पाच १. श्री ऋषभनाथ प्रसिद्ध घटनास्थलों का उत्मव–गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान, २. श्री अजितनाथ निर्वाण) मनाए जाते है, तीर्थङ्कर कहलाते है और शेष ३. श्री सम्भवनाथ घोड़ा सब सामान्य ग्रहन्त कहलाते हैं।' ४. श्री अभिनन्दन नाथ बन्दर जिनेन्द्र भगवान के इस स्वरूप को समझकर अब यदि ५. श्री सुमतिनाथ चकवा जिनेन्द्र प्रतिमा का अध्ययन किया जाय तो नहज में ही . श्री पदम कमल ज्ञात हो जाएगा कि जिनेन्द्र प्रतिमा अर्हन्त (तीर्थङ्कर) ७. श्री सुपार्श्वनाथ सातिया (स्वस्तिक) तथा सिद्ध अवस्था में ही पायी जाती है । माट प्रातिहायों ८. श्री चन्द्रप्रभु चन्द्रमा (अशोक वृक्ष, तीन छत्र, रत्न खचित सिंहासन, मुख से ६. श्री पुष्पदन्त मगर दिव्य वाणी प्रगट होना, दुन्दुभिनाद, पुषवृष्टि, प्रभा- १०. श्री शीतलनाथ कल्प वृक्ष मण्डल, चौंसठ चमर युक्तता) से युक्त तथा सम्पूर्ण शुभ ११. श्री श्रेयांस नाथ अवयवो वाली वीतरागता के भाव से पूर्ण अर्हन्त को १२ श्री वामपज्य भैसा प्रतिमा होती है तथा सिद्ध की शुभ प्रतिमा प्रातिहार्यों से १३. श्री विमलनाथ शूकर रहित होती है।' १४. श्री अनन्तनाथ सेही सीकर की मूर्तियां केवल दो ग्रासनों--पद्मासन १५. श्री धर्मनाथ वचण्ड (इस अवस्था मे तीर्थङ्कर के दायें चरण ऊपर तथा बायें १६. श्री शान्तिनाथ हरिण चरण नीचे होते है और हाथ इस क्रम में होते है कि बायें १७. श्री कुन्थुनाथ बकरा १. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग २, क्षु० जिनेन्द्रवर्णी, पृ० ३. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग १, क्षुल्लक जिनेन्द्र वज ३००, प्रथम संस्करण, सन् १९७१, भारतीय ज्ञान पृ. १४०, प्रथम संस्करण, १९७०, भारतीय ज्ञानपीठ पीठ, दुर्गाकुण्ड मार्ग, वाराणसी-५ । दुर्गाकुण्ड मार्ग, वाराणसी-५॥ ४. तिलोय पण्णति, गाथा संख्या ६१५-६२७, अधिकार २. दर्शन पाहुड, गाथा संख्या २७, पृ० ११, प्रथम संस्करण संख्या ४, प्रथम संस्करण वि० स० १६१६, जीवराज वि. स. १९७७, माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, बम्बई। ग्रन्थमाला, शोलापुर । गैडा Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४, वर्ष ३१, कि०३.४ अनेकान्त चिह्न तीर्घङ्कर १. जिनेन्द्र प्रतिमा की स्पन्दन रहित नेत्र दृष्टि तीन १८. श्री अरहनाथ मत्स्य (मछली) वेदों (स्त्री, पुरुष, नपुंसक) के प्रभाव की ज्ञापक है। १९. श्री मल्लिनाथ कलश २. जिनेन्द्र प्रतिमा की नासा दृष्टि, बाह्य पदार्थों के २०. श्री मुनि सुव्रतनाथ कछुवा प्रति ममत्व न होने का संकेत कराती है। २१. श्री नमिनाथ नील कमल ३. जिनेन्द्र मूर्तियां निराभरण होती है जो भगवान् २२. श्री नेमिनाथ शंख में व्याप्त विरागता के अभिदर्शन कराती हैं। २३. श्री पार्श्वनाथ सर्प ४. जिनेन्द्र विम्ब के भटि रहित होने से क्रोध का २४. श्री महावीर प्रभु सिंह अभाव भगवान मे दिखाई देता है। इनमे से ऋषभनाथ का दूसरा नाम आदिनाथ तथा ५. प्रक्षसूत्र (जनेऊ), जटामुकट और नर मुण्डमाला पुष्पदन्त का दूसरा नाम सुविधिनाथ और महावार के को न धारण करने से, मोह के न होने का सकेत मिलता है । दूसरे नाम वर्द्धमान, सन्मति, वीर, प्रतिबीर है। ६, जैन मूर्तियो के वस्त्र रहित होने से प्रतरंग मे भी जिनेन्द्र प्रतिमा अनेक लक्षणो से युक्त होती है तथा परिग्रह का प्रभाव दिखाई देता है। जनेतर मूर्ति से सर्वथा भिन्न हुआ करती है। निश्चय ही ७. जिनेन्द्र मूर्तिया कुटिल अवलोकन से रहित होती जन प्रतिमाये दूर से ही पहिचानी जा सकती है। जिनेन्द्र है जो भगवान में ज्ञानावरण व दर्शनावरण के पूर्ण प्रभाव प्रतिमा खड्गासन या पद्मासन रूप मे सुन्दर-सस्थान वाली की जानकारी देती है। दिगम्बर (नग्न) होती है। श्री वृक्ष लक्षण से भूषित वक्ष ८. जिनेन्द्र प्रतिमा निरायुध होती है जो क्रोध, मान, स्थल और उनक कुक्षि प्रादि अग रोम हीन होते है तथा माया, लोभ नामक कषायो तथा जन्म, मरण और हिंसा म्छ व झुरियो आदि से रहित होत है। के प्रभाव का सकेत कराती है। लक्षणो से सयुक्त भी प्रतिमा यदि नेत्र रहित हो या ६. जिनेन्द्र प्रतिमा के वक्षःस्थल पर श्री वृक्ष का चिह्न मुन्दी हुई आख वाली हो तो शास्त्रानुकूल नही मानी स्व तथा पर के कल्याण का द्योतक है। जाती, इसलिए उनके नेत्र प्राधे खुले रखे जाते है, अर्थात् जिनेन्द्र प्रतिमा के समीप मे अष्ट मंगल द्रव्य तथा न तो प्रत्यन्त मुन्दे हुए और न अत्यन्त फटे हुए। वे तो नितान्त अर्द्धमीलित होते है । ऊपर नीचे अथवा दाये-बायें १०८ उपकरण-शृंगार, कलश, दपंण, चंवर, ध्वजा, उनकी दृष्टि नही होती है, अपितु नासाग्र प्रसन्न व निवि वीजना, छत्र, सुप्रतिष्ठ, पात्री, शख, धूपनी, दीप कूर्च पाटलिका, झाझ, मजीरा ग्रादि भी यथायोग्य विद्यमान कार मय उनकी दृष्टि दिखाई देती है। उनके मध्य भाग व अधोभाग भी वीतराग प्रदर्शक होते है। तथा सुशोभित होते है। जिनेन्द्र प्रतिमानो के जो लक्षण अभी-अभी निरूपित यदि जिनेन्द्र प्रतिमा दोषयुक्त है तो उससे हानियाँ किए है, उनके पीछे उनका रहस्य अप्रकट रहता है, जब भी हो सकती है, जैसे दायी-बायी दृष्टि से अर्थ का कि इन लक्षणो की अपनी विशेषता है, ये तीर्थङ्करो के नाश, अधोदष्टि से भय तथा ऊर्ध्वदृष्टि से पुत्र व भार्या प्रच्छन्न गुणों को व्यक्त कराते है, जानकारी देते है। इन का मरण होता है। स्तब्धदष्टि से शोक, उद्वेग, सताप लक्षणो की सार्थकता इस प्रकार से है : तथा धन का क्षय होता है। १. दैनिक जैन धर्मचर्या, अजितकुमार शास्त्री, प्रभाकर, ३. तिलोयपण्णत्ति, अधिकार संख्या ४, गाथा संख्य' पृष्ठ ३७, द्वितीय सस्करण, १६५६, ४५३७, पहाड़ी १८७६-१८८०, प्रथम संस्करण, वि० स० १६१६, धीरज, दिल्ली। जीवराज ग्रन्थमाला, शोलापुर । १. धवला, पूस्तक संख्या ६, खंड संख्या ४, भाग १, ४. वसुनन्दि प्रतिष्ठा पाठ, परि० ४१, श्लोक न सूत्र ४४, पृष्ठ सल्या १०७, अमरावती। ७५-८०। Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनेन्द्र प्रतिमा का स्वरूप तथा उसका महत्व सदोष प्रतिमा को पूजना प्रशुभ माना जाता है, क्यों है इसलिए प्रायुधरहित होने पर भी अत्यन्त निर्भय स्वकि उसमे पूजा करने वाले का अथवा प्रतिमा के स्वामी रूप है तथा नाना प्रकार की क्षुत्पिपासादि वेदनानो का का नाश, अंगो का कृश हो जाना अथवा धन का क्षय विनाश हो जाने से आहार न करते हुए भी तृप्तिमान है। प्रादि फल प्राप्त होते है। अंगहीन प्रतिमा क्षय व दुख निःसन्देह ये जिन प्रतिमाये व्यक्ति को सुप्तावल्या को देने वाली है। नेत्रहीन प्रतिमा नेत्रध्वंस करने वाली से जागत अवस्था की पोर ले जाती है। अचेतन से तथा मुखहीन प्रतिमा अशुभ करने वाली है। हृदय से चेतन की दिशा में व्यक्ति को झकाती है। कुश प्रतिमा महोदर रोग या हृदय रोग करती है। प्रस यह अपने में सत्य है कि तीर्थङ्कर के मनन्त ज्ञान, या अंगहीन प्रतिमा पुत्र को तथा शुष्क जंघा वाली प्रतिमा अनन्त दर्शन, सम्यग्दर्शन, वीतरागतादिक गुण प्रहप्रतिमा राजा को मारती है। पाद रहित प्रतिमा प्रजा का तथा और सिद्ध प्रतिमा मे नही है, वग्न उन गुणों का स्मरण कटिहीन प्रतिमा वाहन का नाश करती है। होने मे ये कारण अवश्य होते है, क्योंकि अहंत पोर सिद्धों उपयंडित सब बातो को ध्यान में रखकर जिनेन्द्र का उन प्रतिमानो में मादृश्य है। यह गुण स्मरण, अनुभगवान की प्रतिमाये सदैव दोषहीन बनायी जाती है, वे राग स्वरूप होने में ज्ञान और श्रद्धान को उत्पन्न करता है निर्दोष होती है। पोर इससे नवीन कर्मों की महानिर्जरा होती है, अर्थात प्रा: जब यह जाना और माना जाता है कि प्रात्मा । नवीन कर्मों का झड़ना होता है। ही पूज्य हे ता फिर जिनेन्द्र मूर्ति को क्या आवश्यकता प्रतः पाक्षिक श्रावक को अपनी श्रद्धा और सामर्थ्य है ? उम का क्या महत्त्व ? के अनुसार जिन बिम्ब, जिन मन्दिर प्रादि धर्मायतन मी मात्र तीर्थहरो के गुणों का स्मरण एवं चिन्तवन (धर्म के स्थान) बनवाने चाहिए क्योकि उनक बनवाने से कम दन का माध्यम है। माधन । पाप और हम सभी बड़ा भारी धर्मानुबन्ध होता है, साथ ही इनके बनवाने से जानने कि मन बड़ा चंचल है। वह बिना लगाम के धर्म की रक्षा और वृद्धि होती है। यद्यपि जिनबिम्ब व । कपोकी भांति है। फिर ऐसे अस्थिर मन को जो निन मन्दिर प्रादि बनवाने मे हिसादि दोष लगते है परन्तु पल पल मे भागता है, दौडता है, केमे स्थिर किया वे दोष - -दोष नही है, पुण्णबंध के कारण है।' जमा कि जाय? केमे एकाग्र किया जाय ? लोलगता है कि केवल लिखा भी है 'तत्यानमपि न पाप पत्र महाधर्मानुबंधः" जिनेन्द्र प्रतिमानों के द्वारा ही मन जैसे तेज दौड़क को अर्थात वह पाप भी पाप नही है कि जिसमें बड़ा भागे शुभ प्रवृत्ति में लगाया जा सकता है, उसे स्थिर किया जा धर्मानबंध हो। सकता है। इस पंचम काल में ऐसे तीव्र मोहनीय कर्म का उदय जिनेन्द्र प्रतिमा के समक्ष व्यक्ति विचार करता है होता है जो किसी से निवारण नहीं किया जा सकता। कि हे प्रभो! आपको कितनी प्रशान्त मुद्रा है, पाप में जिनके शास्त्ररूपी नेत्र है ऐसे विद्वान् लोगों की बुद्धि कितनी शान्ति है और आप कितने महान् है, पवित्र हैं। अर्थात् अन्तःकरण की प्रवृत्ति भी प्राय: जिन प्रतिमा के गुणों के तो आप आगार ही है प्रादि-ग्रादि रूपो से वह दर्शन किये विना भक्ति करने में (उन्हो को एकमात्र स्तवन करता हुमा उनके गुणों को अपने में उतारने की शरण मानकर पूजा-सेवा करने मे) प्रवृत नहीं होती। प्रेरणा प्राप्त करता है। सचमुच जिनेन्द्र भगवान का रूप 'प्राय:' 'शब्द से यहाँ यह अभिप्राय है कि कोई-कोई, ज्ञान राग द्वेष से परे वीतरागमय है। इसलिए वस्त्र रहित, और वैराग्य भावना मे तत्पर भव्य जीव प्रतिमा दर्शन के नग्न होने पर भी मन को हरने वाला है। प्रापका यह बिना भी परमात्मा के प्राराधन करने में लीन हो जाते है रूपन औरों के द्वारा हिस्य है और न पोरों का हिंसक और अन्य लोग प्रतिमा दर्शन से ही परमात्मा का पारा १. सागार धर्मामृत, श्लोक सख्या ३५, पृ० १०६, प्रथमावृत्ति, वि० सं० २४४१, मूलचन्द किशनदास कापड़िया, सूरत । Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : प्राचरण के शक्ति पुंज डा० महेन्द्र सागर प्रचंडिया, अलीगढ़ परिनिर्वाण काल मे महावीर के विषय में बहुविधि समता ने सचार किया। व्यक्ति उदय से वर्गोदय और विचार विवेचना हुई है। जहां तक मुझे लगा-महावीर अन्ततोगत्वा सर्वोदय मुखरित हुआ। समुदाय और समाज को उपासना का प्रादर्श मानकर उनके उपासको द्वारा को समझ कर महावीर इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि---- जिस प्रास्था की स्थापना हई, उसने उन्हे मात्र देवालय कोहो पोई पणासेई माणो विणय नासणो। तक सीमित कर दिया, फलस्वरूप व्यक्ति और वस्तु-बोध माया मिताणि नासई लोहो सम्वविणासगो।। में बाधा उत्पन्न हुई है। मेरी धारणा बनी है कि महावीर _ अर्थात् क्रोध प्रीति का नाश करता है, मान विनय का मात्र उपासना के नही, अपितू माचरण की प्रतिशय शाक्ति नाश करने वाला है, माया मंत्री का विनाश करती है और थे। उन्होंने जो कहा उसे हम अाज तक गाते-वृक्षगते है। लोभ सब (प्रीति, विनय पोर मैत्री) का नाश करने उन्होंने जो किया, अथवा उनके द्वारा जो हुग्रा, उससे हम वाला है। प्रस्तु, उन्ह प्रायः अपरिचित मोर उपेक्षित रहे है । वस्तुतः उन्होने जो सत्य, प्रचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह –को स्थान दिया । किया, हमारे लिए वही प्रादर्श के रूप में अधिकतर उप- व्रत-व्यवहार से जीवन जागृत होता है। जीवन व्यापी योगी रहेगा। संकीर्णता के समूल समापन के लिए उन्होंने स्यावाद की महावीर ने धर्म को संकीर्ण नही बनाया। उसकी शैली और अनेकान्त जमे सफल सिद्धात की उपयोगिता माकीर्णता उन्हे सर्वथा प्रियकर रही है। उन्होने प्रावश्यक का सम्यक उद्घाटन कर दिया। समझा कि धर्म की अभिव्यक्ति लोकभाषा मे होनी चाहिए, प्राज भ० महावीर का चरित्र हमारे जीवनोत्कर्ष के ताकि उसके समझने के लिए समय-परिधि में न बंधना लिए परमोपयोगी है। उन बातो को मात्र गाने दुहगने पड़े । धर्म तो हमारी जीवन-चर्या का स्वभाव होता है, की अावश्यकता नहीं है अपितु उन सभी बातो को हमारी प्रतः उसका जीवत होना अत्यन्त प्रावश्यक है। जीवन-चर्या से चरितार्थ होना चाहिए, तभी हम स्वय पौर धर्म का स्वभाव है कि उसे समझ कर व्यक्ति उठे, दूसरों को जीवन जीने देने का निमित्त जुटा पायेंगे। [] व्यक्ति-उठान समुदाय और समाज को उठाती है। महा मानद-सचालक, जैनशोध अकादमी वीर काल मे व्यक्ति विकास हमा। विषमता के स्थान पर आगरा रोड, अलीगढ़ (उ. प्र.) (पृष्ठ ६५ का शेषांश) प्रतिमा हेय है, प्रवन्दनीय है। स्वकीय शासन में भी उत्कृष्ट घन कर सकते है। प्रतिमा वन्दनीय है, अनुत्कृष्ट नहीं। उत्कृष्ट और अनु___ यह निश्चित है कि जहाँ निन बिम्ब व जिन मन्दिर त्कृष्ट प्रतिमा क्या है ? पच जनाभासों के द्वारा प्रतिष्ठित होते है वहाँ के गहस्थ पूना, अभिषेक प्रादि धर्म कार्य आदि धम काय अजलिका रहित तथा नग्न भी मूर्ति वंदनीय नहीं है । जैनाकरके सदा धर्मोत्सव करते रहते है जिस | उनका पुण्य बघ भासो से रहित साक्षात् प्रात् संघों के द्वारा प्रतिष्ठित होता रहता है और अशुभ कर्म नष्ट होते रहते है । परन्तु ट हात रहत है । परन्तु तथा चक्ष व स्तन प्रादि विकारोंसे रहित प्रतिमा ही वंदनीय जहां जिनबिम्ब व जिन मन्दिर नहीं है वहाँ के गृहस्थ है। इन्द्रनन्दि भट्रारक कहते है कि नन्दिसंघ, सेनसंघ, त रहते है। इसलिए वहाँ न देवसंघ पौर सिंहसंघ इन चार संघो के द्वारा प्रतिष्ठित तो धर्म का उद्योत होता है और न वे पुण्य-बंध कर सकते है, न अशुभ कर्म नष्ट कर सकते है। प्रस्तु, धर्म की स्थिति जिनबिम्ब ही नमस्कार किए जाने योग्य हैं, दूसरे संघों के म जिनविम्ब व जिन मन्दिर भी मख्य कारण है। प्रतः द्वारा प्रतिष्ठित नहीं, क्योंकि वे न्याय व नियम के विरुद्ध हैं। धार्मिक पुरुषों को जिनबिम्ब, जिनमन्दिर अवश्य बनवाना अन्त में, यही कहा जा सकता है कि जिनेन्द्र प्रतिमा चाहिए। इसकाल में ये ही कल्याण करने वाले है तथा ये श्रमण संस्कृति के लिए गौरव की वस्तु है। वह प्रत्येक ही धर्मवृद्धि के मुख्य कारण है। जैन-प्रजैन साधक के लिए पूज्य है, महान है और है जिनेन्द्र प्रतिमा में दिगम्बर प्रतिमा ही पूज्य है, अर्थात् कल्याणकारी। पीली कोठी, मागरा रोड, स्वकीय शासन की प्रतिमा ही उपादेय है धौर परकीय अलीगढ़-२०२००१ १. सागार धर्मामृत, श्लोक संख्या ३६, पृ० १११, प्रथमा- २. सागार धर्मामृत, लोक संख्या ३७, पृ० ११३, वृत्ति, वी० सं० २४४१, मूलचन्द किशनदास काप. प्रथमावृत्ति, वी० सं० २४४१, मूलचन्द किशनदास हिया, सूरत। कापड़िया, सूरत। Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतवर्ष का एक प्राचीन जैन विश्वविद्यालय डा० ज्योतिप्रसाद जैन, लखनऊ ईस्वी सन् की ८वीं शताब्दी मे भारतवर्ष ने एक प्रभूतवर्ष ७६३-८१४ ई.) ने अपनी सफल पाक्रामक साथ तीन साम्राज्यो का उदय देखा-दक्षिणापथ में राष्ट्र नीति के फलस्वरूप दन्तिदुर्ग के उक्त राष्ट्रकट राज्य की कूट, बिहार-बंगाल मे पाल और उत्तरापथ के मध्यप्रदेश एक भारी साम्राज्य के रूप मे परिणत कर दिया, जिसका (गंगा के दोग्राबे) मे गुर्जर प्रतिहार । लगभग दो कि विस्तार सुदूर दक्षिण मे केरल और कांची पर्यन्त था शताब्दी पर्यन्त इन तीनों ही साम्राज्यों मे सम्पूर्ण भारत- और उत्तर में मालवा पर्यन्त, उत्तर-पश्चिम दिशा में वर्ष के एकच्छत्र शासन के लिए परस्पर प्रबल प्रतिद्वन्द्विता प्रायः सम्पूर्ण गुजरात और राजस्थान के कुछ भाग उसके एव होट रही, किन्तु उक्त उद्देश्य में तीनो में से एक भी अग बन गये ये पोर पूर्व में वेंगि के पूर्वी चालूवा उसके सफल न हो सका। तीनो की ही गाथ-साथ स्वतन्त्र सत्ता करद सामन बन गये थे। तदुपरान्त अधिक डेढ गौ वर्ष बनी रही। इतना अवश्य है कि उन तीनों मे विस्तार, पयन्त यह विशाल राष्ट्र कूट साम्राज्य अपनी शक्ति, शक्ति एव ममृद्धि की दृष्टि से राष्ट्रकूट साम्राज्य ही वैभव एव ममृद्धि की चरमावस्था का उपयोग करता सभवतया मर्वोपरि रहा । राष्ट्रकटो का सम्बन्ध दक्षिणापथ हुप्रा प्राय' अक्षुण्ण बना रहा । १०वी शती के तृतीय पाद के अशोककालीन प्राचीन रट्रिकों के साथ जोड़ा जाता है. के अन्त के अगभग वह अकस्मात् धराशायी हो गया। और यह अनुमान किया जाता है कि ६ठी. ७वी शती मे अढ़ाई मी वर्ष का यह काल दक्षिणापथ के इतिहास इनका मूल निवास स्थान वराड या वर)ट (माधुनिक म राष्ट्रकट-युग के नाम से प्रसिद्ध हुमा। अपने समय के बरार और प्राचीन विदर्भ) देश में स्थित लातूर नामक इस गर्वाधिक विस्तृन, वैभवशाली एवं भक्ति सम्पन्न स्थान था, जहाँ उस काल में वे पहले बनवासी के कदम्बो भारतीय साम्राज्य के अधीश्वर इन गष्ट्रकूट नरेशो की के और तदनन्तः वातापी के प्राचीन पश्चिमीय चालुक्य कीर्तिगाथा प्राब मौसागरो के द्वारा सुदूर मध्य एशिनरेशो के प्रति सामान्य करद मामलो के रूप में निवास याई देशो तक पहुंची थी जहा व 'बलहग' (वल्लभराय) करते थे । ७वी शती के उत्तरार्ध में उन्होन शक्ति सवर्द्धन के नाम से प्रगिद्ध हए । राष्ट्रकूटो की इस महती सफलता प्रारम्भ किया और ८वीं शती के द्वितीय पाद के प्रारम्भ का धंग जहां अनकल परिस्थितियो, उनकी स्वय की के लगभग राष्ट्र कट राजा दन्तिदुर्ग एक शक्तिशाली राज्य महत्वाकाक्षा, शौर्य और राजनीतिक पटुता को है वहाँ की नीव डालने में सफल हप्रा और आगामी २५-३० । उसका एक प्रमुख कारण उनकी मामान्य नीति भी थी। वर्षों में वह प्रायः सम्पूर्ण दणिक्षापथ का स्वामी बन बैठा। वे समभ्य और समस्कृत भी थे, साहित्य और कला के अवश्य ही उसने अपने पूर्व प्रभुषों, वातापी के चालुक्य प्रश्रयदाता थे और मवमे बड़ी बात यह कि वे पूर्णतया सम्राटो, की उत्तरोत्तर होने वाली अवनति का पूरा लाभ सर्वधर्म महिष्ण । एलोरा के प्रख्यात गुहामन्दिगे का उठाया, अपितु उनके प्रभुत्व का अन्त करने में सक्रिय उत्खनन कार्य कृष्ण प्रथम के समय में प्रारम्भ हुमा, योग दिया और शनैः शनैः उनके सम्पूर्ण साम्राज्य को जिममे शैव, जैन और बौद्ध तीनो ही सम्प्रदायो ने योग हस्तगत कर लिया। तत्पश्चात् उसके उत्तराधिकारियो, दिया तया उसावनित गुहाम्बापत्य के प्रतिम उदाहरण कृष्ण प्रथम प्रकालवर्ष (७५६-७७२ ई.), गोविन्द प्रस्तुत किये । महानगरी मान्यखेट की नीव गोविन्द तृतीय ७७२-७७६ ई०), प्रव घारावर्ष निरूपम श्री ने ही डाल दी थी और उसके पुत्र एवं उत्तराधिकारी वल्लभ (७७६-७६३ ई०) और गोविन्द तृतीय जगत्तुङ्ग सम्राट अमोघवर्ष प्रथम नपतुग सर्ववम (८१५-८७७ई०) Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८, वर्ष ३१, कि० ३-४ अनेकान्त ने उसका निर्माण करके और उसे अपनी राजधानी बना- स्वरूप जन जीवन के प्रभ्युत्थान में वे प्रमुख भाग लेने मे कर उसे द्वितीय इन्द्रपूरी बना दिया था। साम्राज्य के समर्थ हुए। डा० अलेकर के मतानुमार, सार्वजनिक शिक्षा विभिन्न भागों मे जैनादि विभिन्न धर्मों के अनेक सुन्दर के क्षेत्र मे तो उनका सक्रिय योगदान सम्भवतया सर्वोपरि देवालय तथा धार्मिक, सांस्कृतिक एवं शिक्षा संस्थान था, जिसका एक प्रमाण यह है कि प्राज भी दक्षिण भारत स्थापित हा। इन धर्मायतनों एवं सस्थानो के निर्माण में बालको के शिक्षारम्भ के समय जब उन्हें वर्णमाला एवं सरक्षण में स्वय इन सभ्राटो ने, इनके सामन्त सर- सिखाई जाती है तो सर्वप्रथम उन्हें 'ॐ नमः सिदेभ्यः' दारों और राजकीय अधिकारियों ने तथा समृद्ध प्रजाजनों नाम का मगल सूत्र रटाया जाता है, न कि ब्राह्मण ने उदार अनुदान दिये। उस युग मे पच्चीसियों उद्भट परम्परा का श्री गणेशाय नमः । ॐ नमः सिद्धम्यः' विद्वानों ने प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रश और कन्नड की विशिष्टतया जैन मन्त्र है, हिन्दू, बौद्ध प्रादि अन्य धर्मों से विविध विषयक महत्वपूर्ण कृतियो से भारती के भडार उसका कोई सम्बन्ध नही है। इसी प्राधार पर डा० की प्रभत श्रीवद्धि की। विभिन्न धार्मिक सम्प्रदाय चिन्तामणि विनायक वैद्य ने भी यह कथन किया है कि मामाज्य में साथ-साथ फल-फूल रहे थे। उनके अनुयायी उस युग मे सार्वजनिक शिक्षा के क्षेत्र पर जैन शिक्षको ने विद्वानों में परस्पर मौखिक वाद-विवाद भी होते थे, ऐमा पूर्ण एवं व्यापक नियन्त्रण स्थापित कर लिया था बहुधा स्वयं सम्राट् की राजसभा मे ही, और साहित्य कि जैन धर्म की अवनति के उपरान्त भी हिन्दुजन अपने द्वारा भी खंडन-मडन होते थे, किन्तु ये वाद विवाद प्रौर बालको का शिक्षारम्भ उसी जैन मन्त्र से करते रहना खडन-मडन बौद्धिक स्तर से नीचे नहीं उतरते थे, उनमे वस्तुतः उत्तर भारत के अनेक भागो की प्राचीन पद्धति प्रायः कोई कटता नही होती थी और न विद्वेष या वैमनस्य की प्राथमिक पाठशालाप्रो (चटसालो मादि) मे भी भडकते थे: धामिक अत्याचार और बलात् धर्म परिवर्तन बालको का शिक्षारम्भ उसी जैन मन्त्र के विकृत रूप उस युग में अज्ञात थे। सभी सम्प्रदाय लोकहित, जन- 'प्रोना मासी घम' से होता पाया है, जिसका प्रथं भी जीवन के उत्थान और राष्ट्र के अभ्युदय मे यथाशक्ति प्रायः न पढ़ने वाले ही समझते है और न पढ़ाने वाले ही। सक्रिय सहयोग देते थे। इसी प्रकार, जैन व्याकरण 'कातन्त्र' का मगल सूत्र 'स्वय उपलब्ध प्रमाणाक्षरो से स्पष्ट है कि राष्ट्रकट सिद्ध. वर्णसमाम्नाय.' भी अपने विकृत रूप 'सरदा वरना साम्राज्य मे जैनधर्म की स्थिति पर्याप्त स्पृहणीय थी। मवा मनाया' में भाज भी पाठशालाओं में प्रचलित पाया उसे गज्य एव जनता, दोनो का ही प्रभूत प्रश्रय