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________________ देवपूजा और उसका माहात्म्य ४५ में जल से अभिषेक करने के पश्चात् पूजा करने का यथार्थ मे यह विसर्जन इन्द्र प्रादि देवतामों के लि विधान किया है। है, जिनेन्द्र देव के लिए नहीं। माह्वानन और विसर्जन देवपूजा का माहात्म्य वर्तमान मे जो पजा की विधि प्रचलित है उसमें सातवी शताब्दी के प्राचार्य रविषेण ने पद्मचरित में जिसकी पजा की जाती है उसका पाह्वानन मोर विसर्जन मूर्ति निर्माण तथा उसकी पूजा के फल के विषय में किया जाता है। यह विषि कहाँ तक उचित है इस पर लिखा हैभी विचार करना आवश्यक है । जैन सिद्धान्त के अनुसार जिनविम्बं जिनाकारं जिनपूजां जिनस्तुतिम् । जिम देव की पूजा की जाती है वह न तो कही से प्राता यः करोति जनस्तस्य न किंचिद् दुर्लभ भवेत् ।। और न कही जाता है। मोमदेव ने पजन से पूर्व जो अर्थात जो व्यक्ति जिनदेव की प्राकृति के अनुरूप जिनस्थापन और सन्निधापन क्रियाये बतलाई है वे भाज के विम्ब बनवाता है तथा जिनदेव को पूजा और स्तुति करता प्रचलित प्राहानन, स्थापन और सन्निधिकरण से भिन्न है। है उसके लिए कुछ भी दुर्लभ नहीं है। उनकी विधि में प्राहानन तो है ही नहीं, विसर्जन भी नही है । विमर्जन का सम्बन्ध तो पाह्वानन के साथ है । इसी प्रकार, सातवी शताब्दी मे रचित अध्यात्म ग्रन्थ जब दिमी को बुलाया नही जाता है तो भेजने का प्रश्न परमात्म-प्रकाश में लिखा हैही नही उठता। ऐगा प्रतीत होता है कि प० याशावर दाण न दिण्ण उ मुणिवरहेण वि पुज्जिउ जिणणाहु । (वि० स० १३००) के बाद ही पूजा में उक्त प्रक्रिया । पच ण वदिय परमगुरु किम होसइ सिवलाहु ।। प समाविष्ट हुई है। धर्मसंग्रह श्रावकाचार (सोलहवी अर्थात् जिसने न तो मुनिवरो को दान दिया, न जिन शताब्दी) और लाटी महिता (सत्रहवीं शताब्दी) मे भगवान की पूजा की पोर न पच परमेष्ठी को नमस्कार प्राह्वानन, स्यापन, मन्निधिकरण, पूजन और विमर्जन ये किया उसको मोक्ष का लाभ कम होगा। पाँच प्रकार पूजा के बतलाये है। यथार्थ में बात यह है प्राचार्य अमितगति ने सुभाषितरत्नमन्दोह मे लिखा कि भगवान के पचकल्याणक मे देव पाते थे। अत: पंच- है.... कल्याणक प्रतिष्ठा मे देवों का प्राह्वानन पौर विसर्जन तो पेनागुष्ठप्रमाणाएं जैनेन्द्री क्रियतें गिना । ठोक प्रतीत होता है। इसी बात को ध्यान में रखकर तस्याऽप्यनश्वरी लक्ष्मीनं दूरे जात जायते ।। देवसेन कृत भावसंग्रह में इन्द्रादि देवतायो का प्राह्वानन अर्थात् जो मनुष्य जिनेन्द्र भगवान् की अगुष्ठ प्रमाण मूर्ति तथा उन्हे यज्ञ का भाग अर्पित करके पूजन के अन्त में बनवाता है वह भी अविनाशी लक्ष्मी को प्राप्त करता है। उन पाहत देवतापो का विमजन भी किया गया है । इस प्राचार्य पद्मनन्दि पचसंग्रह मे उनसे भी आगे बढ़कर प्रकार जो पहले पाह्वानन और विसर्जन इन्द्रादि देवतापो कहते हैं ... के लिए किया जाता था उसको उत्तर काल में पूजा का बिम्बावलोन्नतियवोन्नतिमेव भक्त्या ये मावश्यक प्रग मानकर जिनेन्द्र देव के लिए भी किया कारयन्ति जिनस जिनाकृति वा। जाने लगा। पूजन के अन्त में विसर्जन करते समय निम्न- पुण्यं तदीयमिह वागपि नेत्र शक्ता स्तोत लिखित श्लोक भी पढ़ा जाता है परस्य किमु कारयितुदयस्य । पाहूता ये पुरा देवा लब्धभागा यथाक्रमम् । मर्थात् जो बिम्बपत्र के प्रमाण जिनमन्दिर बनवाकर ते मयाऽचिता भक्त्या सर्व यान्तु यथास्थितिम् ॥ उसमे जो बराबर जिन प्रतिमा की भक्तिपूर्वक स्थापना इसको हिन्दी में इस प्रकार पढ़ते है: करते हैं उनके पुण्य का वर्णन सरस्वती भी नहीं कर माये जो जो देवगण पूजे भक्ति प्रमाण । सकती, फिर जो बड़ा मन्दिर और बड़ी प्रतिमा बनवायें ते सब जावह कृपाकर अपने अपने पान॥ उनका तो कहना ही क्या है।
SR No.538031
Book TitleAnekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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