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________________ ४४, वर्ष ३१, कि०२ भनेकान्त जो लोग सवस्त्र और सालकार मूर्ति की उपासना करते है। जिनदेव वीतराग होते हैं। प्रत: उनकी पूजा या स्तुति हैं उन्हें नग्न मूर्ति अश्लील प्रतीत हो सकती है। यहां करने से न तो वे प्रसन्न होते है और न प्रसन्न होकर कुछ प्रश्न यह है कि क्या नग्नता वास्तव मे अश्लीलता की देते है । अपरिग्रही और वीतराग होने से उनके पास देने प्रतीक है। इस विषय में प्रसिद्ध गान्धीवादी पाका को कुछ है ही नहीं। उनकी निन्दा करने से वे नाराज भी कालेलकर ने श्रवणबेलगोला (कर्णाटक) में स्थित भगवान नही होते है । तब उनकी पूजा से क्या लाभ है ? इसका बाहबलि की विश्वविख्यात नग्न मूति को देखकर जो भाव उत्तर यही है कि उनके पवित्र गुणो का स्मरण हमारे व्यक्त किये थे वे ध्यान देने योग्य है चित्त को पापो से बचाता है। इसी विषय में प्राचार्य "जब मैं कारकल के पास गोमटेश्वर की मति को समन्तभद्र ने बृहत्स्वयम्भू स्तोत्र में कहा हैदेखने गया उस समय हम स्त्री, पुरुष, बालक और वृद्ध न पूजयार्थस्त्वयि वीतराग न निन्दया नाथ विवान्तवरे । अनेक थे। हममे से किसी को भी इस मूर्ति का दर्शन तथापि तव पुण्य गुणस्मृतिर्नः पुनातु चित्त दुरिताञ्जनेभ्यः॥ करते समय सकोच जैसा कुछ भी मालूम नही हुमा । मैंने हे नाथ ! तुम वीतराग हो इसलिए तुम्हे अपनी पूजा अनेक नग्न मूर्तियाँ देखी है और मन विकारी होने के के से कोई प्रयोजन नही है, और वीत द्वेष होने के कारण बदले उल्टा इन दर्शनो के कारण ही निविकारी होने का निशाना निन्दा से भी कोई प्रयोजन नहीं है। फिर भी तुम्हारे अनुभव करता है। अत: हमारी नग्नता विषयक दृष्टि पवित्र गुणो की स्मृति हमारे चित्त को पापरूपी मल से और हमारा विकारो की पोर झुकाव दोनो बदर,ना बनाती चाहिए।" मूर्ति के द्वारा मूर्तिमान् की उपासना की जाती है तथा अभिषेक मूर्ति को देखते ही मूर्तिमान का स्मरण हो जाता है । मूर्ति पूजा के प्रारम्भ मे अभिषेक की परम्परा है। जिन मनुष्य के चचल चित्त को स्थिर रखने के लिए एक प्रतिमा का अभिषेक तीर्थकरो के जन्मकल्याण के समय मालम्बन है। उस पालम्बन के निमित्त से मनुष्य का सुमेरु पर्वत पर इन्द्र के द्वारा किये गये अभिषेक का ही चंचल चित्त कुछ क्षण के लिए पूज्य के गुण कीर्तन या प्रतिरूप है। इन्द्र ने केवल क्षीरसागर के जल से ही भगचितन मे लीन हो जाता है। मूर्ति पूजा उस प्रादर्श की वान का अभिषेक किया था। प्रत: शुद्ध पाम्नाय के अनुपूजा है जो प्राणिमात्र का सर्वोच्च लक्ष्य है । मूर्ति के द्वारा सार जल से अभिषेक करना ही ठीक है। फिर भी जैन हमे उस सूतिमान के स्वरूप को समझने में सहायता परम्परा मे कही-कही दूध, दधि, घृत मादि से भी अभिमिलती है। प्रतः वर्तमान काल में तो मूर्ति का होना षेक किया जाता है। यह परम्परा कब से चली? पञ्चाअत्यन्त प्रावश्यक है। ५० प्राशाधर जी ने मूर्ति की उप- मृत से सम्बन्ध रखने वाले दुग्ध, दधि, घृत इक्षरस पौर योगिता के विषय में सागारधर्मामृत में कहा है सौषधिरस का सर्वप्रथम स्पष्ट उल्लेख हरिवंश पुराण में मिलता है। किन्तु वरांगचरित्र में जो हरिवंशपुराण से धिक् दुःषमाकालरात्रि यत्र शास्त्रदशामपि । प्राचीन है, अभिषेक के समय दूध, दधि प्रादि से भरे हुए चंत्यालोकादृते न स्यात् प्रायो दवविशामतिः ।। कलशों का उल्लेख होते हुए भी उनसे अभिषेक किये जाने अर्थात् इस पंचमकाल मे शास्त्रवेत्तानो को भी मूर्ति के का उल्लेख नहीं है, केवल जल से ही अभिषेक का उल्लेख दर्शन के बिना देवबुद्धि नही होती है । है । पद्मपुराण में भी अभिषेक के लिए घृत, दूध मादि से जिनपूजा का उद्देश्य पुर्ण कलशों का उल्लेख है। किन्तु जिनसेन ने महापुराण जिनेन्द्र देव की पूजा किसी भौतिक सुख की कामना मे मोर उनके शिष्य गुणभद्र ने उत्तरपुराण मे जल से ही से नही की जाती है, किन्तु उसका उद्देश्य प्रात्मा मे अभिषेक करने का विधान किया है। सोमदेव ने उपानिर्मलता द्वारा प्राध्यात्मिक सुख और शान्ति को प्राप्ति सकाध्ययन में इक्षुरस, घृत, धारोष्ण दूध, दधि मोर पन्त
SR No.538031
Book TitleAnekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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