एव जाता है। सादर प्राप्त था। राष्ट्रकूट इतिहास के विशेषज्ञ डा. अतएव इस विषय मे सन्देह नहीं है कि उस काल मे अनन्त सदाशिव प्रत्तेकर के अनुसार, उस काल मे दक्षिणा- उस प्रदेश में ऐसे अनगिनत जैन सस्थान थे जो शिक्षा पथ की सम्पूर्ण जनसख्या का ही कम से कम तृतीयाश केन्द्रों के रूप में चल रहे थे और उनके कोई-कोई तो ऐसे जैन धर्मावलम्बी था। इस धर्म के अनुयायियो में प्राप. विशाल विद्यापीठ या ज्ञान केन्द्र थे जिनसे ज्ञान की किरणों सभी वर्गों, जातियो एव वगों का प्रतिनिधित्व था- चतुर्दिक प्रसरित होती थी। उनमे राज्यवश क स्त्री-पुरष भी थे, अनेक सामन्त-सरदार, प्रायः प्रत्येक वसति (जिनमदिर) से सम्बद्ध जो सेनापति और दण्डनायक भी थे, ब्रह्मण, पडित और पाटशाला होती थी उसमे धार्मिक एवं सतोषी वृत्ति के व्यापारी एक व्यवसायी भी थे, सैनिक और कृषक भी थे, जैन गृहस्थ शिक्षा देते थे जिनमे बहुधा गह-सेवी या गहमिपी कर्मकार और शुद्र भी थे। जैनाचार्यों ने भी इस त्यागी ब्रह्मचारी, ब्रह्मचारिणियां प्रादि भी होते थे । मयोग का लाभ उठाकर स्वधर्म को राज्य एव समाज की क्षल्लक, ऐल्लक पोर निर्ग्रन्थ मनि भी जब-जब अपने प्रावश्यकताओं के अनुरूप ढालने मे मोर उसे सचेतन एव विहार काल में वहां निवास करते, विशेषकर वर्षावास प्रगतिशील बनाने में कोई कसर नहीं उठा रक्खी। फल. या चातुर्मास काल में, तो वे भी इस शिक्षण में योग देते Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतवर्ष का एक प्राचीन जन विश्वविद्यालय थे। किन्तु जो विशाल ज्ञानपीठ होते थे उनका नियन्त्रण तया संस्थान के कुलपति का पावास स्थल था। एवं संचालन दिग्गज निर्ग्रन्थाचार्य ही करते थे और वहाँ बाटनगर के इस ज्ञानपीठ की स्थापना का श्रेय संभवअपने गुरु-बन्धूनों, शिष्यों-प्रणिष्यो के बृहत् परिवार के तया पंचस्तुप निकाय (जो कालान्तर मे सेनसंघ के नाम साथ ज्ञानाराधना करते थे। अपनी चर्चा के नियमानुसार से प्रसिद्ध हमा) के दिगम्बराचार्यों को ही है । ईस्वी सन् ये निष्परिगही तपस्वी दिगम्बर मुनिजन समय-समय पर के प्रारम्भ के अासपास हस्तिनापूर, मथग प्रथवा किसी यत्र-तत्र पल्पाधिक बिहार भी करते रहते थे, किन्तु अन्य स्थान के प्राचीन पांच जैन स्तूपों से सबंधित होने के स्थायी निवास उनका प्रायः वही स्थान होता था। इन कारण मनियो को यह जापा पञ्चस्तुपान्दय कहलाई। विद्यापीठों मे साहित्य साधना के अतिरिक्त तात्विक, ५वी शती ई० मे इसी स्तपान्वय के एक प्रसिद्ध प्राचार्य दार्शनिक एवं धार्मिक ही नही, लौकिक विषयो, यहाँ तक गृहनन्दि ने वाराणसी से बंमाल देशस्थ पहाड़पुर की ओर कि राजनीति का भी शिक्षण दिया जाता था। साधुनी विहार किया था जहाँ उनके शिष्य-प्रशिष्यो ने बटगोहाली के अतिरिक्त विशेष ज्ञान के प्रर्थी गहस्थ छात्र, जिनमे का प्रसिद्ध संस्थान स्थापित किया था। ६ठी शती मे इसी बहुधा राजपुरुष भी होते थे, इस शिक्षण का लाभ उठाते प्रन्वय के एक प्राचार्य वृपभनन्दि ने दक्षिणापथ मे विहार थे । इन केन्द्रो मे निःशुल्क प्रावास एवं भोजन और सावं किया। इन्ही वषभनग्दि की शिष्य परम्पग मे ७वी शती जनिक चिकित्मा को भी बहुधा व्यवस्था रहती थी। के उत्तरार्ध मे संभवत या धीसेन नाम के एक भाचार्य राष्ट्र कट काल और साम्राज्य के प्रमुख ज्ञानीठो मे हुए पोर संभवतया इन श्रीसेन के शिष्य चन्द्रसेनाचार्य थे मभवतया सर्वमहान वाटग्राम का ज्ञानवेन्द्र था। वराड जिन्होने ८वीं शती ई. के प्रथम पाद के लगभग राष्ट्रकूटो प्रदेश (बरार) मे तत्कालीन नासिक देश (प्रान्त) के के सम्भावित उत्कर्ष को लक्ष्य करके वाटनगर की बस्ती वाटनगर नामक विषय (जिले) का मुख्य स्थान यह के बाहर स्थित चदोर पर्वतमाला की इन चाम्भार लेणो वाटग्राम, वाटग्रामपुर या वाटनगर था जिसकी पहचान मे उपरोक्त ज्ञानपीठ की स्थापना की थी। सम्पूर्ण वर्तमान महाराष्ट्र राज्य के नासिक जिले के डिंडोरी नासिक्य क्षेत्र तीर्थर चन्द्रप्रभु से सबधित तीर्थक्षेत्र तालुके में स्थित 'वानी' नामक ग्राम से की गई है। माना जाता था और इस स्थान मे तो स्वय धवलवर्ण नासिक नगर से पांच मील उत्तर की पोर सतमाला चन्द्रप्रभु का तथाकथित प्राणतेन्द्र निर्मित धवल भवन अपरनाम चन्दोर नाम की पहाड़ीमाला है जिसको एक विद्यमान था। गजपन्था और मागी-तुंगी के प्रसिद्ध प्राचीन पहाडी पर चाम्भार लेण नाम से प्रसिद्ध एक प्राचीन जैन तीर्थ भी निकट थे, एलाउर या ऐलपुर (एलोरा) उत्खनित जैन गुफा श्रेणी है। यह अनुमान किया जाता का शव सस्थान और कन्हेरी का बौद्ध सस्थान भी दूर है कि प्राचीनकाल में ये गुफाये जैन मुनियो के निवास नही। राष्ट्रकटो की प्रधान संनिक छावनी भी कुछ हट के उपयोग मे पाती थी। इस पहाड़ी के उस पार कर उसी प्रदेश के मयूरखडी नामक दुर्ग मे थी और ही वानी नाम का गांव बसा हुया है जहां कि उक्त काल तत्कालीन राजधानी मूलुभजन (मारभंज) भी नातिदूर में उपरोक्त वाटनगर बसा हुमा था। बहुसंख्यक गुफायो थी। इस प्रकार, यह स्थान निर्जन पौर प्राकृतिक भी था, के इस सिलसिले को देखकर यह सहज ही अनुमान होता प्राचीन पवित्र परम्पराओं से युक्त था, राजधानी प्रादि है कि यहां किसी समय एक महान जैन संस्थान रहा के झमेले से दूर भी, किन्तु शान्ति और सुरक्षा की दृष्टि होगा। वस्तुतः राष्ट्रकूट युग में रहा ही था। उस समय से उसके प्रभावक्षेत्र में ही था। अच्छी बस्ती के नकटय इस संस्थान के केन्द्रीय भाग में अष्टम तीर्थङ्कर चन्द्रप्रभु से प्राप्त सुविधानों का भी लाभ था और उसके शोरगुल का एक मनोरम चैत्यालय भी स्थित था जिसके सम्बन्ध से असम्पृक्त भी रह सकता था। एक महत्वपूर्ण ज्ञान केन्द्र मे उस काल में भी यह किंववन्ती प्रचलित थी कि वह के लिए यह प्रादर्श स्थिति थी। चन्द्र सनाचार्य के पश्चात माणतेन्द्र द्वारा निर्मापित है। यह पुनीत चैत्य ही संभव- उनके प्रधान शिष्य ग्रायनन्दि ने सस्थान को विकसित Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १००, वर्ष ३१, कि० ३-४ अनेकान्त किया। संभवतया इन दोनों ही गुरु-शिष्यों की यह प्राचीन प्रति पर से उद्धार करके उसका अन्तिम संस्करण, माकांक्षा थी कि यह संस्थान एक विशाल ज्ञानकेन्द्र बने तो है ही. अन्य कोई रचना हो उसका अभी पता नहीं और इसमें खटखंडागम मादि प्रागम ग्रन्थों पर विशेष रूप चला। इसमें सन्देह नही कि उन्होने अपने संस्थान में से कार्य किया जाय । संयोग से आर्यनन्दि को वीरसेन के एक अत्यन्त समृद्ध ग्रन्थ-भंडार संग्रह किया होगा। लेखन रूप मे ऐसे प्रति भासम्पन्न सुयोग्य शिष्य की प्राप्ति हुई के लिए टनो ताड़पत्र तथा अन्य लेखन सामग्री की जिसके द्वारा उन्हे अपनी चिराभिलाषा फलवती होती आवश्यकता पूर्ति के लिए भी वहां इन वस्तुप्रो का एक दीख पड़ी। वीरसेन, जो सम्भवतया स्वय गजकुलोत्पन्न अच्छा बड़ा कारखाना होगा । अपने कार्य मे तथा सस्थान थे और यह संभावना है कि राजस्थान के सुप्रसिद्ध __की अन्य गतिविधियो मे योग देने वाले उनके दर्जनो चित्तौड़गढ़ के मोगे (मौर्य) राजा धवलप्पदेव के कनिष्ठ सहायक और सहयोगी भी होगे। उनके सधर्मा के रूप पुत्र थे, गुरू की अभिलाषा को पूर्ण करने के लिए मन्नद्ध मे जयसेन का और प्रमुख शिष्यों के रूप मे दशरथ गुरू, हो गये । गुरू की प्रेरणा से वह प्रागमों के विशिष्ट ज्ञानी श्रीपाल, विनयसेन, पद्मसेन, देवसेन और जिनसेन के नाम एलाचार्य की सेवा मे पहुंचे, जो उस समय चित्रकटपुर तो प्राप्त होते ही है। अन्य समकालीन विद्वानो मे उनके (उपरोक्त चित्तौड़) मे ही निवाम करते थे, और उनके दीक्षागुरू प्रार्यनन्दि और विद्यागुरू एलाचार्य के अतिरिक्त समीप उन्होने कम्मपय डिपाहुड मादि प्रागमो का गभीर दक्षिणापथ मे गंगनरेश श्रीपुरुप मत्तरग शत्रुभयकर अध्ययन किया। तदनन्तर वह अपने वाटनगर के संस्थान (७२६-७७६ ई०) द्वारा समादत तथा निर्ग डराज के मे वापस पाये और ८वीं शती ई० के मध्य के लगभग राजनीति विद्या गुरू विमलचन्द्र, राष्ट्रकट कृष्ण प्रथम की गुरु के निधनोपरान्त उक्त सस्थान के अध्यक्ष या कुलपनि सभा मे वाद-विजय करने वाले परवादिमल्ल, अकलदेव बने और प्रागमो की अपनी विशाल टीकापो के निर्माण के प्रथम टीकाकार अनन्तवीर्य प्रथम, तत्त्वार्थश्लोकवातिक, कार्य मे एकनिष्ठ होकर जुट गये । अष्टसहस्री प्रादि के कर्ता विद्यानन्द, हरिवशपुराणकार स्वामी वीरसेन को प्राकृत प्रौर सस्कृन उभय भाषाम्रो जिनमेनमूरि, रामायण आदि के रचयिता अपभ्रंश के पर पूर्ण अधिकार था, सिद्धान्त, छाद, व्याकरण, ज्योतिष महाकवि स्वयंभु प्रादि उल्लेखनीय है। चित्तौड़ निवासी और प्रमाण शास्त्रो में वह परम निष्णात थे। उनके शिष्य महान् श्वेताम्बराचार्य याकिनीसन हरिभद्रसरि भी इनके जिनसेन ने उनके लिए कवि चक्रवर्ती विशेषण भी प्रयुक्त समकालीन थे। भट्टाकलंकदेव को अपनी बाल्यावस्था में किया है। वीरसेन अपने समय के सर्वोपरि 'पूस्तक-शिष्य' स्वामी वीरसेन ने देखा सुना हो सकता है-उनका समझे जाते थे, जिसका अर्थ है कि उन्होने उस समय स्मरण वीरसेन 'पूज्यपाद' नाम से करते थे। स्वामी उपलब्ध प्रायः समस्त साहित्य पढ डाला था। यह तथ्य वीरसेन ने अपनी धवला टीका की समाप्ति सन् ७८१ ई० उनकी कृतियों में उपलब्ध अनगिनत संदर्भ मंकेतो व (विक्रम स० ८३८) मे की थी और ७६३ ई. के लगभग उद्धरणो से भी स्पष्ट है। इन ग्राचार्य पुगव ने जो विद्याल उनका स्वर्गवास हो गया प्रतीत होता है। इसमें सदेह साहित्य सृजन किया उसमे षट्खण्डागम के प्रथम पाच नहीं है कि वाटनगर मे ज्ञान केन्द्र को स्वामी वीरसेन ने खण्डों पर निर्मित 'घवल' नाम की ७२००० श्लोक परि- उन्नति के चरम शिखर पर पहुंचा दिया था। माण महती टीका, छठे खण्ड 'महाबन्ध' का ३०००० उनके पश्चात् संस्थान का कार्यभार उनके प्रिय श्लोक परिमाण सटिप्पण मम्पादन 'महाधवल' के रूप मे, शिष्य जिनसेन स्वामी ने संभाला। यह प्रविद्धकर्ण बालकसाय प्राभूत की 'जयधवल' नाम्नी टीका का लगभग तपस्वी भी अद्भुत प्रतिभा सम्पन्न थे । पाश्र्वाभ्युदय तृतीयाश जो लगभग २५५०० इनोक परिमाण है, मिद्ध- काव्य उनके काव्य कौशल का उत्तम परिचायक है। सन् भूपद्धति नाम का गणित शास्त्र तथा २री शती ई० क ८३७ ई. (शक • ७५६) में उन्होने गुरु द्वारा अधुरे यतिवृषभाचार्य कृत निलीयपणत्ति का किसी जीर्ण शीर्ण छोड़े कार्य- जयधवल के शेषाप को लगभग ४०००० Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतवष का एक प्राचीन जैन विश्वविद्यालय १०१ इलोक परिमाण पूर्ण किया। इस महाग्रन्थ का सम्पादन हाल मे ही नासिक जिले के वजीरखेडा ग्राम से उनके ज्येष्ठ सघर्मा श्रीपाल ने किया था। ऐसा लगता है प्राप्त दो ताम्रशासनों से पता चलता है कि उपरोक्त कि तदनन्तर जिनसेन ने महापुराण की रचना प्रारंभ की कृष्ण द्वितीय के पौत्र एवं उत्तराधिकारी राष्ट्रकट नरेश किन्तु वह उसके प्राद्य १०३८० श्लोक ही रच पाये और इन्द्र तृतीय (६१४-६२२ ई०) ने अपने सिंहासनारोहण उनमें प्रथम तीर्थङ्कर प्रादिनाथ का चरित्र भी पूरा न के उपलक्ष्य मे, एक के द्वारा चन्दनापुर-पत्तन (चन्दनपुर कर पाये कि ८५० ई० के कुछ पूर्व ही उनका निधन या चन्द्रपुर) की जैन बसति को और दूसरे के द्वारा बडहो गया। राष्ट्रकट सम्राट् अमोघवर्ष प्रथम नपतग ने पत्तन (बडनगरपत्तन या वाटनगर) को जैन बसति (८१५-९७७ ई.) उन्हे अपना गुरु मानता था और को भूमि प्रादि का दान दिया था। ये दान द्रविडमंच के यदा-कदा राज्यकार्य से विराम लेकर उनके तपोवन में वीरगण की चीन् यान्वय शाखा या विर्णयान्वय शाखा के पाकर उनके सान्निध्य मे समय व्यतीत करता था। वह वर्धमान गुरु के शिष्य लोकभद्र को समर्पित किये गये थे। स्वयं भी अच्छा विद्वान और कवि था। स्वामी जिनमेनोमा लगता है कि इस काल में इस प्रदेश में सेन गण के के समकालीन विद्वानों में उनके गुरु एवं सधर्माओं के गुरुत्रों का प्रभाव और द्रविडसंघ का प्राबल्य हो जाने से अतिरिक्त हरिवंशपुराणकार जिनसेनसूरि, उपरोक्त स्वामि गृणभद्र या लोकमेन के वर्धमानगुरु नामक किसी शिष्य ने विद्यानन्द, अनन्तवीर्य द्वितीय, अर्ककोति, विजयकीति । द्रविडमध में अपना सम्बध जोड लिया हो और उसमें स्वयभपुत्र कवि त्रिभुवनस्वयभु, शिवकोटखाचार्य, वैधक. अपने परम्परा-गुरु वीरसेन के नाम पर वीरगण की शास्त्र कल्याणकारक के रचयिता उग्रादित्य, गणितसारसग्रह स्थापना करके इस संस्थान का अधिकार अपने हाथ में ले के कर्ता महावीराचार्य और वैयाकरणी शाकटायन पात्य- लिया हो। वजीरखेडा का प्राचीन नाम भी वीरखेडा या कीति उल्लेखनीय है। इनमे से कम से कम अन्तिम तनि वीरग्राम रहा बताया जाता है, वडनगरपत्तन तो वाटनगर को भी सम्राट अमोघवर्ष का प्रथय प्राप्त हुप्रा था। मे भिन्न ही प्रनीन होना है, चन्दपूर या चन्द्रपुर नाम स्वामी जिनसेन के प्रधान शिष्य प्राचार्य गुणभद्र थे, को कोई नवीन बस्ती पूर्वोक्त चन्द्रप्रभ चैत्यालय के ई. जिन्होंने गुरु के अधुरे छोडे प्रादिपुराण को संक्षेप मे पूरा गिर्द विकसित हो गई हो सकती है। किया तथा उत्तरपूराण के रूप मे अन्य २३ तीर्थकरो यों इस महान् धर्म केन्द्र की प्रसिद्धि, संभवतया उसके का चरित्र निबद्ध किया। उन्होने प्रात्मानुशासन प्रोर देवायतनों प्रादि तथा कतिपय सस्थानों को विद्यमानता जिनदत्तचरित्र की भी रचना की। कहा जाता है कि भी, कम से कम अगले सौ-डेढ सौ वर्ष पर्यन्त बनी रही। सम्राट प्रमोघवर्ष ने अपने युवराज कृष्ण द्वितीय का गुरु सन् १०४३ ई० (वि० स० ११००) में धारानगरी के उन्हें नियुक्त किया था। गुणभद्राचार्य का निधन कृष्ण प्रसिद्ध महाराज भोज (१००६-१०५० ई.) के समय में द्वितीय के राज्यकाल (८७८-६१४ ई०) के प्रारम्भ हो, अपना अपभ्रंश सुदर्शनचरित पूर्ण करने वाले प्राचार्य नयलगभग ८५०ई० में हो गया लगता है। उनके समय तक नंदि ने अपने सकल विधि-विधान काव्य में एक स्थल इस परम्परा के गूरुषो का ही वाटग्राम के केन्द्र से सीवा पर लिखा है कि "उत्तम एवं प्रसिद्ध वराड देश के अन्तर्गत एवं प्रधान सम्बन्ध रहा और वह पूर्ववत् फलता-फूलता -कीति लक्ष्मी सरस्वती (के सयोग) से मनोहर वाटरहा, किन्तु गुणभद्र के उपरान्त उसकी स्थिति गोण होती ग्राम के महान महल शिखर (उत्तुग भवन) में जहाँ गई। गुणभद्र के प्रधान शिष्य लोकसन ने अमोघवर्ष के जिनेन्द्र चन्द्रप्रभु विराजते थे, वीरसेन-जिनसेन देवो ने जैन सेनापति बकेयरस के पुत्र लोकादित्य के प्रश्रय में धवल, जयधवल पोर महाबन्ध नाम के तीन शिवपथा उसकी राजधानी बंकापुर को अपना केन्द्र बना लिया (मोक्षमार्गी) सिद्धान्त ग्रन्थों की रचना भव्यजनो को प्रतीत होता है, जहाँ उसने ८९ ई. मे गुरु द्वारा रचित सूखदायी की थी। वही सिद्धि रमणी के हार पुडरीक मोर उत्तरपुराण का ग्रन्थविमोचन समारोह किया था। (शेष पृ० ११० पर) Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार में तत्त्व-विवेचन की दृष्टि D डा. दामोदर शास्त्री, नई दिल्ली जैन साहित्य के इतिहास में 'समयसार' जैसी कृति णति होकर विभाव-अवस्था या विकृति होती है और इस अनुपम है। इस कृति में प्राध्यात्मिकता व दार्शनिकता प्रकार बन्धन और भी दृढ़तर होता चला जाता है। का अनूठा समन्वित रूप देखने को मिलता है, साथ ही संक्षेप मे, मोह व राग-द्वष बन्ध के कारण है।' इसलिए जैन दार्शनिक साहित्य में एक नई परम्परा का सूत्रपात ममक्ष को प्रात्म-ज्ञान तथा रागद्वेषहीन समतावस्था की भी। जैन साहित्य के समग्र इतिहास पर दृष्टि डालें तो प्राप्ति के लिए प्रयत्न करना चाहिए। बन्ध के हेतु हमें इस कृति से पहले एक भी ऐसा ग्रन्थ नही मिलता यद्यपि मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय आदि कई है, जिसमे समयसार की तरह मुक्ति को या परमात्मावस्था तथापि मिथ्यात्व व कषाय का नाश हुए बिना, विशेषतः को प्रतावस्था की स्थिति के रूप में चित्रित किया गया प्रज्ञान या मोह को नष्ट किये बिना साधना की कोटि पर हो । प्रात्म-निरूपण मे जो तत्त्व-दष्टि भी अपनाई गई है, चढ़ना असभव है। वह अपूर्व है । जिज्ञासा स्वाभाविक है कि प्राच यं कुन्दकुन्द इस प्रकार तत्त्व-ज्ञान, विशेषकर आत्मज्ञान जैनको समयसार जैसा ग्रन्थ लिखने की क्या आवश्यकता हुई, मक्तिमार्ग का अनिवार्य अंग है। जैन प्राचार्यों के मत मे या वे कौन-सी परिस्थितिया थी जिन्होने प्राचार्य कुन्दकून्द को 'समयसार' लिखने के लिए प्रेरित किया। इस प्रात्मा का ज्ञान प्रात्मा व अनात्म दोनो को जाने विना प्रश्न के समाधान के लिये हमे जैन दर्शन के बन्ध व मोक्ष सम्भव नही । सक्षेप मे, भेदविज्ञान से ही मुक्ति का द्वार की पूर्व स्वीकृत प्रक्रियाग्रो का अध्ययन करना होगा। खुल सकता है। अतः प्रात्मा के साथ-साथ अनात्म अजीव पदार्थ का ज्ञान भी जरूरी हो गया, और यही समयसार से पूर्व मोक्ष प्राप्ति की जो मान्यता प्रमुख कारण था कि जैन पागम व प्रागमेतर साहित्य जीवरूप से प्रचलित रही, वह यह थी कि प्रात्म-अनात्म का अविवेक हमारे बन्धन का कारण है। प्रात्मस्वरूप का सही अजीव, पंचास्तिकाय या पद्व्य के निरूपणों से भरा पड़ा है। ज्ञान न होने से अनात्म पदार्थ को भी हम पात्मा समझ बैठे है। इसी प्रज्ञान से हमारी प्रात्मा म रागद्वेषादि परि- इस प्रकार, एक तरफ उपनिषदो के 'प्रात्मा वा मरे १. प्रवचनसार, १८३.८४ । २. रागद्वेषविमोहाना ज्ञानिनो यदसभवः । तत एव न बन्धोऽस्य ते हि दन्धस्य कारणम् ॥ -समयसारकलश, ११९ ३. उत्तराध्ययन, ३२.२ तथा ३२.६; प्रवचनसार १.८०-८१, त. सू. १०.१ । ४. तत्त्वार्थसूत्र- १ । ५. दुक्ख हय जस्स न होइ मोहो (उत्तरा, ३२८)। ६. भगवती याराधना-७७१, उत्तरा. ६.२; दशवं. ७. अताणमेव अभिनिगिज्झ एव दुकावा पमोक्खसि । (पाचारांग ) ५. भेदविज्ञानत. सिद्धा: सिद्धा ये किल केचन । अस्यवाभावतो बद्धा वद्धा ये किल केवन ।। (समयसारकलश-१३१) येतात्माबुढ्यतात्मैत्र, परत्वेनैव चापरम् ।। (समाधिश. १) ६. प्रात परं च जाणेज्जा (इसिभासिय-३५१२) । १०.णिय जदय जाणणइयर कहियं जिणेहि छद्दव्वं । तम्हा परछद्दव्वे जाणगभावो ण होइ सण्णाणं ।। (बृहद् नयचक्र-) Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार में तस्व-विवेचन की दृष्टि द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः" के स्वर से, दार्शनिक दृष्टिकोण सम्बन्धी क्रान्तिकारी परिवर्तन भी तो दूसरी तरफ प्रकृतिपुरुषान्यतास्याति से मुक्ति मानने प्रस्तुत किया गया है । उदाहरण-स्वरूप सबंज्ञता के स्वरूप वाले सांख्य दर्शन से जैन दर्शन का ऐकमत्य दिखाई को लें। प्रा० कुन्दकुन्द के पूर्व यह मान्यता थी कि केवल पड़ता है।" ज्ञान का प्रतिफल ससार के समस्त पदार्थों के कालिक हम देखते है कि क्रमशः जैन साहित्य में प्रात्मज्ञान स्वरूप को जानना है। प्राचार्य कुन्दकुन्द ऐसे पहले व्यक्ति द्रव्य ज्ञान का पर्यायवाची-सा बन गया," क्योंकि यह थे, जिन्होंने घोषणा की कि केवली का लोक-ज्ञान एक माना जाने लगा कि किसी भी एक द्रव्य को जानना सब व्यावहारिक दृष्टि से कथन है, वास्तव मे तो वह प्रारमतक सम्भव नहीं, जब तक अकालिक त्रिलोकस्थ पदार्थों तत्त्व का दर्शन है। का ज्ञान न हो।" प्राचार्य कुन्दकुन्द के पूर्ववर्ती मा. नियमसार में उन्होंने कहाउमास्वामी कृत तत्त्वार्थसूत्र मे मोक्षमार्ग का जो रूप अप्पसरूवं पेच्छदि, लोयालोयं ण केवली भगवं प्रस्तुत किया गया है, वह उक्न सब कथनो का प्रतिफलित (नियमसार -१६६)---अर्थात् केवलज्ञान शुद्ध प्रास्मरूप है। इसी क्रम में लोकस्वरूप के सम्बन्ध में भा स्वरूप का द्रष्टा होता है लोकालोक का नही। उनके भारी भरकम साहित्य की रचना बढ़ती गई, और यह मत मे व्यवहार नय मे 'केवलज्ञानी' सर्वद्रव्यपर्यायों को 11 माला भी प्रावश्यक था, क्योकि केवली व ताथ- जानता देखता है, पर निश्चय नय से तो शद्ध प्रात्मा को डरो की सर्वज्ञता का निरूपण करते हुए उन्हे जगत के ही देखता-जानता है।" कालिक पदार्थों का ज्ञाता माना गया। इस प्रकार, हम प्राचार्य कुन्दकुन्द के इन सब कथनो का उद्देश्य यह देखते है कि तत्त्वज्ञान के केन्द्र-बिन्दु ग्रात्मा तक पहुचना रहा कि साधक लोक स्वरूप के परिचायक जटिल साहित्य कुछ जटिल हो गया था। अल्पजीवन वाले साधक जीवा.. मे, साथ ही बाह्य क्रियाकाण्डों में उलझ कर रह न जायर जीव व लोक.स्वरूप के ज्ञान मे ही अगर उलझ जायें तो और प्रात्ममुखी प्रवृत्ति को दृढ करे । प्रात्म-साधना या प्रात्मविज्ञान के मार्ग में प्रगति का मन्द होना स्वाभाविक है। इसलिए यह उस समय की इसी सन्दर्भ मे समयमार के पूर्वरग (प्रस्तावना रूप) मांग थी कि ऐमा साहित्य रचा जाय जो साधक के समक्ष में उन्होंने साधक को प्रात्मलक्षी होने के लिए बड़े हो तत्त्वज्ञान के केन्द्रबिन्दु प्रात्मा को उजागर करे अन्य प्रभावपूर्ण व सहज सुबोधगम्य तरीके से प्रेरणा देते हुए तत्त्वो के ज्ञान की अपेक्षा प्रात्म-ज्ञान को प्रमुखता दे और कहा है - साथ ही ऐसा रास्ता भी सुझाये जिमसे अन्य द्रव्यो का लोक मे हम देखते है कि अर्थ-सिद्धि का स्रोत राजा सामान्य ज्ञान प्राप्त करते हुए, शीघ्र व सरलता से पात्म होता है । यदि 'अर्थ' की प्राप्ति करनी हो तो राजा के तत्त्व की शुद्ध प्रवस्था तक पहुचा जा सके। प्रति श्रद्धा तथा उसके स्वभाव आदि की जानकारी तथा प्राचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थो मे साधक की दृष्टि को उसी का अनुसरण करना प्रावश्यक है, उसी प्रकार । पदार्थ. पूर्ण प्रात्मलक्षी बनाने का प्रयास मफल रहा है। इनमे विज्ञान या मुक्ति-मार्ग का केन्द्रबिन्दु तो प्रास्मा है, उसी ११. बहदा. उप. २.४६। १२. सांख्यकारिका-६४, उत्तरा. ३६.