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________________ १६,३१,०१ अनेकान्त वर्णनों में दोनों कवि सिद्धहस्त हैं। प्रकृतिचित्रण में स्वयम्भू ने प्रकृति के शान्तरूप की अपेक्षा उसके उग्ररूप के वर्णन में जहां afar ofa दिखाई है' वहां तुलसीदास ने प्रकृतिचित्रण के बहाने समाज का चित्र उपस्थित किया है। 'परम रम्य धाराम यह जो रामहि सुख देत' के ब्याज से रामप्रेम से प्रोतप्रोत सन्त समाज की सृष्टि की है* मोर 'चातक को किस फीर चकोरा' पक्षियों के वर्धन में भक्तों के गाये हैं। दोनों कवि जन-साधारण मे प्रचरित उपमानों का उपयोग करते है यही उनकी प्रमुख विशेषता है । चरण में स्वयम्भू के पात्र उतने सशक्त प्रर सजीव नही हैं, जितने तुलसीदास के । स्वयम्भू ने हर पात्र को जिन-भक्ति के रंग में रंगने की कोशिश की है और उसमें संसार की प्रसारता श्रादि का कथन कराया है, जबकि तुलसीदास का प्रत्येक पात्र सघी हुई तुलिका से निर्मित भौर स्वाभाविक है । स्वयम्भू के राम धीरोदात्त भक्ति, क्षमा, दृढ़ता प्रौर प्रात्मगौरव से युक्त साधारण मानव की तरह पूर्ण विकास की ओर बढ़ते है, जबकि तुलसी के राम परमात्मा से मनुष्य का अवतार ग्रहण करते हुए सरलता, स्नेह, नम्रता, उदारता एवं निस्वार्थता के प्रादर्श को उपस्थित करते हैं। भाव-चित्रण मे दोनो कवि बेजोड़ हैं। नव-रमों का समावेश दोनो ग्रन्थों मे है। किन्तु शान्तरस की प्रधानता है स्वयम्भू ने यद्यपि निवृति-मार्ग का प्रतिपादन किया । है, किन्तु जलकीड़ा के वर्णन मे स्वयम्भू की प्रसिद्धि है।' उन्होंने शृङ्गाररस का चित्रण भी बड़ी उदारता से किया है। यहां तक कि संसारत्यागी साधु भी हृदयग्राही शृङ्गरिक वर्णन करते नजर भाते है, जबकि गोस्वामीजी का शृङ्गार रस मर्यादापूर्ण धौर विशुद्ध है। करुण रस के चित्रण मे स्वयम्भू ने अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की है। राम वनगमन के समय व्याकुल सुमित्रा का चित्रण कवि ने किया है १. अपभ्रंथ साहित्य कोछड़ ०६३ । २. तुलसी-वर्धन, पृ० ३४७ । ३. प्रपभ्रंश-साहित्य, पृ० ५७ तथा द्रष्टव्य, डा० उपा --- रोवतिए लक्खण- मायरिए, सयल लोड रोवापियउ । कारण कय्व कहाए जिह, कोवल धंसु मुभावियत ॥ (पउ० ६९-१३) इसी तरह तुलसीदास की कौशल्या का विषाद हृदयविदारक है कहि न जाइ कछु हृदय विषाद् । मनहुं मृगी सुनि केहरि नादू || दारुन दुसह दाहू उर व्यापा । वरनिन हि विलाप कलापा ॥ ( रा० प्रयो० ५४-५७) तुलसीदास रससिद्ध कवीश्वर थे। उनका मानस दिव्य रस से परिपूर्ण है। उन्होंने प्रत्येक भाव की प्रभिव्यंजना इतने स्वाभाविक और सरल ढंग से की है कि कई स्थलों पर नौ रसों का माधुर्यं समेट कर रख दिया है। तीव्रता और वेग के भावों और मनोवेगों का चित्रण करने में वे सिद्धहस्त थे । इसलिए जन मानस के अन्तस्थल तक बैठ गये हैं। कल्पना - विलास में दोनो कवियों ने विभिन्न अलंकार वन्दी का प्रयोग किया है। स्वयम्भू के महाकाव्य मे उपमा, उत्प्रेक्षा, यमक, अनन्वय, तद्गुण आदि अनेक अलंकारों का स्वाभाविकता से प्रयोग हुआ है। अलंकारों में कहीं-कहीं हल्की-सी उपदेश- भावना भी दृष्टिगत होती है । यथा लक्खण कहि वि गवेसिंह तं जलु । सज्जन हियउ जेम जं निम्मलु ॥ तुलसीदाम का अलंकार विधान भी परम मनोरम है। उत्प्रेक्षा, रूपक घोर उदाहरण उनके सबसे प्रिय धलंकार हैं । इनके समन्वय की प्रसाधारण क्षमता भी उनमें है । " दोनों कवियों ने अपने-अपने युग की प्रतिनिधि भाषा मे लिखा है । स्वयम्भू ने साहित्यिक अपभ्रंश भाषा का प्रयोग किया है। अनुकरणात्मक शब्दों का प्रयोग - तड़ तड़-तड़पड़ पड़ गई भावानुकल शब्द-योजना एवं ४. ५. ध्याय, 'महाकवि स्वयम्भू' । पभ्रंश-साहित्य, पृ० ६७ । तुलसीदास, पू० ३५२ ।
SR No.538031
Book TitleAnekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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