१-२। १३. जे प्रज्झत्थं जाणइ, से बहिया जाणइ । जे बहिया जाणइ से अज्झत्थ जाण ॥ (उद्धृत-- स्याद्वादमजरी, का. १४) जो एग जाणइसे सव्वं जाणइ । जो सव्वं जाणइ से एग जाणइ॥ (माचारांग १.३.४.१२२) १४. प्रवचनसार-४८ । १५. तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् । जीवाजीवानवबन्ध संवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम् (तत्त्वार्थसू. १२ तथा १.४) १६. जाणादि पस्सदि सब्द बवहारणएण केवली भगव । केवलणाणी जाणदि पस्सदि णियमेण मप्पाणं ।। (नियम. १५६) १७.६० समाधिशतक-४॥ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ वर्ष ३१, कि० ३-४ मोगात का श्रद्धान व ज्ञान तथा अनुसरण करना चाहिए।८ पृष्ठभूमि के परिप्रेक्ष्य में इसका कारण ढूंढा जा सकता है। मात्मा का ही ध्यान प्रावश्यक है, अन्य द्रव्यों में ममत्व- जीव के बन्धन का प्रमुख कारण यह है कि वह बुद्धि उचित नहीं। अनात्म को प्रात्मा समझ बैठता है, जब उसे यह ज्ञान यह तो हुआ समयसार का सामान्य उद्देश्य । एक हो जाता है कि शरीरादि अजीव पदार्थ प्रात्मा से पृथक विशेष उद्देश्य भी है जिसका निरूपण करना आवश्यक है। है, तो मुक्ति का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। किन्तु मोक्ष. समयसार में प्रचलित परम्परा से पृथक दार्शनिक दृष्टि- मार्ग के द्रष्टा महापुरुषों की अनुभूति के अनुसार, मुक्ति कोण का प्रतिपादन दिखाई पड़ता है। ममयसार की की प्रकिया मे उक्त स्थिति के बाद यह भी आवश्यक है रचना से पूर्व यह मान्यता थी कि एकत्वबुद्धि और भेद या कि आत्म-स्वरूप का भी ज्ञान हो। साधक राह तो जाने अनेकत्त्व-बद्धि मोक्ष का हेतु है, किन्तु समयसार मे प्रा० ही कि मैं प्रजीव नही हैं, बल्कि यह भी जाने कि 'मैं' कुन्दकुन्द एकत्वबद्धि को ही पाह्य बताने देखे जाते है ।" क्या हूं, या प्रात्मा का क्या वैशिष्ट्य है, क्या स्वरूप है। ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचार्य कुन्दकुन्द प्रतिवाद का समयसार में पूर्व तक यात्मा का जो वैशिष्ट्य या स्वरूप प्रतिपादन करने जा रहे है। परब्रह्म की समकक्षता मे गित होता रहा, वह मक्ति के प्रतिम मोबान तक 'सत' पदार्थ की कल्पना, जिसमे म पूर्ण विश्व समाहित पहुचाने की दाट में पर्याप्त नही था। जैसे प्रात्मा अपने है, प्रवचनसार मे प्राप्त होती है जो इस सदर्भ में उल्लेख- सुख-दुःखो का स्वय कता है, भोक्ता है", पुदगल द्रव्य के नीय है।" वे स्पष्ट शब्दो में कहते है कि शुद्ध प्रात्मा के मंसगं मे पाकर वह स्वभावच्युत हो जाता है और बन्धन में ज्ञाता व ज्ञेय का पार्थक्य नही है ।२२ पड़ जाता है, प्रादि-आदि निरूपण शास्त्रो में मिलता है । ५ प्राखिर इग दार्शनिक दृष्टिकोण को प्रस्तुत करने के यदि साधक यही सोचता है कि मैं सुख दुखो का पीछे क्या पृष्ठभूमि रही है, यह विचारणीय है। कर्ता व भोक्ता हू, मुझसे अजीव पृथक है- तो इससे पं० दलसूम मालवणिया के मत में प्राचार्य कुन्दकुन्द शुद्ध चित्त स्वरूप की प्राप्ति तो नही हो सकती। द्रष्टा व के समय मे अद्वैतवाद की बाढ ग्रा गई थी, प्रोपनिषदिक दश्य, भोक्ता व भोग्य प्रादि के भेद समाप्त हए विना ब्रह्माद्वत के अतिरिक्त शन्यवाद व विज्ञानाद्वैतवाद जैसे मोक्ष प्राप्त नही हो सकता। मै और मेरा का भेद जब वाद भी दार्शनिको मे प्रतिष्ठित हो चके थे। ताकिक व तक रहेगा तब तक मक्ति के द्वार तक ही पहच कर रुक श्रद्धालु - दोनो के ऊपर अढनवाद का प्रभाव सहनही जाना पड़ेगा, क्योकि मै और मेरा की स्थिति प्रात्मा के जम जाता था। यह सामयिक प्रभाव प्राचार्य कुन्द- स्वरूप को ग्वडित करती है। [यही कारण है कि योग कुन्द पर भी पडा। दर्शन में सम्प्रज्ञात समाधि के बाद असम्प्रज्ञात समाधि मेरी समझ मे यही कारण पर्याप्त नही है । दार्शनिक का निरूपण किया गया है।] १८. समयसार -१८ । १६. मोक्खपहे प्रमाण ठवेहि त चेव झाहि त चेव । (समय० ४१२) २०. एयत्तणिच्छयगदा समग्रो सम्वत्थ सुदरो लोए। बंधकहा एयत्ते तेण सिवादिणी होदि । (समय०३) सुदपरिचिदाभवा सम्वस्स वि कम्मभोगबंधकहा। एयत्तस्युवलंभो णवरि ण सुलहो विहत्तस्स ॥ त एयत्त विहत्तं दाएहं अप्पणो सविहवेण । जदि दाएज्ज पमाणं चक्केज छलं ण घेत्तव्वं । (समय ४-५) २१. प्रवचनसार-२.५-६, सत्ता सम्वपयत्था-एक्का । (पंचास्तिकाय-८) २२. एवं भणंति सुद्धं णादो जो सो दु सो चेव । (समय०६) २३. द्र. मागम युग का जैन दर्शन । (पं. मालवणिया पृ. २३२)। २४. अप्पा कत्ता विकत्ता य दुक्खाण य सुहाण य । (उत्तरा० २०.३७) २५. त. सू. ८.२, उत्तरा. ३६। Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार में तस्व-विवेचन की वृष्टि १०५ मक्ति मे प्रखंड, एकरस, अविचल, चित्स्वरूप की इन दोनों मे भी दूसरों को समझाने के लिए 'नय' हो। अनुभति प्रावश्यक है-इस तथ्य का निरूपण करने का प्रधान साधन था। नयो के भी दो प्रकार किये गये थेप्रयास समयसार में किया गया है। मोक्ष की साधना मे (१) द्रव्यास्तिक और (२) पर्यायास्तिक । किन्तु इन दोनों चौदह 'गुणस्थानो' की कल्पना है जिसमें साधक मिथ्यात्व, नयों से प्रारमा की नित्यता व अनित्यता. सकता है. प्रविरति, प्रमाद, कषाय व योग--इन बंधहेतुनों को क्रमशः कता तो हृदयगम की सकती थी, पर शुद्ध प्रात्मविकास जीतता हा प्राग बढता जाता है। इसी तरह साधना के की विभिन्न श्रेणियों का तथा विशेषकर चरम सोपान को पथ में प्रात्मा के तीन रूपों की भी कल्पना की गई है। वे समझने मे पर्याप्त सहायता नही मिलती थी। हैं- (१) बहिरात्मा, (२) अंतरात्मा और (३) पर- प्राचार्य कुन्दकुन्द के समय दार्शनिक क्षेत्र में वस्तु का मात्मा। किन्तु प्रश्न यह था कि पाखिर इस स्थिति को निरूपण दो दृष्टियो से होने लगा था-एक पारमायिक प्राप्त कैसे किया जाय । बहिरात्मा देह को प्रात्मा समझता दृष्टि और दूसरी व्यावहारिक दृष्टि । प्राचार्य कुन्दकुन्द है. अनात्म को प्रात्मा मममता है,८ रागद्वेषयुक्त रहता ने अपने प्रात्मतत्त्व के निरूपण के लिए दो दृष्टियां चुनी है.२९ अन्तगत्मा संसार से, विषयों से विरक्त रहता है, -(१) निश्चय दृष्टि व (२) व्यावहारिक दृष्टि । रागग्रेप-रहित रहता है, परमात्मत्व प्राप्ति के लिए प्राचार्य कुन्दकुन्द के परवर्ती काल मे तो तात्त्विक विवेप्रयत्नशील रहता है, वह इस भावना को दृढ़ करता है कि चनो मे द्रव्यास्तिक व पर्यायास्तिक नयों का प्राश्रय भले परमात्मा मैं ही हूँ, मैं ही मेरा उपास्य " प्रादि। पर- ही लिया जाता रहा, पर प्राध्यात्मिक विकास परक ग्रंथों मास्व की प्राप्ति मात्मा के अन्दर से ही होती है, मे निश्चय व व्यवहार इन दो नयों का ही पाश्रय लिया बाह्य से नहीं, उसी प्रकार जैसे कि (वृक्ष) काष्ठ को जाता रहा है।" गहने से उसमे से प्राग निकल पड़ती है। किन्तु यहा इन दो दृष्टियों को व्यावहारिक व सहजगम्य तरीके यह समस्या थी कि अन्तरात्मा से परमात्मा की स्थिति से प्रस्तुत करते हुए शुद्ध प्रात्म-स्वरूप की झलक दिखाने कसे प्राप्त हो। व्यावहारिक धरातल पर जीने वाले में प्राचार्य कुन्दकुन्द ने सफलता प्राप्त की। निश्चय व साधक को उस अखड परमात्म-तत्त्व की झलक कैसे व्यवहार दृष्टियों का मोटे तौर पर प्राधार यह है कि दिवाई जाय जो सहज बोधगम्य व तार्किक भी हो। ज्यों ज्यो हम अपनी प्रवृत्ति को अधिकाधिक अन्तमखी किसी वस्तु को प्राप्त करने का प्रमुख उपाय यह है कि करते रहेगे या परस्य से हटते-हटते स्वत्व की पोर सीमित उस वस्तु को जाना जाय । परमात्मा का या शुद्ध प्रात्मा होते रहेगे, हम परम तत्व या परमात्मत्व के निकट पहचते का स्वरूप जानने पर ही उसकी प्राप्ति सम्भव होगी- जाएंगे । यह प्राचार्य कुन्दकुन्द का मत था। समवसार से पूर्व दार्शनिक परिभाषा मे, व्यवहार नय 'पर' में भी 'स्व' तक किसी वस्तु को जानने का उपाय प्रमाण व नय था।" का भारोपण कर लेता है," प्रशुद्ध निश्चय नय 'पर' में ३३. सुदं तु विधाणतो सुद्धं चेवप्पयं लहदि जीवो। (समय० १८६) ३४. त० सू० १६ । २६. जोपस्सदि अप्पाण प्रबद्धपुट्ठ अणण्णय णियदं । अविसेसमजुत तं सुद्धणयं वियाणीहि । (समय. १४) २७. समाधिशतक--६०, ५-६ । २८. समाधिशतक-१० । २६. समाधि० १४ ३०. समाधि० १६-२० । ३१. समाधि० ३१ । ३२. समाधि०६८। ३५. द्रष्टव्य --'अधुना अध्यात्मभाषया नया उच्यन्ते' के वाद निश्चयनयादि का निरूपण-मालापपनि । तथा पुरुषार्थसिद्धयुपाय-४। ३६. समयसार टीका, प्रारमख्याति, गाया २७२ । Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६, वर्ष ३१, कि० ३-४ अनेकान्त परत्व बुद्धि तो रखता है, किन्तु 'स्व' में अन्य निमित्त से रात्मा है, अशुद्ध निश्चय नय स्थित प्रात्मा अंतरात्मा है। होने वाले परिणामों में स्वत्व बद्धि रखता है, परत्व बुद्धि अंतरात्मा को परमात्मा बनने हेतु दर्शन, ज्ञान व चारित्र नहीं रखता। शुद्ध निश्चय नय 'स्व' में होने वाले उम्ही इन भेदों को भी भुलाना पड़ता है और अंत में दृष्टा. परिणामों को अपना समझता है जो 'पर' के निमित्त से न दृष्य का भेद भी। इस प्रकार, स्वत्व का केन्द्रबिन्द हए हों।" इसी प्रकार, शरीर को प्रात्मा कहना व्यवहार सिमटता हुमा शुद्ध चित् रूप रह जाता है। नय है, गात्मा में कर्म पुद्गल निमित्त से होने वाले रागादि इसी तरह प्राचार्य कुन्दकुन्द ने यह दृष्टि भी दी कि भावों को प्रात्मा का कहना अशुद्ध निश्चय नय है, और कोई पर-वस्तु किसी मे परिणमन नही करा सकती, प्रत्येक भीमा को प्रखंड. शद्ध, चैतन्य रूप समझना परम शुद्ध वस्त स्वपरिणमन में स्वतन्त्र है।" प्रत: मास्मा स्फटिकवत निश्चय नय है। निलेप व शुद्ध है।" इसलिए प्रात्मा के बन्ध व मोक्ष भी इसी प्रकार, मारमा पूण्य-पापादि कर्मों का कर्ता भाषचारिक है, वास्तविक नही । इस भावना के दोन व्यवहार नय से कहा जाएगा." निश्चय नय से तो प्रकर्ता से प्रात्मा में परमात्म स्वरूप प्रावित होता। ही है । प्रात्मा स्वरागादि भावो का कर्ता प्रशुद्ध निश्चय पुनः स्वरूपच्युत नही होता। नय से है, शुद्ध निश्चय नय से नही।" चैतन्य भाव का समयसार की जिन गाथानों को समझना या उसका कर्ता शुद्ध निश्चयनय से कहा जायगा।" निश्चयनय से सही अर्थ निश्चित करना तब तक और कठिन हो जाता देखें तो प्रात्मा के बन्ध व मोक्ष, पुण्य व पाप आदि है जब तक हम यह न समझ लें कि कौन-सी गापा किस प्रसंगत ठहर जाते है।" व्यवहारनय स्थित प्रात्मा 'पर नय को दृष्टि मे रख कर कही गई है; अन्यथा निश्चय समय' है । निश्चयनयस्थित प्रात्मा 'स्वसमय' है। व्यव- नय मे बाह्य क्रियाकाण्डो का तथा धार्मिक माचरणो की नय निचली कोटि मे स्थित व्यक्ति के जिए है, साधना निरर्थकता सिद्ध करने वाले निश्चय नय परक वाक्यों का की उच्च स्थिति मे तो साधक को निश्चय नय का प्रव- दुरुपयोग होने लगेगा पोर फलस्वरूप तीर्थ-विच्छेद ही हो लम्बन कर ही मुक्ति प्राप्त होती है।" निश्चय नय जाएगा। इस तरह के और भी अनेक प्रसंग हैं जो ग्रन्थ. स्थित प्रात्मा के लिए बाह्य क्रियाकाण्ड सभी व्यर्थ हो कर्ता की दृष्टि न समझने के कारण म्रान्ति उत्पन्न कर जाते है। सकते है। उक्त नय या दृष्टिकोणों से प्राचार्य कुन्दकुन्द ने अध्यक्ष जैन दर्शन विभाग, प्रात्मा के क्रमिक उत्थान को स्थिति को स्पष्ट किया है । लाल बहादुर शास्त्री केन्द्रीय संस्कृत विद्यापीठ, इन नयो के द्वारा प्रात्मा का प्रकर्तृत्व व अभोक्तृत्व, शुद्ध (शिक्षा मंत्रालय, भारत सरकार) चित् स्वरूप तथा प्रखण्ड भाव की भावना साधक के मन १/६, शान्ति निकेतन, मोती बाग, में दृढ हो जाती है। व्यवहारनय मे स्थित प्रात्मा बहि नई दिल्ली-११००२१ ३७. यद्यप्यशुद्धनिश्चयनयेन चेतनानि, तथापि शुद्धनिश्चय- ३६. समय० ७५, ६३ । नयेन नित्य सर्वकालमचेतनानि । अशुद्धनिश्चयस्तु ४० समय० १६६। वस्तुतो यद्यपि द्रव्य कर्मापेक्षया प्राभ्यन्तररागादयश्चे- ४१. समय० १२, पुरुषार्थसिद्धयुपाय-६। तना इति मत्वा निश्चय सज्ञां लभते, तथापि शुद्ध- ४२. समय० १२। निश्चयनयापेक्षया व्यवहार एव (द्रव्यसंग्रह टीका- ४३. सकाधिशतक-८४ । जयसेनकृत, गाथा-३)। ४४. द्र० समय० ३७२ । ३८. समय० १०१। ४५. समय० २७८.२७६ । Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपरिग्रह या श्रम-निष्ठा 0 श्री नमनालाल जैन तीर्थकर महावीर ने 'अपरिग्रह' को धर्म कहा है और लगा होगा। उनका पराक्रम अद्भुत था। उनके जैसा वे स्वय भी मसग थे-इतने कि स्थूल दृष्टि से भी निर्ग्रन्थ पुरुष सुस्त, काहिल या निराशा से ग्रस्त नहीं हो उनका तन शून्य बन गया था। तन को ढोने को विवशता सकता। जिस बात का बीड़ा उन्होंने उठाया, उसके लिए थी, मन्यया भावक्षेत्र मे तो तन भी भार ही था, पराया ऐसे ही पराक्रम को प्रावश्यकता थी कि व्यक्ति का खानाथा। मपरिग्रही को समाज में एक प्रतिष्ठा भी है। पीना, सोना-जागना, पहनना-प्रोढ़ना वही बन जाय । 'परिग्रह' 'अपरिग्रह' के चरणो मे शरण पाने को तरस अपरिग्रह की बात करते समय ध्यान बरबस से उठता है। अपरिग्रह की ऐसी प्रतिष्ठा को निहारकर पर भटकता है। पंसे में ऐसी क्या बात है कि उसको कभी-कभी ईया भी होने लगती है। अनेक बार यह छोड़कर माज कोई विचार ही नहीं टिकता। पंमा केन्द्र प्रतिष्ठा ही मीमा लाघकर परिग्रह बन जाती है। में हो तो बाकी सब ठीक है, अन्यथा सब बेकार। जन्म भगवान महावीर अपरिग्रह को अन्तिम छोर तक से लेकर मत्यू के बाद की क्रिया तक पैसा प्रधान हो बैठा खीच ले गये । निर्वस्त्र होकर उन्होने लज्जा की गांठ भी है। अर्थ को व्यर्थ सिद्ध करने की शक्ति किसम है, नही तोड दी-निर्ग्रन्थ बन गये। तन पर तो गांठ रखी ही कहा जा सकता। महावीर स्वय असग थे, निग्रंथ थे, नही, मन और वाणी में भी कोई गांठ नही थी। भीतर निर्वस्त्र थे और समाज माध्यात्मिक समता का मूल्य और बाहर, दोनो पोर से वे कोरे या खालिस हो रहे। प्रतिष्ठित करने के लिए कटिबद्ध थे, फिर भी क्या वे ऐसी साधना नितान्त कठिन है और जिसके जीवन में यह समाज में से परिग्रह को मिटा सके ? उनकी देशना के सहज बन जाती है उसे नमन ही किया जा सकता है । वे रूप में उपलब्ध ग्रन्थों में संकड़ी कहानिया एवं प्राख्यान कही भी टिक जाते और प्राणी मात्र का कल्याण चाहते थे। से मिल सकते है, जिनमे धन की प्रचुरता का दर्शन कड़वे मीठे बोल भी उनके अन्तस को बेध नहीं पाते थे। होता है। धन के त्याग का वर्णन तो है, पर उसी से यह जो परिस्थिति उनके सामने प्राती, उसकी गहराई में भी ध्वनित होता है कि धन का महत्व भी कम नहीं है। पठते और कुछ ऐसा समाधान खोज निकालते कि समस्या घन-सम्पत्ति के त्याग का अहसास अगर बना रहता है या में उलझा व्यक्ति काण की राह पा जाता। उसमें उनका पाठक के मन पर कथा यह छाप पड़ती है कि अमुक ने प्राग्रह रंच मात्र न होता। वैभव का त्याग किया है, तो यह चीज वैभव की प्रचुरता भागम-ग्रन्थों या पुराण-ग्रन्थों से पता नही चलता का प्राकर्षण ही निर्माण करती है। कि भगवान महावीर ने शरीर-श्रम के नाम पर कोई काम नाम पर कोई काम हमारे ऋषि मुनि कह सकते है कि पंसा शैतान है. किया था। शरीर श्रम की जो परिभाषा प्राज प्रचलित वह आदमी को गिराता है और उमसे विवेक नष्ट हो है, उस अर्थ में तो नहीं ही किया था। वे राजपुत्र थे जाता है। यह बात पैसे का महत्त्व मानकर ही कही जा और उनके सामने मूलभूत समस्या शरीर-श्रम को नहीं सकती है। क्या सचमुच पैसे में इतनी ताकत है कि मनुष्य थी। वे प्राध्यात्मिक दृष्टि से समाज मे समता स्थापित पर उसका काब रहे ? पैसे की कीमत है और वह भी करना चाहते थे। अध्यात्म-दृष्टि के परिपुष्ट हुए बिना राज्य अथवा हमारे द्वारा प्रांकी गई है। अब यह व्यक्ति सामाजिक विषमता का उन्मूलन करना उन्हे असम्भव पर निर्भर है कि वह पैसे को सिर पर चढ़ाना है या पर। Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ कि. ३.४, वर्ष ३१ अनेकाग्व के तले दबाता है या कि जेब में रखता है। नदी और वाले लोगो का पुण्य और परलोक उसी पाप पर सुरक्षित कुएं में प्रादमी दूब कर मर जाता है। क्या यह पानी की होता है। यह कैसी विडम्बना है कि तन को तोड़कर, शैतानियत है ? पानी न शंतान है, न भगवान् । पानी रात-दिन मेहनत करके जो लोग साधु-सन्यासियों का भरणकिसी को मार नहीं डालता, मार नहीं सकता। प्रादमी पोषण करते है, अपना परलोक सुधारते है, वे तो हुए पापी अपनी ही कमजोरी, असमर्थता या प्रज्ञान से डूबता-मरता और बैठे बैठे बिना श्रम के पेट भरने वाले हुए धर्मात्मा ! है। समझ बूझकर पानी से काम लिया जाय तो सब ठीक क्या भगवान महावीर ऐसा धोखे में डालने वा है। वह 'जीवन' ही है। पानी न हो तो प्राण तक जा वंचक, दीन बनाने वाला 'अपरिग्रह' प्रतिप्ठित करना सकते है। यही बात पैसे की है। पैसा सिर्फ पंसा है। उसे चाहते थे? यह ठीक है कि महावीर ने प्रत्यक्ष रूप से हम सिर्फ पैसा ही समझे और समझ-बूझकर उसका उप- श्रम की प्रतिष्ठा का उद्घोष नही किया, न उत्पादक श्रम योग करें, तो वह बड़े काम का भी है। पर जोर दिया। सिद्धान्तवादी लोग यह भी कह सकते है हमारी मश्किल यह है कि पैसे को या तो हम शंतान कि कर्म करना मात्र पापपूर्ण है, मावद्य प्राचार है, धारभ समझते है या फिर भगवान् समझते है। दोनो स्थितियो मे या कि क्रियामात्र में हिमा है और निर्ग्रन्थ महावीर मे पैसे का महत्त्व प्रात्यन्तिक बढ़ जाता है। प्रादमी अन- सायद्य क्रिया का समर्थन नहीं कर सकते थे। फिर भी शान से भी मर सकता है और अधिक खाने स भा मरता महावीर जैमा महापुरुष थम की महत्ता से प्राख नही मद है। बाह्य पदार्थ मे मात्मा से अधिक शक्ति कदापि नहा सकता था। श्रमण शब्द में ही श्रम और संयम की हो सकती, किन्तु शारीरिकता के स्तर से या कि मानसिक प्रतिष्ठा है। स्तर से अधिक मनुष्य की गति नहीं है, इसीलिए मनुष्य प्रभाव मे से अपरिग्रह नही निपजता। जिसमे सग्रह अपने बचाव मे बाह्य या स्थूल पदार्थों पर मारा दोप की शक्ति न हो, वह त्याग नही कर सकता। जितना मढ़ देता है। पराक्रम स ग्रह के लिए आवश्यक है , उससे कम जोर समाज लक्ष्मी की पूजा करता है। 'लक्ष्मी' शब्द के त्याग में नहीं लगता। जिसके पास है ही नही या जो प्रर्थ की खीच-तान करना व्यर्थ है। असल में वह धन की प्राप्त नही कर सकता, वह तो अपनी प्राकाक्षामो मे ही पजाते। लक्ष्मी को 'भक्ति' कहना वैसा ही है जैसे अटक जाता है । इसलिए निर्धनता अपरिग्रह नही है । जो साहित्य की सरसता के लिए मक्ति को 'रमा' कहना। है और काबू में है. उसी को व्यर्थ बना छोड़ना अपरिग्रह एक प्रोर तो हम मोक्ष को रमा-विहीन ही मानते है और हो सकता है । जो अपरिग्रह की ओर बढता है, वह धम दुसरी पोर स्वय मक्ति भी हमारे निकट 'रमा' की उपमा से बचाव नही चाहेगा, बल्कि दुगुना ति गूना भी श्रम में प्रस्तुत हो जाती है। लक्ष्मी का सीधा सादा प्रौर करेगा। अपरिग्रह अगीकार करने वाले की सामाजिक व्यावहारिक अर्थ 'अर्थ' ही है और समाज ऐसा करके चेतना तीव्र हो उठती है और उसमें एक ऐसी व्यापक व्यथा गलती कहां करता है? अर्थ-प्राप्ति के लिए जो परिश्रम, होती है कि वह सबके प्रति सहज उपलब्ध रहता है। प्रयास, पराक्रम करना पड़ता है, उसका कोई हिसाब है ? महावीर ने अपने को समाज में व्याप्त कर दिया समाज को परिग्रह के लिए दोष देना अपने को धोखे में था। उनका व्यक्तित्व समाज को अर्पित हो गया था। डालना है। पूरा का पूरा समाज कभी भी अपरिग्रही व्यक्ति-स्वातन्त्र्य के समर्थक कह सकते है कि महावीर ने नही बन सकेगा, बल्कि जो लोग परिग्रह की सीमा-मर्यादा समाज की परवाह न करके, परम्परामो की परवाह न बांध लेते है, वह भी दोषपूर्ण हो तो पाश्चर्य नही। करते हुए व्यक्ति के स्वतन्त्र विकास का मार्ग खोना था क्या यह बात छिपी है कि हजारों साधु-सन्यासियो यहाँ तक कि विभुसत्ता से भी इनकार किया था। व्यक्ति और मनियो के प्रध्यात्म का सिचन भी भौतिक पैसे से ही का कम ही सब कुछ है । हमें यहां दार्शनिक या सैद्धातिक होता रहता है ? धन को पाप का घर कहने और समझने झमेले में नहीं पड़ना है। इतना अवश्य कहा जा सकता Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपरिग्रह बाबम-निष्ठा १०॥ कि महावीर जैसा तपस्वी और मनस्वी व्यक्तित्व परा- से प्रतिष्ठा पाता है और त्यागीजन उस संग्रह पर सुख की कोटि का विनम्र और श्रमी ही हो सकता है। ऐसा नीद सोकर मोक्ष के सपने देखते है । व्यक्ति समाज पर हावी नही हो सकता। साधना उनकी परिग्रह की प्रतिष्ठा तोड़ने के लिए समाज मे पौर नितान्त वैयक्तिक रही, किन्तु थी वह समाज-कल्याण के व्यक्ति मे श्रम के प्रति निष्ठा उद्भूत होनी चाहिए। लिए । सामूहिक और सामूहिक साधना की भूमिका तैयार सग्रह के प्रति लगाव उसी में होता है, जो श्रम से भागता किये बिना अकेले व्यक्ति की स्वतन्त्रता या साधना का है। सच्चा श्रमिक वह है जो अपने हाथ-पैरों पर सबमे क्या मूल्य ? पांचो व्रतो का परिणाम समाज में, समान अधिक भरोसा करता है और कल के लिए संग्रह करने के लिए मौर समाज की ओर से ही व्यक्ति के जीवन म की वृत्ति स दूर रहता है। 'कल' क्या होगा, इस चिन्ता प्रतिबिंबित हो सकता है। तभी इन व्रतो में गुणात्मक मे परिग्रह के बीज है और श्रम के प्रति तिरस्कार है। तेजस्विता पा सकती है। बारीकी से देखा जाय तो हर व्यक्ति इस निष्कर्ष पर पहुंच सकता है कि अब तक हमारे धर्म-सिद्धान्तो का रुख संग्रह और त्याग दो चीजें नही है। यदि व्यक्ति । भी संग्रह को प्रतिष्ठा देने का रहा है। श्रमिक प्रर्थात् अपने को समाज का अग मानता है, तो उसका संग्रह पार्थिक दृष्टि से विपन्न व्यक्ति को निर्धन माना गया, समाज का है और उसका त्याग भी ऐसा बीज-वपन है और इस स्थिति के लिए उसके पूर्व कर्मो को जिम्मेवार जिससे हजार-हजार गुना फसल निकल सकती है। प्रेम माना गया। किसी भी धर्माचार्य या महापुरुष ने यह नही और करुणा की भूमिका मे से ही सामाजिकता विकसित कहा कि गरीबी संग्रह पोर शोषण का परिणाम है। इस होती है । पब तक हमारे यहाँ सग्रह भी व्यक्तिगत रहा धग पर बार्ल मार्क्स ही पहला व्यक्ति हुआ जिसने वैज्ञाऔर त्याग भी व्यक्तिगत रहा.-----अध्यात्म भी व्यक्तिगत निक ढंग से प्रतिपादित किया कि मनुष्य की प्रभावपौर भौतिक उपलब्धि भी व्यक्तिगत । एक प्रादमी धर. ग्रस्तता या गरीबी उसके भाग्य का फल नहीं है। बार, जमीन-जायदाद त्यामकर साधु बन जाता है और उस सारी सम्पत्ति का उपभोग पीछे के उत्तराधिकारी यदि कर्मशीलता हिंसा है, प्रारम्भ मात्र हिंसा है, करते है। साधु अपने वैराग्य मे या त्याग के प्रानन्द मे यानी श्रम करना ही हिंसा है तो फिर अहिंसा को निविय किसी को भागीदार नही बनाता और संग्रह का उपयोग होना ही था। अहिंसा को कर्म-शून्यतापरक व्याख्यान ने करने वाले भी अपनी चीजों को अपने तक सीमित मान अहिंसा को निस्तेज बना दिया है . वह मात्र अभिनय की कर चलते हैं। यह एक ही भमिका है और कहना चाहिए चीज २१ गई है। मजा का विषय रह गई है। कि सामती ढंग से ही दोनो स्थितियों का विकास हुप्रा है, यह पग बात है कि प्राज के श्रमिक मे भी श्रम के किन्तु भाज विश्व की परिस्थितियां भिन्न है। प्रति निष्ठा नही है और वह केवल रोजी-रोटी के लिए परिग्रह को पाप या अधर्म कह देने से अब काम नही श्रम करता है । पत्थर तोड़ने वाला श्रमिक या तो पत्थर चलने वाला है। इस तिजोरी का पैसा उस तिजोरी में ही तोड़ता है या बाल-बच्चो के लिए रोटी कमाता है। रख देने से अपरिग्रह नहीं उदित होता है। यह प्रारम्भ. इससे पागे बढ़कर वह पत्थर तोड़ने को भगवान का विहीनता या अहिमा नहीं है कि अन्य लोग दुगुने सक्रिय मन्दिर बनाना नहीं मानता। जिस दिन श्रमिको में, रहकर महाव्रती नामी किसी विशिष्ट व्यक्ति की शिल्पकार मे यह, दृष्टि प्रा जायेगी कि उसका श्रम ही निष्क्रियता का संवर्धन करते रहें। मन पर से और तन सौन्दर्य का सागर है, उसका श्रम हो समाजरूपी भगवान् पर से सामन्ती अध्यात्म की चादर उतारे बिना अनासक्ति का मन्दिर है, तो उसका रोजी-रोटी का लगाव टूट पूर्वक त्यक्त परिग्रह को अपरिग्रह में रूपान्तरित नही जायेगा, पत्थर पत्थर न रहकर भगवान् का बिब बन किया जा सकता। आज स्थिति यह है कि संग्रहो सग्रह जायेगा। लेकिन ऐसी स्थिति पंदा न करने का दायित्व Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११०, वर्ष ३१, कि० ३-४ अनेकान्त उन पर ही है, जिन्होंने अब तक श्रम को खरीदने में प्रवीणता का कितना लाभ समाज को दे पाते हैं ? प्रत्येक प्रतिष्ठा और धर्म माना है। प्राणी का विकास दूसरी हजारों परिस्थितियों के कारण महावीर के नाम पर प्रतिष्ठित धर्मग्रंथों में प्रथवा होता है। उन हजारों परिस्थितियों के अनन्त उपकार जिन-शासन मे अपरिग्रह का जो वर्णन मिलता है, वह एक-एक व्यक्ति पर होते है। व्यक्ति कहीं भी रहे-चाहे तत्कालीन समाज-व्यवस्था की परिणति है। उसी को लोकांत मे ही स्थित हो जाये --तब भी लेकर यदि हम चादर बनते रहेगे. तो प्राने वाला युग। उसका उत्तरदायित्व कम नही होता। वहां तक पहुंचाने में इस लीक पर चलने वाले अपरिग्रही विरागियों को क्षमा भी समाज ही सहायक होता है। नही करेगा। प्रतः प्राज प्रावश्यकता इस बात की है कि हमारे परिग्रह यानी पदार्थ की विपुलता। यह सृष्टि मे रहने परिग्रह या अपरिग्रह की मान्यताप्रो पर नये सिरे से वैज्ञाही वाला है। सवाल यह है कि हम अपनी कुशलता और निक परिप्रेक्ष्य मे पुनर्विचार हो। 000 (पृष्ठ १०१ का शेषांश) कवि धनजय हुए थे और स्वयभु (कवि) ने भूवन को कितने विद्वानों का, जिनका नाम ऊपर लिया जा चुका है रजायमान किया था।" इस उल्लेख से प्रतीत होता है अथवा नही भी लिया गया, वाटनगर के इस संस्थान से कि नयनदि ने स्वय इस साहित्यिक तीर्थ की यात्रा की थी प्रत्यक्ष या परोक्ष संबंध रहा, कहा नही जा सकता। भोर उसकी स्तुति में उपरोक्त वाक्य लिखे थे। हमारी वह अपनी उपलब्धियों एवं सक्षमताओं के कारण विद्वानो इस घारणा की पुष्टि भी इस कथन से हो जाती है कि का आकर्षण केन्द्र भी रहा होगा और प्रेरणा स्रोत भी। महाकवि स्वयभु, जो वीरसेन के समकालीन तो थे ही राष्ट्रकूट युग के इस सर्वमहान ज्ञानकेन्द्र एवं विद्यापीठ और उन्ही की भाति राष्ट्रकूट सम्राट् ध्रुव धारावर्ष से की स्मृति भी पाज लुप्त हो गई है, किन्तु इसमें सन्देह सम्मान प्राप्त थे, स्वयं वीरसेन के गृहस्थ शिष्य एवं नही है कि अपने समय में यह अपने समकालीन नालन्दा साहित्यिक कार्य के सहयोगी रहे थे। यह धनञ्जय भी, और विक्रमशील के सुप्रसिद्ध बौद्ध विद्यापाठों को समर्थ संभब है जि-का अपरनाम पुंडरीक हो, भोजकालीन चुनौती देता होगा । भारत के प्राचीन विश्वविद्यालयों मे धनञ्जय (श्रुतकीति) के पूर्ववर्ती है और वीरसेन के तक्षशिला, विक्रमशील पोर नालन्दा की ही भौति यह ज्येष्ठ समकालीन रहे हो सकते है, क्योकि उनकी नाममाला वाटग्राम विश्वविद्यालय भी परिगणनीय है। Don के उद्धरण वीरसेन ने दिये है। अन्य भी अनेक न जाने ज्योति निकुंज, चारबाग, लखनऊ जैन मत नास्तिक नहीं है। नाप्तिक वह होता है जो पुण्य-पाप, स्वर्ग-नरक तथा कर्मफल को नहीं मानता। । ईश्वर सृष्टिकर्ता है ऐसा जैन नहीं मानते। उनके विचार से यह सष्टि अनन्त है, अनादि है। यह किसी की बनाई हुई नहीं है । अतः इसे कोई बिगाड़ नहीं सकता है। जैन परम्परागत को मनाविकाल से अनवरत और गतिशील मानती है। जगत का अपकर्ष-उत्कर्षमय कालचक्र सतत कम से चलता पा रहा है। इसका न माति है, न अन्त है। Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचोपचारी पूजा पं० मिलापचन्द रतनलाल कटारिया, केकड़ी विक्रम सं० ११० में होने वाले श्री मल्लिषेण सूरि ने जाता था। हम देखते हैं कि सोमदेव ने यशस्तिलक मे "रखपणावती कल्प" के तीसरे परिच्छेद में ऐसा कथन पोर पानन्दि ने पपनन्दिपंचविशति में महंतादि को किया है पूजा में सिर्फ अष्टद्रव्यो से पूजा तो लिखी है किन्तु अाह्वान माहानं स्थापनं देव्याः, सन्निधीकरण तथा । स्थापना, सन्निधिकरण, विसर्जन नही लिखा है । यह चीज पूजां विसर्जन प्राहुबंधाः, पचोपचारकम् ॥२५।। हमको प्रथम प्राशाघर के प्रतिष्ठापाठ पोर अभिषेक पाठ पोम ही नमोऽस्तु भगवति ! पद्मावति ! एहि एहि मे मिलती है। पाशाघर ने इतना विचार जरूर रक्या है सवौषट् । कि अहंतादि की पूजा में प्राह्वान, स्थापन, सन्निधिकरण कुर्यादमुना मत्रणाह्वानमनुष्मरन् देवीम् ॥२६॥ तो लिखा है किन्तु विसर्जन नही लिखा है। हाँ शासन तिष्ठद्वितय ठानद्वय च सयोजयेत् स्थितीकरण । देवो की पूजा में उन्होने विसर्जन लिख दिया है। जैसा सन्निहिता भव शब्द मम वषडिति मन्निधीकरणे ॥२७॥ कि नित्यम होद्योत के इस पद्य से प्रकट हैगन्धादीन ग्रह अण्हेति नम: पूजाविधानके । प्रागाहता देवता यज्ञभागः प्रीता भर्तः पादयोरर्षदानः । स्वस्थानं गच्छ गच्छनि जस्त्रि' स्यात् तद्विसर्जने ॥२७॥ क्रीतां शेषा मस्तकरुद्वहन्त्यः प्रत्यागतु यान्त्वशेष। यथा___ "प्रोम् ह्री नमोऽग्तु भगवति ! पद्मावति ! एहि स्वम् ॥१६॥ एहि मंवौषट्" इति माह्वानम् । इसमे विसजित देवो के लिए "ग्रहंत की शेषाको पर ___ "मोम ही नमोऽस्तु भगवति ! पद्मावति ! तिष्ठ धारण करते हुए" जाने का उल्लेख किया है, जिससे यहा तिष्ठ ठ:ठ." इति स्थापनम् । "मोम ही नमोऽस्तु भगवति ! पद्मावति ! मम शासनदेवों का ही विसर्जन ज्ञात होता है, न कि पचपर. मेष्ठी का। एक बात माशाधर के पूजा-ग्रन्थो में यह भी सन्निहिता भव भव वषट्" इति सन्निधीकरणम् । देखने मे पाती है कि वे शासन देवों की पूजा में तो प्रर्चना "मोम् ह्रीं नमोऽस्तु भगवति ! पद्मावति ! गंघादीन द्रव्यों के अर्पण मे "जलाद्यर्चन गहाण गहाण" या ' इदमय गृह गृह्ण नमः" इति पूजाविधानम् । पाद्यं जलाधं यजभागं च यजामहे प्रतिगृह्यता प्रतिगृह्य"मोम् ह्रीं नमोऽस्तु भगवति ! पद्मावति ! स्वस्थान् ताम्।"इस प्रकार के वाक्य का प्रयोग करते है। ऐसे प्रयोग गच्छ गच्छ ज:जःजः" इति विसर्जनम् । उन्होंने प्रस्तादि की पूजामो मे नहीं किये हैं। वहाँ तो एवं पंचोपचारक्रमः। वे यों लिखते हैदेवी का पाहान, सन्निधिकरण, पूजन और विसर्जन जो किये जाते है उन्हें पंचोपचार कहते है। इसी का दूसरा "प्रोम् ही अहं श्री परमब्रह्मणे इदं जलगन्धादि निर्वपा. नाम पचोपचारी पूजा है। इनका मंत्र पूर्वक जो विधिक्रम मीति स्वाहा ।" है वह ऊपर लिख दिया है। फिर भी इतना तो कहना ही पड़ता है कि महतादि ऐसा प्रतिभासित होता है कि पहिले पंचोपचारी पूजा की पूजा विधि मे माह्वान, स्थापन, सन्निधिकरण की मंत्र सिद्ध करने के लिए देवतारापन में की जाती थी। परिपाटी चलाने में शायद ये ही मुखिया हों। अपने बनाये महंतादि को पूजा में पंचोपचार का उपयोग नहीं किया प्रतिष्ठा ग्रन्थ की प्रशस्ति में खुद पं. पाशापर लिखते हैं Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२, वर्ष ३१, कि० ३-४ अनेकान्त कि "मैंने इसे युगानुरूप रचा है।" युगानुरूप का अर्थ पूजा- नित्यनियम पूजा मे पांचों ही उपचार पाये जाते हैं विधि में इस तरह की नयी रीतियां चलाना ही जान किन्तु नित्यनियम पूजा किसी एक की कृति नहीं है। वह पड़ता है। संग्रह ग्रन्थ है मौर उस में कितने ही पाठ अर्वाचीन है। प्राशाधर के बाद इन्द्रनंदि हए, जिन्होंने इस विषय उदाहरण तौर पर "जयरिसह रिसीवर णमियपाय" यह में और भी मागे बढ़कर महतादिकों की पूजा विधि में वे देवकी जयमाला का पाठ कवि पुष्पदन्त कृत अपभ्रश ही पंचोपचार प्रहण कर लिए जो मल्लिषेण ने मंत्राराधन यशोधर चरित्र का है। उसमे शुरू मे ही यह मंगलाचरण में लिखे है। इन्होने शासनदेवो की ही तरह प्रतादिकों के तौर पर लिखा हुआ हैका विसर्जन भी लिख दिया है। यही नही महंतादि का "वृषमोजित नामा च संभवाश्चाभिनन्दनः।" पूजा में द्रव्य अर्पण करते हए "इदं पुष्पांजलि प्रार्चनं पाठ अय्यपार्य कृत अभिषेक पाठ का है जो अभिषेक गृहणीध्वं गहीव" तक लिख दिया है। (देखो अभिषेक पाठ संग्रह के पृष्ठ ३१६ पर छपा है। ये अय्यपार्य विक्रम पाठ संग्रह, पृष्ठ ३४४)। इन्ही को आधार मानकर एकसधि सं० १३७६ मे हुए है। ने भी प्रर्हतादिको को पूजा पचोपचार से करना बताते ज्ञानतोऽज्ञानतो वापि शास्त्रोक्तं न कृतं मया ।। हए लिखा है कि- "मैंने यह वर्णन इद्रनन्दि के अनुसार विसर्जन का यह पहिला पद्य आशाधर प्रतिष्ठापाठ से किया है" यथा लिया है जो उसके पत्र १२३ पर पाया जाता है। एवं पंचोपचारोपपन्न देवार्चनाक्रमम् । 'अाह्वान नव जानामि' और 'मन्त्रहीनं क्रियाहीनं' यः सदा विदधात्येव म: स्यान्मुक्तिश्रियः पतिः ।। आदि विसर्जन के दो पद्य सूरत से प्रकाशित भैरव पद्मावती इतीन्द्रनंदिमुनीन्द्रजिनदेवार्चनाक्रम । कल्प के साथ मद्रित हुए पद्मावती स्तोत्र में कुछ पाठभेद - परिच्छेद हवा “एकसंधिजिनसंहिता" । के साथ पाये जाते है, वही से इसमें लिए गये है। वे पद्य ये ही श्लोक कुछ पाठ मेद के साथ 'पूजासार' ग्रन्थ इस प्रकार हैमे पाये जाते है । यथा - प्राह्वाननं न जानामि न जानामि विसर्जनम् । "य: सदा विदधात्येना सः स्यानमक्तिश्रियः पतिः । पूजामी न जानामि क्षमस्व परमेश्वरि ।। इतीद्रनंदियोगीन्द्र प्रणीनं देवपूजनम् ।।" प्राज्ञाहीन क्रियाहीन मन्त्रहीन च यत्कृतम् । एकसन्धि का पंचोपचारी पूजा के लिए इन्द्रनंदि का तत्सर्व क्षम्यता देवि प्रसीद परमेश्वरि ।। प्रमाण पेश करना माफ बतलाता है कि उनके समय में अलावा इसके पचोपचार में प्रयुक्त हुए "संवौषट्" इस विधि का प्रतिपादक सिवाय इन्द्रनन्दि के और कोई "वषट्" प्रादि शब्दों पर अब हम विचार करते है तो पूजा ग्रन्थ मौजूद नही था। यहाँ तक कि इन्द्रनंदि के साथ स्पष्टतया यह प्रकरण मन्त्र विषयक है। यही श्लोक उन्होंने मादि शब्द भी नही लगाया है, यह खास तौर वैष्णवधर्म के विसर्जन पाठ मे शब्दशः है। वीतराग भगसे ध्यान देने योग्य है। वान की पूजा जिस ध्येय को लेकर की जाती है उसमें यशोन दिकृत संस्कृत पचपरमेष्ठी पूजा में भी प्राशाधर इनका क्या काम ? की तरह ही चार उपचार मिलते है, विसर्जन उसमें नहीं वर्तमान मे, पूजाविधि का जो रूप प्रचलित है वह है। किन्तु यशोनन्दि का समय प्रज्ञात है कि वे प्राशाधर कितना प्राचीन है ? आशा है खोजी विद्वान् इसका अन्वेके पूर्ववर्ती है या उत्तरवर्ती ? षण करेंगे, इसी अभिप्राय से यह लेख लिखा गया है। 000 Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय मूर्ति शिल्प की अद्भुत कृति कुण्डलपुर के बड़े बाबा : भगवान आदिनाथ । डा० भागचन्द 'भागेन्दु', दमोह कंडलपुर मध्यप्रदेश के दमोह जिले में अवस्थित है। बडे बाबा : यह मध्य रेलवे के बीना-कटनी मार्ग के दमोह स्टेशन से कुण्डलपुर के मन्दिर मख्या ११ में अवस्थित १२ फूट ईशान कोण मे ३५ किलोमीटर दमोह-पटेरा-कुंडलपुर मार्ग ६ इंच ऊची तथा ११ फुट ३ इच चोडी विशाल पद्मासन पर स्थित है। कुण्डलपुर समुद्री सतह से तीन हजार फीट मूर्ति इग क्षेत्र की गांधिक प्रसिद्ध प्रौर दर्शको के मन को मंत्री पर्वत श्रेणियों में घिरा हुआ है। यहां की पर्वत- गहज ही मोह लेने वालो निमिति है। इस मूति का निर्माण धेोणियां कुण्डलाकार है, कदाचिन् इसलिए गह स्थान देशी भूरे रंग के पापाण से हुग्रा है । इस मूर्ति के मुख पर "कुण्डलपुर" कहलाया। सौम्यता, भव्यता और दिव्य स्मिति है। यदि हम इम प्रकृति सूपमा सम्पन्न, उत्तर भारत की महनीय मूर्ति को ध्यानपूर्वक कुछ समय तक देखते रहे तो इसके तीर्थस्थली कुण्डलपुर का महत्व धार्मिक और मास्कृतिक मुख पर अद्भुत लावण, अलोकिक तेजस्विता और दिव्य दृष्टि से तो है ही, कला और पुरातत्व की दृष्टि से भी आकर्षण के दर्शन प्राप्त करेंगे। मूर्ति के वक्षस्थल पर उल्लेखनीय है। भारतीय संस्कृति और विशेष रूप से श्रीवत्स का चिन्ह सुशोभित है। कन्धो पर जटामो की दोजैन संस्कृति, कला तथा पुरातत्व के विकास में कुण्डलपुर दो लटें दोनो ओर लटक रही है। मूर्ति के सिंहासन के का योगदान अत्यन्त भव्य और प्रशस्थ है। यहाँ ईसा को नीचे दो सिह उत्कीर्ण है । ये सिंह ग्रासन से सम्बन्वित है, छठी शताब्दी में लेकर परवर्ती सोलहवी-सत्रहवी शताब्दी तीर्थ कर लाछन नही है । मूर्ति के पादपीठ के नीचे गोमुख तक का मूतिशिल्प पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होता है। यक्ष और चक्रेश्वरी यशी अंकित है। यहां कुल ६० जैन मन्दिर है-४० पर्वत के ऊपर और इस मूति को प्राग जनता में भगवान महावीर' की ० अधित्यका मे । अधित्यका के मन्दिरों और पर्वतमाला मूर्ति के रूप मान्यता प्राप्त है। यह धारणा शताब्दियों के बीचों-बीच निर्मल जल से भरा "वर्धमान सागर" से चली आ रही है, किन्तु नवीन शोध-मोज के प्राधार नामक विशाल सरोवर है। पर वास्तव में यह मूर्ति जैन धर्म के प्रथम तीर्थङ्कर ऋषभयद्यपि कुण्डलपुर में मूर्ति और वस्तुशिल्प के अनेक नाथ की प्रमाणित होती है। बेजोड़ नमूने उपलब्ध है, तथापि इन पक्तियों मे हम कुंडल- मैंने अपने विगत कुण्डलपुर प्रवाम मे शोध मोज की पुर की उस भव्य और सौम्य मूर्ति से प्रापका परिचय दष्टि से 'बड़े वाता' को इग सातिशय मनोज मूर्ति के सूक्ष्म करा रहे है, जो छठवीं शताब्दी की निमिति ताहे हो, रीति म पुनः पून. दर्शन किय पोर उन सभी प्राचारों पर सौन्दर्य की सृष्टि तथा विशालता की दृष्टि में भारतीय गम्भीरतापूर्वक विचार किया जिनके कारण बडे बाबा को पद्मासन मूर्तिकला के इतिहास मे अनुपम भी है। यह मूर्ति यह मूनि महावीर स्वामी के रूप में विख्यात हुई, तथा "बड़े बाबा" के नाम से सम्बोधित होती है। कुछ व्यक्तियों वस्तुस्थिति, प्रतिमाविज्ञान, पुगतात्त्विक माक्ष्य प्रादि के की भ्रामक धारणा है कि यह मूर्ति श्री महावीर स्वामी प्राधार पर मुझे उन्हें ऋषभनाथ' का मूर्ति स्वीकार करने की है । इसीलिए वस्तु-स्थिति पर नये सिरे से पूर्ण विचार मे जो औचित्य प्रतीत हुआ है, उग सम्पूर्ण चिन्तन के कर इस निबन्ध में तथ्य प्रस्तुत किये जा रहे है। निष्कर्ष अनिखित पक्तियों में प्रस्तुत है:-- Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४, वर्ष ३१, कि० ३.४ भनेकारत बड़े बाबा के गर्भगृह के प्रवेश द्वार के वायी और (अब व्यवस्था नहीं मालम होती है। हमारा ऐमा विश्वास है द्वार चौड़ा किये जाने पर इसे दायी पोर की दीवार मे कि ये मूर्तियां अन्यत्र से लाकर लगा दी हैं । जड़ दिया गया है) एक अभिलेख जड़ा हुआ है ! यह अभि लेख ऐतिहासिक दृष्टि से बहन महत्वपूर्ण है। एक फुट निश्चित ही यह प्रसग पाश्चर्यजनक है कि साक्ष्यों की ग्यारह इंच चौड़ा और एक फुट सात इव ऊचा है । इसी उपेक्षा करके उक्त मभिलेख (संवत् १७५७) मे इसे 'श्री भभिलेख में प्रतापी शासक, बदेलखण्ड के गौरव, मह राज वर्षमान या श्री सन्मति भन्दिर' कहा गया है। जब कि छत्रसाल द्वारा कुण्डलपुर को दिये गये वहमूल्य सहयोग मूर्ति के पादपीठ पर तीर्थङ्कर महावीर का लाछन सिंह या और दान का वर्णन प्राप्त होता है। अन्य कोई प्रतीक' यक्ष-यक्षी, (मातम और सिद्धायिका) अथवा कोई प्रभिलेख प्रादि उत्कीर्ण नही है। पादपीठ विक्रम सम्वत् १७५७ के इस अभिलेख मे बड़े बाबा पर दोनो पाश्वों में जो सिंह निशित हे, व श्री महावीर के के मन्दिर के जीर्णोद्धार के प्रसंग मे पद्य संख्या दो में "श्री लांछन या प्रतीक नहीं है, अपित वे सिंहासनस्थ के शक्तिवर्तमानस्य' तथा पद संख्या दम में "श्री सन्मतेः" शब्द परिचायक सिंह है, जैसे कि प्रायः अन्य सभी मूर्तियो के पाये है। इस अभिलेल की तिथि और वर्ण्य विषय पादपीठ पर ये देखे जा सकते है। ऐसा प्रतीत होता है सुस्पष्ट है। इससे केवल यह तथ्य प्रकाशित होता है कि कि यह मूर्ति श्री महावीर के नाम से इसलिए सम्बोधित सत्रहवी-प्रठारहवी शनी में यह मन्दिर 'श्री महावीर होने लगी होगी, क्योकि जन-सामान्य को महावीर स्वामी मन्दिर" के नाम से जाना जाता था। संभवत. बडे 'बाबा' के संबंध में उन दिनो कुछ अधिक जानकारी रही होगी। की यह मूर्ति भी इन्ही दिनो श्री महावीर की मूर्ति कह अब से कुछ शताब्दियो पहले भी ऐसी ही स्थिति रही लाती होगी। कदाचित् तत्कालीन भक्तो को सिहासन में है, क्योकि साधारण मनुष्य श्रद्धालु होता है । वह इतिहास, अकित दो सिंह देखकर बड़े वाबा को "महावीर" मानने धर्मशास्त्र, साहित्य और प्रतिमाविज्ञान की गहराइयो मे में सहायता मिली होगी। नहीं पैठना चाहता। अत: उसने इस मूर्ति को सहज मन्दिर सरूण ११ की विशाल मूर्तियों को ध्यान से भाव से 'बड़े बाबा' कहते हुए भी महावीर के नाम से जाना। देखने पर प्रतीत होता है कि बड़े बाबा की विशाल मूर्ति का सिंहासन दो पाषाण खडों को जोड़कर बनाया गगा है। यस्तु, जनमामान्य की धारणा के विपरीत अनेक ऐसे बडे बाबा की मूर्ति के दोनों ओर उन्ही के बराबर ऊंची ठोस प्रमाण ठोस प्रमाण है जिनके प्राधार पर बड़े बाबा को श्री महावीर भगवान पार्श्वनाथ की दो कायोग मूर्तिया भी है। इनके स्वामी की मूर्ति मानने में शास्त्रीय और प्रतिमाविज्ञान सिंहासन निजी नहीं, बल्कि अन्य विशाल कायोत्सर्ग संबंधी प्रनेक बाधाये है। यह मूति वास्तव मे, प्रथम तीर्थमूर्तियों के अवशेप प्रतीत होते है। इन मूर्तियो के सिंहासन ङ्कर, युगादिदेव, भगवान ऋषभदेव की है। इस संबंध में कदाचित कभी बदले गये हो। यदि ऐसी काई राम्भावना मेरे निष्कर्ष निम्न प्रकार है:हो भी, तो यह बात माततायियों के प्राक्रमण के बाद की बड़े बाबा की इस मूर्ति के कन्धों पर जटामों को दोही हो मकती है। दो लटें लटक रही है। साधारणतः तीर्थङ्कर मूर्तियो की इस सबके साथ यह बात सहज ही स्वीकरणीय है कि केशराशि धुंघराली और छोटी होती है। उनके जटा मोर जीणोद्वार के पश्चात् (गत दो-तीन शताब्दियों मे) बड़े जटाजट नही होते । किन्तु भगवान ऋषभनाथ की कुछ बाबा के गर्मगृह में अनेक महत्वपूर्ण परिवर्तन किये गये है। मूर्तियों में प्रायः इस प्रकार के जटाजूट मथवा जटायें दिखाई जै गर्भगृह के भीतर चारो ओर दीवारो पर मूर्तियां जिस देती है। भगवान ऋषभदेव के दीर्घकालीन, दुदर तपश्चरण ढंग से जड़ी हुई है, उनमे कोई निश्चित योजना अथवा के कारण उनकी मूर्ति मे जटायें बनाने की परम्परा Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुणालपुर के बड़े बाबा : भगवान प्राविनाय ११५ मध्यकाल तक प्रचलित रही है। तीर्घर ऋषभनाथ की उक्त यक्ष और यक्षी के शास्त्रीय मूल्यांकन से मूर्तियों का जटायुक्त रूप शास्त्रसम्मत भी है, जैसा कि निर्विवाद रूप से यह तथ्य प्रमाणित है कि बड़े बाबा की प्राचार्य जिनसेद ने भी कहा है :-- मूर्ति तीर्थङ्कर ऋषभनाथ की है।। (क) चिरतपस्यो यस्य जटा मूनि वस्तराम् । (४) लोक परम्परामो मे भी संस्कृति के मूल रूप के ध्यानाग्निदग्धकर्मेन्धना निर्मदबूमशिखाइव ॥ दर्शन सहज ही होते है। इस बात का प्रबल प्रमाण है इस -ग्रादिपुराण, पर्व १, पद्य ६ मूर्ति का "बड़े बाबा" नाम से सम्बोधित होना। तीर्थ(ख) प्रनम्बजटा-भार-भ्राजिष्ण निष्ण रावभी। गे की परम्परा में जो 'बड़ा है, वृद्ध है, उसे ही तो" रूढप्रारोहशाग्वाम्रो यथा न्योनोधपादप. ।। "बड़े बाबा" का सम्बोधन प्रदान किया जा सकता है, .हरिवश मण, १.२०४ अन्तिम तीर्थकर महावीर स्वामी के लिए "बडे बाबा" सम्बोधन कैसा? कुण्डलपुर के बड़े बाबा के कंधों पर जटाये भी लहरा रही है। अत: निर्विवाद रूप से यह मूर्ति भगवान ऋषभ- उक्त प्रमाणो के प्रकाश में यह तय्य सहज ही स्वीकार नाथ की ही है, महावीर स्वामी की नही। किया जाना चाहिए कि कुण्डलपुर के “वडे बाबा" की (२) श्री महावीर-मूर्ति के साथ में उनके यक्ष भूति महावीर स्वामी की नहीं है, प्रत्युत तीर्थङ्कर ऋषभमातंग और यक्षी सिद्धायिका का प्रकन होता है, जब कि नाथ की है। इस मूर्ति में ऐसा कोई अकन नही है। यद्यपि भारत में यत्र-तत्र धनेक विशाल पद्मासन (३) बडे बाबा की मूर्ति के पादपीठ के नीचे सिंहा- मूर्तियां प्राप्त होती है, परन्तु कला को शाश्वत और सन में प्रादिनाथ के यक्ष गोमख और यक्षी चक्रेश्वरी का सार्वकालिक स्मरणीय प्रभाव तथा वीतरागता की जो सायूथ सुन्दर अकन है। यक्ष अपने दो हाथों में से एक मे अनुपम अनुभूति "बड़े बाबा" की इस मूर्ति से प्राप्त परशु और दूसरे में बिजौरा फल धारण किये है। उसका होती है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। ऐसी दिव्य मूति को शतशः मुख जैसा है जबकि चक्रेश्वरी यक्षी चतुर्भुजी है उसके ना ऊपर के दो हाथों में चक्र है, नीचे का दाया हाथ वरद प्रध्यक्ष-सस्कृत विभाग मुद्रा मे है तथा बाये हाथ में शंख है। शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, दमोह, म०प्र० 000 श्रीकष्ण और तीर्थंकर नेमिनाथ श्री कृष्ण महाभारत काल में हुए थे और बाइसवें तीर्थकर श्री नेमिनाथ भी उसी समय और उसी वृष्णि या हरिवंश में हुए थे। वैदिक और श्रमण दोनों धाराएं एक साथ, एक प्रदेश और एक ही वंश से प्रवाहित हुई थीं। एक गीता के पायक थे, तो दूसरे सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान और सम्यक् चारित्र रूपी तीर्थ के उन्नायक थे। एक भक्ति और ज्ञानयुक्त निष्काम कर्मयोग के प्रणेता थे और दूसरे त्याग एवं वैराग्यमय प्राप्तधर्म के प्रचेता थे। दोनों ने जनमानस को प्रभावित किया था और दोनो ने लोक को नई चेतना की थी। हिंसामय यज्ञ-यागादि के अतिरिक्त भी कोई धर्म है, जो जीव का कल्याण कर सकता है, इसका पाठ पढ़ाया और एक नई बारा चलाई। दोनों धाराएँ उद्गम मे बहुत पास पी और आगे चलकर भी दोनो न परस्पर विचार ग्रहण किए थे। जैन परम्परा में व्रत उपवासादि का विशेष विधान है। इन्द्रियों को संयत रखने मे इनसे सहाय. मिलती है, अत: उनका दाना प्रकार का विधान किया गया जिसमें साधक अडिग रहकर अपनी साधना कर सके। Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसूत्र में न्याय-शास्त्र के बीज । डा० दरबारीलाल कोठिया, वाराणसी तित्वार्थसूत्र के कुछ स्थानों में पाठ भेद ग्रवश्य है, किन्तु यह पाठ-भेद दिगम्बर प्रौर श्वेताम्बर दोनों ग्राम्नायों के मतभेद का परिणाम है । इम पाठ-भेद या मतभेद का निर्णय इस बात के निर्णय पर निर्भर है कि तत्वार्थसत्र का जो भाष्य प्रचलित है वह स्वोपज्ञ है या नहीं। एक प्रोर यह निर्णय है और दूसरी ओर वे कुछ प्रश्न हैं जो अब नये नये उठाये जा रहे है। ऐसे प्रश्नो में एक यह भी है कि तत्वार्थसूत्रकार प्राचार्य उमास्वामी (या उमास्वाति) पहले हुए या कि प्राचार्य कुन्दकुन्द । अब तक यही माना जाता रहा है और ऐसा ही है भी कि प्राचार्य कुन्दकुन्द पहले हए और प्राचार्य उमास्वामी उनके बाद । इस तथ्य की पुष्टि में प्रवर मनीषी डा. दरबारीलाल कोठिया ने प्रस्तुत लेख में उदाहरण और मूल-सन्दों के साथ, ठोस तर्क दिये हैं। -सम्पादक] तत्वार्थसूत्र जन परम्पग का एक महत्त्वपूर्ण प्रौर का पर्याप्त, या यो रहिए कि प्राय: पूरा, निरूपण उपलब्ध प्रतिष्टित ग्रन्थ है । इसमे जैन तत्वज्ञान का अत्यन्त संक्षेप होता है। और प्राजल मंस्कृत गद्यगुत्रो में बड़ी विशदता के साथ अब प्रश्न है कि इस वर्म और दर्शन के ग्रन्थ में क्या प्रतिपादन किया गया है। इग के रचगिग प्राचार्य गद्ध- उनके विवेचन या सिद्धि के लिए न्याय का भी अवलम्बन पिच्छ है जिन्हे उमाम्वामी और उमास्वाति के नामो से लिया गया है ? इम प्रश्न का उत्तर जब हम तत्वार्थसूत्र भी जाना जाता है। का गहराई और सूक्ष्मता से अध्ययन करते है तो उसी से इसमें दस अध्याय है। प्रथम अध्याय में रत्नत्रय के मिल जाता है। रूप में मोक्षमार्ग का उल्लेख करते हुए सम्यग्दर्शन, उपके न्याय का स्वरूप प्रमाण और नय विषय भत जीवादि सात तत्वो, उन्हे जानने के उपायो और न्यायदीपिकाकार अभिनव धर्मभूषण ने न्याय का सम्यग्ज्ञान का निरूपण किया गया है। दूगरे, तीसरे और स्वरूप देने हा लिखा है कि 'प्रमाण और नय' दोनो चौथे अध्यायों मे जीव तत्व का लक्षण, उसके विभिन्न न्याय है, क्योंकि उनके द्वारा पदार्थों का ज्ञान किया जाता भेदो, उससे सम्बन्धित पारीरो, जन्मो, योनियो, प्रावासो है। उनके अतिरिक्त, उनके ज्ञान का अन्य कोई उपाय (रत्नप्रभा मादि नरक भूमियो, जम्बूद्वीप, लवण समुद्र आदि नही है, जैसा कि उनके निम्न प्रतिपादन से स्पष्ट हैमध्यलोक के स्थानो और देव निकायो) तथा उनसे प्रमाणतयाभ्यां हि विवेचिता जीवादयः सम्यगघिसम्बद्ध प्रावश्यक जानकारियो का प्रतिपादन निबद्ध है। गम्यन्ते । तद्वयतिरेकेण जीवाद्य धिगये प्रकारान्तरा पांचवें अध्याय में अजीव तत्व और उसके पुद्गल, धर्म, सम्भवात' न्या० दी०, पृ० ४। अधर्म, प्राकाश, काल इन पांच भेदो का, छठे और सातवे 'न्याय' शब्द की व्युत्पत्ति भी इस प्रकार दी गई है अध्यायों में प्रास्रव तत्त्व (पापास्रव और पुण्या स्रव का), कि 'नि' पूर्वक 'इण गतो' घातु से करण अर्थ में घञ्प्रत्यय पाठवें में बन्धतत्व का, नवयें में सवर पौर निर्जर। तत्वों करने पर न्याय शब्द सिद्ध होता है। "नितरांमियते का तथा दशवें में मोक्षतत्व का विवेचन है। इस तरह ज्ञायतेऽर्थोऽनेतेति न्यायः, अर्थ परिच्छेदकोपायो न्यायः जैन धर्म के प्रसिद्ध सात तत्वो का इसमें साङ्गोपाङ्ग कथन इत्यर्थः । स च प्रमाणनयात्मक एव'। पर्थात् निश्चय से किया गया है और इस प्रकार हमें इसमें धर्म और दर्शन जिसके द्वारा पदार्थ जाने जाते है वह न्याय है और वह १. प्रमाणनयात्मकन्यायस्वरूपप्रतिरोधकशास्त्राधिकार सम्पत्तये प्रकरणमिदमारभ्यते ।' --- न्याय दी., पृ. ५ वीर सेवा मन्दिर-संस्करण, सन् १९४५. २. न्याय दी. टिप्प.पू. ५, सस्करण पूर्वोक्त । Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वार्थसूत्र में ग्याय-शास्त्र के बीज ११७ प्रमाण एवं नयरूप ही है, क्योंकि उनके द्वारा पदार्थों का तत्वार्थग मे ही सर्वप्रथम उपलब्ध होता है। कया जाता है । अतएव जन दर्शन में प्रमाण अरि तत्वार्थसूत्र में न्याय के दूसरे अङ्ग नय का भी प्रतिनय न्याय है। पादन है और उसके सात भेदों का निर्देश किया गया है।' तस्वार्थसूत्र में प्रमाण, प्रमाणाभास और नय : वे है नगम, सग्रह व्यवहार ऋज-सूत्र शब्द समभिरूढ मोर न्याय के उक्त स्वरूप के अनुसार तत्वार्थसूत्र में एवभूत । टीकाकारों ने इनका विस्तृत विवेचन किया है। प्रमाण और नय दोनों का प्रतिपादन उपलब्ध है। तत्वार्थ प्रमाण के प्रत्यक्ष-परोक्ष भेद : सूत्रकार ने स्पष्ट कहा है कि प्रमाण और नयों के द्वा। प्रत्यक्ष और परोक्ष के भेद से प्रमाण के दो भेदो को पदार्थों का यथार्थ ज्ञान होता है, यथा -- बतला कर उसका तत्वार्थसूत्र में विशदता के साथ प्रमाणनपरधिगम ।--- त. सू. १.६ । प्रतिपादन किया गया है । मति और श्रुत इन दो ज्ञानो इससे स्पष्ट है कि तत्वार्थसूत्र में जहा धर्म और दर्शन को परोक्ष तथा अवधि मनःपर्यय और केवल इन तीन का प्रतिपादन किया गया है वहाँ प्रमाण और नयरूप ज्ञानों को प्रत्यक्ष कहा गया है।' तत्वार्थसूत्रकारों ने परो. न्याय का भी प्रतिपादन है। क्षता और प्रत्यक्षता का भी कारण बतलाते हुए लिखा है षटखण्डागम प्रादि पागम ग्रन्गों में ज्ञानमार्गणा न कि चूकि प्रादि के दोनो (मनि और अति) ज्ञान इन्द्रियों अन्तर्गत ज्ञानमीमामा के रूप मे पाठ ज्ञानो का वर्णन किया और मन की सहायता से उत्पन्न होते है, प्रतः परापेक्ष गया है । परन्तु वहा उन ज्ञानो का प्रमाण और प्रमाणा- होने से वे परोक्ष कहे गये है और अन्य तीन ज्ञान (प्रवधि, भाम के रूप में कोई विभाजन दृष्टिगोचर नहीं होता। मन पर्यय और केवल) इन्द्रियों और मन की सहायता पर तत्वार्थसूत्र में पागमणित पांच सम्यग्ज्ञानों को से न होने तथा मात्र प्रात्मा की सहायता से होने के प्रमाण' और तीन मिथ्याज्ञानो को प्रमाणाभाम' (अप्रमाण- कारण प्रत्यक्ष बतलाए गये है। यह प्रमाणद्वय का भेद विपर्यय) बताकर दार्शनिक एव न्यायिक दृष्टिकोण प्रागमिक न होकर नाकिन है जिसका अनुसरण उत्तरप्रस्तुत किया गया है । मति प्रादि पांच ज्ञानो को प्रमाण वर्ती प्रकलक, विद्यानन्द प्रादि सभी जैन ताकिको ने तथा विपरीत मति, विपरीत श्रुत और विपरीत अवधि किया है । भारतीय न्यायशास्त्र मे ६ किये गये प्रमाण के (विभगज्ञान) इन तीनो ज्ञानों को विपर्यय-प्रमाण दो (वैशेषिक और बौद्ध स्वीकृत), तीन (साख्यमान्य), प्रमाणाभास के रूप मे निरूपण संस्कृत भाषा के ग्रन्थों में चार (नैयायिक सम्मत), पांच (प्रभाकर प्रङ्गीकृत) और १. मतिश्रुतावधि मन.पर्यययकेवलनानि ज्ञानम्, 'तत्प्रमाणे' (नियमसार, गा. १०) भी प्रागमिक है। कुन्दकुन्द त. सू. १.६.१० । प्रवचनसार (गा० २१, २२, ३०,४०) में प्रत्यक्ष और २. मतिश्रुतावधयो कार्यश्च, वही १-३१ । परोक्ष शब्दो का प्रयोग किया गया है। पर वहा इन ३. नैगमसंग्रह व्यवहार ऋजसूत्र शब्द समाभिरुढव- शब्दों का पदार्थ के विशेषण रूप में है। हां, इसी प्रथ भूता नया: ।' वही, १.३१ । मे पागे (गा० ५८ मे ) अवश्य परोक्ष और प्रत्यक्ष ४. तत्प्रमाणे, 'माद्ये परोक्षम्' प्रत्यक्षमन्यत् - वही-१, के लक्षण बतलाते हुए उन्हें ज्ञान का विशेषण बनाया १०, ११, १२। गया है। पर प्रमाण के भेद के रूप मे उनका प्रति५. तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम् 'प्रत्यक्षमन्यत् -त. सू. पादन नही है। १, १८, १२। ७. लघीय, १-२.५ प्रमाण प. पृ. २८, वीर सेवा ६. मति श्रुत मादि पाँच सम्यग्ज्ञानो का भेद मागमिक मन्दिर ट्रस्ट, सकरण १६७७ । है। स्वभावज्ञान और विभावज्ञान के भेद से ज्ञानोप- ८. जनतकशास्त्र में अनुमान-विचार, पृ. ६६, वीर सेवा योग के दो भेदों का प्रा. कुन्दकुन्द का निरूपण मन्दिर ट्रस्ट, सस्करण १९६६ । Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८, वर्ष ३१, कि० ३.४ अनेकान्त छह (भाट्ट मीमांसक स्वीकृत) भेदों का समावेश उसके को स्त्री और स्त्री को माता कह देता है। उसी प्रकार, उक्त प्रमाणतय (प्रत्यक्ष और परोक्ष) में ही हो जाता है। मति, श्रुत और प्रवधि (विभङ्ग) ज्ञान भी सत्-असत् का तत्त्वार्थसूत्रकार' जब मति स्मृति संज्ञा (प्रत्यभिज्ञान) भेद न कर कभी काचकामलादि के वश वस्तु का विपरीत चिन्ता (तर्क) और अभिनिबोध (अनुमान) को भी (अन्यथा) ज्ञान करा देते हैं। अतः ये तीन ज्ञान मिथ्याप्रमाणान्तर होने का संकेत करते हुए उन्हें मतिज्ञान कहते ज्ञान भी कहे जाते है। है और उनका इन्द्रिय मन पूर्वक होने के कारण परोक्ष तत्वार्थसूत्रकार के इस प्रतिपादन से स्पष्ट है कि में अन्तर्भाव करते है तो उनकी यहां निश्चय ही तार्किक तत्त्वार्थसूत्र में न्यायशास्त्र भी समाहित है। सबसे महत्वदृष्टि लक्षित होती है। उनकी इस दृष्टि से प्रकाश लेकर पूर्ण बात यह है कि उनके समय में भी तीन ही अनुमानापूज्यपाद ने न्यायदर्शन मादि में पृथक प्रमाण के रूप में वयव वस्तु सिद्धि में प्रचलित थे, उपनय और निगमन को स्वीकृत, उपमान, आगम प्रादि प्रमाणों को परसापेक्ष अनुमानावयव स्वीकार नही किया जाता था या उनका होने से परोक्ष में अन्तर्भाव कर लिया है और तत्त्वार्थ- जैन सस्कृति में विकास नही हपा था। तत्त्वार्थ मूत्रकार मूत्रकार के प्रमाणद्वय का समर्थन किया है। प्रकलंक ने' के उत्तरवर्ती प्राचार्य ममन्त भद्र ने भी देवागम (प्राप्त. भी उनके प्रमाण द्वय की ही सम्पुष्टि की है। साथ ही मीमासा) मे उन तीन प्रवावो से ही अनेक स्थलों पर नये पालोक में प्रत्यक्ष-परोक्ष की परिभाषाम्रो और उनके वस्तुसिद्धि की है। ताकिक भेदो का भी प्रतिपादन किया है। उत्तरकाल में तत्त्वार्थसूत्रकार का तीन अवयवो से वस्तु-सिद्धि का तो प्रा० गद्ध पिच्छ का अाधार लेकर प्रकलक ने जो एक उदाहरण और यहा प्रस्तुत है। तत्त्वार्थसूत्र के दशवें प्रमाणनिरूपण किया उसी पर विद्यानन्द, माणिक्यननिर अध्याय के पाचवें सूत्र में मुक्त जीव के ऊर्ध्वगमन को प्रादि ताकिक चले है। सयुक्तिक सिद्ध करते हुए तत्त्वार्थमूत्र कार ने लिखा हैअनुमान के (पक्ष, हेतु और उदाहरण) तीन अवयवों १ पक्ष -तदनन्तर (युका) ऊर्ध्वगच्छत्या से सिद्धि: लोकान्तात् । तत्त्वार्थसूत्र में कुछ सिद्धान्तों की सिद्धि अनुमान २. हेतु पूर्वप्रयोगात् प्रसंगत्वात् बन्धच्छेदात् तथागति परिणामाच्च । (युक्ति) से को गयी है। उन्होंने अनुमान प्रयोग के तीन ३. उदाहरण--प्राविद्धकुशल चक्रवत्, व्यपगत लेपाअवयवों पक्ष, हेतु और उदाहरण से मति, श्रुत और अवधि 1, श्रुत मार अवाघ लायुवत् एरण्डबीजवत् भग्निशिखावच्च । इन तीनों ज्ञानों को विपर्यय (अप्रमाण-प्रभाणाभास) __ ---त. सू. १०-५, ६, ७॥ सिद्ध करते हुए प्रतिपादित किया है। अर्थात् द्रव्यकर्मों और भावकों से छूट जाने के बाद १. पक्ष-मतिश्रुतावघयो विपर्यय च । मक्तजीव लोक के अन्त पर्यन्त ऊपर को जाता है, क्योंकि २. हेतु-सदसतोरविशेषाद्यदृच्छोपलब्ध । उसका ऊपर जाने का पहले का अभ्यास है, कोई सग ३. उदाहरण-उन्मत्तवत् । -त. सू. १-३१-३२ (परिग्रह) नहीं है, कर्मबन्धन नष्ट हो गया है और उसका अर्थात् मति, श्रुत और अवधि ये तीन ज्ञान विपर्यय ऊपर जाने का स्वभाव है। जैसे कुम्हार का चाक, लेप (मिथ्या अप्रमाण प्रमाणाभास) भी है, क्योकि उनके द्वारा रहित तुमरी, एरण्ड का बीज और अग्नि की ज्वाला। सत् (समीचीन) और असत् (मसमीचीन) का भेद न मुक्त जीव के ऊवं गमन को सिद्ध करने के लिए सूत्रकार कर स्वेच्छा से उपलब्धि होती है, जैसे उन्मत्त (पागल ने चार हेतु दिये पोर उनके समर्थन के लिए चार उदापुरुष) का ज्ञान । उन्मत्त व्यक्ति विवेक न रखकर माता हरण भी प्रस्तुत किये है। इस तरह अनुमान से सिद्धि १. त. सू..,१३, १४ । ६. अनुपदिष्ट हेतुकमिदमूर्ध्वगमनं कथमध्यसातुं शक्य२. सर्वार्थसि०५-११ । मिनि? भत्रोच्यते । प्राह हेत्वर्थः पुष्कलोऽपिदृष्टान्त ३. लघीय०१/३ ।। समर्थन गन्तरेणाभिप्रेतार्थसाधनाय नालमिति उच्यते ४. प्रमाण परीक्षा, पृ. २८। ५ परीक्षा म०३-१,२। सर्वार्थसिद्धि. १०-६, ७ की उत्पातिकाए । Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थ सूत्र में न्याय शास्त्र के बीज ११४ या विवेचन करना न्यायशास्त्र का अभिधेय है। यद्यपि और विसर्प (विस्तार) होता है, जैसे -प्रदीप; दीपक को साध्य-बिनाभावी एक हेतु ही विवक्षिन प्रर्थ की सिद्धि के जैसा प्राश्रय मिलता है उसी प्रकार उसका प्रकाश हो लिए पर्याप्त है, उसे सिद्ध करने के लिए अनेक हेतुपों का जाता है। इसी तरह जीवों को भी जैसा प्राश्रय प्राप्त प्रयोग और उनके समर्थन के लिए अनेक उदाहरणों का होता है वैसे ही उसमें समव्या'त हो जाते है। प्रतिपादन मावश्यक है। किन्तु उस युग मे न्याय-शास्त्र सत में उत्पाद व्यय और धोव्य की सिद्धि: का इतना विकास नहीं हुअा था। वह तो उत्तरकाल में द्रव्य का लक्षण तत्त्वार्थसूत्र में प्रागमानुसार उत्पाद, हुआ है। इसी से प्रकलंक, विद्यानन्द, माणिक्यनन्दि प्रादि व्यय और ध्रोव्य की युक्तता को बतलाया है । यहा प्रश्न' न्यायशास्त्र के प्राचार्यों ने साध्य (विवक्षित अर्थ) की उठा कि उत्पाद, व्यय अनित्य (माने जाने) रूप है और सिद्धि के लिए पक्ष और हेतु इन दो ही अनुमान का ध्रौव्य (स्थिरता) नित्यरूप है। अंग माना है। उदाहरण को भी उन्होंने नही माना, उसे वे दोनो (अनित्य और नित्य, एक ही मत् में कैसे रह अनावश्यक बतलाया है। तात्रयं यह कि तत्त्वार्थ मूत्रकार सकने ? इसका उत्तर सूत्रकार ने हेतु का प्रयोग करके के काल में परोक्ष अर्थों की सिद्धि के लिए न्याय (युक्ति दिया है । उन्होने कहा कि मुख्य (विवक्षित) और गोण अनुमान) को पागम के साथ निर्णय-माघन माना जाने (अविवक्षित) की अपेक्षा से इन दोनों की एक ही सत में लगा था। यही कारण है कि उनके कुछ ही काल बाद सिद्धि होती है। द्रव्याश की विवक्षा करने पर उसमें हुए स्वामी समन्तभद्र न युक्ति और शास्त्र दोनों को प्रर्थ नित्यता और पर्यायाश की अपेक्षा से कथन करने पर के थार्थ प्ररूपण के लिए पावश्यक बतलाया है। उन्होने अनित्यता की गिद्धि है। इस प्रकार, युक्तिपूर्वक सबका यहाँ तक कहा है कि बीर जिन इसलिए प्राप्त है क्योकि उत्पाद पय, ध्रौव्य रूप नयात्मक या अनेकान्तात्मक सिद्ध उनका उपदेश युक्ति और शास्त्र से अविरुद्ध है । नस्वार्थ- किया गया गया है। सूत्र के उक्त विवेचन से स्पष्ट है कि उसमें न्यायशास्त्र के इस तरह तत्त्वार्थसूत्र हम धर्म, दर्शन और न्याय तीनो बीज समाहित है, जिनका उत्तरकाल में अधिक विकास का सम्मान करने वाला जन वाहमय का अद्वितीय ग्रंथ हुआ है। है । गम्भवत: इमी में उसकी महिमा एवं गरिमा का गान तस्वार्थ मुत्र के पाचवें अध्याय के पन्द्रह पोर मालवे करते हए उत्तरवर्ती प्राचार्यों ने कहा है कि इस तत्त्वार्थसूत्र सूत्रो द्वारा जीवों का लोकाकाश में अमरूधातवे भाग से का जो एक भी बार पाठ करता है या सुनता है उसे एक लेकर सम्पूर्ण लोकाकाश के प्रवगाह प्रतिपादन किया गया उपवास करने जितना फल प्राप्त होता है। तत्त्वार्थमूत्र की है। यह प्रतिपादन भी पनुमान के उक्त तीन अवयवों इस महिमा को देखकर प्राज भी समाज में उसका पठनद्वारा हा है। पन्द्रहवा सूत्र पक्ष के रूप में प्रोर सोलहवा पाठन सबसे अधिक प्रचलित है और पर्युषण (दशलक्षण) सूत्र हेतु तथा उदाहरण के रूप में प्रयुक्त है। 'जीवो का पर्व मे तो उस पर व्याख्यान भी दिये जाते एवं सुने जाते प्रवगाह लोकाकाश के प्रसख्यातवें भाग से लेकर सम्पूर्ण है। इत्यलम् । लोकाकाश में है, क्योंकि उनमें प्रदेशों का संहार (संकोच) 000 १. एतद्वयमेवानुमानाडूनोदाहरणम्-परीक्षा० ३.३७ यायावति. का. ३८१ अकलंक प.। पत्रपरी. पृ. । २. 'युक्तिशास्त्राविरोधिवाक' देवागम (पाप्ममी.) का ६। ३. प्रसंख्येयभागादिषु जीवानाम् (अवगाहः) प्रदेश महार विसर्पाभ्याम् प्रदीपवत् । - त. सू. ५, १५' १६ । ४ मनु श्वमेव विरुवं तदेव नित्यं तदेव नित्यगति। यदि नित्य व्ययोदयाभावाद नित्यताव्याघातः। अथानित्यमेव स्थित्य भावन्नित्यता व्याघातः इति? नैत सिद्धय-कुतः ? ५. मापितानपित सिद्ध ५.३२। ६. स. सि. ५, ३२। ७. दशाध्याये परिच्छन्ने तत्वार्थ पठिते सति । फलं स्यादुपवासस्य भाषितं मुनि पूङ्गवः ॥ -अज्ञात व्याख्याकारकृत Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन पुराणों में समता श्री देवीप्रसाद मिश्र प्रारम्भ में बौद्ध और जैन धर्म को वर्ण-व्यवस्था तथा में वर्ण-संकरता नही थी और उनके विवाह, जाति-संबंध जातिवाद स्वीकार न होने के कारण वे उसका विरोध एव व्यवहार प्रादि सभी कार्य वर्णानुसार होते थे। महाकरते थे । बौद्ध धर्म अपने इस सिद्धान्त का पालन करते पुराण के अनुसार, पहले वर्णव्यवस्था नही थी, परन्तु हुए दृढ रहा, परन्तु कालान्तर मे जैनो ने इस देश की कालान्तर मे ग्राजीविका के प्राधार पर चातुर्वर्ण्य व्यवस्था मुख्य धारा मे बहते हुए एक समन्वित मामाजिक व्यवस्था हुई। रविषेणाचार्य ने जाति व्यवस्था का खण्डन किया को जन्म दिया, जिसमें ब्राह्मणों के स्थान पर क्षत्रियो को है।' पद्मपुराण में किसी भी जाति को निन्दनीय नही प्रमुखता दी गई है। इसी को मान कर उन्होंने पुगणो बताया गया है। सभी में समानता का दर्शन कराके गुण की रचना करके यह प्रतिपादित करने का प्रयास किगा को कल्याणक माना है। यही कारण है कि व्रती चाण्डाल है कि उनके सभी विषष्टिशनाका-पुरुष क्षत्रिय कुल में को गणधगदि देव ब्राह्मण कहते हैं। रविषेणाचार्य ने उत्पन्न हुए थे । ५० फूलचन्द्र जी का विचार है कि जैन- ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुत्ता तथा चाण्डाल के प्रति समता मागम-साहित्य मे चातुर्वर्ण्य व्यवस्था नहीं है। परन्तु यह का दृष्टिकोण अपनाया है । जैन पुराणों में सभी के प्रति मत प्रमान्य है, क्योकि जैन-प्रागमो में बभण, खत्तिय, समता का भाव दिखाया गया है। इसीलिए श्री गणेश मुनि वहस्स तथा सह नाम के चार वर्णों का उल्लेख मिलता ने कहा है कि पहले वर्णव्यवस्था मे ऊंच-नीच का भेद-भाव है, जो क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र है। नहीं था। जिस प्रकार चार भाई कोई काम प्रापस में जैन सूत्रों के अनुसार कर्म से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य बाटकर आपस में सम्पादित करते है, उसी प्रकार चातुतथा शद्र की उत्पत्ति होती है। इसी प्रकार का विचार वर्ण्य-व्यवस्था भी थी। कालान्तर मे इस व्यवस्था के साथ जैन पुराणो में भी मिलता है। लोग अपने योग्य कर्मों को ऊंच-नीच का सम्बन्ध जड़ गया, जिससे विशुद्ध सामाकरते थे, वे अपने वर्ण की निश्चित प्राजीविका छोड़कर जिक व्यवस्था में भावात्मक हिंसा का सम्मिश्रण हो गया। दूसरे की भाजीविका को ग्रहण नहीं करते थे, उनके कार्यों जैन पुराणों के अनुसार, चारों वर्गों का विभाजन माजी१. ५० फूलचन्द्र : वर्ण, जाति और धर्म, काशी १९६३, तुलनीय-चातुर्वण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः। पृ० १६७। -गीता, ४.१३ । २. डा. जगदीशचन्द्र जैन, जैन पागम साहित्य मे भार- ६. पद्मपुराण, ११.१६५-२०२ । तीय समाज, वाराणसी, १९६५, पृ० २२३ । ७ न जातिर्गहिता काचिद्गुणाः कल्याणकारणम् । ३. उत्तराध्ययनसूत्र, २५.३३ । व्रतस्थमपि चाण्डालं तं देवा ब्राह्मणं विदुः ।। ४. यथास्व स्वोचितं कर्म प्रजादधुरसकरम् । -पद्मपुराण, ११.२०३; महापु०, ७४.४८८-४६५; विवाहजातिसबंधव्यवहारश्च तम्मतम् ॥ तुलनीय-महाभारत, शान्तिपर्व, १८६.४-५! -महापुराण, १६.१८७ । वरांगचरित, २५.११ । ५. मनुष्यजातिरेकैव जातिनामोदयोद्भवा । ८. पद्मपुराण, ११.२०४ । वृत्तिभेदाहितभेदाच्चातुर्विध्यमिहाश्नुते ॥ ६. गणेश मुनि, 'प्रागैतिहासिक व्यवस्था का मूल रूप', महापुराण, ३८.४५ जिनवाणी, जयपुर १९६८, वर्ष २५, अंक १२, पृ.६। Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन पुराणों में समता १२१ विका के आधार पर हुमा है। यही कारण है कि जैन कियो को भी समस्त विद्याप्रो एवं कलानों की शिक्षा देने पुराणों में लोगों को अपनी-अपनी माजीविका सम्यक् ढंग की व्यवस्था की है। जिनसेन ने पिना को सम्पत्ति में से प्रतिपादित करने की व्यवस्था की गई है। यदि कोई पुत्री को बराबर भाम का अधिकारी बताया है। ऐसा नही करता था तो उसे दण्ड देने की भी व्यवस्था स्त्रियों को समाज में सम्मान की दृष्टि से देखा की गई है, ताकि इससे वर्ण-संकरता को रोका जा सके।' जाता था और उनके साथ समता का व्यवहार होता था। जैनाचार्यों ने सभी को समानता के माधार पर रखा स्त्रियो के साथ दुर्व्यवहार की प्राचार्यों ने कट पालोचना है। उन्होने सभी के साथ समान न्याय की व्यवस्था की की है। इसीलिए स्त्रियों को भी पुरुष के समान स्वर्ग है। यही कारण है कि ब्राह्मणो को जो विशेषाधिकार का अधिकार दिया है।" मिला था, उसका पतन हुमा और समानता के आधार पर जैनाचार्यों ने परिवार में पति-पत्नी मे परस्पर समासमाज का पुनर्गठन किया गया। यदि ब्राह्मण चोरी करते नता के आधार पर सौहार्दता स्थापित करने में महत्त्वपूर्ण हुए पकड़ा जाता था तो उसे देश से निकाल देने की भूमिका निभायी है । जीवनरूपी नौका पति-पत्नी के सहव्यवस्था की गई थी। योग से चलती है । किसी को कम या अधिक समझने पर उस समय कन्याओं का जन्म माता-पिता के लिए जीवन-नौका भंवर मे पड़कर दुर्गति को प्राप्त होती है। अभिशाप था, परन्तु जन पूराणों में सामाजिक समता के इसीलिए हमारे मनीषियो ने दोनो मे समानता स्थापित आधार पर उनको ऊपर उठाया गया है । इस कारण करने का प्रयास किया है। पद्मपुराण में कहा गया है कि उन्होने (जिनसेन ने) व्यवस्था की है कि कन्याओ का स्त्री-पुरुष का जोड़ा साथ ही साथ उत्पन्न होता था और जन्म प्रीति का कारण होता है। इसी प्रकार का विचार प्रायु व्यतीत करके प्रेम-बन्धन मे प्राबद्ध रहते हए साथ कालिदास ने भी व्यक्त किया है। उन्होंने अपने ग्रन्थ ही साथ मृत्यु को प्राप्त होता था। एक पोर पत्नी को कमारसम्भव मे कन्या को कुल का प्राण कहा है। जैना- पति को प्रधांगिनी" कहा गया है, तो दूसरी ओर उसे चार्यों ने पत्र एव पूत्री को समान माना है। इसीलिए पति का विश्वास-पात्र मंत्री, मित्र एव प्रिय शिष्या यताया पिता दोनों को समान रूप से पढ़ाते थे। उस समय बिना गया है। भेद भाव के लड़के और लड़कियां साथ-साथ अध्ययन किया पत्नी के बिना घर को शून्य ५ एवं जंगल बताया करते थे। जैनाचार्य जिनसेन ने लड़को के समान लड़ गया है । मनु ने तो यहाँ तक कह डाला है कि जहाँ पर १. महापुगण, ३८ ४६; पद्मपुराण, ११.२०१; हरिवश- पुण्यश्च सविभागार्हाः सम पुत्र. समाशकः । पुराण, ७.१०३-१०५; तुलनीय-विष्णुपुराण, १.६. -- महापुराण, ३८.१५४; तुलनीय --प्रावश्यकणि, ३-५; वायुपुराण, १.१६०-१६५। २३२; उत्तराध्ययनसूत्र २, पृ० ८६ । २. हरिवशपुराण, १४.७; महापुराण, १६.२४८ । १०. हरिवंशपुराण, १६.१६; पद्मपुराण, १५.१७३ । ३. महापुराण, ७०१५५; तुलनीय-हरिवशपुराण, ११. पद्मपुराण, ८०.१४७; महापुराण, १७.१६६ । २७.२३-४१। १२. युग्ममुत्पद्यते तत्र पल्यानां त्रयमायुपा । ४ महापुराण, ६.८३ । प्रेमबन्धनबद्धश्च म्रियते युगलं समम् ।। ५. भगवतशरण उपाध्याय, गुप्तकाल का सांस्कृतिक - पद्मपुराण, ३५१। इतिहास, वाराणसी १६६६, पृ. २२१ । १३. तैत्तिरीयसंहिता, ६.१.८.५; ऐतरेय ब्राह्मण, १.२.५%) ६. महापुराण, २६.११८ । शतपथ ब्राह्मण, ५२.१.१० । ७. पद्मपुराण, २६.५.६; तुलनीप-- बृहदारण्यकोपनिषद्, १४. गहिणी सचिव: सखी मित्र: प्रिय शिष्या ललित कला६.२.१, छान्दोग्योपनिषद्, ५.३ । ___कलाविधौ ।-रघुवंश, ८८७ । ८. महापुराण, १६.१०२ । १५. महाभारत, १२.१४४.४ । १६. वही १२.१४४.६ । Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२, वर्षे ३१, कि० ३-४ अनेकान्त स्त्रियों की पूजा होती है वहां पर देवता निवास करते और उन इच्छाओं की पूर्ति के साधन अत्यल्प है। प्रतएवं हैं। इसीलिए महापुराण में कहा गया है कि पति-पत्नी समस्त इच्छात्रों की पूर्ति होना असम्भव है। इसलिए से सुशोभित होता है। अत्यन्त आवश्यक प्रावश्यकतानो की पूर्ति करके ही जैनाचार्यों ने वेश्यामों को सामाजिक धारा से जोड़ने सन्तोष करना चाहिए । पत: विवेक एवं न्यायपूर्वक चयन का प्रयास किया है। समाज में वेश्याओं को हीन दृष्टि से किये गये धन से इच्छापूर्ति करनी चाहिए। जैनाचार्यों देखा जाता था, परन्तु समाज मे सुधार करके उन्होने ने कहा है कि यदि कोई मनुष्य अपनी इच्छापूर्ति मन्यायइनकी स्थिति में परिवर्तन किया। इस परिवर्तन के परि- मार्ग का प्राश्रय लेकर करता है तो उसे महान् कष्ट णामस्वरूप वसन्तसेना नामक वेश्या ने अपना पेशा छोड़. उठाना पड़ता है। अतएव न्यायपूर्वक धनार्जन करना ही कर विवाह किया और अपनी मां के घर से पति के यहाँ जीवन को सुखी एवं सन्तुष्ट बनाने का एकमात्र मार्ग पाकर अपनी सास की सेवा करते हुए प्रणवतो का पालन है।' कामनानों की पूर्ति का साधन अर्थ है और मथं धर्म करने लगी।' वेश्यायें विवाह करके गृहस्थी बसाने लगी से मिलता है। इसलिए धर्मोचित अर्थ-अर्जन से इच्छाऔर सामाजिक धारा में योगदान देने लगीं। वेश्याओं के नुसार सुख की प्राप्ति होती है तथा इससे मनुष्य प्रसन्न साथ विवाह करने पर किसी को समाज से बहिष्कृत नही रहते हैं । अतएव धर्म का उल्लघन न कर धन कमाना, किया जाता था। इससे यह ज्ञात होता है कि जैनाचार्यों उसकी रक्षा करना तथा योग्य पात्र को देना ही मुख्य ने वेश्यापों की स्थिति सुधारने और उन्हे समाज मे लक्ष्य होना चाहिए।' सम्मानजनक स्थान दिलाने तथा उनके साथ विवाह करने जैनाचार्य जिनसेन ने समाज मे वर्ग-संघर्ष को रोकने को प्रोत्साहन दिया। जिस प्रकार आज कल हरिजन कन्या के लिए श्रम का विभाजन किया है। उन्होने ऐमी के साथ विवाह करने पर सरकार की पोर से विभिन्न ___ व्यवस्था की थी कि सभी अपने-अपने पेशे मे लगकर प्रकार का प्रात्साहन दिया जाता है, सम्भवतः उम समय कुशलता का परिचय दें और कार्य में निपुणता लाकर भी वेश्यापो के साथ विवाह करने पर इसी तरह का कोई देश को आगे बढ़ावे। इसीलिए महापुराण में एक दूसरे प्रोत्साहन दिया जाता रहा होगा। की आजीविका मे हस्तक्षेप का निषेध किया गया है।' जनाचार्यों ने समाज में प्रायिक असमानता को दूर त. हम देखते है कि जैनाचार्यों ने जैन पुराणों के करने के लिए समानता स्थापित करने का प्रयास किया माध्यम से समाज के विभिन्न क्षेत्रो मे समता स्थापित है। जैन पुराणों के अनुशीलन मे यह तथ्य प्रकाश में करने का प्रयास किया है। समाज से विशेषाधिकारों एवं पाता है कि उप समय सभी को न्यायपूर्वक आजीविका असमानतामो को दूर करके समन्वय की धारा प्रवाहित करने के लिए प्रोत्साहन दिया जाता था। जिनसेनाचार्य की है। ने कहा है कि इस ससार में मनुष्य की इच्छायें अनन्त है U00 १ यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः । ५. .."वृत्तिश्च न्यायो लोकोत्तरो मतः । तत्रौतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः ।। -- महापुराण, ४२.१४; __ -- मनुस्मृति, ३.५६; तुलनीय-गरुडपुराण, १.२०५.६८ । तुलनीय-जायसो यत्र पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः। ६. धर्मादिष्टार्थसम्पत्तिस्ततः कामसुखोदयः । यत्र तास्तु पूज्यन्ते विनक्ष्यस्वाक्षुतद्गृहम् ।। सच संप्रीतये पुसा धर्मात् संषा परम्परा ॥ -महापुराण, ५.१५ । -भविष्यपुराण, ४.११७.४ । ७. स तु न्यायोऽनतिक्रान्त्या धर्मस्यार्थसमर्जनम् । २. महापुराण, ६.५६ । ३. हरिवंशपुराण, २१.१७६ । रक्षणं वर्घनं चास्य पात्रे च विनियोजनम् ॥ ४. न्यायोपाजितवित्तकामघटन:। -महापुराण, ४२.१३ । -महापुराण, ४१.१५८ । ८. महापुराण, २६.२६ । ६. वही, १६. १८७ । Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वाध्याय परम तप है 9 श्रीमती रूपवती 'किरण', जबलपुर समता की निर्मल गंगा : विभिन्नता हो तो पढ़कर भी बुद्धिमय नहीं होता, मनन चिंतन तो प्रस भव ही है । अध्ययन में अतिरिक्त विकल्प माज के युग में कल्पवृक्ष की भाति विज्ञान के बढ़ते नहीं रह सकते । एकाग्रता से मन-वचन-काय पर नियंत्रण हए चरण भव को सतापकारी तृष्णा के अथाह मागर में अनायास ही हो जाता है। अन्य पदार्थों से ममता की डोर डबा च के है । प्रात मानव व्याकुलता से प्रतीक्षा रत है। टूट जाती है। चेतना, जो अब तक प्राकर्षणो मे बह रही उन उपायों के लिए, जो मानव के उद्वेग को शात कर थी, अपने में लौट पाती है। प्रात्मा का 'स्व' में केन्द्रीमत तृप्ति दे सकें। उसे निश्चय हो गया है कि शारीरिक सुख हो विराम लेना प्रात्मविशुद्धि का कारण है। जैन दर्शन उसे तृप्त करने में सर्वथा असमर्थ है। मानव सामग्री के का केन्द्र प्रात्मा ही है। प्रास्मा का लक्ष्य स्वस्थित होना विस्तृत मरुस्थल में मानमिक अशाति से तप्त राग-द्वेष की है। स्वाध्याय से 'स्व' के प्रति जिज्ञासा बढ़नी है, जो पांच मे चने की भांति भुनता हुआ छटपटा रहा है, प्रात्मा की खोज करके ही शांत होती है एवं पा जाने पर समता के सीकरों के लिए जो तत्काल शाति प्रदान कर अभूतपूर्व तृप्ति मिलती है। सकते है । उसे यह ज्ञात नही कि समता की निर्मल गगा की अजस्र धारा उसी के अंतस में प्रवाहित है। उस पवित्र मोह-ममता के गहन अधकार में भटकता प्राणी तषाहारिणी सरिता का उद्गम वह स्वयं है और वह आत्मिक शांति को विस्मृत कर अपना प्रतिक्षण ह्रास कर पिपासित हो यत्र-तत्र भटक रहा है। यह कैसा प्राश्चर्य रहा है। स्वाध्याय ज्ञान-किरणों के द्वारा पालोक-दान है कि जिसके गर्भ मे प्रनत औषधिया पल रही हों, वही करता है, ताकि व्यक्ति अपनी सामर्थ्य से परिचित हो हिमांचल रुग्ण रहे ? मानव को अपनी विशाल निधि की प्रात्म शक्ति को पूर्णत: विकसित करने की क्षमता प्राप्त खोज करना है। भयंकर दरिद्रता से मुक्ति पाना है तो कर सके। सतर्क हो स्वाध्याय करना होगा, सतत स्वाध्याय । स्वा. ध्याय ही वह सुगम उपाय है जो प्रात्मा के गुप्त प्रबझे भंडार के रहस्यों को खोल कर समस्त प्राधि-व्याधि- स्वाध्याय क्यों ? भोर किसका? साधारणत: स्वा. उपाधि को हरण कर लेता है। इसके प्रभाव से संसार मे ध्याय पढ़ने के अर्थ में प्रयुक्त होता है। अक्षरात्मक ज्ञान होने वाला मानुषगिक फल ऋद्धि-सिद्धिया अनियत्रित या तो प्रत्येक व्यक्ति को करना पावश्यक है। इसके बिना चरणो मे लोटती है। विशद् ग्रंथो का पारायण नही किया जा सकता। विश्व मे अनेक विषय है। किसी भी विषय की गहन अध्ययन के 'स्व' में केन्द्रीभूत हों : बिना धारणा नही होती। यह भी सम्भव नही कि एक स्वाध्याय जीवन का भावश्यक अंग है। इसके बिना व्यक्ति समस्त विषयो का अध्ययन कर पारंगत हो सके। मनुष्य पशु के सदृश है, बल्कि पशु कहकर भी पशु का अपनी-अपनी रुचि के अनुसार ही व्यक्ति विषयो का अपमान करना है। स्वाध्याय करते समय मन की क्रिया प्रध्ययन-मनन करता है। कोई भी कार्य किसी विशेष के अनुरूप वचन व शरीर की क्रिया भी होती है, अर्थात् उद्देश्य को लेकर किया जाता है। सुख-प्राप्ति का उद्देश्य तीनों का समन्वय भी हो जाता है। कदाचित् तीनो मे ससार के समस्त प्राणियो का सदृश है। अनेक प्रकार से Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४, वर्ष ३१, कि० ३.४ अनेकान्त अध्ययन-शील रहने पर भी प्राणी को अभीष्ट की प्राप्ति क्रिया व वैराग्य से स्वग्रहण होता है। अन्य पदार्थ के नहीं हुई। प्रहण की वत्ति छुट जाती है। अतएव कषाय निराश्रित प्रात्मा प्रनत गुणों का भडार है। ज्ञान प्रात्मा का हो क्रमशः कृश होती जाती है और प्रत्मा को स्वच्छता असाधारण गुण या लक्षण है। इसके द्वारा ही प्रात्मा को निखरने लगती है। ग्रहण किया जा सकता है तथा अन्य गुण भी ज्ञान के स्वाध्याय से प्रात्म गुणों को अभिवृद्धि : द्वारा ग्रहण होते है। ज्ञान चराचर ममस्त जेय को विषय बनाता है। ज्ञान में ज्ञान की स्थिरता हेतु स्वाध्याय दिशेष प्राव श्यक है । स्वाध्याय के क्षणो मे व्यक्ति अनेक चितामों से भान प्रज्ञान में अंतर उन्मुक्त हो जाता है। दत्तचित्त हुए बिना स्वाध्याय नही प्रयोजन सिद्धि के लिए ज्ञान-प्रज्ञान की परिभाषा हो सकता। इससे 'स्व' अध्ययन की प्रेरणा, मार्गदर्शन भली भांति विदिन हो जाना उचित है। जो प्रयोजन को मिलता है । आत्म-निरीक्षण की वृत्ति, अनुसंधान कर गुणों सिद्ध करे वह ज्ञान, शेष सब अज्ञान है। ज्ञान का पारप को अभिवृद्धि एव दोषो का परिमार्जन करती हुई प्रगति रिक फल निर्मल केवल-ज्ञान की प्राप्ति है। जहा ज्ञान में पथ पर चल पड़ती है। युगों-युगों से चली आ रही भूलों कुछ भी मिश्रण नही, केवल ज्ञान हो ज्ञान है। यह का उन्मूलन कर भात्मविशुद्धि कर कल्याण किया जा सुनिश्चित है कि ज्ञान के साथ अन्य लोकिक सदा अनु सकता है। प्रात्मकल्याण में सलग्न व्यक्ति अन्य प्राणियो पंग रूप से होती ही है, परन्तु ज्ञानी को अन्तरानुभूति के के कल्याण मे भी पूर्णत: सतर्क रहता है, अर्थात् वाधक सूख के समक्ष धन-संपत्ति तृणवत् तुच्छ प्रतिभासित नही बनता। उसके विचारो मे सरलता, सहिष्णुता प्रा होती है। जाती है तथा प्राचरण सात्विक-सीमित कर वह प्रात्मय तो ज्ञान के प्रभाव में अज्ञानी को भी विशेष गुणो की समृद्धि मे रत रहता है। सपदा, ऋद्धि-सिद्धि प्रादि उपलब्ध हो जाती है, पर शाश्वत प्रानंद की प्राप्ति नहीं होती। समय पाकर सामग्री विनष्ट कला 'स्व' में विराम लेने की: हो जाती है, क्योकि क्षण-भंगुरता उसका स्वभाव है। ज्ञान ज्योति प्रत्येक प्रात्मा में सदैव दीप्त है, जिसके हमान के सदभाव में भी मात्र वैभव प्राप्त हो तो द्वारा विश्व के पदार्थ प्रकाशित हो रहे है। निरंतर स्वा. जान-प्रज्ञान में अन्तर ही क्या रहा ? ज्ञान का विशिष्ट ध्याय कर स्वयं को भी प्रकाशित किया जा सकता है। या अतिरिक्त फल शाश्वत मुक्ति की उपलब्धि है। ज्ञान ज्योति उद्दीप्त हो सकती है। प्राकर्षण-विकर्षणों से हटकर अपने में संयत रहना अत्यंत कठिन कार्य है। प्रज्ञानी ज्ञान से वैभव आदि फल की अभिलाषा स्वाध्याय के बल पर 'स्व' में विश्राम करने का अभ्यास रखते है। प्रसृत से विष-प्राप्ति की इच्छा करते हैं। सत विष-प्राप्ति की इच्छा करते हैं। सत् हो सकता है। में असत् को खोजते हैं। प्रज्ञान सर्प की भाँति विर्षला है। इसके दंशन से कषायों की ऐंठन होती है। दंशित चेतना 'स्व' के प्रति समर्पित हो: प्राणी निविष होने के लिए संसार-रूपी कच्चे कूप का प्रथम तो हमें यही ज्ञात नही कि शरीर के पार भी जल पीने का उपक्रम करते है. परन्तु विषय भोगों की कोई इससे विलक्षण वस्तु है। कदाचित् प्रात्मा नामक अनवरत वर्षा से तृष्णा के दलदल में फिमल-फिसल कर वस्तु का अस्तित्व मान भी लिया तो उसकी पोर की गिर जाते हैं। अज्ञानी का सारा पुरुषार्थ पदार्थाश्रित अभिरुचि जागी नहीं। समस्त परिचय शरीर व शरीर रहता है, जब कि ज्ञानी का पुरुषार्थ प्रात्मस्थित होने के सम्बन्धी अन्य पदार्थों से ही रहा है। जो वस्तु प्राज तक लिए होता है। प्रत्यक्ष परिचय मे नही पाई, मन का मोड़ उस भोर होता कपाय प्रज्ञान में पनपती है। विवेकपूर्वक ज्ञान की नहीं। यद्यपि उसका अनुभव हमे प्रतिक्षण हो रहा है, Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वाध्याय परम तप है १२५ तथापि हम उस पर ध्यान नहीं देते। ध्यान दिये बिना स्वाध्याय के प्रकार : समीप मे रखी वस्तु भी दूर हो जाती है। जब तक हम स्वाध्याय मख्यतः पांच प्रकार है -तत्त्वार्थसूत्र में सूत्र अपने प्रति पूर्णतः समर्पित न हों, तब तक प्रानंदानुभूति है वाचनापच्छनानप्रेक्षाम्नाय धर्मोपदेशः। यथा-वाचना, असंभव है। पृच्छना, अनुप्रेक्षा, माम्नाय, धर्मोपदेश। वाचना-वीतराग मार्ग पर अग्रसर होने मे जो ग्रंथ उपलब्धियों का सदुपयोग अनिवार्य : सहायक हो उनका पठन-पाठन करना वाचना है। यह प्राकृतिक नियम है कि प्राप्त वस्तु का दुरुपयोग पृच्छना--शका समाधान के अर्थ विशेष ज्ञानियों से किया जावे तो कालातर मे वह वस्तु अप्राप्य हो जाती विनयपूर्वक प्रश्न करना पृच्छना है। है। ज्ञानार्जन की अनुकूलता वर्तमान में प्राप्त है, उसका अनुप्रेक्षा अध्ययन से ज्ञात किये पदार्थों का बारंबार समचित लाभ नही लिया तो ज्ञान-प्राप्ति दुर्लभ हो चितवन करना मनुप्रेक्षा है। प्रात्मा जगत् के क्षणजीवी जायगी। द्रव्यश्रत ही भावभुत में निमित्त कारण है। पदार्थों से विरत हो प्रात्मगुणो मे अनुरक्त होता है। हृदय वीतरागता से एकरस हो जाता है। स्वाध्याय का महत्त्व : माम्नाय ---निर्दोष उच्चारण कर पाठ को रटना तथा स्वाध्याय की अचिन्त्य महिमा है। इसके आनुषंगिक उस परिपाटी पर चलना प्राम्नाय है। फल, ऋद्धि-सिद्धि बिना प्रयत्न स्वयमेव मिलते है। श्रमण धर्मोपदेश-मोक्षमार्गी धर्म का उपदेश देना धर्मोपसस्कृति मे गृहस्थ व साधु दोनो के आवश्यक षट्कमों मे देश है। स्वध्याय भी अनिवार्य कम है। चचल मन को गति अव- ये पाचो स्वाध्याप के अग है, ज्ञानवर्धन मे कारण रुद्ध करने के लिए ध्यान के पश्चात् स्वाध्याय ही ऐमा है। यथार्थतः स्व-प्रध्ययन करना अथवा 'स्व' मे तन्मयता महत्त्वपूर्ण कार्य है, जहा विभिन्नटाए समाप्त हो मन, वाणी, स्वाध्याय की अद्वितीय कला का फल है। वक्ता-श्रोता कर्म समन्वित हो जाते है। संयम की प्राच मे प्रात्मा को दोनों ज्ञानार्जन के पवित्र अभिप्राय हेतु स्वाध्याय करें तपाये बिना उसे स्वभाव के अनुकूल नहीं ढाला जा करावे । यदि श्रोता कुतर्क करे या वक्ता के अपमान का सकता है। अभिप्राय रखकर प्रश्न करे तो ज्ञान की अभिवृद्धि का पावन उद्देश्य नष्ट हो जाता है, एव बक्ता अपन सम्मान, स्वाध्याय परम तप है: यश प्रादि के लालच से प्रवचन या धर्मोपदेश करे तो वह चैतन्य मात्मा जिससे अपने मे चैतन्य हो उठे, अर्थात् प्राप्य ज्ञान का सदुपयोग न कर अपनी महान् क्षति कर ज्ञान के प्रकाश से जगमगा उठे, वह तप है । तप के बाह्य रहा है। प्रतः सरलचित्त हो समता भाव से स्वाध्याय पौर अभ्यंतर दो भेद रूप हैं। दोनों प्रकार के तप प्रात्मा कर ज्ञानवर्धन तथा तदनुकल ज्ञानाचरण करना योग्य है। का अनुसरण करते है। जन्म-मरण के प्रसाध्य रोग से छुटकारा पाना हो तो तप को अंगीकार करना ही होगा। तप ज्ञान की उपादेयता : से कर्म शृंखला टूट-टूटकर बिखरने लगती है। स्वाध्याय ज्ञान उपादेय है, क्योकि वह सवर, निर्जरा, मोक्ष का परम तप है। द्रव्यश्रुतका अध्ययन स्वाध्याय नामक बाह्या कारण है। संसार में भ्रमण कराने वाले प्रास्रव बंधरूप तम व 'स्व' अध्ययन कर भावश्रुत (आत्मा) की अनुभूति प्रज्ञान का तथा उसे समाप्त करने का उपाय ज्ञान से ही अंतरग सप है। इससे सम्यग्दर्शनपूर्वक सम्यग्ज्ञान सम्यक- विदित होता है। स्वाध्याय-भेद विज्ञान का जनक है । चारित्र की उपलब्धि होती है। स्वाध्याय कर प्रात्मशुद्धि ज्ञान प्रात्म स्वभाव होने से प्रत्येक व्यक्ति ज्ञान प्राप्ति का का सतत प्रयास होना कार्यकारी है। यदि प्रात्म-विशुद्धि इच्छुक रहता है। यह बात अलग है कि अविवेक के न हुई तो स्वाध्याय का क्या मूल्य ? (शेष पृ० १२७ पर) Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रावती की जैन प्रतिमाएं : एक परिचयात्मक सर्वेक्षण 10 श्री विनोद राय भारतीय कला के क्षेत्र में जैन साहित्य व कला का फोटोग्राफ एवं उन पर क्रमांक डालने का कार्य राजस्थान प्रमुख स्थान है। इसका प्रमुख कारण यह है कि जैन पुरातत्व एवं संग्रहालय विभाग, जयपुर द्वारा पूर्ण हो यति व विद्वान् प्रारम्भ से ही भारतीय कला व संस्कृति चुका है। यहां पर शव, शाक्त, वैष्णव, जन प्रतिमायें को पाषाणों, चित्रकला व साहित्य मे मूर्त रूप दे कर पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हुई हैं। अभी और उत्खनन की परिष्कृत समाज की रचना मे अभूतपूर्व योगदान किये हैं। प्रावश्यकता है जिससे अनेक खण्डहरों मे दबी हुई प्रतिभारत के प्रत्येक क्षेत्र, ग्राम, तहसील व जिलेवार सर्वेक्षण माएँ अज्ञान भूगर्भ से बाहर अावेगी जो जैन वास्तुकला, की मावश्यकता है जिससे कि जैन संस्कृति व कला के मूर्तिकला के प्रभतपूर्व नमुने होगे। जैन ग्रंथ 'तीर्थमाला' प्रज्ञात मार्ग में समा रहे नवीनतम स्रोतों--शिलालेख, के अनुसार यहाँ पर १८०० जैन मन्दिर थे । चन्द्रावती के ताम्रपत्र, साहित्य का पता लगाया जा सके। इससे न सम्बन्ध में कतिपय विद्वानो ने वहुत ही शोधपूर्ण ऐतिकेवल जैन कला, साहित्य व संस्कृति को ही जीवन प्राप्त हासिक सामग्री का संकलन व सम्पादन किया है जिसमे होगा बल्कि मारतीय कला व साहित्य के इतिहास मे कर्नल टाड, गोरीशकर हीराचन्द्र प्रोझा, एच. पी. भी नवीन पायाम जुड़ेंगे । यद्यपि राजस्थान सरकार अपने शास्त्री, यू० पी० शाह, दशरथ शर्मा, ठाकुर भगत सिंह, विशेष प्रयासों से इस दिशा मे किये जा रहे कार्यों को श्री विजय शक र श्रीवास्तव इत्यादि के नाम प्रमख है। प्रोत्साहन दे रही है तथा राजस्थान के प्रत्येक संग्रहालय में यहाँ पर कतिपय जैन प्रतिमानो का परिचय उदाहरणार्थ महावीर कक्ष को स्थापना की गई है, लेकिन फिर भी इस दिया जा रहा है। प्राशा है कि शोध विद्यार्थी इस मोर प्रकार के सांस्कृतिक इतिहास व पुरातत्त्व से सम्बन्धित विशेष ध्यान देंगे । ये प्रतिमायें मध्य काल की है। कार्यों के सर्वेक्षण हेतु एक विशेष प्रकोष्ठ की स्थापना की १. पंजीयन क्रमाक सी.६ जैन चतुर्विशति तीर्थकर जानी चाहिए और इस हेतु एक मण्डल की स्थापना होनी -- इस प्रतिमा मे चौबीस तीर्थङ्करों को उत्कीर्ण किया चाहिए तथा एक निश्चित धनराशि की भी व्यवस्था की गया है। यह ११वी-१२वी शताब्दी की है। सफेद संगजानी चाहिए। इससे शोधार्थी प्रोत्साहित होंगे मौर शोध मरमर से निर्मित इस प्रतिमा का साइज २४ इंच १५ के क्षेत्र में नये-नये अध्याय जुडते रहेंगे। विश्व के कला इच है । इतिहास मे जैन वास्तुकला, मूर्तिकला, चित्रकला एवं २. पंजीयन क्रमाक सी-७६, मस्तक विहीन जैन साहित्य का प्रमुख स्थान है। तीर्थकर प्रतिमा- इसके वक्ष पर श्रीवत्स चिह्न विद्यमान है। इसकी पहचान शीतलनाथ से की जाती है। यह लेखक ई. सन् १९६८ से १९७२ तक राजकीय सफेद संगमरमर की है। इसका साइज २२ इंच ४२४ संग्रहालय, माउण्ट माबू में कार्यरत रहा । आबू रोड रेलवे इंच है । निगेटिव नम्बर ४६७२ (पी-२)। स्टेशन से ६ कि.मी. दूर भाब रोड-महमदाबाद रेलवे लाइन ३. पजीयन क्रमांक सी-७८, जैन प्रतिमा का सिंहापर स्थित जिला सिरोही, तहसील पाबू रोड में चन्द्रावती सन-सिंहासन पर सिंह व गज अंकित है। इस पर नामक प्राचीन ग्राम है जिसके खण्डहर प्राज भी विद्यमान ११वी-१२वी शताब्दी का देवनागरी लिपि में लेख भी है। खण्डहरों में स्थित प्रतिमामों की सूची बनाने का उत्कीर्ण है। इसका साइज १६ इच X१३ इच है। निगेसौभाग्य मुझे प्राप्त हुमा है। अधिकाश प्रतिमामों के टिव नम्बर ४६७० (पी २)। Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रावती को जन प्रतिमाएं : एक परिचयात्मक सर्वेक्षण १२७ ४. पंजीयन क्रमांक सी-११९, जन प्रतिमा का सिंहा- १० इंच ४२४ इंच है। निगेवि नम्बर वी ६०० सन-इसके निचले भाग में गज-सिंह अंकित हैं। मध्य मे (पी १०)। शतदल कमल व वृषभ अकित हैं। यह सफेद संगमरमर ६. पंजीयन क्रमांक सी-१४५, प्रासनस्थ जैन तीर्थकी है। इसका साइज १० इंच ४२४ इंच है। निगेटिव ङ्कर-चतुर्भजी यह प्रतिमा खंडित अवस्था में है। यह नम्बर बी ५६६ (पी १०)। सलेटी पत्थर की है। इसका साईज ३० इच-१६ इच ५. पंजीयन क्रमांक सी-१२०, जैन प्रतिमा का सिंहा- है। निगेटिव नम्बर ए बी बी ६१६ (पी १२) । सन--इस पर भी गज-सिंह अङ्कित है। इसके मध्य में ७. पंजीयन क्रमांक सी-१७६, जन प्रतिमा का परिपासनस्थ देवी प्रतिमा है जिसके नीचे शतदल कमल कर-यह सलेटी पत्थर की है। इसका साइज २१ इंचx अङ्कित है। यह सफेद संगमरमर को है और इसका साइज २५ इंच है। निगेटिव नम्बर बी ६३६ (पो १४)। [100 (पृष्ठ १२५ का शेषांष) संस्कारो से युक्त विषयानुरक्त प्राणी निष्प्रयोजन अध्ययन विकास होना चाहिए । सम्यग्ज्ञान होने पर सामग्री के मे निरत रहता है। प्रात्मानुरागी यथार्थ दिशा मे गति- सान्निध्य में ज्ञानी उन्मत्त नहीं होता एवं भनेक सांसारिक शील होता है तो वही ज्ञान सम्यग्ज्ञान बन व्यक्ति को प्रभावो के होते हुए भी वह परम शाति का अनुभव करता अवलबन दे भव पार करा देता है। ज्ञान दुख से निवृत्ति है। इसका एक ही कारण है वस्तुस्वरूप का यथार्थ ज्ञान । करा सुख सागर में अवगाहन कराता है। जिमने स्वद्रव्य, अपनी प्रात्मा व अन्य चेतन-प्रचेतन रूप रुढिवाद, अधविश्वासों के घेरे से निकल, विज्ञान के पर द्रव्य के स्वरूप को ज्ञान के द्वारा प्रत्यक्ष कर लिया चमत्कारो पर मुग्ध न हो, सम्यग्ज्ञान के द्वारा स्व पर है वह शाश्वन को छोड प्रशाश्वत को ग्रहण करने की कल्याण की मद्भावना जन-जन के मन में जग जाये तो अभिलाषा क्यो करेगा? और जब इच्छा ही नही होगी युद्ध की गति अवरुद्ध की जा सकती है। तो व्याकुलता का फिर कौन-सा कारण है ? व्यग्रता का प्रभाव हो तो पानद है । जहाँ मानद है वहां शांति है। कृपया ध्यान दें: __ मन को झिंझोडने वाला प्रज्ञान चैन नहीं लेने देता। जैन समाज अपनी आने वाली नई पीढ़ी पर ध्यान दे, अज्ञान दूर हो एव घट-घट मे ज्ञान ज्योति प्रदीप्त होकर जो उसकी उत्तराधिकारिणी है, उत्तरोत्तर प्राचार-विचार जगमगाये । सद्ज्ञान के प्रभाव में व्यक्ति ढूंठ के सदृश हीन होती जा रही है। समाज मन्दिरो के नव-निर्माण है जो फल-फल-पत्रादि के प्रभाव में कोरा ही रह जाता को रोक, ज्ञान की उपासना हेतु ज्ञान मन्दिरों का निर्माण है। यदि हम नई पीढ़ी को ज्ञान की हरियाली न दे सके करे। वहां ज्ञान-दान की सुन्दर व्यवस्था हो। अल्प- तो समाज मे जनदर्शन के विद्वान् शून्यवत् रह जायेंगे। वयस्क वालकों से लेकर समाज का प्रत्येक व्यक्ति उनमें व्यक्ति को अध्यात्मिक ज्ञान की नितात मावश्यकता है, अध्ययन कर सके। ज्ञान कल्याणकारक है । प्रतः ज्ञान का प्रतः स्वाध्याय अनिवार्य है। 000 मोक्ष का मागे रयणतयं ण वट्टा अप्पाणं मयत अण्णदवियम्मि । सम्हा तत्तियमइयो होवि मोक्खास्स कारणं मावा ।। -नेमिचन्द सिवान्त चक्रवर्ती रत्नत्रय पास्मा को छोड़कर अन्य द्रव्य में नहीं होता है, इसलिए उस रत्नत्रय सहित प्रात्मा ही निश्चय से मोक्षका मागहै। Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलचुरिकालीन जैन शिल्प-सम्पदा - डॉ. शिवकुमार नामदेव राजनीतिक दृष्टिकोण से प्राचीन भारतीय इतिहास मे माएँ मिली है। इनमें प्रादिनाथ की प्रतिमाएं सर्वाधिक र नरेशो का वैशिष्टयपूर्ण स्थान है। छठी शती ई० है। ये कारीतलाई, तेवर, मल्लार, रतनपूर मादि से से लेकर अठारहवी शती ई० तक इन नरेशो ने भारत के प्राप्त हुई है। उत्तर प्रथवा दक्षिण किसी न किसी भू-भाग पर शासन आदिनाथ की ६ फुट ऊँची एक प्रतिमा कातिलाई किया। भारतीय इतिहास के अतीत को गौरवयुक्त बनाने से प्राप्त हुई है। यह १०-११वी सदी ई० की है। इसे मे इन नरेशों ने महत्त्वपूर्ण योगदान किया है। इस काल एक उच्च चौकी पर पदमासन में ध्यानस्थ अवस्था में की हिन्दु बौद्ध एवं जन देवी-देवतानों तथा सुर-सुन्दरियो दिखाया गया है। दुर्भाग्य से इस प्रतिमा का मस्तक दक्षिण की मूर्तिया कलापूर्ण है। हस्त एवं वायाँ घुटना खंडित है । हृदय पर श्रीवत्स का यद्यपि अधिकाश कलचुरि शासक शैव मतानुयायी थे, प्रतीय एवं मस्तक के पीछे प्रभावमण्डल है। प्रभावमण्डल परन्तु उन्होने एक आदर्श हिन्दू नृपति की भॉति धार्मिक के ऊपर एक सुन्दर विच है। उसके दोनों पाश्चों में स्वतंत्रता की नीति का अनुगमन किया। उनके उदार एक-एक महावतयुक्न हस्ति उत्कीर्ण है। उनके पर एवं लोकोन्मुखी दृष्टिकोण से राज्य मे हिन्दू, बौद्ध एवं दुन्दुभिक एवं हस्तियों के नीचे युगल विद्याधर हैं, जो जैन धर्म स्वतंत्र रूप मे पल्लवित हुए। यही कारण है कि नभमार्ग से पुष्पवृष्टि कर रहे हैं । विद्याधरो के नीचे दोनो जहाँ कलचुरि नरेशो द्वारा संरक्षित धर्म की मूर्तियाँ एवं पाश्वों में भगवान् के परिचारक सौधर्मेन्द्र एवं ईशानेन्द द्वाथों देवालय प्राप्त होते है वहाँ जनधर्म की प्रतिमानों का भी में चँवर लिये खडे है। बाहुल्य है। प्रतिमा की अलंकृत चौकी पर भगवान् ऋषभनाथ विवेच्य युगीन जैन शिल्पकला से सम्बन्धित सुन्दर का लाछन वृपभ चित्रित है। वृषभ के नीचे और चौकी एवं भावयुक्त मूर्तियों मध्यप्रदेश के जबलपुर, विलासपूर, के ठीक मध्य में धर्मचक्र तथा उसके दोनों ओर एक-एक सिंह है। सिंहासन के दाहिने पार्व में शासनदेव गोमुख रायपुर, रीवा, शहडोल मादि जिलों से उपलब्ध हुई है। एव वाम पार्श्व में शासनदेवी चक्रेश्वरी ललितासन मुद्रा में ये प्रतिमाएं इस बात की साक्षी है कि विवेच्य काल में इन भूभागो पर जैनधर्म का व्यापक प्रभाव था। इसी स्थल से प्राप्त ऋषभनाथ की अन्य प्रतिमाएं कलचुरिकालीन जन प्रतिमामों को हम प्रतिमाशास्त्रीय उपरिवणित प्रतिमा की ही माँति है । एक प्रतिमा ३ फुट अध्ययन के दृष्टिकोण से चार भागो मे विभक्त कर सकते ६ इंच ऊंची है और उसके सिंहासन पर सिंहों के जोड़े हैं-(१) तीर्थकर प्रतिमाएँ, (२) शासनदेवियों, (३) श्रुत के साथ हस्तियों का भी एक जोड़ा प्रदर्शित किया गया है। देवियां, (४) अन्य चित्रण । कारीतलाई की ऋषभनाथ की ये प्रतिमाएँ श्वेत बलूये तीर्थकर प्रतिमाएँ प्रस्तर की है। कलचरि काल की उपलब्ध तीर्थकर प्रतिमाएं प्रासन जबलपुर के हनुमानताल के किनारे स्थित दिगम्बर एवं स्थानक दोनों मुद्रामों में है। तीर्थंकरों की स्वतन्त्र जैन मंदिर में ऋषभदेव की एक प्रतीव सुन्दर प्रतिमा प्रतिमानों के अतिरिक्त द्वितीथिक प्रतिमाएं भी मिली है। सुरक्षित है। यह मूति त्रिपुरी से लाई गई है। प्रादिनाथ प्रासन मतियां-तीर्थंकरों की प्रासन प्रतिमाओं में की यह प्रतिमा पद्मासनस्थ है । यह परिकर युक्त है तथा मादिनाथ, चन्द्रप्रभ, शांतिनाथ एवं महावीर की ही प्रति- इसको प्रभामण्डल की रेखाएं प्रति सूक्ष्म हैं। प्रभामण्डल Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलचुरिकालीन जैन शिल्प-संपदा १२६ के मध्य में छत्र-दगड है। छव-दन्ड के ऊपर वर्तुंलाकार प्रतिमा धुबेला सग्रहालय में है। ध्यान मुद्रा मे अवस्थित विछत्र है जो लगभग २ फुट ८ इंच ऊंचा है। इसके इस प्रतिमा के मस्तक के ऊपर एक छत्र है। छत्र के दोनों ऊध्र्व भाग में वैभव के प्रतीक दो हस्ती अभिषेक करते और एक-एक हस्ति तथा उनके ऊपर तीर्थकरों की प्रतिहुए दिखागे गये है। हस्तियो के शूर्पकर्ण के रठे हुए भाग, माए हे। ये लघु तीर्थकर प्रतिमाएँ संख्या मे २२ हैं, इनमें उनके गाल की विची हुई रेखाये एव चक्षु के ऊपर का पार्श्वनाथ एव महावीर का अंकन नहीं है। पादपीठ पर खिचाव कला की उच्चता के द्योतक है। परिकर पर हस्ति उनका लांछन शंख है। यक्ष-पती (गोमेष एवं अंबिका) पदम पर प्राधत है। छत्र के नीचे दोनो पावों में यक्ष का यथास्थान प्रकन है। एवं चार अप्सराएँ गगन-विहार करती हुई अकित है। त्रिपुरी में नेमिनाथ की एक खंडित प्रतिमा प्राप्त हुई पुष्पधारी गधर्व का अंकन भी सुन्दर है। परिचारक के है। किन्तु अवशिष्ट भाग इसकी पहचान के लिए पर्याप्त नीचे दोनो पावों में नारियो की खड़ी मूर्तियाँ है जिनके है। इसमे बायी ओर पुरुष (यक्ष) और दायी और स्त्री प्रग-प्रत्यंग ग्राभूषणो से अलंकृत है। (यक्षी) तथा मध्य में एक वृक्ष की डाल पर धर्मचक्र के कालचरिकालीन सपरिकर पद्मासनस्थ जिन प्रतिमाना समान गोलाकार प्राकृति उत्कीर्ण है। यक्ष-यक्षी के विभिन्न में यह रहे। गिल्प की दृष्टि में इतना सुन्दर और अंगो पर सुरुचिपूर्ण प्राभूषण हैं। ग्राम के दो पत्तों के बीच उत्कृष्ट परिकर अन्यत्र दुर्लभ है। अष्टप्रतिहार्य, यक्ष- चौकीनमा ग्रासन पर भगवान नेमिनाथ ध्यानस्थ: यक्षिणी, उपागव दम्पनि एव नवग्रहो जैगे जैनकला में प्रोर खड्गामनस्थ एवं ध्यानस्थ जिन मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। गाधारणत गाये जाने वाले तत्वों के माथ-साथ मूर्तिकार कलात्मक दृष्टि से यह प्रतिमा उस समय की उत्कृष्ट जैन ने इममे कुछ अजैन तत्त्वों का भी गमावेश किया है। प्रतिमानो मे है । मुख-मुद्रा मुग्धता, नैसर्गिक सौन्दर्य एवं द्वितीय तीर्थकर अजितनाथ की प्रतिमाएं गवां एवं सजीवता में प्रोत-प्रोत है और शिल्पी के परिनिष्ठित मिहपुर (शहडोल) स उपलब्ध हुई है। इनमे तीर्थकर कोठाल की टोत को ध्यान मुद्रा में दिखलाया गया है। मस्तक के पीछे प्रभा भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमाएँ अन्य तीर्थकरों की भण्डल एव वियक्ति का प्रतीक (इच्छा, ज्ञान एवं क्रिया) तुलना में सर्वाधिक है। ये प्रतिमाएँ प्रडमार, मल्लार त्रिछत्र है। प्रारान के नीचे पादपीठ पर उनका लाछन (विलामपुर), कारीतलाई (जबलपुर), सिहपुर (शहडोल) हस्ति तथा यज्ञ-यक्षी (महायक्ष व रोहिणी) अंकित है। एवं शहपुरा (मण्डला) आदि स्थलों से प्राप्त हुई है। ग्राटवे नीर्थकर चन्द्रप्रभ की प्रतिमा रतनपुर से उपलब्ध प्रतिमानो मे कारीतलाई से प्राप्त तथा महन्त उपलब्ध हुई है । यह भी ध्यानमुद्रा में है । मस्तक के पीछे घासीगम संग्रहालय, रायपुर में मंगहीत एक प्रतिमा ३ फुट प्राभामण्डल एवं विछत्र है। त्रिछत्र के ऊपर दुदुभिक ६ इंच ऊँची है। पार्श्वनाथ प्रतिमा का यह चतुर्विंशति अंकित है। छत्र के दोनों पावों में एरावत हस्ति तथा पट है : इसमें मूलनायक पार्श्वनाथ को ध्यानस्थ अवस्था हस्ति के नीचे पुष्पमालाएँ लिये विद्याधर अंकित हैं। मे दिखाया गया है। उनके नेत्र अनिमीलित हैं तथा तीर्थकर के दक्षिण पार्श्व में सौधर्मेन्द्र एवं वाम पाश्व में उनकी दष्टि नासाग्र पर स्थित है। उनकी ठही नुकीली, ईशानेन्द्र हैं। कीर्तिमुख युक्त पादपीठ पर उनका लांछन कान लम्बे एव केश घंघराले एवं उष्णीषबद्ध है । हृदय पर चन्द्र तथा श्रावक-श्राविका हैं। चन्द्रप्रभ के यक्ष-यक्षी श्रीवत्म चिह्नाकित है। (श्याम एव ज्वालामालिनी) का यथास्थान अंकन है। पार्श्वनाथ को सर्प पर विराजमान दिखाया गया है । __ शातिनाथ की १२वी सदी ई० को एक प्रतिमा सर्प की पंछ नीचे लटक रही है तथा उसका सप्तकण छत्र जबलपुर संग्रहालय में सुरक्षित हे । पादपीठ पर दो सिंहों तीर्थंकर के मस्तक के ऊपर छाया किये हुए है। सप्तफण के मध्य में उनका लांछन हिरण अंकित है। यक्ष गरुड़ छत्र के ऊपर कल्पद्रुम के लटकते हुए पत्ते और उनके और यक्षी महामानसी भी अंकित किये गए हैं। ऊपर दंदभिक हैं। फण के दोनों ओर महावतयुक्त गज बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ की १०वीं सदी की एक उत्कीर्ण है। महावतों के शीर्ष भाग खंडित हैं। गजकों Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३०, वर्ष ३१, किरण ३-४ अनेकांत नीने दोनों पावों में एक-एक विद्याधर पुष्पमाला वारण हैं जो त्रिशक्ति का प्रतीक है। त्रिछत्र में मोतियों की पाँच किये हए हैं । तीर्थंकर के दायें-बायें सौधर्मेन्द्र एवं ईशानेन्द्र लटकनें हैं जो पंचतत्त्वों से परे त्रिकाल ज्ञान की परिचायक चंवर धारण किये हा खडे है। प्रतिमा के तीन प्रोर की है। त्रिछत्र के नीचे सृष्टि के प्रतीक तीन पद्मों से गुम्फित पट्टियो पर अन्य तीर्थकरों की लघु प्राकृतियाँ हैं । दाहिनी त्रिछत्र है। मस्तक के पीछे अाकर्षक प्रभामण्डल धर्मचक्र ओर की पट्टी पर है एवं बाई पोर की पट्टी पर ८ प्रतिमाए के रूप मे है। है। शेष ६ तीर्थकरों की प्रतिमाएं ऊपर की प्राडी पट्टी पर स्थानक मूर्तियाँ- कलचुरिकालीन तीर्थंकरो की स्थानिर्मित थी, जो अब खंडित हो गई हैं। इस प्रकार मूल- नक प्रतिमाएँ अल्प मात्रा में प्राप्त हुई है। उपलब्ध प्रतिनायक को मिलाकर इसमे २४ तीर्थकर है। प्रतिमा की मात्रों में शातिनाथ की दो एवं महावीर की एक प्रतिमा चौकी पर दो सिंहो के मध्य मे धर्मचक्र है। सिंहों के पास है। कारीतलाई से तीर्थकर की एक अन्य प्रतिमा उपलब्ध धरणन्द्र एव पद्मावती बैठे है। उनके मस्तक पर भी सर्प- हुई है परन्तु लाछन के अभाव में उसकी पहचान संभव फण है। यह प्रतिमा १०.११वी सदी ई० की है। नही है। जैनधर्म के अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीर की कारीतलाई से प्राप्त शातिनाथ की एक प्रतिमा लगभग प्रामन प्रतिमाएं कारीतलाई एव लखनादौन (सिवनी) से ३ फुट ७ इच ऊँची है। यह कायोत्गर्ग मुद्रा में खड़ी है। प्राप्त हुई है। कारीतलाई से प्राप्त प्रतिमा मे तीर्थकर प्रतिमा का मस्तक खंडित है। हृदय पर श्रीवत्म का चिह्न, सिंहासन पर ध्यानस्थ बैठ है । उनके केश धुंघराले तथा मस्तक के पीछे प्रभामण्डल, मस्तक के ऊपर विछत्र एवं उष्णीषबद्ध है तथा हृदय पर श्रीवत्म चिह्न अकित है। पुष्पमालापो से युक्त विद्याधर तथा तीर्थंकर के दायें-बाये प्रतिमा का तेजोमण्डलयुक्त ऊपरी भाग तथा वाम पार्श्व परिचारक इन्द्र आदि है। पादपीठ पर इनका लाछन मृग खंडित है। तीर्थकर के दक्षिण पाच की पट्टी पर उनके उत्कीर्ण है । चौकी पर यक्ष-यक्षी (गरुड और महामानमी) परिचारिक सौधर्मेन्द्र खड़े है तथा अन्य तीर्थकरो की चार है। पद्मासनस्थ प्रतिमाए है। उच्च चौकी के मध्य में धमचक्र बहरीबंद मे प्राप्त प्रतिमा १३ फीट ऊंची है । स्थानीय के ऊपर महावीर का लाछन सिह अकिन है। लाहन के लोग इस वनग्रा देव के नाम से पूजते है। श्याम पाषाण दोनों पाश्वों मे "क-एक मिह चित्रित है। धर्मचक्र के नीचे में निर्मित इस प्रतिमा पर क लव है जिसका भावार्थ यह एक स्त्री लेटी हुई है जिसके चरणों में पढें रहने का प्राभास है कि यह प्रतिमा महागामंताधिपति गोल्हण देव राठोर के होता है। महावीर का यक्ष मातंग अजलिबद्ध पडा है किन्तु समय मे बनी, जो कलचुरि राजा गयकर्णदेव के अधीन वहाँ यक्षी सिद्धायिका चवर लिये हुए है । दोनो ओर पूजक भी का शासक था। गयकर्ण का काल १२वी सदी ई० है । प्रदशित किये गए है। अत: इस प्रतिमा का काल १२वी सदी ई० हुमा । कलचुरिकालीन लखनादौन से प्राप्त महावीर की इस भगवान् महावीर को ४ फुट ४ इंच ४१ फुट ६ इच प्रतिमा के गुच्छकों के रूप में प्रदर्शित केशविन्यास उष्णीष- प्राकार को एक प्रतिमा जबलपुर से प्राप्त हुई है जो माजबद्ध है। उनकी दृष्टि नासिका के अग्रभाग पर स्थित है। कल फिलाडेल्फिया म्युजियम ग्राफ पार्ट संग्रहालय में है। प्रशात नयन, सुन्दर भौहे, अनूठी नासिका के नीचे मन्द- १०वीं सदी ई० मे निर्मित श्याम बादामी बलुमा प्रस्तर से स्मित प्रोष्ठ मे ऐसा प्रतीत होता है मानो भगवान् महावीर निर्मित महावीर की यह नग्न प्रतिमा कायोत्सर्ग मुद्रा में की प्रमृतवाणी जैसे स्फुटित होना ही चाहती है। सुगठित है। हृदय पर श्रीवत्स चिह्न अंकित है। मूर्ति के नीचे दो चिबुक, चेहरे की भव्यता एवं गरिमापूर्ण रचनाकुशल लघु पाश्वरक्षक एवं उनके सामने एक-एक भक्त घुटने के शिल्पी के सधे हाथो की परिचायक है। प्रतिमा के कर्ण भार पर बैठे हैं। महवीर के शीर्ष के प्रत्येक पार्श्व पर लम्बे है जिन पर अंकित कर्णफूल प्रति शोभायमान हो रहे गर्व का प्रकन है। तीर्थकर मस्तक के ऊपर विछत्र है। है। ग्रीवा की विरेखा, सम्यकदर्शन, सम्यकज्ञान एव सम्यक छत्र के किनारे दो हस्ति अंकित हैं। मूर्ति में मंकित सिंह चरित्र को प्रदर्शित करती है। सबसे ऊर्ध्व भाग पर विछत्र के कारण यह प्रतिमा महावीर की जात होती है। Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलचुरिकालीन जैन शिल्प संपदा द्वितीपिक प्रतिमाएँ-कलचुरिकालीन तीर्थंकर प्रति- के ऊपर स्थित प्राम्रवृक्ष वाला भाग खंडित है । प्रतिमा मानों की प्रासन एवं स्थानक मुद्रा में द्वितीथिक प्रतिमाएं का केशविन्यास सुन्दर है। सर्वाभरण भूषित इस प्रतिमा भी हैं। इनमें स्थानक प्रतिमाएँ अधिक हैं। अधिकांश प्रति- के दोनों पावों में एक-एक परिचारिकाएं खडी हैं । दक्षिण माएं कारीलाई से प्राप्त हुई हैं तथा वे श्वेत बलुपा पार्श्व की परिचारिका अपने वाम हस्त में प्रधोवस्त्र पकडे प्रस्तर से निर्मित है। है, उसके दक्षिण हस्त में सम्भवत: पदम है। प्रतिमा विज्ञान कारीतलाई से प्राप्त द्विर्तीथिक प्रतिमाएँ कला की दृष्टि की दृष्टि से यह मूर्ति १०वीं सदी की ज्ञात होती है। से उत्कृष्ट है। इनमें से प्रत्येक में दो-दो तीर्थकर कायोत्सर्ग तेवर के बालसागर नामक सरोवर के मध्य में स्थित एक अथवा ध्यान मुद्रा में अकित हैं। उनकी दृष्टि नासिका के प्राधुनिक मंदिर मे एक उत्कृष्ट अभिलिखित शिलापट्ट सुरअग्र भाग पर केन्द्रित है। तीर्थकों के साथ अष्टप्रतिहार्यों क्षित है। यह अलंकृत स्तम्भो द्वारा तीन कक्षो में विभक्त के अतिरिक्त उनके शासनदेवो तथा लांछन का अकन है। है। मध्यवर्ती कक्ष में तीर्थकर पार्श्वनाथ की चतुर्मन उपलब्ध प्रतिमाएं ऋषभनाथ एवं अजितनाथ, यक्षी पदमावती पदमामन मे मामीन है। उसके ऊपरी दोनों अजितनाथ एवं संभवनाथ, पुष्पदंत एवं शीतलनाथ, धर्मनाथ हाथों मे सनाल पद्म और बाएं निचले हाथ मे पूर्ण कलश एव शातिनाथ, मल्लिनाथ एव मुनिसुव्रतनाथ तथा पाश्र्वनाथ है। निचला दायां हाथ अभय मुद्रा में है। मस्तक के ऊपर एव नेमिनाथ की है। सात फणों से युक्त नाग उत्कीर्ण है जो पाश्र्वनाथ का शासनदेवियाँ लांछन है। शेष दो कक्षो में विविध प्रायुध लिए चतुर्भजी यक्षिणिया उत्कीर्ण है। निचले भाग पर १०वी शती ईसवी कलचुरि कला में जैन शासनदेवियों की प्रतिमाएँ स्था की नागरी में 'श्री वीरनन्दि प्राचार्यन प्रतिमाया करापिता' नक एव प्रासन दोनो मुद्रामो मे प्राप्त हुई है। लेख उत्कीर्ण है। इससे पता चलता है कि इस पट्ट का प्रासन प्रतिमाएं -प्रासन प्रतिमामो में अविका,, निर्माण प्राचार्य वीरनन्दि ने कराया था। चक्रेश्वरी, एवं पद्मावती की प्रतिमाएं प्रमुख है । इनके सोहागपुर की दो मूर्तियो मे मे प्रथम मूति सूपावं अतिरिक्त सोहागपुर (शहडोल) से कुछ अन्य शासनदेवियों अथवा भगवान् पाश्र्वनाथ (कलिका या पद्मावती) से की मूर्तियाँ प्राप्त हुई है जिनका समीकरण लांछन के प्रभाव सबंधित है क्योकि देवी के मस्तक पर विराजित जिन में संभव नही है। प्रतिमा के मस्तक के ऊपर सपंछत्र है। देवी के मस्तक पर देवी अंबिका तीर्थकर नेमिनाथ की यक्षिणी है। यह भी सर्पछत्र है। द्वादशभूजी इस प्रतिमा के वामहस्तो मे सिंहारूढ़ एवं हाथो में प्राम्रगुच्छ, पुष्पगुच्छ, शिशु एवं चक्र, वज्र, परशु, अगि, गर तथा छठा हस्त वरदमुद्रा में अंकश लिए हये चित्रित की जाती है। इसके माम्रगुच्छ प्रदर्शित है। दक्षिण हस्तो मे धनु, अंकुश, पाश, दंड, पद्म प्रतीक के कारण ही इसे पाम्रादेवी कहा जाता है। तथा एक हाथ खंडित है। ___कलचरिकालीन अम्बिका की प्रतिमानो में रायपुर स्थानक प्रतिमाएं-जैन शासन देवी की स्थानक प्रतिसंग्रहालय में संरक्षित, कारीतलाई से प्राप्त प्रतिमा माएँ अल्पमात्रा में मिली है। इनमे कारीतलाई से प्राप्त कलात्मक दृष्टि से महत्वपूर्ण है। सफद छोटेदार रक्त तथा रायपूर संग्रहालय में सुरक्षित अविका की प्रतिमा बलमा प्रस्तर से निर्मित यह प्रतिमा ललितासन मुद्रा मे महत्त्वपूर्ण है। सिंहारूढ़ है। अम्बिका का वाहन सिंह ही है । द्विभुजी इस अबिकादेवी पाम्रवृक्ष के नीचे एक सादी चौकी पर प्रतिमा के दाहिने हाथ मे पाम्रलुम्बि है एवं बायें हाथ से वह त्रिमंगमद्रा में खडी है। द्विभुजी प्रतिमा के दाहिने हाथ अपने कनिष्ठ पुत्र प्रियशंकर को पकड़े हुए है। प्रियशकर मे प्राम्रलुबि है एवं बाएं हाथ मे वह कनिष्ठ पुत्र प्रियशंकर उसकी गोद में बैठा हुप्रा है। अम्बिका का ज्येष्ठ पुत्र को गोद में उठाये है, ज्येष्ठ पुत्र शुभशकर पंगे के निकट शुभंकर अपनी माता के दाहिने पाद के निकट बैठा हुमा खड़ा है। ग्राम्रवृक्ष पर नेपिनाथ की छोटी-मी पद्मासनस्थ है। अम्बिका का मुस्कराता हुमा मुख सौदर्यपूर्ण है। मस्तक प्रतिमा है। वृक्ष के दोनो पोर खड़ीक एक विद्याधरी Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२, वर्ष ३०, किरण 1२ अनेकांत पुष्पवृष्टि करती दिखाई गई है। यक्षिणी का वाहन सिंह अंकित हैं। सभी जिनप्रतिमाएँ पद्मासनस्थ हैं तथा वे उसके पैरों के पीछे है। सहस्र की सख्या में है। सभी के मस्तक के पीछे पद्माकृति एवं तेजोमंडल है। भुत देवियाँ कलचुरिकालीन मूर्तियों के समस्त उदाहरणों का जैन देवी-देवतामों में ज्ञान की अधिष्ठात्री सरस्वती सर्वेक्षण वह सिद्ध करता है कि इनके रूपायन में शिल्पकारो र देवी का विशिष्ट स्थान है। दिगम्बर संप्रदाय के अनुसार ने सुनिश्चित परम्परा और मान्य प्रतिमालक्षण का प्रनइसका वाहन मयूर एवं श्वेताम्बर संप्रदाय के अनुसार ___डाहल क्षेत्र की कला उच्चकोटि की है। महाकोशक कलचुरि कला मे श्रुत-देवियों की प्रतिमाएँ अत्यल्प की कला गे रतनपुर क्षेत्र की कला में रूविवादिता अधिक हैं। कारीतलाई से सरस्वती की एक मूर्ति मिली है जो एवं मौलिकता कम है। यहाँ की कला मे हमे मौलिकता मौलिक रायपुर सग्रहालय मे सुरक्षित है। प्रतिमा अत्यन्त खडित एवं चास्ना तथा भावाभिव्यक्ति के व मे दर्शन नही होते .. है। देवी का मस्तक और हाथ खडित है । प्रभामण्डल पूर्ण जैसे त्रिपुरी एवं उसके निकटवर्ती क्षेत्रो की कला में होते एवं स्पष्ट है। ललितासनारूढ देवी के तन पर विभिन्न है। प्राभूषण हैं । चतुर्मजी देवी के दक्षिण निचले एवं वाम दक्षिण कोगल के गिल्पी एक विशेष प्रकार के काले ऊर्ध्व हस्त मे वीणा है। दोनों पोर विद्याधर है। प्रस्तर का प्रयोग करते थे। यहां की मूर्तियो के प्रोष्ठ पूर्वपिक्षा लम्बे और पतले है। मुखमण्डल की गोलाई और अन्य चित्रण लम्बाई के मान मे भी अन्तर मिलता है। इसके अन्तर्गत सर्वतोभद्रिका व सास जिनबिम्ब का त्रिपुरी शैली की अपनी कुछ विशेषताएं है जैसे-मति वर्णन किया गया है। एक सर्वतोभद्रिका प्रतिमा कागतलाई का मुखमण्डल गोल न होकर अडाकार है। ठडडी कुछ से प्राप्त हुई हैं। इसका शीर्प भाग शिखरयुक्त है तथा उभरी और नकली है। भौहो, पलको एव नासिका से ग्रंकन इसके चारों पोर एक-एक तीर्थकर पद्मासन में ध्यानस्थ मे वृछ नुकीलापन है । पोष्ठ, बक्षस्थल, कटिप्रदेश इत्यादि बैठे हैं। चार तीर्थकरो मे से केवल पाश्र्थनाथ ही स्पष्ट- के अकन मे कलाकार ने सूक्ष्म दृष्टि का परिचय दिया है। रूपेण पहिचाने जा सकते है। अन्य तीन सम्भवत विवेच्य युगीन शिल्पकला में यद्यपि रूप-रम्यता के ऋषभनाथ, नेमिनाथ एवं महावीर है, क्योकि सर्वतोभद्रिका के साथ सामान्य से सामान्य बातो को प्रकट करने का पूर्ण प्रतिमानो मे चार विशिष्ट तीर्थकरो के चित्रण की ही प्रयत्न किया गया है तथापि इस मूर्तिकला पर गुप्तकालीन परम्परा है। कला का प्रभाव निश्चित रूप से दृष्टिगोचर हाता है। रायपुर सग्रहालय में कारीतलाई से प्राप्त एक स्तभा- कलचुरिकालीन जैन प्रतिमानो मे चदेलो की अपेक्षा अधिक कृति शिल्पखण्ड पर सहस्र जिनबिम्ब उत्कीर्ण है । यह न सौकुमार्य, उत्तम अगविन्यास एव सुन्दर भावो की अभिग्रन्थो मे वणित सहस्रकुट जिनचैत्यालय का प्रतीक है। व्यक्ति के साथ-साथ शरीरगत एव भागवत लक्षण उत्कृष्ट इसके चारों पोर छोटी-छोटी बहुत-सी जिन प्रतिमाएँ है। कला मे मौलिकता के दर्शन भी होते है । F Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशालकीतिरचित प्रक्रियासार कौमुदी 0 श्री अगरचन्द नाहटा, बीकानेर जैन साहित्य प्रपनी विशालता और विविधता की दृष्टि संस्कृत-प्राकृत जैन व्याकरण और कोश की परम्परा नामक से भारतीय साहित्य में बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान रखता महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ प्रकाशित हुआ है। उसमे जैन संस्कृत है क्योंकि जैन धर्मानुयाइयों की संख्या वैदिक सनातनी व्याकरण ग्रथों पर कई विद्वानों के निबन्ध छपे हैं। इस हिन्दुनों की अपेक्षा बहुत कम है। इतनी अल्प संख्या वाले ग्रन्थ के पृष्ठ १२७ मे सारस्वत व्याकरण की टीकात्रों में जैन समाज का इतना विशाल साहित्य निर्माण और संर- प्रक्रिया वृनि का परिचय देते हुए डा. जानकी प्रसाद क्षण बहुत ही उल्लेखनीय रहा है । जैनों का प्राथमिक द्विवेदी ने लिखा है : "खरतरगच्छी मुनि विशालकीति ने साहित्य प्राकृत भाषा मे है । विक्रम की पहली-दुसरी सत्रहवी शती मे प्रक्रियावृत्ति की रचना की, बीकानेर मे शताब्दी में जैन विद्वानो ने संस्कृत मे भी लिखना प्रारम्भ श्री अगरचद नाहटा के संग्रह में इसकी हस्तलिखित किया, पर यह बहुत ही उल्लेखनीय है कि जैनों का प्राथ- प्रति है।" मिक संस्कृत साहित्य भी बहत प्रौह है। महामना उमा- डा० जानकीप्रमाद द्विवेदी को इस रचना की कोई स्वाति, सिद्धगेन, समन्तभद्रादि रचित संस्कृत साहित्य प्रति नहीं मिली, इसीलिये केवल इतना-सा उल्लेख किसी इमका प्रबल प्रमाण है। इसके दो प्रधान कारण है। पहला अन्य प्राधार से कर दिया। जब कालगणी शताब्दी का तो यह है कि बहुत से जैनाचार्य और विद्वान् ब्राह्मण प्रायोजन हो रहा था, तब सरदारशहर के डा० छगनलालजी परम्परा से पाये, अत. संस्कृत भाषा पर उनका अच्छा शास्त्री ने मुझसे पूछा कि सारकौमुदी नामक जैन व्याकरण अधिकार रहा। दुमरा कारण है समकालीन विद्वानो से ग्रन्थ की क्या आपको जानकारी है ? तो मैने उन्हे अपने टक्कर लेना । कारण, इस समय का वातावरण दार्शनिक संग्रह की विशालकीतिरचित प्रक्रियासारकौमुदी की प्रतियों विषयों पर गंभीर चर्चा व राजसभात्रों में प्रतिष्ठा प्राप्त्यर्थ का विवरण भेज दिया। सस्कृत भापा व जैनेतर साहित्य पर भी अच्छा अधिकार प्राचार्य तुलसी ने कालगणि के जीवनवृत्त के पृष्ठ होना आवश्यक था। ४१ पर लिखा है कि पार्यवर (कालूगणि) ने यह अनुभव विश्व मे संस्कृत के समान व्याकरणादि की दष्टि से किया कि सिद्धान्तचन्द्रिका का पूर्वार्द्ध अपर्याप्त है। सार. कोई भी भाषा इतनी प्रौढ और समृद्ध नही है। पाणिनी स्वत का उत्तरार्द्ध भी अपर्याप्त है। अत: वे अपने शिष्यों को व्याकरण के बाद तो सस्कृत बहुत चुस्त व कडे नियमो मे सारस्वत का पूर्वार्ध और सिद्धान्तचंद्रिका का उत्तरार्ध प्राबद्ध हो गई, वदिक सम्कृत से कुछ अलग-सी पड़ गई। पढाते थे। कुछ वर्षों बाद उनके मन में इसका विकल्प सस्कृत भाषा में साहित्य रचना करने के साथ-साथ जैन खोजने की प्रेरणा जागी । प्रयत्न शुरू हुआ। मुनि मगनमल विद्वानो को व्याकरण, कोग आदि विषयक ग्रन्थ बनाना जी बहुत दूरदर्शी, मूक्ष्मवुद्धि के धनी थे । वे यतियो के भी प्रावश्यक हो गया, अतः सर्वप्रथम जैनेन्द्र व्याकरण, उपाश्रय मे जाते, उनके पुस्तक भडार देखते और जो हस्तफिर शाकटायन व्याकरण की रचना पूज्यवाद और शाकटा- लिखित ग्रन्थ प्राप्त होते, उन्हें ले पाते। उन्होंने हस्तयन द्वारा हुई । जैन व्याकरण ग्रन्थ की पूर्णता कलिकाल- लिखित ग्रंथों का महत्त्वपूर्ण संग्रह किया। उनमें अनेक सर्वज्ञ प्राचार्य हेमचन्द्र द्वारा हई । वैसे छोटे-बड़े सैकड़ो दुर्लभ ग्रन्थ हैं । लिपि-सौंदर्य की दृष्टि से भी वे बहत ग्रन्थ जैन विद्वानो ने व्याकरण विषयक लिखे है। उनमें कुछ महत्त्वपूर्ण हैं । कुछ श्रावको ने भी यतियों के पुस्तक भंडारो तो जैनेतर व्याकरण ग्रन्थो की टीकाग्री के रूप मे है और से अनेक ग्रन्थ खरीदे। इस प्रकार जैन साधुमो और श्रावको कुछ मौलिक है। इस विषय मे कतिपय जैन विद्वानो के के पास हस्तलिखित ग्रन्थों का एक अच्छा संग्रह हो गया। निबन्ध पहले भी प्रकाशित हुए है पर गत वर्ष मे श्री कालगणि को सारकौमुदी की एक प्रति प्राप्त हुई। कालगणी जन्म शताब्दी महोत्सव समिति, छापर द्वारा उसे पाकर प्राचार्यवर को संतोष हमा। Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४, वर्ष ३१, किरण ३-४ अनेकांत भाद्रा में मुनि चम्पालालजी को विशाल-कीतिगणिकृत मिलान करके देखा तो दोनों रचनाएं एक ही सिद्ध हुई। शब्दानुशासन-अष्टाध्यायी की एक प्रति मिली, वे उसे इस महत्वपूर्ण जैन व्याकरण ग्रंथ की हस्तलिखित प्रतियां प्राप्त कर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने उस अन्य को प्राचार्य बहुत ही कम प्राप्त हैं। हमारे संग्रह की प्रतियां १८वीं वर को भेंट किया। प्राचार्यवर ने उसे देव पाश्चर्य शती के पूर्वार्द्ध की लिखी हुई हैं । अंतिम तीसरी प्रति के मिश्रित हर्ष प्रकट किया और उस उपलब्धि के लिए उन्हें अंत में लिखा है-"वा० हेमहर्षगणिभिः । वा० यशोलाभ साधुवाद दिया। गणिभ्यप्रदत्तनया ॥३॥" इस ग्रन्थ के पृष्ठ ४६ मे तुलसीगणि ने लिखा है कि प्रथम प्रति समास प्रक्रिया के अंत में लिखा है इत्याचार्य श्री सागरचंद्र सूरि संतानीय वाचनाचार्य श्री विशाल-शब्दानुशासन के परिभाषासूत्र सरल थे, हेमशब्दा विशालकीतिगणि विरचितायां प्रक्रियासार कौमुद्या नुशासन से कठिन । प० रघुनन्दन जी दोनों को पढ़ाते थे। समास प्रक्रिया। प्राचार्यवर भी दोनो को देखते रहने थे। उनकी यह धारणा वाचनाचार्य श्री यशोलाभ गणीनामंतेवासी पं० युक्तिबन गई कि हेमशब्दानुशासन के सूत्र कठिन है, उसका सुदर मुनि वाचनार्थ ।। स्यादि प्रकिया समाप्ता सार प्रक्रिया ग्रन्थ भी प्राप्त नहीं है इसलिए विशाल-शब्दानु- कौमुद्यामिति ।।१ वलि. शासन मे ही प्रावश्यक सशोधन कर उसे प्रध्यान गे प्रयुक्त बीव को न० २ प्रति द्विरुक्त प्रक्रिया की है। सभी करना चाहिए। प्रतियो में इस रचना का नाम "प्रक्रियासारकौमुदी' लिखा मुनि चौथमल जी प्राचार्यवर की इस इच्छा की समूर्ति हुआ मिलता है एवं प्रारम्भिक मंगलाचरण श्लोक में भी में लग गए। वे विशाल-शब्दानुशासन के अध्येता थे। पं० यही नाम है, प्रत. सार कौमुदी यह नाम पूरा नहीं है । इसी रघुनन्दन जी का उन्ह सहभाग मिला। विशाय शब्दानुशासन __ कारण जब मुझसे सारकौमुदी के विषय मे पूछा गया तो के परिष्कार का कार्य प्रारम्भ हो गया। मैंने लिखा कि इस नाम का तो कोई ग्रंय नही, पर प्रक्रियाविशाल शब्दानुशासन को परिष्कृत करने का उपक्रम , ___ सारकौमुदी की प्रति तो हमारे यहाँ है । हमारे संग्रह की चला था, पर उसमे इतना परिवर्तन हो गया कि एक नया तीनो प्रतियॉ उदहीभक्षित है और प्रथम प्रति मे तो प्रारही व्याकरण ग्रय बन गया। उसका नाम भिक्षुशब्दानुशासन भिक पत्रो का काफी प्रश खडित है। इस रचना का प्रादि रखा गया । मुनि चौथमल जी ने भिक्षुशब्दानुशासन के और अंत इस प्रकार हैप्रक्रिया पथ के रूप में कालको मुदी की रचना की। प्रादि-श्री सर्वज्ञ समानभ्य, गौतमाहि मुनीन् गुरून् । पडित जी ने भिक्षुशब्दानुशासन का पद्यबद्ध लिगानुशासन मारस्वतानुगां कुर्मः प्रक्रियासारकौमुदीम् ।।१।। तयार किया। न्यायदर्पण, उणादिपाठ, धातुपाठ और अ र अंत्य प्रशस्ति-अनंतत्वन्न शक्यन्ते, शब्दा सर्वेऽनुशासितुम् । अस्माभिरुक्ता: संक्षिप्य, बालव्युत्पतिसिद्धये ॥१॥ गणपाठ भी तैयार हो गया। इस प्रकार देखते-देखते महाकाव्यकरण सर्वाग परिपूर्ण हो गया। अव्याकृतानि सूत्राणि ग्रंथ बाहुल्य भीतितः। सूत्रानुक्रम वृत्तौ तु व्याकरिष्यामि तान्यऽहम् ॥२॥ यहाँ इतना लबा उद्धरण देने का प्राशय यह है कि प्रसद् वचस्तम्तोहन्त्री, सच्चकोर प्रमोददा। जैन संप्रदाय का व्याकरण संबन्धी कार्य सारकोमुदी और विशालकीतिगणिभिः प्रक्रियेमं प्रकाशिता ॥३॥ विशाल-शब्दानुशासन पर प्राधारित है। इनमे से विशाल ज्ञानप्रमोदमाक् सस्याप्राप्त श्री शारदावरः। शब्दानुशामन की प्रति के विषय में मैने मुनि नथमल विशालकी ति योऽधीते प्रक्रियासारकौमुदीम् ॥४॥ जी से पूछताछ की, पर उसकी प्रति का पता नही चला। जयति सकलभूतिविश्वविख्यात कीत्तिः, नाम को देखते हुए वह विशालकीति की ही विशाल रचना सुरगिरी समधीर स्तजितानङ्ग वीरः । है। विशाल-कीति की सारकोमूदी की प्रति का विवरण विदित निखिल भावः श्री महावीर देवः, डा० नथमलजी टाटिया द्वारा प्राप्त किया। हमारे संग्रह सुदलित दुरितौद्यः प्रीणितःप्राणि सधः ।।५।। की प्रक्रियासारकौमुदी की तीन हस्तलिखित प्रतियों से (शेष पृष्ठ १३६ पर) Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणप्रमेयानुप्रवेश : एक महत्वपूर्ण कृति श्री शीतलचन्द्र जैन, वाराणसी जैन सिद्धान्त भवन, पारा की 'प्रमाणप्रमेयानुप्रवेश' को केशव नामक ब्राह्मण विद्वान् ने लिखा है। पुष्पिका शोषक पाण्डुलिपि को श्रद्धेय डा० दरबारीलाल जी कोठिया वाक्य के पूर्व षड्दर्शन समुच्चय की 60 कारिकायें भी के यहाँ देखने का सौभाग्य प्राप्त हमा। डा० कोठिया जी उल्लिखित हैं। प्रतीत होता है कि ग्रन्थकार को इस ग्रन्थ ने वह पाण्डलिपि मुझे दे दी और कहा कि इसका सम्पादन के लिखने की प्रेरणा षड्दर्शन समुच्चय से प्राप्त हुई है पाप करें। इसके लिये वे मुझे निरन्तर प्रेरणा भी करते क्योंकि शैली भी उसी प्रकार की अपनाई गई है। रहे। पर समय न मिलने से मैं उसकी ओर पूरा ध्यान न प्रतिपरिचय दे सका। इधर गत अगस्त माह के अन्तिम सप्ताह में ग्रन्थ की इस प्रति में 1346 इंच माइज के कुल 20 प० भा० दि० जैन विद्वतपरिषद् के तत्वावधान में पत्र है । एक पत्र में एक प्रोर 10 पंक्तियाँ तथा एक पंक्ति गोकूलचन्द्र जी द्वारा 'अनुसंधान एवं सम्पादन प्रशिक्षण में 32 अक्षर है। लिखावट शुद्ध है। शिविर' का प्रायोजन किया गया। उससे मुझे उसके विषय परिचय सम्पादन के लिये और अधिक उत्साह मिला । फलस्वरूप ग्रन्थ में जैन, बौद्ध, चार्वाक, नैयायिक-वैशेषिक, सांख्य इस ग्रन्थ का सम्पादन की दृष्टि से अध्ययन करने का और मीमासक इन छह दर्शनों के प्रमाण-प्रमेयों का परिचय मुझे सुअवसर प्राप्त हुआ। कराया गया है। ग्रन्थकार ने 'इति षड्दर्शनप्रमाणप्रमेय प्रन्थ का अन्तः परिचय संग्रहः' इस प्रकार उल्लेख कर स्पष्ट भी कर दिया। यह लघुकाय ग्रन्थ न्याय विषय का है। इगमे पडदर्शनों जैनदर्शन के प्रमाण और प्रमेयों का सुन्दर और सरल सस्कृत भाषा में सर्वप्रथम ग्राहंतमत का प्रतिपादन करते हुये स्वामी परिचय कराया गया है। ग्रन्थ का प्रारम्भ एक मंगल श्लोक पागल लोक समन्तभद्राचार्य के प्रमाण के लक्षण का अनुसरण किया मेहमा है, जिसमे अनन्तचतुष्टय मे युक्त तीर्थकर को गया है । लिखा है कि --'तावदर्हतोप्रतिहतशासनस्य नमस्कार किया गया । वह मगल श्लोक इस प्रकार है तत्वज्ञान प्रमाणम् । तद् द्विविध प्रत्यक्षं परोक्षछ च । सादनन्त समाख्यात व्यक्तानन्तचतुष्टयम् । स्पष्टमाद्य मस्पष्टमन्यत् । त्रिधा च गकलोतर-प्रत्यक्ष परोक्षत्रैलोक्ये यस्य साम्राज्यं तस्मै तीर्थकृते नमः ।। भेदात् । करण कमव्यवधानापोट मकलप्रत्यक्षम् । क्रमन्वित मध्य मंगल करण क्रमव्यवधानढं विकलप्रत्यक्षम् । इन्द्रियमनोग्रन्थ के मध्य मे भी शुभचन्द्रदेव और माणिक्यनन्दि । व्यापाराभिगखेतरार्थापेक्ष परोक्षम् ।' प्राचार्य को नमस्कार किया गया है। मध्य मंगल श्लोक आगे नय का स्वरूप एवं उमके भेदो और सप्तभंगी इस प्रकार है - का विवेचन किया गया है। अन्त में द्रव्य, अस्तिकाय पौर जयतिशुभचन्द्रदेवः कंडुर्गणपुण्डरीकवनमार्तण्डः ।। पदार्थ को प्रमेय कहा है। लेखक ने इसमे एक जगह जैन. चंद्रविडंडरो राद्धान्त पयोधिपारगोबुधविनुतः ॥ दर्शन के प्रति कितनी महत्वपूर्ण बात कही है कि "अस्मानमो माणिक्यनाथाय नाकनाथाचिताघ्रिये (दिवः)। भिवर्नत्सविवेकमहापर्वतार प्रमतत्वशिखरजिनपुरनिवा ग्रन्थ के अन्त में एक पुष्पिका वाक्य है जिसमे लिखा भिर्जेनलौकरयं इष्टनिवृत्तिनगरीगगनमार्ग:।" है कि 'इदं पुस्तक परिधाविनामसम्वित्सरे दक्षिणायणे वैशेषिक दर्शन ग्रीष्मनां निज भाषाढमासे कृष्णपक्षे दशम्याम् गुरुवारे इस दर्शन में मान्य प्रमाण के दो भेदों का उल्लेख दिवाद्यशटिकाया वेणुपुरस्थितपन्नेचारी मठस्य श्री पत्यर्चक करते हुये लिखा है कि "प्रत्यक्षलेगिके प्रमाने । तत्रेन्द्रिय गौड सारस्वत ब्राह्मण विद्वदकर्मी वेदमूर्ति वामननामशर्मण मनोर्थसन्निकर्षादुत्पन्ना वृद्धिः प्रत्यक्षम ।"प्रात्मेन्द्रियेपंचमात्मजः केशवनामशर्मणा लिखितमितिसमाप्तमित्यर्थः, पेन्द्रियं मनसा मनोर्थेन यदा प्रसज्यते तदोत्पन्ना स्पष्ट. श्रारस्तु'। प्रतिभास रया बुद्धिरेव प्रमाणम्।" द्रव्य, गुण, कर्मावि उक्त पुष्पिका वाक्य से प्रतीत होता है कि इस अन्य प्रमेयो का भी परिचय क्रमशः कराया गया है। Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६, वर्ष ३१, किरण ३-४ अनेकांत न्याय-दर्शन चाहता है कि इस प्रन्य की पाण्डुलिपियां जिन ग्रन्थालयों नयायिकों के मोलह पदार्थों का विवेचन विस्तारपूर्वक में हों उनके व्यबस्थापक महानुभाव हमें उमकी सूचना किया गया है। प्रमाण का लक्षण करते हुये प्रतिपादन करने की अवश्य कृपा करें। प्राप्त पाण्डुलिपि कुछ स्खलित किया गया है कि और प्रशुद्ध जान पड़ती है। प्रतएव हमाग प्रयास है कि "तत्रार्थोपलब्धिहेतुः प्रमाणम् । तच्चतुर्धा । तद्यथा। इस ग्रन्थ का सुन्दर सम्पादन, संशोधन और हिन्दी रूपान्तर प्रत्यक्षानुमानोपमानशब्दा: प्रमाणानि ।" अन्य अनेक प्रतियों को सामने रख कर किया जाय । पाशा इसी तरह अन्य पदार्थों का इसमें प्रतिपादन है। है कि उत्तर तथा दक्षिण के सरस्वती-भवनो के अध्यक्ष सांख्य दर्शन महोदय हमारे इस प्रयास में अवश्य ही सहयोग करेगे। इस दर्शन के पच्चीस तत्वों का उल्लेख करते हुये स्याद्वाद महाविद्यालय, फिर प्रमाणों का परिचय कराया गया है। अन्त में उसके भदैनी, वाराणसी प्रमेयों का निरूपण किया गया है। मीमांसा वर्शन (पृष्ठ १३४ का शेषाश) मीमांसा दर्शन के प्रमाण-प्रमेयों का परिचय कराते उपर्युक्त प्रशस्ति व पुरिएका से स्पष्ट है कि शिलहुये लिखा है कि-"मीमासकवादे प्रमाणानि प्रत्यक्षानु कीति वाचनाचार्य पद से विभूपित थे । वे खरतरगाछ मानोपमानशब्दार्थापत्यभावाः ।" इसके बाद छहों प्रमाणों की मागरचंद्रमूरि शाखा की परपरा के विद्वान् मुनि शानके स्वरूप का विवेचन मीमांसाश्लोकवार्तिक तथा शावरभाष्य प्रमोद के शिष्य थे। खरतरगच्छ साहित्यसूची के अनुसार को प्राधार बना कर लिया गया है। पश्चात् मीमांसक प्रक्रियासारको मुदी की एक प्रति म्व श्री जिन चाग्विरि दर्शन में स्वीकृत प्रयोगों का भी दिग्दर्शन कराया गया है। संग्रह में भी है। इनकी दुसरी रचना सारम्वतप्रकाश की बौद्ध दर्शन २८ पत्रों की प्रति सरदारशहर के गधैयाजी के संग्रह महे। इस दर्शन के चारों दार्शनिक सम्प्रदायो के सिद्धान्तों का सुन्दर विवेचन है। मोक्ष मे वमत्य होने के कारण विशालकीति के शिष्य क्षेमहंसरचित चदनमलयागिरि लिखा है कि ---"वैभाषिक, सौलान्तिक योगाचारमाध्य चौ० स० १७०४ मे माचौर में रचित प्राप्त है । विशालमिका: चत्वारो बौद्धाः। तेषु त्रयाणा मोक्षकल्पना । माध्य कीर्ति के गुरुभ्राता गुणनदन की कई रचनाएँ सं० १६६५ मिकस्यनेतदस्ति, सर्वशून्यत्वात् ।" से १६६७ तक की प्राप्त हुई है। विगालकीति के गुरुज्ञानचार्वाक दर्शन प्रमोद की वाग्मयालकार वृत्ति एक महत्वपूर्ण प्रसिद्ध रचना स दर्शन के प्रमाण-प्रमे का पूरा विवेचन करते हुए है। विशालकीति का समय सत्रहवी शती का उत्तरार्द्ध कहा है कि -- "चार्वाकराद्वान्ते प्रत्यक्षमेव प्रमाणम् । तदपि निश्चित है। भूतविकारविशेषमनाधिगतार्धाधिगमलक्षणम् । पृथिव्या- उनकी जिस विशाल शब्दानुशासन नामक महत्वपूर्ण प्तेजोवायुरिति प्रमेयम्।" रचना का उल्लेख तुलसीगणि ने किया है उसकी हस्त__ ग्रन्थकार की विशेषता यह है कि वह टीम-टाम के लिखित प्रति की खोज अावश्यक है । प्रक्रियासारकौमुदी की बिना ही उस दर्शन के मान्य प्रमाण और प्रमेय का संक्षेप हमारे संग्रह की ३ प्रतियों की पत्र संख्या क्रमशः ६०.५८में ही कथन करता है, ताकि तत् तत् दर्शन का प्राथमिक ५६ कुल ११७ है । प्रति पृष्ठ १५ पंक्तियां व प्रति पक्ति जिज्ञासु उस दर्शन के प्रमाणों और प्रमेयों से परिचित हो में ४८ प्रक्षर हैं। इससे रचना का परिमाण ५२०० श्लोक जाये। उक्त ग्रन्थ के अन्तः परीक्षण से ज्ञात होता है कि ग्रन्थ के लगभग होता है । विशालशब्दानुशासन का परिमाण यद्यपि लघकाय है फिर भी भारतीय दर्शन में विद्वानों की प्रति मिलने से ही ज्ञात हो सकता है। दृष्टि में जो स्थान हरिभद्र सूरिकृत षड्दर्शन समुच्चय का विशालशब्दानुशासन की प्रति कहाँ और किसके पास है, वही स्थान न्याय के छात्रों में इस प्रमाणप्रमेयानुप्रवेश है, इस पर प्राचार्य तुलसीजी प्रकाश डालें एवं इसका का होना चाहिये। इस लेख के माध्यम से यह जानकारी महत्व प्रकट करें तो अच्छा हो। 00 Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ minu te साकार पाहाव: श्री साहजी राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर एवं श्री सीताराम सेकसरिया के साथ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ VIRAL R राष्ट्र के सर्वोच्च पुरस्कार के प्रतिष्ठापक श्री साहजी [प्रथम पुरस्कार समर्पण के अवसर पर डा० सम्पूर्णानन्द एवं पुरस्कार विजेता मलयालम कविश्री शंकर कुरूपके साथ]